ओ३म्
*🌷ईश्वर का आश्रय ही सबसे बड़ा आश्रय🌷*
ईश्वर कहता है―
*अहमिन्द्रो न परा जिग्य इद्धनं न मृत्यवेऽव तस्थे कदा चन ।*
*सोममिन्मा सुन्वतो याचता वसु न मे पूरवः सख्ये रिषाथन ।।*
―(ऋ० १०/४८/५)
*भावार्थ―*मैं परमैश्वर्यवान् सूर्य के सदृश सब जगत् का प्रकाश हूँ। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूँ।मैं ही जगद्रूप धन का निर्माता हूँ। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले मुझ ही को जानो। हे जीवो ! ऐश्वर्य-प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझसे माँगो और तुम लोग मेरी मित्रता से अलग मत होओ।
कठोपनिषद् में यमाचार्य ने ईश्वर को ही परमाश्रय बताते हुए कहा है―
*एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।*
*एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ।।*
―(कठ० २/१७)
*अर्थात्―*यह आश्रय श्रेष्ठ है, यह आश्रय सर्वोपरि है। इस आलम्बन को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक में आनन्दित होता है।
ईश्वर को परमाश्रय मानने की बात कवि रहीम ने सुन्दर शब्दों में कही है―
*अमरबेलि बिन मूल की, प्रतिपालत है ताहि ।*
*रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ।।*
*अर्थात्―*जो परमात्मा बिना जड़ की अमरबेल को पालता है, ऐसे प्रभु को छोड़कर तुम किसको खोजते हो? अर्थात् ईश्वर का सहारा पकड़ो, और किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है।
*अतः मनुष्य को ईश्वर पर ही भरोसा रखना चाहिए। बच्चों के समान दिये गये झूठे दिलासों से क्या होता है ?*
भर्तृहरि जी ने इस सनदर्भ में धनवानों के दरवाजे पर जाकर माँगने वालों को एक उपयोगी परामर्श दिया है―
*नायं ते समयो रहस्यमधुना निद्राति नाथो यदि*
*स्थित्वा द्रक्ष्यति कुप्यति प्रभुरिति द्वारेषु येषां वचः ।*
*चेतस्तानपहाय याहि भवनं देवस्य विश्वेशितुर्*
*निर्द्रौर्वारिक निर्दयोक्त्यपरुषं निःसीमशर्मप्रदम् ।।*
―(वै० श० ८५)
*अर्थात्―*जब कोई याचक धनवान् के दरवाजे पर जाता है तो दरबान उससे कहता है कि अभी उनसे मिलने का समय नहीं हैं, वे अभी गुप्त परामर्श कर रहे हैं। अभी स्वामी तो सो रहे हैं। यदि स्वामी ने तुम्हें देख लिया तो क्रोध प्रकट करेंगे। हे मन ! जिनके दरवाजे पर ऐसी बातें सुननी पड़ती हैं तू उनके दरवाजे को छोड़कर उस परमपिता परमात्मा के दरवाजे पर जा जहाँ तुझे कोई दरबान नहीं मिलेगा। वहाँ कठोर बात सुनने को नहीं मिलेगी। परमात्मा का भवन असीम कल्याण का देने वाला है।
*सच्चे विरक्त केवल ईश्वर के आगे ही झुकते हैं। वे संसार के किसी शासक के आगे नहीं झुकते। एक बार लोगों ने सिकन्दर लोधी से सन्त कबीर की शिकायत की कि वे इस्लाम का खण्डन करके अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं।सिकन्दर लोधी ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया। सन्त कबीर ने न लोधी का अभिवादन किया न सत्कार। सिकन्दर लोधी ने इसका कारण पूछा। उन्होंने उत्तर दिया कि मैं केवल ईश्वर के आगे ही सिर झुकाता हूँ; अन्य किसी राजा के आगे शीश नहीं झुकाता। बादशाह ने उनके हाथों में हथकड़ी और पाँव में बेड़ी डलवाकर नदी में छुड़वा दिया। सन्त कबीर को कोई हानि नहीं हुई। अन्त में सिकन्दर लोधी को बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसने कबीर से क्षमा माँगी।*
*महर्षि दयानन्द भी परमात्मा को परमाश्रय समझते थे। उदयपुर के महाराणा ने जब महर्षि से यह कहा कि “भले ही आप मूर्त्तिपूजा न करें, परन्तु मूर्त्तिपूजा का खण्डन न करें।” तो इस पर महर्षि ने उत्तर दिया, “मैं एक दौड़ लगाऊँ तो भी आपके राज्य को पार कर सकता हूँ, परन्तु यदि जन्म-जन्मान्तर की दौड़ लगाऊँ तो भी परमात्मा के राज्य से बाहर नहीं निकल सकता।बताओ आपकी आज्ञा का पालन करुँ कि ईश्वर की आज्ञा का पालन करुँ ?”*
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