दयानंद की गाथा
हम आज एक ऋषिराज की पावन कथा सुनाते हैं।
आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं।।
हम कथा सुनाते हैं…..
हम एक अमर इतिहास के कुछ पन्ने पलटाते हैं।
आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं।
हम कथा सुनाते हैं…..
ऋषिवर को लाख प्रणाम, गुरुवर को लाख प्रणाम।
धर्मधुरन्धर मुनिवर को कोटि-कोटि प्रणाम,
कोटि-कोटि प्रणाम।।
भारत के प्रान्त गुजरात में एक ग्राम है टंकारा।
उस गाँव के ब्राह्मण कुल में जन्मा इक बालक प्यारा।
बालक के पिता थे करसन जी माँ थी अमृतबाई।।
उस दम्पती से हम सबने इक अनमोल निधि पाई।
हम टंकारा की पुण्यभूमि को शीश झुकाते हैं।। 1।।
फिर नामकरण की विधि हुई इक दिन कर्सन जी के
घर।
अमृत बा का प्यारा बेटा बन गया मूलशंकर।।
पाँचवे वर्ष में स्वयं पिता ने अक्षरज्ञान दिया।
आठवें वर्ष में कुलगुरु ने उपवीत प्रदान किया।
इस तरह मूलजी जीवनपथ पर चरण बढ़ाते हैं।। 2।।
जब लगा चौदहवाँ साल तो इक दिन शिवरात्रि
आई।
उस रात की घटना से कुमार की बुद्धि चकराई।।
जिस घड़ि चढ़े शिव के सिर पर चूहे चोरी-चोरी।
मूलजी ने समझी तुरंत मूर्तिपूजा की कमजोरी।
हर महापुरुष के लक्षण बचपन में दिख जाते हैं।। 3।।
फिर इक दिन माँ से पुत्र बोला माँ दुनियाँ है
फानी।
मैं मुक्ति खोजने जाऊँगा पानी है ये जिन्दगानी।।
चुपचाप सुन रहे थे बेटे की बात पिता ज्ञानी।
जल्दी से उन्होंने उसका ब्याह कर देने की ठानी।।
इस भाँति ब्याह की तैयारी करसन जी कराते हैं।।
4।।
शादी की बात को सुनके युवक में क्रान्तिभाव
जागे।
वे गुपचुप एक सुनसान रात में घर से निकल भागे।।
तेजी से मूलजी में आए कुछ परिवर्तन भारी।
दीक्षा लेकर वो बने शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी।।
हम कभी-कभी भगवान की लीला समझ न पाते हैं।।
5।।
फिर जगह-जगह पर घूम युवक ने योगाभ्यास किया।
कुछ काल बाद पूर्णानन्द ने उनको संन्यास दिया।।
जिस दिवस शुद्ध चैतन्य यहाँ संन्यासी पद पाए।
वो स्वामी दयानन्द सरस्वती उस दिन से कहलाए।।
हम जगप्रसिद्ध इस नाम पे अपना हृदय लुटाते हैं।। 6।।
संन्यास बाद स्वामी जी ने की घोर तपश्चर्या।
सच्चे सद्गुरु की तलाश यही थी उनकी दिनचर्या।।
गुजरात से पहुँचे विन्ध्याचल फिर काटा पन्थ बड़ा।
फिर पार करके हरिद्वार हिमालय का रस्ता
पकड़ा।।
अब स्वामीजी के सफर की हम कुछ झलक दिखाते
हैं।। 7।।
तीर्थों में गए मेलों में गए वो गए पहाड़ों में।
जंगल में गए झाड़ी में गए वो गए अखाड़ों में।।
हर एक तपोवन तपस्थलि में योगीराज ठहरे।
पर हर मुकाम पर मिले उन्हें कुछ भेद भरे चेहरे।।
साधू से मिले सन्तों से मिले वृद्धों से मिले स्वामी।
जोगी से मिले यतियों से मिले सिद्धों से मिले
स्वामी।।
