३ चैत्र 16 मार्च 2016
😶 “ कुटिलता व हिंसारहित यज्ञ में परमात्म-व्याप्ति ! ” 🌞
🔥🔥 ओ३म् अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । 🔥🔥
🍃🍂 स इद् देवेषु गच्छति ।। 🍂🍃
ऋ०:० १। १ ।४
ऋषि:- मधचच्छन्दा: ।। देवता- अग्नि: ।। छन्द:- गायत्री ।।
शब्दार्थ- हे परमात्मन्! तुम जिस कुटिलता तथा हिंसा से रहित यज्ञ को सब ओर से व्याप लेते हो केवल वही यज्ञ दिव्य फल लाता है।
विनय:- हम कई शुभ अभिलाषाओं से कुछ यज्ञों को प्रारम्भ करते हैं और चाहते हैं कि यज्ञ सफल जो जाएँ, परन्तु हे देवों के देव अग्निदेव! कोई भी यज्ञ तब तक सफल नहीं हो सकता जबतक कि उस यज्ञ में तुम पूरी तरह न व्याप रहे हो, चूँकि जगत् में तुम्हारे अटल नियमों व तुम्हारी दिव्य-शक्तियों के अर्थात् देवों के द्वारा ही सब कुछ सम्पन्न होता है। तुम्हारे बिना हमारा कोई यज्ञ कैसे सफल हो सकता है? और जिस यज्ञ में तुम व्याप्त हो वह यज्ञ अध्वर तो अवश्य होना चाहिए, पर जब हम यज्ञ प्रारम्भ करते हैं, कोई शुभ कर्म करते हैं, किसी संघ-संघठन में लगते हैं, परोपकार का कार्य करने लगते हैं तो मोहवश तुम्हें भूल जाते हैं। उसकी जल्दी सफलता के लिए हिंसा और कुटिलता से भी काम लेने को उतारू हो जाते हैं। तभी तुम्हारा हाथ हमारे ऊपर से उठ जाता है। ऐसा यज्ञ तुम्हारे देवों को स्वीकृत नहीं होता, उन्हें नहीं पहुँचता-सफल नहीं होता।
हे प्रभो!
अब जब कभी हम निर्बलता के वश अपने यज्ञों में कुटिलता व हिंसा का प्रवेश करने लगें और तुझे भूल जाएँ तो हे प्रकाशक देव! हमारे अन्तरात्मा में एक बार इस वैदिक सत्य को जगा देना; हमारा अन्तरात्मा बोल उठे कि “हे अग्ने! जिस कुटिलता व हिंसा-रहित यज्ञ को तुम सब ओर से घेर लेते हो, केवल यही यज्ञ देवों में पहुँचता है, अर्थात् दिव्य फल लाता है- सफल होता है।” सचमुच तुम्हें भुलाकर, तुम्हें हटाकर यदि किसी संघठन-शक्ति द्वारा कुटिलता व हिंसा के ज़ोर पर कुछ करना चाहेंगे तो चाहे कितना घोर उद्योग करें पर हमें कभी सफलता न मिलेगी।
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ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे
🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚
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