Tuesday, August 16, 2016

सत्यार्थ प्रकाश का संक्षिप्त परिचय / डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री भाग 1 महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती...

सत्यार्थ प्रकाश का संक्षिप्त परिचय / डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री

भाग 1

महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रसिद्ध ग्रंथ “ सत्यार्थ प्रकाश “ हमें हमारी स्वस्थ परम्पराओं से परिचित कराने वाला, अंधविश्वासों से मुक्त कराने वाला, ज्ञान चक्षु खोलने वाला, हमारी सोई हुई चेतना को जगाने वाला और केवल हमारे धर्म की ही नहीं, अपितु विश्व के सभी प्रमुख धर्मों की जानकारी देने वाला, मानव धर्म का स्वरूप प्रस्तुत करने वाला वास्तविक अर्थों में एक अद्वितीय ग्रंथ है । आपकी धार्मिक मान्यताएं जो भी हों, मेरा अनुरोध है कि एक बार इसे अवश्य पढ़ें, और फिर “ अप्प दीपो भव “ अपना रास्ता स्वयं निर्धारित करें ।

इस ग्रंथ की रचना अब से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व (1875 ई. में) हुई थी । इसने तत्कालीन समाज में वैचारिक क्रांति उत्पन्न कर दी जिससे (1) वेद और वैदिक साहित्य के महत्व को पहचानने, (2) अपने गौरवशाली अतीत को जानने, (3) संस्कारवान - आचारवान बनने, (4) धार्मिक अंधविश्वासों से मुक्त होने, (5) सामाजिक कुरीतियों को दूर करने, (6) विभिन्न संप्रदायों (जिन्हें सामान्य व्यक्ति धर्म कहता है) के प्रति जिज्ञासु बनकर उन्हें ठीक से जानने, उनकी अच्छी बातों को स्वीकार करने एवं अज्ञान / अंधविश्वास पर आधारित बातों को त्यागने, (7) विदेशियों की उपयोगी खोजों को सीखने, (8) स्वभाषा - स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने और (9) पराधीनता से मुक्त होने की प्रेरणा मिली । इनमें से केवल एक ही काम (विदेशी शासन से मुक्ति) पूरा हो सका है, शेष काम अभी भी अधूरे हैं क्योंकि उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं। अतः उनके लिए अभी भी गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है । इस दृष्टि से यह ग्रंथ आज भी उपयोगी है, प्रासंगिक है क्योंकि इस कालजयी ग्रंथ में हमारी मानसिकता को अनुकूल दिशा में प्रेरित करने की संभावनाएं हैं ।

तत्कालीन भारत

पिछले लगभग एक हजार वर्षों से विदेशियों के चंगुल में फंसे इस देश में 19 वीं शताब्दी में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। इसी शताब्दी में मैकाले का वह नीतिपत्र (1835 ई.) लागू हुआ जिसने शिक्षा का उद्देश्य और स्वरूप ही बदल दिया । विश्व भर में शिक्षा का उद्देश्य होता है व्यक्ति का शारीरिक – मानसिक – बौद्धिक - चारित्रिक आदि विकास करके उसे स्वावलंबी बनाना, पर मैकाले ने उद्देश्य बना दिया विदेशी शासन को चलाने वाले क्लर्क तैयार करना अर्थात नौकरी के लिए शिक्षा प्राप्त करना ; पूरे विश्व में शिक्षा अपनी भाषा में दी जाती है, पर हमारे यहाँ माध्यम हो गया एक विदेशी भाषा अंग्रेजी ; सर्वत्र शिक्षा की विषयवस्तु में प्रमुखता होती है ज्ञान-विज्ञान संबंधी अपनी उपलब्धियों की, पर हमारे यहाँ विषयवस्तु हो गई यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान, जिसके साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया भारतीय ज्ञान-विज्ञान का उपहास। जिन कारणों से यह देश विदेशियों के जाल में फंसा, उनके लिए दूषित राजनीति के साथ-साथ हमारी विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक कुरीतियाँ भी जिम्मेदार थीं। इन कुरीतियों से मुक्त करने के अनेक प्रयास इसी शताब्दी में राजा राममोहन रॉय, द्वारकानाथ टैगोर, देवेन्द्रनाथ टैगोर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानंद सरस्वती, डा. आत्माराम पांडुरंग, स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक महापुरुषों ने किए जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक हलचल पैदा हुई । इन प्रयासों से एक ओर अनेक लोगों को सुधार की प्रेरणा मिली, तो दूसरी ओर किन्हीं लोगों के मन में लंबे समय से चली आ रही परम्पराओं से चिपटे रहने का मोह भी जागा (जो उक्त महापुरुषों के विचारों का प्रचार कम हो जाने के कारण अब बढ़ता ही जा रहा है) ।

