नवरात्रि का त्यौहार और अर्थ-बोध
चिरातीत से भारत के लोग आश्विन मास की शुक्ल प्रतिपदा से लेकर नवमी तक नवरात्रि का त्यौहार भक्ति भावना और उत्साह से मनाते चले जाते हैं. इस त्यौहार के प्रारंभ में ही लोग ‘कलश’ की स्थापना करते हैं और अखंड दीप जगाते हैं जो लगातार नव दिंन और रात जागता रहता है. वे इन दिनों कन्या-पूजन करते, नियम पालन करते, जागरण तथा व्रत-उपवास करते तथा दुर्गा, काली, सरस्वती आदि का पूजन करते हैं.
प्रश्न उठता है कि 'आदि शक्ति’ का क्या स्वरूप है, सरस्वती, दुर्गा आदि का क्या वास्तविक परिचय है और अतीत काल में कन्याओं ने क्या महान कार्य किया था जिसकी स्मृति में आज तक नवरात्रि में उनका पूजन होता है?
नवरात्रि से संबंधित तीन प्रसंग
इस विषय में जानकारी के लिए नवरात्रि से संबंधित तीन मुख्य प्रसंग, जिनको कथा रूप में भक्त- जन सविस्तार सुना करते हैं, सहायक सिद्ध हो सकते हैं. उनमें से एक आख्यान में तो यह कहा गया है कि पिछली चतुरयुगी के अन्तिम चरण में जब विश्व विनाश निकट था, तब मधु और कैटभ नामक असुरों ने देवी-देवताओं को अपना बंदी बनाया हुआ था और तब श्री नारायण भी मोह निद्रा में सोए हुए थे. तब ब्रह्मा जी के द्वारा आदि कन्या प्रगट हुई. उसने नारायण को जगाया और उन्होने मधु तथा कैटभ का नाश कर देवी-देवताओं को मुक्त कराया. दूसरे आख्यान में कहा गया है कि 'महिषासुर’ नामक असुर ने स्वर्ग के सभी देवी-देवताओं को पराजित किया हुआ था. त्रिदेव की शक्ति से एक कन्या के रूप में जो 'आदि शक्ति’ प्रगट हुई, वह दिव्य अस्त्रों-शास्त्रों से सुससज्जित थी, त्रिनेत्र थी और अष्ट भुजाओं वाली थी. उसने महिषासुर का वध किया और देवी-देवताओं को मुक्त कराया. तीसरे प्रसंग में कहा गया है की सूर्य के वंश में शुंभ और निशुंभ नामक दो असुर पैदा हुए, उनके प्रधान कार्यकर्ता का नाम रक्तबिंदु था, सेनापति का नाम धूम्रलोचन था और उसके दो मुख्य सहायकों का नाम चन्ड और मुण्ड था. शिव की शक्ति से 'आदि कुमारी’ प्रगट हुई और उसके विकराल रूप से काली प्रगट हुई. उसने चन्ड -मुण्ड का विनाश किया और फिर कालिका ने अपनी योगिनी शक्ति द्वारा धूम्रलोचन और रक्तबिंदु का भी विनाश किया. आख्यान में बताया गया है कि रक्त बिंदु की यह विशेषता थी कि यदि उसके रक्त का एक भी बिंदु गिर जाता तो उस बीज से एक और असुर पैदा हो जाता था. आदिशक्ति ने रक्त बिंदु का इस तरह विनाश किया कि उसका वक् भी बिंदु अथवा बीज नहीं रहा.
शब्दार्थ या भावार्थ
अब देखा जाए तो वास्तव में तो इन आख्यानों में रूपक अलंकार के द्वारा विश्व के एक बहुत ही महत्वपूर्ण वृतांत का वर्णन किया गया है. परंतु लोग प्रायः इसका शब्दार्थ ही ले लेते हैं जिससे वे सत्य-बोध से वंचित रह जाते हैं. वास्तव में किसी एक या किन्हीं दो असुरों द्वारा सभी देवी-देवताओं के परास्त होने की बात शब्दार्थ में तो किसी के गले के नीचे उतरना भी मुश्किल है. हाँ, भावार्थ में यह वृतांत बहुत महत्वपूर्ण है. वास्तव में 'मधु’ और कैटभ’ 'मीठे’ और 'विकराल’ अर्थ के वाचक होने से 'राग’ और द्वेष’ के प्रतीक हैं और 'असुर’ शब्द 'आसुरी लक्षणों’ या मनोविकारों’ का बोधक है. 'काम’, 'मोह’ और लोभ’ - 'मधु’ नामक 'असुर’ हैं और 'क्रोध’ तथा 'अहंकार’, 'कैटभ’ हैं. इसी प्रकार 'महिष’ शब्द का अर्थ 'भैंस’ हैं. भैंस 'मंद बुद्धि’, 'अविवेक’ तथा तमोगुण का प्रतीक है. तभी तो एक प्रश्नोक्ति भी है - “अक्ल बड़ी कि भैंस?” 'धूम्रलोचन का अर्थ है धुएँ वाली आँखें. अतः यह ईर्ष्या और बुरी दृष्टि का वाचक है. शुंभ और निशुंभ हिंसा और द्वेष आदि के वाचक हैं.