त्यागी से मिले तपसी से मिले वो मिले अक्खड़ों से।
ज्ञानी से मिले ध्यानी से मिले वो मिले फक्कड़ों
से।।
पर कोई जादू कर न सका मन पर स्वामी जी के।
सब ऊँची दूकानों के उन्हें पकवान लगे फीके।।
योगी का कलेजा टूट गया वो बहुत हताश हुए।
कोई सद्गुरु न मिला इससे वो बहुत निराश हुए।।
आँखों से छलकते आँसू स्वामी रोक न पाते हैं।। 8।।
इतने में अचानक अन्धकार में प्रकटा उजियाला।
प्रज्ञाचक्षु का पता मिला इक वृद्ध सन्त द्वारा।।
मथुरा में रहते थे एक सद्गुरु विरजानन्द नामी।
उनसे मिलने तत्काल चल पड़े दयानन्द स्वामी।।
आखिर इक दिन मथुरा पहुँचे तेजस्वी संन्यासी।
गुरु के दर्शन से निहाल हुई उनकी आँखे प्यासी।।
गुरु के अन्तर्चक्षुने पात्र को झट पहचान लिया।
उसकी प्रतिभा को पहले ही परिचय में जान
लिया।।
सद्गुरु की अनुमति मांग दयानन्द उनके शिष्य बने।
आगे चलकर के यही शिष्य भारत के भविष्य बने।।
गुरु आश्रम में स्वामी जी ने जमकर अभ्यास किया।
हर विद्या में पारंगत बन आत्मा का विकास
किया।।
जो कर्मठ होते हैं वो मंझिल पा ही जाते हैं।। 9।।
गुरुकृपा से इक दिन योगिराज वामन से विराट बने।
वो पूर्ण ज्ञान की दुनियाँ के अनुपम सम्राट बने।।
सब छात्रों में थे अपने दयानन्द बड़े बुद्धिशाली।
सारी शिक्षा बस तीन वर्ष में पूरी कर ड़ाली।।
जब शिक्षा पूर्ण हुई तो गुरुदक्षिणा के क्षण आए।
मुट्ठीभर लौंग स्वामी जी गुरु की भेंट हेतु लाए।।
जो लौंग दयानन्द लाए थे श्रद्धा से चाव से।
वो लौंग लिए गुरुजी ने बड़े ही उदास भाव से।।
स्वामी ने गुरु से विदा माँगी जब आई विदा घड़ी।
तब अन्ध गुरु की आँख में गंगा-यमुना उमड़ पड़ी।।
वो दृश्य देखकर हुई बड़ी स्वामी को हैरानी।
पर इतने में ही मुख से गुरु के निकल पड़ी वाणी।।
जो वाणी गुरुमुख से निकली वो हम दोहराते हैं।।
10।।
गुरु बोले सुनो दयानन्द मैं निज हृदय खोलता हूँ।
जिस बात ने मुझे रुलाया है वो बात बोलता हूँ।।
इन दिनों बड़ी दयनीय दशा है अपने भारत की।
हिल गईं हैं सारी बुनियादें इस भव्य इमारत की।।
पिस रही है जनता पाखण्डों की भीषण चक्की में।
आपस की फूट बनी है बाधा अपनी तरक्की में।।
है कुरीतियों की कारा में सारा समाज बन्दी।
संस्कृति के रक्षक बनें हैं भक्षक हुए हैं स्वच्छन्दी।।
कर दिया है गन्दा धर्म सरोवर मोटे मगरों ने।
जर्जरित जाति को जकड़ा है बदमाश अजगरों ने।।
भक्ति है छुपी मक्कारों के मजबूत शिकंजों में।
आर्यों की सभ्यता रोती है पापियों के फंदों में।।
गुरु की वाणी सुन स्वामी जी व्याकुल हो जाते हैं।।
12।।
गुरु फिर बोले ईश्वर बिकता अब खुले बजारों में।
आया है भयंकर परिवर्तन आचार-विचारों में।।
हर चबूतरे पर बैठी है बन-ठन कर चालाकी।
उस ठगनी ने है सबको ठगा कोई न रहा बाकी।।
