Tuesday, August 16, 2016

योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे ओउम योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे संसार का प्रत्येक...

योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे
ओउम
योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे

संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुखी व सम्पन्न रहना चाहता है | यहाँ तक की प्रत्येक जिव जंतु भी अपने सुख को , अपनी सम्पन्नता को बढ़ने का यत्न करता है | सब तेजस्विता चाहते है, निरोगता चाहते है , यश चाहते हैं , सम्मान चाहते हैं | इस सब को पाने के लिए यत्न भी करते हैं | हम देखते हैं की एक साधारण सी चिन्ति भी दिन भर यत्न कर अन्न के कुछ कण एकत्र कर अपने गृह तक ले जाने का यत्न कराती है ताकि संकट कल में उसे कठिनाई न आवे | ऋग्वेद का मन्त्र संख्या ७.५४.३ भी इस और ही संकेत करता है | मन्त्र कहता है की :-
वास्तिश्पते अहगमया संसदा ते, सक्षिम्ही रंवया गातुमत्या |
पाहि क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभि: सदा न: || ऋग्वेद ७.५४.३ ,तैति.३.४.१०.१ ||
हे ग्राहस्थग्य यग्य अग्नि ! हम तुम्हारी शक्ति युक्त ,मनोरम तथा आगे बढ़ने वाली अग्नि से युक्त हों | तुम हमारी योग व क्षेम में रक्षा करो | तुम हमारा सदा कल्याण कर रक्षा करो |
यह मन्त्र हमें पारिवारिक अग्नि की उपासना के सम्बन्ध में बताता है तथा इस मन्त्र के माध्यम से प्रार्थना की गयी है कि गृहस्थ की इस अग्नि से हमारा योग क्षेम हो तथा हमें सब प्रकार के सुख मिलें | पारिवारिक अग्नि को ही गार्हपत्य अग्नि कहा गया है |
गार्हपत्य अग्नि को सदा सुखद कहा जाता है | इस अग्नि को रमणीय भी कहा जाता है तथा यही अग्नि प्रगतिशील होती है | इस सब से स्पष्ट होता है कि यहाँ पर उस अग्नि से भाव नहीं है , जिस के द्वारा हम अपने गृह में प्रतिदिन दूध , चाय, भोजन आदि बनाते है | अपितु यहाँ उस अग्नि से अभिप्राय: है , जिस पवित्र अग्नि से गृह का पर्यावरण दूषण को दूर कर स्वच्छ व रोग रहित बनकर हमें पुष्टि देता है | एसी अग्नि कौन सी हो सकती है ? किंचित से चिंतन से यह स्पष्ट हो जाता है कि एसी अग्नि यज्ञ के अतिरिक्त कोई अन्य अग्नि नहीं हो सकती | यग्य की अग्नि ही परिवार में सुख लाने का कारण होती है , यज्ञीय अग्नि ही परिवार में रमणीयता लाती है, यह ही वह अग्नि है जो परिवार को प्रगति की और ले जाती है तथा प्रगति के शिखरों तक पहुंचाती है | अत: यहाँ पर मन्त्र स्पष्ट संकेत दे रहा है कि परिवार में प्रतिदिन दोनों काल यग्य की अग्नि जलाने से अथवा प्रतिदिन यग्य करने से परिवार के सब दु:ख , क्लेश समाप्त हो कर सर्वत्र सुख सम्रद्धि होती है तथा परिवार प्रगति की और अग्रसर होता है |
अग्नि अघर्श्नीय होती है | अग्नि की यह अघर्ष्नियता भी हमें एक संदेश देती है | यह हमें इंगित करती है कि हम अपने जीवन में सदा अघर्ष्य हों, सदा अजेय हों | जब हम पुरुषार्थ करते हैं तो हम सदा सर्वत्र जय को प्राप्त करते हैं | अत: अग्नि हमें पुरुषार्थी होने के लिए, मेहनती होने के किये , कुछ पाने के किये यत्न करने का संकेत इस माध्यम से देती है | अग्नि सदा उर्ध्वमुख होती है | अग्नि की ऊपर उठती ज्वालायें हमें शिक्षा दे रही है कि हम सदा उच्च से भी उच्च लक्ष्य को पाने के यत्न करें | अपनी दृष्टि को इस उच्च लक्ष्य पर ही टिकाते हुए यत्नशील रहे कभी पीछे अथवा नीचे न देखें | कभी भी निगम मार्ग की और न बढें , कभी भी गिरे हुए मार्ग पर न जावें , नीच कार्य न करें | इस प्रकार के यत्न से हम अपने उद्देश्य को पाने में निश्चित रूप से सफल होंगे |
अग्नि में सदा प्रकाश रहता है , तेजस्विता रहती है | अग्नि का यह प्रकाश , यह तेजस्विता हमें शिक्षा दे रही है कि हम न केवल स्वयं ज्ञान ( वेद ज्ञान ) से अपने आप को ही प्रकाशित करें अपितु सकल जगत में भी वेद का यह ईश्वरीय ज्ञान फैला कर विश्व को भी प्रकाशित करें | हम न केवल अपने स्वयं के जीवन को ही तेजस्विता से भरपूर न करें बल्कि अपने साथ ही साथ अन्य सब को भी तेजस्वी बनाने के लिए उन्हें भी एसी ही शिक्षा दें |
