ओउम विषय: गीता में वर्णित सर्वोत्कृस्ट तत्व (कर्मयोग) (भाग-37) लेखक: राजिंदर वैदिक —————————– (गीता.अ.6 /45 )उस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करने के लिए दृढ़ कठोर अभ्यास करता है. इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक उधोग करते-करते पापों से शुद्ध होता हुआ कर्मयोगी अनेक जन्मो के अनन्तर सिद्धि पाकर अंत में उत्तम गति को पा लेता है. मोक्ष प्राप्त कर लेता है.(गीता.अ.6 /46 ) श्री कृष्ण जी यहाँ स्पस्ट कर रहे है की सिर्फ तप करने वाले लोगो की अपेक्षा कर्मयोगी श्रेष्ठ है, और जो केवल तर्क-वितर्क करने वाले तोतारटन्त विद्वान है, उनकी अपेक्षा भी कर्मयोगी श्रेष्ठ है. और जो कर्म-कांड वाले, बाहरी यज्ञो को पूर्ण करने वाले है, उनकी अपेक्षा भी कर्मयोगी श्रेष्ठ है. इसलिए हे अर्जुन! तू योगी बन. अर्थार्त कर्मयोगी हो , अर्थार्त अपनी आत्मा प्राप्ति (जानने) का अभ्यास करो, जिससे तुम्हारी बुद्धि सम हो जाये. अपनी आत्मा को अभ्यास द्वारा जानकर फिर तू सब प्राणियों में उसी एक “आत्मा” के दर्शन कर और फिर उस सब जगह फैले हुए परमात्मा का सम बुद्धि से भजन कर, (गीता.अ.6/47) क्योकि हे अर्जुन! सब कर्मयोगियों में भी उसे ही सबसे उत्तम सिद्ध कर्मयोगी समझता हु, की जो परमात्मा में अंतःकरण रखकर श्रद्धा से परमात्मा को भजता है. अर्थार्त जो परमात्मा का ज्ञान पाकर कृतार्थ हो जाने से आगे कुछ प्राप्त न करना हो, तो भी निष्काम बुद्धि से भक्ति करता है. वह परमात्मा को अत्यंत प्रिय होता है. फिर उसका जन्म-मरण अर्थार्त पुनर्जन्म छूट जाता है. वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है.
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