Saturday, May 9, 2015

इस भ्रांति का कि आर्य नाम की कोई एक प्रजाति है, जो भारत की मूल निवासिनी न थी वरन बाहर से आई, संसार...

इस भ्रांति का कि आर्य नाम की कोई एक प्रजाति है, जो भारत की मूल निवासिनी न थी वरन बाहर से आई, संसार के इतिहास में सानी नहीं है। पहले-पहल इस भ्रांत मत का उच्‍चतर संवत १८९८ ( सन १८४०) में हुआ। तब जॉन शोर ने, जो ईस्‍ट इंडिया कंपनी के विदेश विभाग में था तथा विलियम बेंटिंक के बाद कुछ काल के लिए गवर्नर जनरल बना, अपनी पुस्‍तक में इसे प्रतिपादित किया। इसके पहले यह किसी की कल्‍पना में भी न था। यह समय था जब भारत के सांस्‍कृतिक जीवन को समाप्‍त कर अंग्रेजीकरण की नीति बनाई गई।

जब अंग्रेज भारत में व्‍यापार करने और प्रारब्‍ध ने उन्‍हें इस देश का स्‍वामी बनाया, तब अपनी साम्राज्‍य- लिप्‍सा के समर्थन में उन्‍होंने यह कहना प्रारंभ किया कि ‘अंग्रेजों ने यह देश हथियारों के बल पर जीता, वैसे ही जैसे मुगलों ने कभी जीता था। उसी प्रकार यहॉं के आर्य भी बाहर से आए थे और यहॉं के अनार्यों को जीतकर उनका सब छीन लिया। इस भूमि पर जितना अधिकार आर्यों का है उतना ही मुगलों का था और उतना ही अंग्रेजों का है।‘ यह कहकर उन्‍होंने यहॉं के निवासियों को झुठलाने का यत्‍न किया। पहले उन्‍होंने ‘द्रविड़’ को एक अलग प्रजाति कहकर यहॉं का मूल निवासी बताया। बाद में पादरियों ने एक नया दावा प्रारंभ किया कि ये द्रविड़ भी कहीं बाहर से आए-

‘शायद भूमध्‍य सागर के “बर्बर” थे। भारत के मूल निवासी यहॉं के वनवासी, कोल, भील, संथाल आदि हैं।’ (इतिहास उलटा जानता है कि बर्बर दक्षिण-पूर्व से यूरोप में गए।)

पहले इन्‍हीं को ‘विंध्‍याचल पर्वत के अवशिष्‍ट द्रविड़’ कहते थे, अब इन्‍हें ‘आदिवासी’ की एक अलग संज्ञा दे दी। नृवंशीय दृष्टि से इन द्रविड़ या आदिवासीजन का आकार, बनावट, चेहरा-मोहरा भारत के अन्‍य निवासियों से मिलता-जुलता है और ऊपरी रूपांतर सम्मिश्रण या सहस्‍त्राब्दियों के भिन्‍न प्राकृतिक वातावरण तथा उत्‍परिवर्तन का परिणाम है।

‘आर्य’ का शाब्दिक अर्थ है ‘श्रेष्‍ठ’। यह कोई जाति न थी। पर ‘आर्य’ शब्‍द का प्रयोग कभी-कभार गेहुँए रंग की भारत-यूरोपीय प्रजाति (Indo-European Race) का बोध, पिंगल तथा नीग्रो प्रजातियों से वैषम्‍य दिखाने के लिए होता है। आर्य भारत की प्राचीन हिंदु सभ्‍यता है, जिसने कभी संसार की सभी प्रुख प्राचीन सभ्‍यताओं को प्रभावित किया।

आर्यो के अस्तित्‍व तथा आदि निवास के बारे में आज भी पश्चिमी इतिहासज्ञ अनिश्चित हैं। पहले कहा जाता था कि आर्य मध्‍य एशिया से—कश्‍यप सागर तथा अरल सागर के बीच के भूभाग-या प्राचीन कैकय प्रदेश ( काकेशिया: Caucasus) से, जहॉं की दशरथ की रानी कैकई थी, आए। पर चतुर्थ हिमाच्‍छादन के समय कश्‍यप सागर और अरल सागर का मध्‍यवर्ती प्रदेश सागर तल था और कैकय प्रदेश हिमाच्‍छादित। अतएव डेन्‍यूब (Danube) नदीतल में कुछ प्राचीन घरों के अवशेष मिलने पर एक नया मत चल निकलाकि आर्य डेन्‍यूब घाटी के निवासी थे और वहॉं से निकलकर चारों ओर फैले। शायद इस कल्‍पना के पीछे एक मनोग्रंथि (complex) हावी थी, जिसने पिछली तीन-चार शताब्दियों से यूरोपवासियों को स्‍वप्रदत्‍त ‘गोरों’ का कर्तव्‍य-भार (white man’s burden)—संसासर को सभ्‍य बनाना है’ के नाम पर घोर अत्‍याचार, उत्‍पीड़न और जाति-संहार करने की छूट दी। आखिर यह महिमामय आर्य प्रजाति यूरोप के किसी कोने केअतिरिक्‍त और कहॉं पैदा हो सकती है ?

