स्वामीजी हिन्दू परिवार में जन्मे, वहीं उनका पालन हुआ, उन्हें के शास्त्रों को पढ़ा तथा इस धर्म के पवित्र ग्रन्थों को अपना मार्गदर्शक माना । आर्यों की आश्रम-व्यवस्था को उन्होंने स्वीकार किया था । अतः यह स्वाभाविक ही था कि उनके हृदय में हिन्दू जाति के सुधार का भाव आता । आर्यों के पवित्र पुरातन धर्म को जान कर उस धार्मिक पुरुष के मन में यह विचार आया कि धर्म-सुधार के बिना इस जाति का सुधार असम्भव है । उन्होंने अपने जीवन का बहुमूल्य भाग सच्चे धर्म की खोज में व्यतीत किया । यह सम्भव ही नहीं था कि वे धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी विषय को अपने सुधार का विषय बनाते । उनके जैसे महापुरुष के लिये यह समझ लेना स्वाभाविक ही था कि धार्मिक सुधार के बिना इस धर्मभूमि भारत का सुधार असम्भव ही है । अतः सुधार के इस विचार को ही प्रधानता देकर उन्होंने एक ऐसी संस्था का बीजारोपण किया जिसका उद्देश्य था - देश में धर्म-सुधार करना तथा सच्चे वेदाधारित धर्म का प्रचार करना ।
तथापि यह याद रखना आवश्यक है कि स्वामीजी का विचार किसी नये सम्प्रदाय या मत की नींव डालना कदापि नहीं था । अपितु उनका विचार तो पुरातन शुष्क धर्मवृक्ष को हराभरा करने का ही था । उसे पुनरुज्जीवित करना था । वे सुधार का कार्य करना चाहते थे न कि अराजकता उत्पन्न करने वाली कोई क्रान्ति । इसलिये उन्होंने अपने द्वारा स्थापित समाज के कोई नये सिद्धान्त नहीं बनाये । दो मन्तव्यों पर उनका दृढ़ विश्वास था - (1) प्रथम तो यह कि जो विद्या या पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदिमूल परमेश्वर है और इस विद्या का ज्ञान पुरुषों को परमात्मा से वेदों के द्वारा ही मिला है । (2) यह कि परमात्मा निराकार और अजन्मा है तथा उसकी उपासना करना ही हमारा परम धर्म है । ये दोनों नियम उनके जीवनाधार थे और इन सिद्धान्तों को स्वीकार किये बिना किसी प्रकार का सुधार सम्भव नहीं था । वे यह भी जानते थे कि यदि हिन्दू धर्म में एकता स्थापित हो सकती है तो इन्हीं दो सिद्धान्तों के सहारे । इन्हें त्याग कर जातीय एकता कदापि सम्भव नहीं है । अतः उन्होंने आर्यों की धार्मिक एकता के लिये इन दो सिद्धान्तों को नींव का पत्थर बनाया ।
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