वास्तविक भाव
अतः तीनों आख्यानों का वास्तविक भाव यह है कि पिछली चतुरयुगी के अंत में जब विनाश काल निकट था और सृष्टि पर अज्ञान तथा तमोगुण रूपी रात्रि छाई हुई थी, तब राग (मधु) और द्वेष (कैटभ) ने (शुंभ और निशुंभ) उन सभी नर-नारियों को जो कि सतयुग में दिव्यता संपन्न होने से देवी-देवता थे परंतु धीरे-धीरे अपवित्रता की ओर अग्रसर होते आए थे, अपना बंदी बना रखा था. यहाँ तक की सतयुग के आरंभ में जो देव-शिरोमणि 'श्री नारायण’ थे, अब वे भी जन्म-जन्मान्तर के बाद मोह-निद्रा में विलीन थे. ऐसी धर्म-ग्लानि के समय परमपिता शिव ने त्रिदेव के द्वारा भारत की कन्याओं को ग्यान, योग तथा दिव्य गुण रूप शक्ति से सुसज्जित किया. यह ज्ञान ही उनका तीसरा नेत्र था और अंतर्मुखा, सहनशीलता आदि दिव्य शक्तियाँ ही उनकी अष्ट भुजाएँ थी. इन्हीं शक्तियों के कारण वे 'आदि शक्ति’ अथवा 'शिव शक्ति’ कहलाईं. इन आदि कुमारियों अथवा शक्तियों ने भारत के नर-नारियों को जो कि सतयुग में देवी-देवता थे, जगाया और उन्हें उत्साहित करके आसुरी प्रवृतियों का नाश किया - ऐसा की उनका बीज, अंश या बिंदु भी नहीं रहने दिया कि जिससे संसार में फिर आसुरियता पनप सके. उन द्वारा ज्ञान दिए जाने की यादगार के रूप में आज नवरात्रियों के प्रारंभ में 'कलश’ की स्थापना की जाती है. उन द्वारा जगाए जाने की स्मृति में आज भक्तजन जागरण करते हैं तथा योग द्वारा आत्मिक प्रकाश किए जाने के कारण ही वे अखंड दीप जगाते हैं. उन कन्याओं के महान कर्तव्य के कारण ही वे हर वर्ष इन दिनों कन्या-पूजन करते हैं और सरस्वती, दुर्गा, आदि से प्रार्थना करते है कि “हे अम्बे, हे माँ, मेरी ज्योति जगा दो, और मुझे ऐसी शक्ति प्रादान करो की मेरे अंतर का अंधकार मिट जाए.”
आत्मा का दीपक जगाओ
परंतु जन-जन को यह मालूम नहीं है कि अब पुनः कलियुग के अंत का समय चल रहा है और पुनः आसुरियता तथा भ्रष्टाचार का बोलबाला है तब परमपिता शिव पुनः कन्याओं को ज्ञान शक्ति देकर पुनः कार्य करा रहे हैं और इसलिए हम सभी का कर्तव्य है की हम केवल जयघोष या कर्मकांड में ही न लगे रहें बल्कि अपने मन में बैठे महिषासुर, मधु-कैटभ, रक्त बिंदु या धूम्रलोचन का नाश कर दें. वास्तव में ज्ञान द्वारा आत्म-ज्योति जागना ही सच्चा दीप जगाकर सही रूप में नवरात्रि मनाना है. यही नारायण द्वारा मोह-निद्रा को छोड़ना तथा मधु-कैटभ को मारना या (आध्यात्मिक) शक्ति द्वारा महिषासुर किंवा धूम्र लोचन और रक्त बीज आदि का संहार करना है.
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