Thursday, August 4, 2016

*सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास* भाग १६ *प्रश्न :* *_स्त्री और पुरुष का बहु विवाह होना योग्य है वा...

*सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास*
भाग १६

*प्रश्न :* *_स्त्री और पुरुष का बहु विवाह होना योग्य है वा नहीं? _*

*उत्तर :* युगपत् न अर्थात् एक समय में नहीं। 

*प्रश्न :* *_क्या समयान्तर में अनेक विवाह होने चाहियें?_*

*उत्तर :* हां जैसे— 

*या स्त्री त्वक्षतयोनिः स्याद् गतप्रत्यागतापि वा। *
*पौनर्भवेन भर्त्रा सा पुनः संस्कारमर्हति॥मनु॰॥ *

जिस स्त्री वा पुरुष का पाणिग्रहणमात्र संस्कार हुआ हो और संयोग न हुआ हो अर्थात् अक्षतयोनि स्त्री और अक्षतवीर्य पुरुष हो, उनका अन्य स्त्री वा पुरुष के साथ पुनर्विवाह होना चाहिये। किन्तु ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में क्षतयोनि स्त्री क्षतवीर्य पुरुष का पुनर्विवाह न होना चाहिये। 

*प्रश्न :* *_पुनर्विवाह में क्या दोष है? _*

*उत्तर :*

*पहला* स्त्री पुरुष में प्रेम न्यून होना क्योंकि जब चाहे तब पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष छोड़ कर दूसरे के साथ सम्बन्ध कर ले।
*दूसरा* जब स्त्री वा पुरुष पति स्त्री मरने के पश्चात् दूसरा विवाह करना चाहें तब प्रथम स्त्री के वा पूर्व पति के पदार्थों को उड़ा ले जाना और उनके कुटुम्ब वालों का उन से झगड़ा करना
*तीसरा* बहुत से भद्रकुल का नाम वा चिह्न भी न रह कर उसके पदार्थ छिन्न भिन्न हो जाना
*चौथा* पतिव्रत और स्त्रीव्रत धर्म नष्ट होना इत्यादि दोषों के अर्थ द्विजों में पुनर्विवाह वा अनेक विवाह कभी न होने चाहिये। 

*प्रश्न :* *_जब वंशच्छेदन हो जाय तब भी उस का कुल नष्ट हो जायगा और स्त्री पुरुष व्यभिचारादि कर्म कर के गर्भपातनादि बहुत दुष्ट कर्म करेंगे इसलिये पुनर्विवाह होना अच्छा है। _*

*उत्तर :*  नहीं-नहीं क्योंकि जो स्त्री पुरुष ब्रह्मचर्य में स्थिर रहना चाहैं तो कोई भी उपद्रव न होगा और जो कुल की परम्परा रखने के लिये किसी अपने स्वजाति का लड़का गोद ले लेंगे उस से कुल चलेगा और व्यभिचार भी न होगा और जो ब्रह्मचर्य न रख सकें तो नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर लें। 

*प्रश्न :* *_पुनर्विवाह और नियोग में क्या भेद है? _*

*उत्तर :*
*पहला* जैसे विवाह करने में कन्या अपने पिता का घर छोड़ पति के घर को प्राप्त होती है और पिता से विशेष सम्बन्ध नहीं रहता और विधवा स्त्री उसी विवाहित पति के घर में रहती है।
*दूसरा* उसी विवाहिता स्त्री के लड़के उसी विवाहित पति के दायभागी होते हैं और विधवा स्त्री के लड़के वीर्यदाता के न पुत्र कहलाते न उस का गोत्र होता और न उस का स्वत्व उन लड़कों पर रहता किन्तु मृतपति के पुत्र बजते, उसी का गोत्र रहता और उसी के पदार्थों के दायभागी होकर उसी घर में रहते हैं।
*तीसरा* विवाहित स्त्री-पुरुष को परस्पर सेवा और पालन करना अवश्य है। और नियुक्त स्त्री-पुरुष का कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता।
*चौथा* विवाहित स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध मरणपर्यन्त रहता और नियुक्त स्त्री-पुरुष का कार्य के पश्चात् छूट जाता है।
*पांचवां* विवाहित स्त्री-पुरुष आपस में गृह के कार्यों की सिद्धि करने में यत्न किया करते और नियुक्त स्त्री-पुरुष अपने-अपने घर के काम किया करते हैं। 

*प्रश्न :* *_विवाह और नियोग के नियम एक से हैं वा पृथक्-पृथक्? _*

*उत्तर :* कुछ थोड़ा सा भेद है। जितने पूर्व कह आये और यह कि विवाहित स्त्री-पुरुष एक पति और एक ही स्त्री मिल के दश सन्तान तक उत्पन्न कर सकते हैं और नियुक्त स्त्री वा पुरुष दो वा चार से अधिक सन्तानोत्पत्ति नहीं कर सकते। अर्थात् जैसा कुमार कुमारी ही का विवाह होता है वैसे जिस की स्त्री वा पुरुष मर जाता है उन्हीं का नियोग होता है कुमारी का नहीं। जैसे विवाहित स्त्री पुरुष सदा संग में रहते वैसे नियुक्त स्त्री पुरुष का व्यवहार नहीं किन्तु विना ऋतुदान के समय एकत्र न हों। जो स्त्री अपने लिये नियोग करे तो जब दूसरा गर्भ रहे उसी दिन से स्त्री पुरुष का सम्बन्ध छूट जाय और जो पुरुष अपने लिये करे तो भी दूसरे गर्भ रहने से सम्बन्ध छूट जाय। परन्तु वही नियुक्त स्त्री दो तीन वर्ष पर्यन्त उन लड़कों का पालन करके नियुक्त पुरुष को दे देवे। ऐसे एक विधवा स्त्री दो अपने लिये और दो-दो अन्य चार नियुक्त पुरुषों के लिए दो-दो सन्तान कर सकती और एक मृतस्त्रीपुरुष भी दो अपने लिये और दो-दो अन्य अन्य चार विधवाओं के लिये पुत्र उत्पन्न कर सकता है। ऐसे मिलकर दस-दस सन्तानोत्पत्ति की आज्ञा वेद में है। जैसे— 

*इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु। *
*दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि॥ *

—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 85। मं॰ 45॥ 

हे (मीढ्व इन्द्र) वीर्य सेचन में समर्थ ऐश्वर्ययुक्त पुरुष! तू इस विवाहित स्त्री वा विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्ययुक्त कर। इस विवाहित स्त्री में दश पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान! हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष वा नियुक्त पुरुषों से दश सन्तान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ। इस वेद की आज्ञा से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्णस्थ स्त्री और पुरुष दश-दश सन्तान से अधिक उत्पन्न न करें। क्योंकि अधिक करने से सन्तान निर्बल, निर्बुद्धि, अल्पायु होते हैं और स्त्री तथा पुरुष भी निर्बल, अल्पायु और रोगी होकर वृद्धावस्था में बहुत से दुःख पाते हैं। 

*क्रमश :*


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