बीमार है सारा देश चल रही है प्रतिकूल हवा।
दिखता है नहीं कोई ऐसा जो इसकी करे दवा।।
हे दयानन्द इस दुःखी देश का तुम उद्धार करो।
मँझधार में है बेड़ा बेटा तुम बेड़ा पार करो।।
इस अन्ध गुरु की यही है इच्छा इस पर ध्यान धरो।
भारत के लिए तुम अपना सारा जीवन दान करो।।
संकट में है अपनी जन्मभूमि तुम जाओ करो रक्षा।
जाओ बेटे भारत के भाग्य का तुम बदलो नक्शा।।
स्वामी जी गुरु की चरणधूल माथे पे लगाते हैं।। 13।।
गुरु की आज्ञा अनुसार इस तरह अपने ब्रह्मचारी।
करने को देश उद्धार चल पड़े बनके क्रान्तिकारी।।
कर दिया शुरु स्वामी जी ने एक धुँआधार दौरा।
हर नगर-गाँव के सभी कुम्भकर्णों को झँकझोरा।।
दिन-रात ऋषि ने घूम-घूम कर अपना वतन देखा।
जब अपना वतन देखा तो हर तरफ घोर पतन देखा।।
मन्दिरों पे कब्जा कर लिया था मिट्टी के
खिलौनों ने।
बदनाम किया था भक्ति को बदनीयत बौनों ने।।
रमणियाँ उतारा करती थी आरती महन्तों की।
वो दृश्य देखती रहती थी टोली श्रीमन्तों की।।
छिप-छिप कर लम्पट करते थे परदे में प्रेमलीला।
सारे समाज के जीवन का ढाँचा था हुआ ढीला।।
यह देख ऋषि सम्पूर्ण क्रान्ति का बिगुल बजाते हैं।।
14।।
क्रान्ति का करके ऐलान ऋषि मैदान में कूद पड़े।
उनके तेवर को देख हो गए सबके कान खड़े।।
इक हाथ में था झंडा उनके इक हाथ में थी लाठी।
वो चले बनाने हर हिन्दू को फिर से वेदपाठी।।
हरिद्वार में कुम्भ का मेला था ऐसा अवसर पाकर।
पाखण्ड खण्डनी ध्वजा गाड़ दी ऋषि ने वहाँ
जाकर।।
फिर लगे घुमाने संन्यासी जी खण्डन का खाण्डा।
कितने ही गुप्त बातों का उन्होंने फोड़ दिया
भाँडा।।
धज्जियाँ उड़ा दी स्वामी ने सब झूठे ग्रन्थों की।
बखिया उधेड़ कर रख दी सारे मिथ्या पन्थों की।।
ऋषिवर ने तर्क तराजू पर सब धर्मग्रन्थ तोले।
वेदों की तुलना में निकले वो सभी ग्रन्थ पोले।।
वेदों की महत्ता स्वामी जी सबको समझाते हैं।।
15।।
चलती थी हुकूमत हर तीरथ में लोभी पण्ड़ों की।
स्वामी ने पोल खोली उनके सारे हथकण्ड़ों की।।
आए करने ऋषि का विरोध गुण्डे हट्टे-कट्टे।
पर अपने वज्रपुरुष ने कर दिए उनके दाँत खट्टे।।
दुर्दशा देश की देख ऋषि को होती थी ग्लानि।
पुरखों की इज्जत पर फेरा था लुच्चों ने पानी।।
बन गए थे देश के देवालय लालच की दुकानें।
मन्दिरों में राम के बैठी थीं रावण की सन्तानें।।
स्वामी ने हर भ्रष्टाचारी का पर्दाफाश किया।
दम्भियों पे करके प्रहार हरेक पाखण्ड का नाश
किया।।
लाखों हिन्दू संगठित हुए वैदिक झंडे के तले।
जलनेवाले कुछ द्वेषी इस घटना से बहुत जले।।
इस तरह देश में परिवर्तन स्वामी जी लाते हैं।। 16।।
कुछ काल बाद स्वामी ने काशी जाने की ठानी।
उस कर्मकाण्ड की नगरी पर अपनी भृकुटि तानी।।
जब भरी सभा में स्वामी की आवाज बुलन्द हुई।