महर्षि दयानंद की विशेषता :

इन महापुरुषों में महर्षि दयानंद सरस्वती का विभिन्न कारणों से प्रमुख और महत्वपूर्ण स्थान है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जहाँ विशेष आकर्षित करने वाला था (सवा छह फुट से अधिक लंबा कद, गोरा रंग, ब्रह्मचर्य एवं योगाभ्यास के परिपुष्ट बलिष्ठ शरीर, विलक्षण मेधाशक्ति, ओजस्वी वाणी), वहीँ विशाल वैदिक वाङ्मय के गहन ज्ञान से सम्पन्न, चिंतनशील, तर्कशील, बहु - आयामी और दूरदर्शिता से भरा हुआ निर्भीक आतंरिक व्यक्तित्व विस्मित करने वाला था । संस्कृत के प्रकांड विद्वान होते हुए भी वे उस कूपमंडूकता से कोसों दूर थे जो प्रायः संस्कृत वालों की पहचान मानी जाती है । उस युग के अन्य नेता जहाँ केवल धार्मिक और सामाजिक समस्याओं के समाधान तक, और उसमें भी केवल अपने धर्म तक, सीमित रहे, वहां महर्षि दयानंद ने धार्मिक और सामाजिक के साथ ही दार्शनिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं अन्य सांस्कृतिक समस्याओं का भी हल खोजने का प्रयास किया और एक वैज्ञानिक की भांति सभी धर्मों के अंधविश्वासों एवं तर्कहीन मान्यताओं को दूर करने की प्रेरणा दी। उस युग के अन्य नेताओं के सन्दर्भ में उनकी कतिपय विशेषताएं हमारा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करती हैं :

( 1 ) उस युग के अन्य किसी भी नेता ने “ स्वराज्य ” की बात नहीं की, पर दयानंद ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जो स्वदेशीय राज्य होता है वही सर्वोपरि उत्तम होता है। प्रजा पर माता - पिता के समान कृपा, न्याय और दया करने पर भी विदेशी राज्य कभी पूर्ण सुखदायी नहीं हो सकता ।

( 2 ) वे तत्कालीन भारत के सबसे पहले व्यक्ति थे जिसने राजा के “ चुनाव “ की बात करके राजनीति में जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने पर बल दिया । आज लोग इसे यूरोपीय देशों की देन मानने लगे हैं, पर स्वामी जी ने इसे ऋग्वेद में बताई “ सभा “ एवं “ समिति “ के आधार पर वैदिक परम्परा सिद्ध करके वेदों की प्रतिष्ठा बढ़ाई ।

( 3) उन्होंने अर्थ व्यवस्था की ओर भी ध्यान दिया, किसान को “ राजाओं का राजा “ कहा और कर - प्रणाली (Tax System ) ठीक करने तथा भारतीय अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कृषि एवं गोपालन की व्यवस्था सुधारने के साथ ही कुटीर उद्योगों का विकास करने एवं पश्चिमी देशों में विकसित प्रौद्योगिकी का अध्ययन करने की उपयोगिता बताई । हम लोग महात्मा गाँधी के नमक आन्दोलन (1930 ई.) से तो परिचित हैं,पर यह नहीं जानते कि इससे लगभग छह दशक पहले ही महर्षि दयानंद ने नमक पर कर लगाने और वनों से प्राप्त होने वाले ईंधन पर कर लगाने के लिए अँगरेज़ सरकार की कटु आलोचना करके इस आंदोलन की नींव रख दी थी । साथ ही उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने की प्रेरणा दी ।

