Friday, August 5, 2016

*सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास* भाग १८ *प्रश्न :* *_जैसे विवाह में वेदादि शास्त्रों का प्रमाण है,...

*सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास*
भाग १८

*प्रश्न :* *_जैसे विवाह में वेदादि शास्त्रों का प्रमाण है, वैसे नियोग में प्रमाण है वा नहीं? _*

*उत्तर :* इस विषय में बहुत प्रमाण हैं। देखो और सुनो— 

*कुह स्विद् दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करतः कुहोषतुः।*
*को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ॥    *
           —ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 40। मं॰ 2॥ 

*उदीर्ष्व नार्यभिजीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि। *
*हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि संबभूथ॥2॥*

—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 18। मं॰ 8॥ 

हे *(अश्विना)* स्त्री पुरुषो! जैसे *(देवरं विधवेव)* देवर को विधवा और *(योषा मर्यन्न)* विवाहिता स्त्री अपने पति को *(सधस्थे)* समान स्थान शय्या में एकत्र होकर सन्तानोत्पत्ति को *(आ कृणुते)* सब प्रकार से उत्पन्न करती है, वैसे तुम दोनों स्त्री पुरुष *(कुह स्विद्दोषा)* कहां रात्रि और *(कुह वस्तः)* कहां दिन में वसे थे? *(कुहाभिपित्वम्)* कहां पदार्थों की प्राप्ति *(करतः)* की? और *(कुहोषतुः)* किस समय कहां वास करते थे? *(को वां शयुत्रा)* तुम्हारा शयनस्थान कहां है? तथा कौन वा किस देश के रहने वाले हो?

इससे यह सिद्ध हुआ कि देश विदेश में स्त्री पुरुष संग ही में रहैं और विवाहित पति के समान नियुक्त पति को ग्रहण करके विधवा स्त्री भी सन्तानोत्पत्ति कर लेवे। 

*प्रश्न :* *_यदि किसी का छोटा भाई ही न हो तो विधवा नियोग किसके साथ करे?_*

*उत्तर :* देवर के साथ, परन्तु देवर शब्द का अर्थ जैसा तुम समझे हो वैसा नहीं। देखो निरुक्त में— 

*देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते। *

—निरु॰ अ॰ 3। खण्ड 15॥ 

*देवर उस को कहते हैं कि जो विधवा का दूसरा पति होता है, चाहे छोटा भाई वा बड़ा भाई, अथवा अपने वर्ण वा अपने से उत्तम वर्ण वाला हो, जिस से नियोग करे उसी का नाम देवर है। *

*(नारि)* विधवे तू *(एतं गतासुम्)* इस मरे हुए पति की आशा छोड़ के *(शेषे)* बाकी पुरुषों में से *(अभि जीवलोकम्)* जीते हुए दूसरे पति को *(उपैहि)* प्राप्त हो और *(उदीर्ष्व)* इस बात का विचार और निश्चय रख कि जो *(हस्तग्राभस्य दिधिषोः)* तुम विधवा के पुनः पाणिग्रहण करने वाले नियुक्त पति के सम्बन्ध के लिये नियोग होगा तो *(इदम्)* यह *(जनित्वम्)* जना हुआ बालक उसी नियुक्त *(पत्युः)* पति का होगा और जो तू अपने लिये नियोग करेगी तो यह सन्तान *(तव)* तेरा होगा। ऐसे निश्चय युक्त *(अभि सम् बभूथ)* हो और नियुक्त पुरुष भी इसी नियम का पालन करे। 

*अदेवृघ्न्यपतिघ्‍नीहैधि शिवा पशुभ्यः सुयमा सुवर्चाः। *
*प्रजावती वीरसूर्देवृकामा स्योनेममग्निं गार्हपत्यं सपर्य॥ *

—अथर्व॰ का॰ 14। अनु॰ 2। मं॰ 18॥ 

हे *(अपतिघ्न्यदेवृघ्नि)* पति और देवर को दुःख न देने वली स्त्री तू *(इह)* इस गृहाश्रम में *(पशुभ्यः)* पशुओं के लिये *(शिवा)* कल्याण करनेहारी *(सुयमा)* अच्छे प्रकार धर्म-नियम में चलने *(सुवर्चाः)* रूप और सर्वशास्त्र विद्यायुक्त *(प्रजावती)* उत्तम पुत्र पौत्रादि से सहित *(वीरसूः)* शूरवीर पुत्रों को जनने *(देवृकामा)* देवर की कामना करने वाली *(स्योना)* और सुख देनेहारी पति वा देवर को *(एधि)* प्राप्त होके *(इमम्)* इस *(गार्हपत्यम्)* गृहस्थ सम्बन्धी *(अग्निम्)* अग्निहोत्र को *(सपर्य)* सेवन किया कर। 

*तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः॥मनु॰॥ *

जो अक्षतयोनि स्त्री विधवा हो जाय तो पति का निज छोटा भाई उस से विवाह कर सकता है। 

*प्रश्न :* *_एक स्त्री वा पुरुष कितने नियोग कर सकते हैं और विवाहित नियुक्त पतियों का नाम क्या होता है?_*

*उत्तर :*

*सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः। *
*तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः॥ *

—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 85। मं॰ 40॥ 

हे स्त्रि! जो *(ते)* तेरा *(प्रथमः)* पहला विवाहित *(पतिः)* पति तुझ को *(विविदे)* प्राप्त होता है उस का नाम *(सोमः)* सुकुमारतादि गुणयुक्त होने से सोम, जो दूसरा नियोग होने से *(विविदे)* प्राप्त होता वह *(गन्धर्वः)* एक स्त्री से संभोग करने से गन्धर्व, जो *(तृतीय उत्तरः)* दो के पश्चात् तीसरा पति होता है वह *(अग्निः)* अत्युष्णतायुक्त होने से अग्निसंज्ञक और जो *(ते)* तेरे *(तुरीयः)* चौथे से लेके ग्यारहवें तक नियोग से पति होते हैं वे *(मनुष्यजाः)* मनुष्य नाम से कहाते हैं। जैसा *(इमां त्वमिन्द्र)* इस मन्त्र में ग्यारहवें पुरुष तक स्त्री नियोग कर सकती है, वैसे पुरुष भी ग्यारहवीं स्त्री तक नियोग कर सकता है। 

*प्रश्न :* *_एकादश शब्द से दश पुत्र और ग्यारहवें पति को क्यों गिने?_*

*उत्तर :* जो ऐसा अर्थ करोगे तो *‘विधवेवदेवरम्’* *‘देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते’ ‘अदेवृघ्नि’* और *'गन्धर्वो विविद उत्तरः’* इत्यादि वेदप्रमाणों से विरुद्धार्थ होगा क्योंकि तुम्हारे अर्थ से दूसरा भी पति प्राप्त नहीं हो सकता। 

*देवराद् वा सपिण्डाद् वा स्त्रिया सम्यङ् नियुक्तया। *
*प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये॥1॥ *

*ज्येष्ठो यवीयसो भार्या यवीयान् वाग्रजस्त्रियम्। *
*पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि॥2॥ *

*औरसः क्षेत्रजश्चैव॰॥3॥मनु॰॥ *

इत्यादि मनु जी ने लिखा है कि *(सपिण्ड)* अर्थात् पति की छः पीढ़ियों में पति का छोटा वा बड़ा भाई अथवा स्वजातीय तथा अपने से उत्तम जातिस्थ पुरुष से विधवा स्त्री का नियोग होना चाहिये।

परन्तु जो वह मृतस्त्रीपुरुष वा विधवा स्त्री सन्तानोत्पत्ति की इच्छा करती हो तो नियोग होना उचित है।
और जब सन्तान का सर्वथा क्षय हो तब नियोग होवे। जो आपत्काल अर्थात् सन्तानों के होने की इच्छा न होने में बड़े भाई की स्त्री से छोटे का और छोटे की स्त्री से बड़े भाई का नियोग होकर सन्तानोत्पत्ति हो जाने पर भी पुनः वे नियुक्त आपस में समागम करें तो पतित हो जायें। अर्थात् एक नियोग में दूसरे पुत्र के गर्भ रहने तक नियोग की अवधि है, इसके पश्चात् समागम न करें और जो दोनों के लिये नियोग हुआ हो तो चौथे गर्भ तक अर्थात् पूर्वोक्त रीति से दस सन्तान तक हो सकते हैं। पश्चात् विषयासक्ति गिनी जाती है, इस से वे पतित गिने जाते हैं और जो विवाहित स्त्री पुरुष भी दशवें गर्भ से अधिक समागम करें तो कामी और निन्दित होते हैं? अर्थात् *विवाह वा नियोग सन्तानों ही के अर्थ किये जाते हैं पशुवत् कामक्रीडा के लिये नहीं। *

*क्रमश :*


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