तब दंग हो गए लोग बोलती सबकी बन्द हुई।।
वेदों में मूर्तिपूजा है कहाँ स्वामी ने सवाल किया।
इस विकट प्रश्न ने सभी दिग्गजों को बेहाल
किया।।
काशीवालों ने बहुत सिर फोड़ा की माथापच्ची।
पर अन्त में निकली दयानन्द जी की ही बात
सच्ची।।
मच गया तहलका अभिमानी धर्माधिकारियों में।
भारी भगदड़ मच गई सभी पंडित-पुजारियों में।
इतिहास बताता है उस दिन काशी की हार हुई।
हर एक दिशा में ऋषिराजा की जय-जयकार हुई।।
अब हम कुछ और करिश्में स्वामी के बतलाते हैं।। 17।।
उन दिनों बोलती थी घर-घर में मर्दों की तूती।
हर पुरुष समझता था औरत को पैरों की जूती।।
ऋषि ने जुल्मों से छुड़वाया अबला बेचारी को।
जगदम्बा के सिंहासन पर बैठा दिया नारी को।।
बदकिस्मत बेवाओं के भाग भी उन्होंने चमकाए।
उनके हित नाना नारी निकेतन आश्रम खुलवाए।।
स्वामी जी देख सके ना विधवाओं की करुण व्यथा।
करवा दी शुरु तुरन्त उन्होंने पुनर्विवाह प्रथा।।
होता था धर्म परिवर्तन भारत में खुल्लम-खुल्ला।
जनता को नित्य भरमाते थे पादरी और मुल्ला।।
स्वामी ने उन्हें जब कसकर मारा शुद्धि का चाँटा।
सारे प्रपंचियों की दुनियाँ में छा गया सन्नाटा।।
फिर भक्तों के आग्रह से स्वामी मुम्बई जाते हैं।।
18।।
भारत के सब नगरों में नगर मुम्बई था भाग्यशाली।
ऋषि जी ने पहले आर्य समाज की नींव यहीं
डाली।।
फिर उसी वर्ष स्वामी से हमें सत्यार्थ प्रकाश
मिला।
मन पंछी को उड़ने के लिए नूतन आकाश मिला।।
सदियों से दूर खड़े थे जो अपने अछूत भाई।
ऋषि ने उनके सिर पर इज्जत की पगड़ी बँधवाई।।
जो तंग आ चुके थे अपमानित जीवन जीने से।
उन सब दलितों को लगा लिया स्वामी ने सीने से।।
मुम्बई के बाद इक रोज ऋषि पंजाब में जा निकले।
उनके चरणों के पीछे-पीछे लाखों चरण चले।।
लाखों लोगों ने मान लिया स्वामी को अपना गुरु।
सत्संग कथा प्रवचन कीर्तन घर-घर हो गए शुरु।।
स्वामी का जादू देख विरोधी भी चकराते हैं।।
19।।
पंजाब के बाद राजपूताना पहुँचे नरबंका।
देखते-देखते बजा वहाँ भी वेदों का डंका।।
अगणित जिज्ञासु आने लगे स्वामी की सभाओं में।
मच गई धूम वैदिक मन्त्रों की दसों दिशाओं में।।
सब भेद भाव की दीवारों को चकनाचूर किया।
सदियों का कूड़ा-करकट स्वामी जी ने दूर किया।।
ऋषि ने उपदेश से लाखों की तकदीर बदल डाली।
जो बिगड़ी थी वर्षों से वो तस्वीर बदल ड़ाली।।
फिर वीर भूमि मेवाड़ में पहुँचे अपने ऋषि ज्ञानी।
खुद उदयपुर के राणा ने की उनकी अगुवानी।।
राणा ने उनको देनी चाही एकलिंग जी की गादी।
पर वो महन्त की गादी ऋषि ने सविनय ठुकरा दी।।
इतने में जोधपुर का आमन्त्रण स्वामी पाते हैं।। 20।।
उन दिनों जोधपुर के शासन की बड़ी थी बदनामी।
भक्तों ने रोका फिर भी बेधड़क पहुँच गए स्वामी।।