एक चुटकुला है। एक बार एक पादरी ने सब कामनाओं की पूर्ति करने वाला,सब सुखों से पूर्ण स्‍वर्ग का चित्र खींचा और एक देहाती से पूछा,

‘क्‍या तुम स्‍वर्ग नहीं जाना चाहते ?’

बेचारे देहाती ने सिर हिलाया,

‘नहीं।’

देहाती ने इतना ही कहा,

‘यदि वह कोई अच्‍छी जगह होती तो गोरों ( यूरोपवासियों) ने उसे पहले ही हथिया लिया होता।’

यूरोपवासियों के दंभ ने पहले एटलांटिस नामक एक काल्‍पनिक महाद्वीप की सृष्टि की जो प्रलय के समय अटलांटिक महासागर में डूब गया। वहॉं के निवासी बड़ीउन्‍नत सभ्‍यता के धनी कहे गए। पर इसका जब कोई प्रमाण न मिला तो यूरोप में मानव सभ्‍यता के आदि चिन्‍ह ढूँढ़ना प्रारंभ किया। डेन्‍यूब घाटी या कश्‍यपसागर के पास की भूमि में चतुर्थ हिमाच्‍छादन के बर्फानी तूफानों को तथा वहॉं के विपत्ति भरे जीवन की दृष्टि-ओट कर दिया और जब पिल्‍टडाउन (इंग्‍लैंड) में अस्थि-अवशेष प्राप्‍त हुए तो उसे पॉंच लाख वर्ष पुराना ‘उषा-मानव’ (dawn-man) कहा। बाद में पता चला किरासायनिक प्रक्रिया द्वारा इसे प्राचीन बनाया गया था।

इस कल्‍पना ने कि आर्य कहीं बाहर से आए, भारतीय इतिहास का एक विकृत अध्‍याय रचा। भ्रमित कल्‍पना कहती है कि संवत् से एक हजार वर्ष पूर्व आर्य हिंदुकुश पर्वत के दर्रों से होकर भारत आए और पहले पंजाब में बसे। वहॉं से वे नदियों के किनारे सिंधु-सागर तक और पूर्व में गंगा के किनारे बंगाल तक फैल गए। यहॉं के मूल, जंगली एवं गिरि-कंदराओं में रहने वाले अनार्यों से उनका युद्ध हुआ होगा। आर्यो ने उनकी संपूर्ण भूमि छीनकर दक्षिण में भगा दिया। फिर दक्षिण में भी आक्रमण कर इनको जीतकर आत्‍मसात कर लिया। इस तरह कल्‍पना बेलगाम दौड़ती है।

परंतु अपने प्राचीन ग्रंथों में आर्यों के कहीं बाहर से आने का उल्‍लेख या किंवदंती नहीं मिलती। आर्यों-अनार्यों के युद्ध का वर्णन उक्‍त ग्रंथों में नहीं है। केवल देवासुर संग्राम का वर्णन आता है, जिसे कुछ पुरातत्‍वज्ञ प्रतीकात्‍मक (allegorical) मानते हैं। ‘देव’ तथा ‘असुर’ आर्यों की ही दो शाखाऍं थीं। आर्य-अनार्यों के तथाकथित संघर्ष की कोई झलक हमें ऐतिहासिक सामग्री में नहीं मिलती। इसके विरूद्ध महाभारत में भारत को मानव का आदि देश कहा गया है। अपनी सभी दंतकथाओं, पौराणिक आख्‍यानों, परंपराओं एवं मान्‍यताओं में यह अंतर्निहित है कि आर्यों का आदि देश भारत है। ब्राम्‍हणों की प्रमुख शाखाऍं पंच-गौड़ (उत्‍तरी भारत की) एवं पंच- द्रविड़ ( दक्षिण भारत की) कहलाती हैं। संसार का सांस्‍कृतिक ( विशेषकर प्राचीन बृहत्‍तर भारत के पूर्वी भाग तथा दक्षिण-पूर्व एशिया का) इतिहास बताता है कि जिन्‍होंने वहॉं से आगे बढ़कर सुदूर मध्‍य तथा दक्षिण अमेरिका तक भारतीय आर्य सभ्‍यता का प्रसार किया, वे द्रविड़ (द्रृ = द्रष्‍टा; विद अथवा विर = ज्ञानी) कहाते थे। वे दिग्दिगंत में आर्य सभ्‍यता के अधीक्षक थे।


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