( 4 ) उन्होंने हिंदी के राष्ट्रीय महत्व की ओर तब ध्यान दिया जब हिंदू पंडित उसे तिरस्कारपूर्वक “ भाखा “ कहते थे । मूलतः गुजराती भाषी, और अपने अध्ययन एवं व्यवहार की भाषा संस्कृत होते हुए भी उन्होंने हिंदी को अपने कामकाज की भाषा बनाया। अपने ग्रंथ हिंदी ही में लिखे और हिंदी का प्रचार करना अपना लक्ष्य बनाया ।

( 5 ) हिन्दू समाज के सामाजिक, धार्मिक आदि विभिन्न प्रकार के सुधारों के लिए जहाँ अन्य नेता ईसाई धर्म और पश्चिमी समाज की नक़ल कर रहे थे, या केवल तर्क का सहारा लेकर प्रचलित परम्पराओं की निंदा कर रहे थे, वहीँ स्वामी दयानंद ने मानव धर्म के मूल आधार वेदों का सहारा लेकर सामाजिक और धार्मिक सुधार का पथ प्रशस्त किया । इस प्रकार उन्होंने वेदों की और प्राचीन भारत की महिमा उजागर की ।

(6) जिन वेदों को लोग गए - गुजरे ज़माने की चीज़ समझने लगे थे, गड़रियों के गीत कहने लगे थे, और हिंदू पंडितों ने जिन्हें धार्मिक कर्मकांड तक सीमित कर दिया था, उन्हें स्वामी जी ने “ ज्ञान – विज्ञान का कोष “ बताकर आधुनिक युग के लिए भी उनकी आवश्यकता सिद्ध की । इस प्रकार वेदों की महिमा बढ़ी और लोगों को उनके अध्ययन की प्रेरणा मिली ।

( 7 ) देश के हज़ारों वर्ष के इतिहास में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वेदों का अनुवाद सामान्य जन की भाषा हिंदी में किया ।

( 8 ) उस युग के अन्य सुधारकों ने जहाँ नए सम्प्रदाय बनाए, वहां महर्षि दयानंद ने कोई नया सम्प्रदाय नहीं बनाया । उन्होंने मानव संस्कृति के मूल आधार ग्रन्थ वेदों में जो कुछ कहा गया है उनमें से उन बातों को स्पष्ट करने का प्रयास किया जिन्हें वेदों के पठन – पाठन की परम्परा नष्ट हो जाने के कारण लोग भूलते चले गए, अज्ञानता के गर्त में गिरते चले गए, कूपमंडूक बनते चले गए, और फिर विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों से घिरते चले गए। स्वामी जी ने बार - बार कहा है कि मेरा प्रयोजन कोई नवीन मत चलाने का नहीं है, बल्कि आदि - सृष्टि से लेकर ब्रह्मा, जैमिनि पर्यंत ऋषिगण जो मानते आए हैं, उपदेश देते आए हैं, उसे ही बताना, जो सत्य है उसे मानना – मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना - छुड़वाना मुझे अभीष्ट है।

सत्यार्थप्रकाश :

