Thursday, May 28, 2015

आर्यसमाज की स्थापना स्वामी दयानन्द का चौथा महत्वपूर्ण काम था स्वामीजी की दृष्टि में आर्यसमाज का...

आर्यसमाज की स्थापना स्वामी दयानन्द का चौथा महत्वपूर्ण काम था

स्वामीजी की दृष्टि में आर्यसमाज का क्या उद्देश्य था ?
क्या स्वामी दयानन्द की दृष्टि में एक ईश्वर की उपासना का प्रचार करना और वेदों को सत्य विद्या का पुस्तक सिद्ध करना ही आर्यसमाज का काम था या इससे भिन्न भी वे इसका कोई उद्देश्य मानते थे ? आर्यसमाज के शेष नियम इस प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ नहीं हैं यद्यपि छठा नियम यह कहता है कि संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना । परन्तु इन शब्दों से यह नहीं समझना चाहिए कि स्वामीजी के कार्यक्रम में देश या जाति की उन्नति के लिये कोई स्थान नहीं था । १ अप्रैल १८७८ को दानापुर से लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा -
“आपकी इच्छानुसार कल 31 मार्च 1878 को दो छपे पत्र (आर्यसमाज के मुख्य दस उद्देश्य) भेज चुके हैं । रसीद शीघ्र भेज दीजिये और इन नियमों को ठीक-ठीक समझ कर वेद की आज्ञानुसार देश को सुधारने में अत्यन्त श्रद्धा, प्रेम और भक्ति, सबके परस्पर सुख के अर्थ तथा उनके क्लेशों को मेटने में सत व्यवहार और उत्कण्ठा के साथ अपने शरीर के सुख-दुखों के समान जान कर सर्वदा यत्‍न और उपाय करने चाहियें । क्योंकि इस देश से विद्या और सुख सारे भूगोल में फैला है । हिन्दू मत सभा के स्थान में आर्यसमाज नाम रखना चाहिए क्योंकि आर्य नाम हमारा और आर्यावर्त नाम हमारे देश का सनातन वेदोक्त है ।”
फिर 12 अप्रैल 1878 के पत्र में लिखते हैं - “अब आपकी दृष्टि देश सुधार पर होनी चाहिए ।” याद रखना चाहिए कि आर्यसमाज के दस नियम जून 1877 में नियत किये गये थे और ये पत्र अप्रैल 1878 में लिखे गये हैं । स्वामीजी की दृष्टि में आर्यसमाज का क्या उद्देश्य था, वह इन पत्रों से प्रकट होता है । क्या इन पत्रों से यह विदित नहीं होता कि स्वामीजी उन लोगों में नहीं थे जो मनुष्य मात्र के हित की तुलना में अपने देश और जाति का कोई स्वत्व नहीं मानते ? वास्तव में बात यह है कि स्वामीजी पहले संस्कृत विद्वान थे जिन्होंने स्वार्थ के जाल में फँसे हिन्दुओं को बताया कि परोपकार और देशोपकार धर्म के दो प्रमुख अंग हैं और वैदिक धर्म में इन्हें बहुत ऊँचा स्थान प्राप्‍त है । जो मनुष्य परोपकार और देशोपकार नहीं कर सकते वे कभी धार्मिक भी नहीं हो सकते और देश के उपकार को जीवन का प्रथम ध्येय न मानने वाला भी कभी धार्मिक नहीं हो सकता ।


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