जीवन, चेष्टा नहीं है, समर्पण है। “लेट गो” है; छोड़ देना है। जितना तुम लड़ोगे उतना ही तुम मुश्किल में पड़ोगे। अहंकार संघर्ष है, समर्पण असंघर्ष की दशा है।
पर तब सभी स्वीकार कर लेना है छोड़ कर। फिर जो उसकी मर्जी! जैसा वह रखे, जैसा वह चलाए, जहां वह ले जाए, जो वह करे।
अचानक तुम पाओगे, सब हलका हो गया। गरीब रखे तो गरीब; अमीर रखे तो अमीर।
स्वर्ग ले जाए तो स्वर्ग; नरक ले जाए तो नरक।
जिस दिन तुमने सब उसके हाथ पर छोड़ दिया, उसका हाथ तत्क्षण तुम्हें सम्हाल लेता है। उसके हाथ का सवाल है। उसके हाथ में हाथ हो, तो नरक स्वर्ग हो जाता है। दुःख सुख हो जाते हैं। पीड़ाएं बड़े अपूर्व आनंद में रूपांतरित हो जाती हैं। क्षुद्र विराट हो जाता है।
सीमा तो अहंकार की है, समर्पण की कोई सीमा नहीं। तत्क्षण, अहंकार के गिरते ही तुम असीम हो जाते हो।
अभी तक तुमने समझा था। तुम दीवाल में घिरे आंगन हो; अब तुम सब जानते हो तुम सब तरफ फैले आकाश हो।
“मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कछु है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।।”
ओशो
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