*सत्यार्थ प्रकाश छठा समुल्लास*
भाग ६
_किस-किस को क्या-क्या अधिकार देना योग्य है—_
*अमात्ये दण्ड आयत्तो दण्डे वैनयिकी क्रिया। *
*नृपतौ कोशराष्ट्रे च दूते सन्धिविपर्ययौ॥1॥ *
*दूत एव हि सन्धत्ते भिनत्त्येव च संहतान्। *
*दूतस्तत्कुरुते कर्म भिद्यन्ते येन वा न वा॥2॥ *
*बुद्ध्वा च सर्वं तत्त्वेन परराजचिकीर्षितम्। *
*तथा प्रयत्नमातिष्ठेद् यथात्मानं न पीडयेत्॥3॥ *
*धनुर्दुर्गं महीदुर्गमब्दुर्गं वार्क्षमेव वा। *
*नृदुर्गं गिरिदुर्गं वा समाश्रित्य वसेत् पुरम्॥4॥ *
*एकः शतं योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः। *
*शतं दशसहस्राणि तस्माद् दुर्गं विधीयते॥5॥ *
*तत्स्यादायुधसम्पन्नं धनधान्येन वाहनैः। *
*ब्राह्मणैः शिल्पिभिर्यन्त्रैर्यवसेनोदकेन च॥6॥ *
*तस्य मध्ये सुपर्याप्तं कारयेद् गृहमात्मनः। *
*गुप्तं सर्वर्त्तुकं शुभ्रं जलवृक्षसमन्वितम्॥7॥ *
*तदध्यास्योद्वहेद्भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्। *
*कुले महति सम्भूतां हृद्यां रूपगुणान्विताम्॥8॥ *
*पुरोहितं प्रकुर्वीत वृणुयादेव चर्त्विजम्। *
*तेऽस्य गृह्याणि कर्माणि कुर्युर्वैतानिकानि च॥9॥मनु॰॥*
अमात्य को दण्डाधिकार, दण्ड में विनय क्रिया अर्थात् जिस से अन्यायरूप दण्ड न होने पावे, राजा के आधीन कोश और राजकार्य तथा सभा के आधीन सब कार्य और दूत के आधीन किसी से मेल वा विरोध करना अधिकार देवे॥1॥
दूत उस को कहते हैं जो फूट में मेल और मिले हुए दुष्टों को फोड़ तोड़ देवे। दूत वह कर्म करे जिस से शत्रुओं में फूट पड़े॥2॥
वह सभापति और सब सभासद् वा दूत आदि यथार्थ से दूसरे विरोधी राजा के राज्य का अभिप्राय जान के वैसा यत्न करे कि जिस से अपने को पीड़ा न हो॥3॥
इसलिये सुन्दर जङ्गल, धन धान्ययुक्त देश में *(धनुर्दुर्गम्)* धनुर्धारी पुरुषों से गहन *(महीदुर्गम्)* मट्टी से किया हुआ *(अब्दुर्गम्)* जल से घेरा हुआ *(वार्क्षम्)* अर्थात् चारों ओर वन *(नृदुर्गम्)* चारों ओर सेना रहे *(गिरिदुर्गम्)* अर्थात् चारों ओर पहाड़ों के बीच में कोट बना के इस के मध्य में नगर बनावे॥4॥
और नगर के चारों ओर (प्राकार) प्रकोट बनावे, क्योंकि उस में स्थित हुआ एक वीर धनुर्धारी शस्त्रयुक्त पुरुष सौ के साथ और सौ दश हजार के साथ युद्ध कर कर सकते हैं इसलिये अवश्य दुर्ग का बनाना उचित है॥5॥
वह दुर्ग शस्त्रास्त्र, धन, धान्य, वाहन, ब्राह्मण जो पढ़ाने उपदेश करने हारे हों (शिल्पी) कारीगर, यन्त्र, नाना प्रकार की कला, (यवसेन ) चारा घास और जल आदि से सम्पन्न अर्थात् परिपूर्ण हो॥6॥
उस के मध्य में जल वृक्ष पुष्पादिक सब प्रकार से रक्षित सब ऋतुओं में सुखकारक श्वेतवर्ण अपने लिये घर जिस में सब राजकार्य का निर्वाह हो वैसा बनवावे॥7॥
इतना अर्थात् ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ के यहां तक राजकाम करके पश्चात् सौन्दर्य रूप गुणयुक्त हृदय को अतिप्रिय बड़े उत्तम कुल में उत्पन्न सुन्दर लक्षणयुक्त अपने क्षत्रियकुल की कन्या जो कि अपने सदृश विद्यादि गुण कर्म स्वभाव में हो उस एक ही स्त्री के साथ विवाह करे दूसरी सब स्त्रियों को अगम्य समझ कर दृष्टि से भी न देखे॥8॥
पुरोहित और ऋत्विज् का स्वीकार इसलिये करे कि वे अग्निहोत्र और पक्षेष्टि आदि सब राजघर के कर्म किया करें और आप सर्वदा राजकार्य में तत्पर रहै अर्थात् यही राजा का सन्ध्योपासनादि कर्म है जो रात दिन राजकार्य में प्रवृत्त रहना और कोई राजकाम बिगड़ने न देना॥9॥
*क्रमश :*
from Tumblr http://ift.tt/2bb37lp
via IFTTT
No comments:
Post a Comment