उनके जिन विचारों के कारण समाज में विभिन्न स्तरों पर चेतना आई उनमें से अधिकांश का परिचय उनके अमर ग्रन्थ “ सत्यार्थप्रकाश ” से प्राप्त किया जा सकता है। यह एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिससे वैदिक धर्म के साथ ही तत्कालीन भारत में प्रचलित लगभग सभी मत-मतान्तरों का भी परिचय मिल जाता है । इसीलिए इसे धर्मों का विश्वकोश कहा जाता है. । ग्रंथ काफी बड़ा है। उसमें बड़े आकार के लगभग 600 पृष्ठ हैं। स्वामी जी के एक प्रशंसक राजा जयकृष्ण दास डिप्टी कलक्टर थे जो अलीगढ़, वाराणसी, बिजनौर, मुरादाबाद आदि स्थानों पर रहे। उन्हें ब्रिटिश सरकार से C I E की उपाधि भी मिली थी। उन्होंने ही स्वामी जी से यह ग्रन्थ लिखने का अनुरोध किया और पुस्तक के मुद्रण एवं प्रकाशन की जिम्मेदारी स्वयं उठाने का निश्चय किया । इतना ही नहीं, उन्होंने पुस्तक लिखने में स्वामी जी की सहायता करने के लिए पंडित चन्द्रशेखर नामक एक महाराष्ट्रीय व्यक्ति को नियुक्त कर दिया । स्वामी दयानंद ने यह ग्रन्थ बोल-बोल कर लगभग तीन महीने में लिखाया। किसी पुस्तकालय की सुविधा के बिना केवल स्मृति के आधार पर बोल- बोल कर लिखाई पुस्तक में वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों, स्मृतियों , विभिन्न दर्शन ग्रंथों, सूत्रों, महाभारत आदि 377 ग्रंथों के सन्दर्भ और 1542 वेदमंत्रों / श्लोकों के उद्धरण देख कर स्वामी जी की असाधारण स्मरण शक्ति पर आश्चर्य होता है। इसे 1875 ई. में राजा जयकृष्ण दास ने ही प्रकाशित कराया। यह पहला ग्रंथ है जिसमें दार्शनिक विषय भी हिंदी में समझाए गए हैं । पुस्तक की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती गई और न केवल विभिन्न भारतीय भाषाओं में, बल्कि अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी, जापानी, अरबी, बर्मी, स्वाहिली आदि विश्व की प्रमुख भाषाओँ में भी इसके अनुवाद हुए । स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने इसे ऐसा ग्रंथ बताया जिसकी विद्यमानता में कोई विधर्मी हमें बहका नहीं सकता, तो प्रसिद्ध लेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने इसे गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस के पश्चात हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ बताया ।

पुस्तक में दो भाग हैं - पूर्वार्ध और उत्तरार्ध। पूर्वार्ध में दस अध्याय हैं और उत्तरार्ध में चार। इस प्रकार कुल 14 अध्याय हैं जिन्हें ’ समुल्लास ‘ कहा है। पुस्तक के अंत में ’ स्व मन्तव्यामन्तव्य प्रकाश “ ( मैं कौन सी बातें मानता हूँ, और कौन सी नहीं ) शीर्षक से स्वामी जी ने धर्म से संबंधित 51 ऐसे विषयों की वैदिक मान्यताओं के आधार पर बहुत संक्षेप में व्याख्या की है जिनके बारे में समाज में बहुत भ्रम फैला हुआ है ; जैसे, ईश्वर, सगुण - निर्गुण स्तुति , वेद, तीर्थ, मुक्ति, मुक्ति के साधन, प्रारब्ध (भाग्य ), पुरुषार्थ , गुरु, स्वर्ग, नरक, प्रार्थना, उपासना, आदि। इसे हम इस पुस्तक का परिशिष्ट भी कह सकते हैं, और पूरी पुस्तक का सारांश भी। इसे यदि ठीक से समझ लिया जाए तो महर्षि के मन्तव्य को भी ठीक से समझा जा सकता है।