जसवतसिंह के उस राज में था दुष्टों का बोलबाला।
राजा था विलासी इस कारण हर तरफ था
घोटाला।।
एक नीच तवायफ बनी थी राजा के मन की रानी।।
थी बड़ी चुलबुली वो चुड़ैल करती थी मनमानी।
स्वामी ने राजा को सुधारने किए अनेक जतन।।
पर बिलकुल नहीं बदल पाया राजा का चाल-चलन।।
कुलटा की पालकी को इक दिन राजा ने दिया
कन्धा।
स्वामी को भारी दुःख हुआ वो दृश्य देख गन्दा।।
स्वामी जी बोले हे राजन् तुम ये क्या करते हो।
तुम शेर पुत्र होकर के इक कुतिया पर मरते हो।।
स्वामी जी घोर गर्जन से सारा महल गुँजाते हैं।।
21।।
राजा ने तुरत माफी माँगी होकर के शर्मिन्दा।
पर आग-बबूला हो गई वेश्या सह न सकी निन्दा।।
षडयन्त्र रचा ऋषि के विरुद्ध कुलटा पिशाचिनी ने।
जहरीला जाल बिछाया उस विकराल साँपिनी
ने।।
वेश्या ने ऋषि के रसोइये पर दौलत बरसा दी।
पाकर सम्पदा अपार वो पापी बन गया अपराधी।।
सेवक ने रात में दूध में गुप-चुप संखिया मिला दिया।
फिर काँच का चूरा ड़ाल ऋषिराजा को पिला
दिया।।
वो ले ऋषि ने पी लिया दूध वो मधुर स्वाद वाला।
पर फौरन स्वामी भाँप गए कुछ दाल में है काला।।
अपने सेवक को तुरन्त ही बुलवाया स्वामी ने।
खुद उसके मुख से सकल भेद खुलवाया स्वामी ने।।
पश्चातापी को महामना नेपाल भगाते हैं।। 22।।
आए डाक्टर आए हकीम और वैद्यराज आए।
पर दवा किसी की नहीं लगी सब के सब घबराए।।
तब रुग्ण ऋषि को जोधपुर से ले जाया गया आबू।
पर वहाँ भी उनके रोग पे कोई पा न सका काबू।।
आबू के बाद अजमेर उन्हें भक्तों ने पहुँचाया।
कुछ ही दिन में ऋषि समझ गए अब अन्तकाल आया।।
वे बोले हे प्रभू तूने मेरे संग खूब खेल खेला।
तेरी इच्छा से मैं समेटता हूँ जीवनलीला।।
बस एक यही बिनति है मेरी हे अन्तर्यामी।
मेरे बच्चों को तू सँभालना जगपालक स्वामी।।
जब अन्त घड़ि आई तो ऋषि ने ओ3म् शब्द बोला।
केवल ओम् शब्द बोला।
फिर चुपके से धर दिया धरा पर नाशवान् चोला।।
इस तरह ऋषि तन का पिंजरा खाली कर जाते हैं।।
23।।
संसार के आर्यों सुनो हमारा गीत है इक गागर।
इस गागर में हम कैसे भरें ऋषि महिमा का सागर।।
स्वामी जी क्या थे कैसे थे हम ये न बता सकते।
उनकी गुण गरिमा अल्प समय में हम नहीं गा सकते।।
सच पूछो तो भगवान का इक वरदान थे स्वामी जी।
हर दशकन्धर के लिए राम का बाण थे स्वामी जी।।
प्रतिभा के धनि एक जबरदस्त इन्सान थे स्वामी जी।
हिन्दी हिन्दू और हिन्दुस्थान के प्राण थे स्वामी
जी।।
क्या बर्मा क्या मॉरिशस क्या सुरिनाम क्या
फीजी।
इन सब देशों में विद्यमान् हैं आज भी स्वामी जी।।
केनिया गुआना त्रिनिदाद सिंगापुर युगण्डा।
उड़ रहा सब जगह बड़ी शान से आर्यों का झंड़ा।।
हर आर्य समाज में आज भी स्वामी जी मुस्काते हैं।।
24।।
ओ३म
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