२२ वैशाख 5 मई 15
😶 “ उद्धार का मार्ग ” 🌞
🔥 ओ३म् अग्रिमिन्धानो मनसा धियं सचेत मत् र्य: । अग्रिमीधे विवस्वभि: ॥🔥
ऋ० ८ । १०२ । २२; साम पू० १ । १ । २ ।९
शब्दार्थ:– मन द्वारा अग्रि को, आत्मा को प्रज्वलित करता हुआ मनुष्य सदबुद्धि को और सत्कर्म को सचेत को प्राप्त करे । मै तम को हटानेवाली ज्ञान - किरणों द्वारा इस अग्रि को प्रदीप्त करता हू ।
विनय :–मै जो प्रतिदिन आग जलाकर अग्रिहोत्र करता हू उससे क्या हुआ, यदि इस अग्रि -दीपन से मेरे अंदर की आत्म - ज्योति न जग सकी । यदि मेरे प्रतिदिन अग्रिहोत्र करते रहने पर भी मेरे जीवन में कुछ भेद ना आया, मेरा व्यवहार - आचरण वैसा-का-वैसा रहा, ना मुझमे सदबुद्धि ही जाग्रत हुई और ना मै सत्कर्मो में प्रेरित हुआ, तो मेरा यह सब अग्रीचर्या करना व्यर्थ है । सचमुच हरेक ब्रम्हा - यज्ञ अन्दर के यज्ञ के लिए है । बाहर की अग्रि इसलिए प्रदीप्त की जाती है कि उस द्वारा एक दिन अंदर की आत्माग्रि प्रदीप्त हो जाये ।
सत्य सनातन वैदिक धर्म की
………………जय
🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚
from Tumblr http://ift.tt/1zvgFjT
via IFTTT
No comments:
Post a Comment