पूर्वार्ध के दस अध्यायों में मानव जीवन का निर्माण करने वाली वैदिक विचारधारा , आश्रम व्यवस्था (अर्थात ब्रह्मचर्य – गृहस्थ – वानप्रस्थ - संन्यास की व्यवस्था), शिक्षा - दीक्षा, राजनीतिक व्यवस्था, दार्शनिक मान्यताओं, साधना पद्धति, भक्ष्य – अभक्ष्य आदि की विवेचना की गई है जो किसी विशेष “ पन्थ “ के अनुयायियों के लिए नहीं, मानव मात्र के स्वीकार करने और आचरण करने योग्य हैं। उत्तरार्ध के चार अध्यायों में भारतवर्ष में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों, मत-मतान्तरों आदि की ऐसी मान्यताओं की समीक्षा की गई है जिनके कारण समाज में अन्धविश्वास, आलस्य और अज्ञान फैला है। स्वामी जी ने यह समीक्षा पूरी सदाशयता के साथ इस प्रकार की है जिससे अन्धविश्वास दूर करने की सामान्य जन को भी प्रेरणा मिले। उनके जीवनकाल में विभिन्न मतावलंबी उनकी सदाशयता से कितने प्रभावित हुए इसका एक उदाहरण है देश की पहली आर्यसमाज की स्थापना जो मुंबई में एक पारसी सज्जन डा माणेक जी अदेरजी की कोठी में हुई , जिसके प्रधान और मंत्री जैन परिवार के युवक (क्रमशः गिरधरलाल दयालदास कोठारी और पानाचंद आनंदजी पारेख) बने, और जब इस भवन का विस्तार करने का निश्चय किया गया तो सर्वाधिक दान (पांच हजार रु.) एक मुस्लिम व्यापारी (सेठ हाजी अलारखिया रहमतुल्ला सोनावाला) ने दिया । जिन लोगों ने किसी भी कारण से अभी तक यह ग्रंथ नहीं पढ़ा है, उनकी सुविधा के लिए इसके प्रत्येक समुल्लास का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है ।

समुल्लासों का परिचय

1.0 भारतीय समाज का सबसे बड़ा अंधविश्वास “बहु-देवतावाद“ है । अतः स्वामी जी ने पहले ही समुल्लास में यह स्पष्ट किया है कि ,

1.1 ईश्वर एक है, और उसका सर्वोत्तम एवं सबसे अधिक प्रसिद्ध नाम ” ओ३म् “ है क्योंकि इस एक शब्द से उसकी अनेक शक्तियों का एक साथ पता चल जाता है।

1.2 वेदों में तथा अन्य वैदिक साहित्य में उसी एक परमात्मा के लिए अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण, शिव आदि अनेक नामों का प्रयोग किया गया है। इन शब्दों के आम बोलचाल में दूसरे अर्थ भी होते हैं। अतः प्रसंग के अनुसार इनका अर्थ समझना चाहिए । जैसे, ” अग्नि “ शब्द का प्रयोग जब स्तुति, प्रार्थना, उपासना के प्रसंग में किया जाता है, तब इसका अर्थ ” परमात्मा “ होता है , पर जब भौतिक पदार्थ के प्रसंग में किया जाता है, तब इसका अर्थ "आग ” होता है।

1.3 हम सब जानते हैं कि परमात्मा के गुण और काम असंख्य हैं, इसीलिए उसके नाम भी असंख्य हैं। इन असंख्य नामों में से एक सौ नामों की स्वामी जी ने व्युत्पत्ति (etymology ) बताकर और वेद एवं अन्य वैदिक साहित्य से प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि (प्राण, अक्षर, पृथ्वी, अन्न, जल, आकाश, वायु , नारायण, मंगल, शुक्र , ब्रह्मा, गणेश, महादेव, शक्ति, लक्ष्मी, शिव, ज्ञान, निराकार, यम, धर्मराज जैसे) विभिन्न शब्दों का अर्थ वही एक परमात्मा किस प्रकार है। शब्द संस्कृत के हैं, अतः उनकी व्युत्पत्ति बताने के लिए संस्कृत की धातुओं, प्रत्ययों, उपसर्गों , रूपों आदि व्याकरण की बातों का उपयोग किया गया है । इसके अतिरिक्त यह विषय भी दार्शनिक है । इसलिए संस्कृत न जानने वाले लोगों के लिए भाषा और विषय दोनों ही दृष्टियों से यह अध्याय थोड़ा कठिन अवश्य है, पर एक ही परमात्मा के अनेक नाम क्यों हैं, यह समझने के लिए इस अध्याय का विशेष महत्व है।