मन्त्र के दूसरे भाग में योगक्षेम की प्रार्थना करते हुए उपदेश किया गया है कि( योग का अर्थ है अप्राप्त धन की प्राप्ति अथवा जोड़ तथा क्षेम का अर्थ है प्राप्त धन की सुरक्षा अर्थात) हम पुरुषार्थ करते हुए, सतत मेहनत व यत्न करते हुए उस धन को पावें जो हमारे पास नहीं है तथा जो धन – धाम हमारे पास है , उसके हम स्वामी बने रहने के लिए उस कि रक्षा के भी समुचित उपाय करें | इस प्रकार पुरुषार्थ से लाभान्वित होने व प्राप्त की सुरक्षा को ही मन्त्र योगक्षेम के नाम से स्पष्ट करता है | यदि इसे हम सामान्य भाव से लें तो इस का भाव है कुशलता |
यह पारिवारिक यज्ञ ही है जो हमें सब प्रकार के रोग ,शौक से दूर कर कुशलता, स्वस्थता , पुष्टता देता है | अत: मन्त्र कहता है कि हम सदा प्रतिदिन दोनों काल अपने घर में यज्ञाग्नि को जलावें, प्रज्वलित करें , यज्ञ करें व कराएँ ताकि परिवार के सब कष्ट दूर हो कर हम पारिवारिक कुशलता को प्राप्त करें,, पारिवारिक सुखों मैं वृद्धि करें |
अथर्ववेद के एक अन्य मन्त्र में भी इस आशय को ही स्पस्ट करते हुए कहा है कि : –
उपोहश्च समुहश्च क्षतारो ते प्रजापते |
ताविहा वहतां स्फातिं ,बहु भूमानमक्शितम || अथर्ववेद ३.२४.७||
हे प्रभु | धन का संकलन तथा संवर्धन ये दोनों तेरे अग्रदूत हैं | ये दोनों यहाँ समृद्धि को लावें | यह अत्यधिक अक्षयपुर्नता को भी प्रदान करें |
इस मन्त्र में योगक्षेम के लिए उपोह तथा समूह शब्द दिए हैं | यह शब्द समृद्धि का अग्रदूत अथवा समृद्धि रूपी रथ का सारथि कहा गया है | यह दोनों शब्द विवेक की दो शक्तियां होती हैं :-
१) इन में से एक शक्ति का काम होता है ग्रहण अथवा लाभ यह शक्ति परिवार में कुछ नया (धन ) लाने का कार्य करती है | नया कहाँ से आवेगा, जब परिवार के लोग यत्न करेंगे | अत: यह शक्ति हमें पुरुषार्थ का आदेश देती है | ताकि इससे लाभान्वित हो ( परिवार के धन में) कुछ और भी धन जोड़ कर परिवार को लाभान्वित करें यह धन हम कैसे प्राप्त करें, कहाँ से लावें, किस प्रकार लावें , इन सब विषयों पर चिंतन , मनन व विचार का कार्य इस शक्ति के आधीन होता है | अत: किस प्रकार धनार्जन किया जावे , परिवार के धन की किस प्रकार वृद्धि हो , इस सब विचार करने को विवेक या विवेक की उपोह शक्ति के क्षेत्र में आता है |
२) विवेक की जिस दूसरी शक्ति की और मन्त्र इंगित करता है , वह है समूह | समूह उसे कहते हैं , जो प्राप्त धन की समुचित सुरक्षा अथवा संरक्षण करता है | उस धन का समुचित सदुपयोग किस प्रकार किया जावे तथा किस प्रकार उस धन का विनियोग किया जावे , यह सब इस दूसरी शक्ति के ही आधीन होता है | विवेक के इन दो पक्षों को प्रजापति तथा समृद्धि का अग्रदूत भी कहा गया है क्योंकि धन का उपार्जन, उसका रक्षण व उपयोग की विधि ही धन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है |
यदि हम विचार करें तो हम पाते हैं कि विवेक के इन दो पक्षों को परिवार के मुखिया पति एवं पत्नी पर भी लागू किया जाना आवश्यक होता है | परिवार का मुखिया अर्थात पति का कार्य होता है धन प्राप्ति या धनार्जंन की चिंता करना, इसके उपाय खोजना व एतदर्थ यत्न करना | जबकि पत्नी प्राप्त धन को सुरक्षित करने , उसे संभालने , उसका परिवार की आवश्यकताओं के अनुरूप समुचित उपयोग, प्रयोग करने का कार्य करती है | इस प्रकार इन दो शक्तियों उपोह व समूह का संचित होने से जो नाम बनता है उसे ही योगक्षेम कहते हैं | जब यह दोनों शक्तियां समन्वित हो जाती हैं तो उसे दम्पति कहा गया है |
संक्षेप में यह दोनों मन्त्र हमें उपदेश देते हैं कि हम प्रतिदिन दोनों काल परिवार में यग्य करें | परिवार का वायुमंडल शुद्ध कर उसके पर्यावरण को शुद्ध कर परिवार को पुष्ट कर शद्ध धन की प्राप्ति करें तथा उस धन से हम न केवल परिवार की पुष्टि करें अपितु प्राप्त धन के सहयोग से इस धन की वृद्धि व संरक्षण का कार्य भी करें | एसा करने से ही गृहस्थ का उदेश्य संपन्न होकर हम योगक्षेम को प्राप्त करेंगे व सच्चे अर्थों में दम्पति कहलाने के अधिकारी बनेंगे |


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