एक संत लोगों की शंकाओं का व्यावहारिक समाधान देते थे. एक बार उनके पास सेना का वरिष्ठ अधिकारी आया और बोला– लोग स्वर्ग-नरक की बातें खूब करते हैं पर आखिर यह बला है क्या?
संत ने उसके कार्यों के बारे में पूछा तो वह गर्व से अपने फौजी जीवन की उपलब्धियां गिनाने लगा. बातों से फौजी रौब दिख रहा था. तभी संत ने उसे टोका और बोले- मुझे तो शक्ल सूरत से तुम फौज अधिकारी नहीं गली के उचक्के लगते हो.
यह सुनते ही वह तमतमा गया. पिस्तौल निकालकर संत के सिर पर तान दी. इस पर संत बोले- मैंने कहा था न कि तुम उचक्के हो. नकली बंदूक रखते हो ताकि लोगों को डरा सको. अब तो उसके क्रोध की सीमा न रही. उसने बोल्ट किया और गोली मारने को तैयार हो गया. इससे पहले कि वह गोली चलाता, संत बोले- यही भाव नरक है.
क्रोध मे चूर होकर आपने अपना संतुलन खो दिया. कुछ समय पहले आप मेरे चरण छू रहे थे. आपको लगता था कि मैं आपकी सभी समस्याओं का निदान कर सकता हूं किंतु चंद मिनटों में आप मेरी हत्या को उतारू हो गए. फौजी ने शर्मिंदा होकर पिस्तौल वापस रख ली. उसकी आंखों में शर्म और पश्चाताप के भाव थे.
संत बोले- विवेक के जागृत होने पर व्यक्ति को अपनी भूल का अहसास होने लगता है. मन शांत होने के बाद स्थिरता आती है और दिव्य आनंद की अनुभूति होती है. यही अनुभूति स्वर्ग है.
आत्मनियंत्रण से विवेक जाग्रत होता है. विवेक शरीर में ऐसा पहरेदार है जो हमें अनुचित करने से रोकता है. यदि हम विवेक की बात समझ लेते हैं तो जीवन में शांति और सुख प्राप्त होते हैं. स्वर्ग यही है.
परंतु जैसे ही हम विवेक के संकेतों की अनदेखी करनी शुरू करते हैं, तब निस्संदेह कई क्षणिक आनंद तो प्राप्त होते हैं किंतु वे आनंद अस्थाई हैं. वे जल्द ही दुखों का कारण बनते हैं और यही नरक है.
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