इसके बाद स्वामी जी ने आगामी चार समुल्लासों में मानव जीवन की योजना पर विचार किया है ।

2.0 दूसरे समुल्लास में बच्चों की शिक्षा और इस सम्बन्ध में माता, पिता एवं अध्यापक के कर्तव्यों की चर्चा की है ।

2.1 स्वामी जी ने बच्चों की शिक्षा का प्रारम्भ गर्भाधान से ही बताया है। अतः आवश्यक है कि माता - पिता गर्भाधान से पूर्व ही अपने भोजन, दिनचर्या, विचारों आदि को सात्विक बनाएं, गर्भावस्था के दौरान गर्भस्थ शिशु और माँ दोनों की शारीरिक - मानसिक स्थिति का ध्यान रखें, जन्म हो जाने पर उन सभी बातों का ध्यान रखें जो स्वास्थ्य रक्षा और आयुर्वेद (अर्थात चिकित्सा विज्ञान) की दृष्टि से आवश्यक हों।

2.2 जब बच्चा बोलना शुरू करे तो स्पष्ट उच्चारण की शिक्षा पर ध्यान दें ।

2.3 फिर ठीक से भोजन करने, आचार, व्यवहार , नित्य प्रति के कर्तव्य पालन आदि की शिक्षा दें ।

2.4 स्वामी जी ने समझाया है कि भूत - प्रेत आदि की कपोलकल्पित बातों से बच्चों के कोमल मन दूषित नहीं करने चाहिए ।

2.5 जन्मपत्री, फलादेश, भविष्य कथन, शकुन विचार जैसे पाखंडों की निस्सारता स्पष्ट करते हुए उन्होंने मारण, मोहन, उच्चाटन , वशीकरण मन्त्र - यंत्र - तंत्र आदि अंधविश्वासों के प्रति भी सावधान किया है।

2.6 बच्चों को अच्छे संस्कार देने , शिष्टाचार की शिक्षा देने, सुभाषित - सूक्तियां याद कराने में उन्होंने माता - पिता और गुरु की भूमिका पर विशेष बल दिया है। साथ ही, उन्होंने वैदिक परम्परा के अनुरूप बच्चों को ’ विवेकशील ’ बनाने पर बल दिया है ताकि अच्छे - बुरे का निर्णय वे स्वयं कर सकें ( इस दृष्टि से स्वामी जी ने एक पृथक पुस्तक ‘ व्यवहारभानु ‘ नाम से भी लिखी है ) । वैदिक शिक्षा में बल मतारोपण (indoctrination) पर नहीं, बल्कि मेधावी बुद्धि विवेक विकसित करने पर दिया जाता है । इसीलिए गुरु यहाँ तक कहता है कि, “ यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ” ( तैत्तिरीय उपनिषद , 1/ 11 ) अर्थात जो हमारे अच्छे धर्मयुक्त कर्म हैं, उन्हें ही ग्रहण करना ; यदि कोई दुष्ट कर्म हो तो उसे मत अपनाना । माता –पिता के लिए आवश्यक है कि बच्चों के सामने शुरू ही से परमात्मा के सही स्वरूप की चर्चा करें और उसी की उपासना करें । मद्य - मांस आदि के सेवन से दूर रहें। उन्होंने माता - पिता का कर्तव्य कर्म और परम धर्म यही बताया है कि संतान को तन - मन - धन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त बनाएं।

3.0 तीसरे समुल्लास में शिक्षा की व्यवस्था, शास्त्रों के अध्ययन की विधि आदि पर विचार किया है और प्रत्येक कार्य के लाभों का तार्किक ढंग से विश्लेषण किया है । स्वामी जी ने बताया है कि,

