ओ३म्
*🌷विदुर-नीति🌷*
*नष्टं समुद्रे पतितं नष्टं वाक्यमश्रृण्वति ।*
*अनात्मनि श्रुतं नष्टं नष्टं हुतमनग्निकम् ।।* ―(७/३९)
*भावार्थ―* समुद्र में गिरी हुई वस्तु और न सुनने वाले के प्रति कहा गया वचन नष्ट हो जाता है। बुद्धिहीन मनुष्य में शास्त्र और भस्म में किया हुआ हवन भी नष्ट हो जाता है।
*अकीर्ति विनयो हन्ति हन्त्यनर्थं पराक्रमः ।*
*हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम् ।।*
―(७/४१)
*भावार्थ―* विनय अपयश को नष्ट कर देता है,पराक्रम संकटों को मार भगाता है, क्षमा क्रोध को नष्ट कर डालती है और सदाचार दुर्व्यसनों को नष्ट कर देता है।
*दुर्बुद्धिमकृतप्रज्ञं छन्नं कूपं तृणैरिव ।*
*विवर्जयीत मेधावी तस्मिन्मैत्री प्रणश्यति ।।*
―(७/४७)
*भावार्थ―*बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि मूर्ख और कृतघ्न (किसी के किये हुए उपकार को भूलाने वाला) को तिनकों से ढके हुए कुएँ के समान त्याग दे,क्योंकि उसके साथ की हुई मित्रता नष्ट हो जाती है।
*येन खट्वां समारुढः परिप्येत कर्मणा ।*
*आदावेव न तत्कुर्यादध्रुवे जीविते सति ।।* ―(७/२८)
*भावार्थ―*जिस कर्म को करके मनुष्य को खाट पर पड़े हुए सन्ताप करना पड़े, नींद हराम हो जाए अथवा किसी को मुँह दिखाने योग्य न रहे, उसे उचित है कि जीवन को अनिश्चित एवं क्षणभंगुर समझकर उस कार्य को आरम्भ में ही न करे।
*निवर्तमाने सौहार्दे प्रीतिर्नीचे प्रणश्यति ।*
*या चैव फलनिर्वृत्तिः सौह्रदे चैव यत्सुखम् ।।*
*यतते चापवादाय यत्नमारभते क्षये ।*
*अल्पेऽप्यपकृते मोहान्न शान्तिमधिगच्छति ।।*
*तादृशैः संगतं नीचैर्नृ शंसैरकृतात्मभिः ।*
*निशम्य निपुणं बुद्ध्या विद्वान् दूराद् विवर्जयेत् ।।*
―(७/१४-१५-१६))
*भावार्थ―*मित्रता के हट जाने पर नीच मनुष्यों की प्रीति नष्ट हो जाती है। उस मैत्री से फल की प्राप्ति और उसका सुख भी नष्ट हो जाता है। वह नीच व्यक्ति मित्र को निन्दित और नष्ट करने के लिए यत्न करता है। जो थोड़ा-सा भी अपकार(अहित) हो जाने पर मोहवश शान्त नहीं होता, ऐसे नीच, कठोरह्रदय और दुष्ट मनुष्य की मित्रता [ संगति ] को विद्वान् बुद्धिपूर्वक विचारकर दूर से ही त्याग दे।
*तपो बलं तापसानां ब्रह्म ब्रह्मविदां बलम् ।*
*हिंसा बलमसाधूनां क्षमा गुणवतां बलम् ।।* ―(७/६८)
*भावार्थ―* तपस्वियों का बल तप है,ब्रह्मवेत्ताओं का बल वेद और ईश्वर है, दुष्टों का बल हिंसा है और गुणवानों का बल क्षमा है।
*अक्रोधेन जयेत्क्रोधमसाधुं साधुना जयेत् ।*
*जयेत् कदर्यं दानेन जयेत्सत्येन चानृतम् ।।* ―(७/७१)
*भावार्थ―*क्रोध को शान्ति से जीते, दुष्ट को सज्जनता से वश में करे, कंजूस को दान से जीते और असत्य को सत्य से जीते।
*अतिक्लेशेन येऽर्थाः स्युर्धर्मस्यातिक्रमेण वा ।*
*अरेर्वा प्रणिपातेन मा स्म तेषु मनः कृथाः ।।* ―(७/७४)
*भावार्थ―*जो धन वा प्रयोजन अत्यन्त कष्ट से, धर्म का उल्लंघन करने से अथवा शत्रु के समक्ष झुकने से सिद्ध हों, उनमें मन मत लगा अर्थात् उनकी इच्छा मत कर।
*मार्दवं सर्वभूतानामनसूया क्षमा धृतिः ।*
*आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणां चावमानना ।।* ―(७/५१)
*भावार्थ―* विद्वान् लोग कहते हैं कि सब प्राणियों के प्रति कोमलता अथवा दया का व्यवहार, गुणों में दोष न देखना, सहनशीलता, धैर्य और मित्र का तिरस्कार न करना―ये गुण आयु को बढ़ाने वाले हैं।
*अवलिप्तेषु मूर्खेषु रौद्रसाहसिकेषु च ।*
*तथैवापेतधर्मेषु न मैत्रीमाचरेद् बुधः ।।* ―(७/४८)
*भावार्थ―* विद्वान् मनुष्य को चाहिए कि वह अहंकारी,दुःसाहसी, मूर्ख, क्रोधी, विवेकरहित और धर्महीन मनुष्यों के साथ मित्रता न करे।
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