अचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयत्यति ।
स्वयमप्याचरेदस्तु स आचार्यः इति स्मृतः ॥
जो स्वयं सभी शास्त्रों का अर्थ जानता है, दूसरों के द्वारा ऐसा आचार स्थापित हो इसलिए अहर्निश प्रयत्न करता है; और ऐसा आचार स्वयं अपने आचरण में लाता है, उन्हें आचार्य कहते है ।
“आचार्य” की इतनी सुंदर व्याख्या, शायद ही किसी और भाषा में हो ! क्या वैदिक विचार और प्राचीन भारत, मानवजीवन के मूलभूत मूल्यों का आचार्य बन सकता है ?
वैदिकों के इतिहास ग्रंथों के ज़रीये, अगर पुरातन भारत की ओर दृष्टिपात करें तो “आर्यावर्त वैदिक विचारों का प्रतिबिंब था”, ऐसा लगे बिना नहीं रहता । दैवी-आसुरी विचारधाराओं का संघर्ष यद्यपि तब भी उतना ही प्रवर्तमान दिखाई देता है, जितना की आज है ! परंतु, सामान्यतः व्यक्ति जीवन और सामाजिक जीवन में गहन तात्त्विक सिद्धांतों का परावर्तन स्पष्ट देखाई पडता है ।
वैदिक भारत विश्व का आचार्य बने न बने, पर हम अर्वाचीन भारतवासी, उसके नम्र और प्रामाणिक विद्यार्थी बनें, तो वह भी कोई छोटी सिद्धि न होगी !
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अति सुंदर,
ReplyDeleteमैंने अपने पूज्य गुरुजी के श्रीमुख से सुना है।