3.1 लड़के - लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था अलग - अलग होनी चाहिए ।

3.2 शिक्षा सबके लिए अनिवार्य होनी चाहिए और एक समान होनी चाहिए ।

3.3 विद्यालय में धन या अन्य किसी आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए, सबके साथ एक सा व्यवहार होना चाहिए ।

3.4 बच्चों को सबसे पहले गायत्री मंत्र अर्थ सहित याद कराएँ जिसमें कहा गया है कि परमात्मा हमारी बुद्धि को शुभ कर्मों में प्रेरित करे । फिर संध्या करना ( जिसमें प्राणायाम करना भी शामिल है ), अग्निहोत्र ( हवन ) करना आदि सिखाएं । ब्रह्मचर्य का पालन करना सिखाएं। महर्षि पतंजलि के बताए अष्टांग योग के यम ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह ) और नियम ( शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान ) का अभ्यास कराएँ ।

3.5 सत्य - असत्य के निर्णय के लिए गौतम ऋषि के न्याय दर्शन एवं अन्य दर्शनों में बताए प्रमाणों ( प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान , शब्द, ऐतिह्य , अर्थापत्ति , संभव, अभाव ) का सहारा लेने का अभ्यास कराएं ।

3.6 स्वाध्याय की आदत डालें ।

3.7 शिक्षा सभी विषयों की ( ज्ञान, विज्ञान, आयुर्वेद, स्थापत्य, दर्शन, विभिन्न कलाओं - कौशलों आदि की ) होनी चाहिए, केवल कुछ विषयों की नहीं । यह तभी संभव है जब “ ऋषियों ” के बनाए ग्रंथों से अध्ययन किया जाए क्योंकि ये ग्रन्थ इस प्रकार लिखे गए हैं कि कम समय में अधिकतम लाभ मिल सके । स्वामी जी ने अनेक विषयों के कतिपय ग्रंथों के नाम भी बताए हैं ।

3.8 कुछ लोगों ने वेदों के अध्ययन के अधिकार से स्त्रियों और शूद्रों को वंचित कर रखा है, उसका विरोध करते हुए स्वामी जी ने प्रमाण देते हुए बताया है कि सदा से वेद सभी लोगों के लिए रहे हैं और उनका अध्ययन करने का अधिकार सबका है ।

4.0 चौथे समुल्लास में गृहस्थ आश्रम के दायित्वों पर विचार किया गया है ।

4.1 स्वामी जी ने इस आश्रम को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना है ।

4.2 बाल विवाह, अनमेल विवाह , वर - वधू की रुचि के विपरीत विवाह आदि का निषेध करते हुए उन्होंने विवाह के लिए गुण - शील - रूप - आयु आदि की समानता पर बल दिया है । इसे वे इतना महत्वपूर्ण मानते हैं कि कहा है, चाहे लड़के - लड़की जन्म भर कुंवारे रहें, पर असमान गुण - शील - स्वभाव वालों का विवाह कभी नहीं होना चाहिए । साथ ही उन्होंने विवाह के सम्बन्ध में माता - पिता से अधिक महत्व लड़के - लड़की की इच्छा एवं सहमति को देते हुए देश की प्राचीन “ स्वयंवर ” प्रथा का समर्थन किया है ।

4.3 विवाह के संबंध में हमारे समाज में “ जाति “ को विशेष महत्व दिया जाता है, पर स्वामी जी ने मध्य युग में विकसित हुई इस “ जन्मना जाति प्रथा ” का विरोध किया है और अपने देश की प्राचीन गुण - कर्म – स्वभाव वाली वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया है । इस वर्ण व्यवस्था में ही यह संभव है कि जन्म देने वाले माता - पिता का वर्ण और संतान का वर्ण अलग - अलग हो । विभिन्न वर्णों के गुण- कर्मों की चर्चा करते हुए स्पष्ट किया है कि जिसे “ द्विजत्व ” कहते हैं वह विशिष्ट “ संस्कारों ” अर्थात गुणों से आता है, किसी परिवार में जन्म लेने से नहीं (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण को “ द्विज ” भी कहते हैं, और जिन गुणों के कारण इन्हें ’ द्विज ’ माना जाता है उन्हें द्विजत्व कहते हैं ) ।

