*पुराणे कुछ कह रही है…* क्या पौराणिक सुनेगें ? क्या सुनकर विचारेगें ?? और क्या विचार कर स्वीकारेगें ???
यूं तो हमेशा आर्य समाजी बन्धु पुराणों के खिलाफ ही लिखते है | लिखने का कारण कोई द्वेष नहीं अपितु अपने प्रिय बन्धुओं को वेद मार्गी बनाना है |
वेद मार्गी बनने से हिन्दु भाई विशेषकर पौराणिक संगठित होगे जिससे एक ईश्वर की उपासना करेगें तो नित्य नये भगवानों के बनने पर रोक लग सकेगें |
वैसे तो पुराणे वेदानुकूल इतनी ही है जितना *आटे में नमक* पर नमक का भी अपना महत्तव तो है ही | आज में अपने पौराणिक बन्धु को वहीं पुराणों का वेदानुकूल नमक चखाना चाहता हुँ |
पहले पहल थोड़ा कड़वा या कहे बकबका सा लग सकता है पर मुझे आशा है कि सत्य के ग्राहक इसे चख लेगें |
पौराणिक समाज प्रायः ईश्वर को जन्मा अर्थात् समय समय पर अवतार लेने वाला मानता है परन्तु जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी निश्चित् है और जो जन्म मृत्यु वाला है वो ईश्वर कैसा ?
पौराणिकों की इस मिथ्या मान्यता पर लिंग पुराण अ० २ का श्लोक २० चोट करता हुआ ईश्वर का *अजन्मा* बता रहा है…
*“प्रधानपुरूषोतीतं प्रल्योत्त्पत्तिवर्जितम् ||”*
अर्थात्
परमात्मा प्रकृति और जीव से परे तथा *उत्तपत्ति और विनाश* से रहित है ||
पौराणिक समाज जहाँ ईश्वर को जन्मा के साथ साकार भी मानते है वहाँ उनके लिए विष्णु पुराण ४.१.८४ का श्लोक बड़े महत्तव का है…
*“कलामुहूर्तादिमयश्च कालो न यद्विभूतेः परिणामहेतुः | अजन्मानाशस्य सैदकमूर्तेरनामरूपस्य सनातनस्य ||”*
अर्थात्
कला, मुहूर्त्त आदिमय काल भी जिसकी विभूति के परिणाम का कारण नहीं हो सकता, *जिसका जन्म और मरण नहीं होता*, जो सनातन और सर्वदा एक रूप है तथा *जो नाम रूप से रहित* है ||
शिवपुराण वासुसंहिता अ० ४ का श्लोक ८७ भी पौराणिको की साकार मान्यता पर चोट करता हुआ कहता है कि…
*“अचक्षुरपि यः पश्यत्यकर्णोSपि श्रृणोति यः | सर्वं वेत्ति न वेत्तास्य तमाहुः पुरूषः परम् ||*
अर्थात्
बिना आँखों के भी वह देखता है, बिना कानों के भी सुनता है, वह सबको जानता है, उसको पूर्णतः जाननेवाला कोई नहीं है, उसको परम पुरूष कहा जाता है |
आप ऊपर देख चुके है कि पुराणों ने भी ईश्वर को निराकार स्वीकार कर लिया है | और जो निराकार है उसकी प्रतिमा या मूर्ति कैसी ? ऐसे जो ईश्वर को मूर्ति मानकर पूजते है और उसको तीर्थ स्थानो में खोजते है ऐसे लोगो को श्रीमद्भागवत १०.८४.१३ में *गधा* कहा गया है…
*"यस्यात्मबुध्दिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी कलत्रादिषु भौम इज्यधीः | यत्तीर्थबुध्दिः सलिले न कर्हिचिज् जनेष्वभिजेषु स एव गोखरः ||”*
अर्थात्
वात पित कफ़ तीनों मलों से बने हुए शरीर में जो आत्मा बुध्दि, स्त्री आदि में स्वबुध्दि, *पृथ्वी से बनी हुई मूर्तियों में जो पूज्य बुध्दि और पानी में तीर्थ बुध्दि कभी भी करता है* वह *गधा* है ||
देवीभागवत पुराण शाक्तों का मूल ग्रन्थ है | मूर्ति पूजा और तीर्थ के सम्बन्ध में देवी भागवत पुराण ९.७.५२ बहुत महत्त्पूर्ण बात कहता है कि…
*“न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयः | ते पुनन्त्युरू कालेन, विष्णुभक्ताः क्षणादिह ||”*
अर्थात्
*पानी के तीर्थ नहीं होते, मिट्टी और पत्थरों के देवता नहीं होते, वे किसी काल में पवित्र नहीं करते,* प्रभु भक्त को इस संसार में क्षणभर में पवित्र कर देते हैं ||
ऊपर हमने पुराणों के कुछ ऐसे श्लोक रखे जो वेदानुकूल है और *वेद ईश्वरवाणी होने से परम प्रमाण है* अतः पौराणिक बन्धुओं को गम्भीरता से विचार करना चाहिए |
और जो अब भी अपनी अपनी ही करेगा उन पौराणिक पण्डितों के लिए भागवत महात्म्य अ० १ श्लोक ७५ जो फ़रमाता है वो वाकई गम्भीर है…
*“पण्डितास्तु कलत्रेण रमन्ते महिषा इव | पुत्रस्योत्पादने दक्षा अदक्षा मुक्तिसाधने ||*
अर्थात्
पंडितों की यह दशा है कि वे अपना स्त्रियों के साथ *भैसों की तरह रमण करते हैं,* उनमें सन्तान पैदा करने की ही कुशलता पाया जाती है, *मुक्ति साधन में सर्वथा अकुशल हैं ||*
इस लेख को लिखने का मेरा उद्देश्य किसी भी भावना को ठेस पहुचाना नहीं है अपितु *वैदिक मान्यताओं* का दर्शन कराना है जिसे *आर्य समाज* भी मानता है |
पौराणिकों का आर्य समाज को अपना शत्रु मानना स्वयं अपने साथ छल करना है | आर्य समाजी की ईश्वर भक्ति, और राष्ट्र भक्ति पर संशय नहीं किया जा सकता |
कृप्या अपके किसी भी टिका टिप्पणी या आक्षेप या सुक्षाव के लिए नीचे दिए Fb Page पर आपका स्वागत है |
इति ओ३म् …!!!
पाखण्ड खंडन… वैदिक मण्डण… रिटर्न…
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