बम्बई में जो नियम बनाये गये थे उनमें नियम 17 अपनी व्याख्या स्वयं ही करता है -
“इस समाज में स्वदेश के हितार्थ दो प्रकार की शुद्धि के लिये प्रयत्न किया जाएगा । एक परमार्थ और दूसरा लोक-व्यवहार । इन दोनों का शोधन और शुद्धता की उन्नति तथा सब संसार के हित की उन्नति की जाएगी ।”
बम्बई के नियम यह भी बताते हैं कि स्वामीजी की सम्मति में आर्यसमाज के उद्देश्यों को प्राप्त करने के साधन क्या थे । 12वें नियम में आर्यसमाज, आर्य विद्यालय और आर्य प्रकाश (पत्र) के प्रचार और उन्नति के लिये 1 रुपया सैंकड़ा चंदा लेने की शिक्षा है । यहाँ आर्यसमाज से आशय प्रचार और संगठन के खर्च से है । 19वें नियम में प्रचारक भेजने की बात आई है । 20वें में स्त्रियों और पुरुषों के लिये पाठशालायें नियत करने की आवश्यकता बताई गई है । लाहौर में बने तीसरे नियम में कहा है - “वेदों का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है ।” साथ ही आठवें में अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करने की आज्ञा है ।
इसके अतिरिक्त दिल्ली के शाही दरबार के अवसर पर स्वामीजी की प्रेरणा से जो एक सम्मेलन अयोजित किया गया था वह भी उनकी देशभक्ति का परिचय देता है (द्रष्टव्य - पं० लेखराम कृत उर्दू जीवनचरित, पृ० २६४) । स्वामीजी ने वहाँ कहा था - “यदि हम लोग एकमत हो जायें और एक ही रीति से देश का सुधार करें तो आशा है देश शीघ्र सुधर सकता है ।”
इस जीवनचरित में यह भी लिखा है कि एक स्थान पर स्वामीजी ने स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर एक विशेष व्याख्यान दिया । इन सब तथ्यों से स्वामीजी का देशभक्त होना स्वतः ही सिद्ध हो जाता है । वस्तुतः वे तो देशभक्त महापुरुषों में भी शीर्ष स्थान पर बिठाने जाने की योग्यता रखते हैं । ऐसे लोग संसार में बहुत कम पैदा होते हैं जो देश और जाति के लिए प्राण तक न्यौछावर कर देते हैं । ऐसे मनुष्यों का कोई भी कार्यक्रम स्वदेश और स्वजाति के हित से रहित नहीं हो सकता । अतः हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि देश और जाति के सुधार की एक सुनिश्चित योजना स्वामी दयानन्द के पास थी ।
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