ओ३म्
*🌷ओ३म् की महिमा🌷*
*ओ३म् नाम सबसे बड़ा उससे बड़ा न कोय।*
*जो उसका सुमिरन करे शुद्ध आत्मा होय।।*
_परमात्मा का मुख्य का नाम ओ३म् है।जिसका अर्थ है रक्षा करने वाला।_
_परमेश्वर ने मनुष्य को सभी प्राणियों में श्रेष्ठ बनाया है।इसलिए मनुष्य का कर्त्तव्य होता है कि वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी देवताओं की पूजा न करें।जो मनुष्य श्रद्धा और प्रेम से सुबह शाम ओ३म् के नाम का जाप करता है,ऐसे मनुष्य का जीवन हमेशा सुख से व्यतीत होता है।जो मनुष्य ईश्वर के नाम के जाप में आलस्य करता है,उसे जीवन में कभी शांति नहीं मिलती है और न उसे अभी सुख मिलता है।जो मनुष्य अपने को उन्नति के शिखर पर ले जाना चाहता है,वह परमेश्वर के नाम का सुमिरन अवश्य करे।_
_जो यह सोचता है कि परमेश्वर का नाम लेने से क्या लाभ है? तो समझो वह अपनी मूर्खता का परिचय दे रहा है।जिस परमेश्वर ने हमें इतना अमूल्य मानव शरीर दिया है उसके नाम के लिये क्या हम 24 घण्टों में से एक-दो घण्टा भी नहीं निकाल सकते,तो समझो ये हमारा दुर्भाग्य ही है।ये बहुत कृतघ्नता है।जिसने मनुष्य शरीर दिया है उसी को भूल जाना,और इससे बडी गलती क्या होगी?_
_मनुष्य रोज अपने दैनिक कार्यों में अपना पूरा दिन लगा देता है।मनुष्य को टी.वी. देखने,बेफिजूल काम करने के समय है पर ईश्वर भक्ति के लिए समय नहीं है,ये मानव जीवन का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है।_
_योग का उद्देश्य भी ईश्वर को पाना है।योगदर्शन में कहा है―"ओ३म् के जाप से ईश्वर का साक्षात्कार होता है और योगमार्ग में आने वाले समस्त विघ्नो़ का नाश होता है।"_
_किसी कवि ने सही कहा है―_
*किसी ने पूछा कि तेरा धन माल कितना है?*
*किसी ने पूछा कि तेरा जाहो जलाल कितना है?*
*किसी ने पूछा कि तेरा परिवार कितना है?*
*किसी ने न पूछा कि तेरा प्रभु से प्यार कितना है?*
_यह पद्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है।यह सत्य है कि किसी को प्रभु से प्यार कितना होता है,इसे तो ईश्वर पहचान ही लेता है।यदि कोई व्यक्ति परमात्मा की भक्ति औपचारिक मात्र व दिखावा के रुप में करता है तो वह मनुष्य अपने जीवन में कभी सफल नहीं होता है।_
_प्रभु भक्त कैसा होना चाहिए।यह बात हमें एक फूल से सीखनी चाहिए।श्री माखन लाल चतुर्वेदी ने एक पुष्प की अभिलाषा इस प्रकार प्रकट की है_―
*चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊँ।*
*चाह नहीं प्रेमी-माला में बिध प्यारी को ललचाऊँ।।*
*चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ।*
*चाह नहीं देवों के सिर पर चढूँ भाग्य पर इठलाऊ।।*
*मुझे तोड़ लेना वन माली उस पथ में देना तुम फेंक।।*
*मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाये वीर अनेक।।*
*_इस कविता से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें भी प्रभु के प्रति इसी प्रकार की भावनायें होनी चाहिए।प्रभु की भक्ति में अनेक प्रकार की बाधायें भी उपस्थित होती हैं तो हमें पहले प्रभु की भक्ति व उसकी ही उपासना करनी चाहिए।क्योंकि उसकी भक्ति से ही मनुष्य अपने जीवन को उत्थान की सीढ़ी पर ले जा सकता है।वह सर्वत्र व्यापक है।जो व्यक्ति सच्ची श्रद्धा के साथ उसकी भक्ति करता है।वह उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।परमात्मा वाह्य चक्षु से नहीं बल्कि आन्तरिक चक्षु से दिखाई पड़ता है।जब बाहरी नेत्र बन्द हो जाते हैं तब आन्तरिक नेत्र खुलता है।_*
_वह परमात्मा है कैसा? इस विषय में कवि ने बड़ा सुन्दर लिखा है_―
*मेंहदी की पत्ती लाली है, पर नजर आती नहीं।*
*है हवा आकाश में पर वह दिखलाती नहीं।।*
*जिस तरह अग्नि का शोला संग में मौजूद है।*
*उस तरह हर कण कण में परमात्मा मौजूद है।।*
from Tumblr http://ift.tt/2bEStTp
via IFTTT
No comments:
Post a Comment