4.4 संतान का पालन - पोषण करना गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य है । इसके लिए समय - समय पर विभिन्न औपचारिक संस्कार भी करने चाहिए क्योंकि ये संस्कार बच्चे को और माता –पिता को अपने दायित्वों की याद दिलाते हैं और उन्हें पूरा करने की प्रेरणा देते हैं ।

4.5 बच्चों को सुशिक्षा देनी चाहिए । इसके लिए परिवार में सुख शान्ति का वातावरण होना चाहिए । यह तभी संभव है जब पति-पत्नी एक दूसरे से संतुष्ट हों और स्त्रियों का परिवार एवं समाज में भरपूर सम्मान हो ।

4.6 गृहस्थियों को “ पंच महायज्ञ ” अवश्य करने चाहिए अर्थात ब्रह्मयज्ञ ( संध्या और स्वाध्याय ), देव यज्ञ ( अग्निहोत्र ), पितृ यज्ञ ( माता - पिता आदि की समुचित देखभाल एवं सेवा ), अतिथि यज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ ( गृहस्थ पर आश्रित प्राणियों की देखभाल - सेवा ) । गृहस्थियों के सहारे ही अन्य आश्रमवासियों ( ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासी ) का जीवन चलता है । अतः गृहस्थियों को अपने दायित्वों का सम्यक ध्यान रखना चाहिए ।

5.0 पांचवें समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की आवश्यकता और इन आश्रमवासियों के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए यह बताया है कि,

5.1 सामान्य रूप से ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम के बाद वानप्रस्थ और फिर संन्यास आश्रम में प्रवेश करना चाहिए, पर जो लोग तीव्र वैराग्यवान हों, सांसारिक सुखों से विमुख हों, लोक मंगल और ईश्वर चिंतन के लिए पूर्णतया समर्पित हों, ब्रह्मचर्य पूर्वक रह सकते हों, वे ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद सीधे संन्यास आश्रम में भी प्रवेश कर सकते हैं ।

5.2 वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने पर व्यक्ति अपने को पुत्रेषणा ( संतान की इच्छा / यौन संतुष्टि) , वित्तेषणा (धन की इच्छा) और लोकेषणा ( समाज में यश-प्रसिद्धि पाने की इच्छा ) से मुक्त करने का प्रयास करे ।

5.3 संन्यास आश्रम में तो वही व्यक्ति प्रवेश करे जो इनसे मुक्त हो जाए, जो विद्वान हो, धार्मिक हो,, परोपकार प्रिय हो। संन्यासी का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए- सभी प्राणियों के हित के लिए काम करना, आत्मशुद्धि करना और ईश्वर का चिंतन करना । संन्यासी अपनी इन्द्रियों पर संयम रखे, विद्या और धर्म के प्रचारार्थ सर्वत्र विचरण करे । निंदा - स्तुति, हानि - लाभ, मान - अपमान आदि में समान रहे । मनुस्मृति में बताए धर्म के दस लक्षणों (धैर्य रखना, क्षमा करना, मन पर नियंत्रण रखना, चोरी न करना, स्वच्छ रहना, इन्द्रियों को संयमित रखना, बुद्धिमत्तापूर्वक काम करना, विद्याभ्यास करते रहना, सत्याचरण करना, और क्रोध न करना) का सदा पालन करे । जो लोग यह सोचते हैं कि संन्यासी को कुछ भी नहीं करना है, बस ऐसे ही निरुद्देश्य घूमते रहना है, उसका विरोध करते हुए स्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि संन्यासी लोकोपकार के लिए ही अपने को समर्पित करता है । अतः उसे विद्या, धर्म, सत्य और न्याय के लिए निरंतर काम करना चाहिए ।


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