“पौराणिक पोल प्रकाश”-पुस्तक पर आक्षेप
महर्षि दयानंद क्रन्तिकारी थे. उन्होंने भारत के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित करने के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया. मरती हुई आर्यजाति में उन्होंने सिंह का पराक्रम फूंक दिया. पाखण्डवाद के विरुद्ध उन्होंने क्रांति का उदघोष किया. परन्तु उसी समाज ने उन्हें कई बार जहर देकर मारने की कोशिश की और अंत में मार भी दिया । लेकिन फिर भी उन्होंने कभी किसी को अपशब्द नहीं कहे । बल्कि दोगुनी ताकत से समाज से भिड़ते रहे.
महर्षि के बलिदान के पश्चात् भी अनेकों लोगों ने महर्षि दयानंद के ग्रंथों पर लेखनी उठाई. अनेक ग्रन्थ उनके खंडन में लिखे गए. इसी प्रकार का एक ग्रन्थ लगभग १९३० में भी एक पौराणिक पंडित कालूराम शास्त्री ने अभद्र शीर्षक के साथ लिखा, जिसमें उन्होंने आर्यसमाज, आर्यसमाजियों तथा ऋषि दयानंदजी को भरपेट गालियाँ देने में ही अपनी योग्यता की पराकाष्ठा समझी. असभ्य तथा वीभत्स भाषा में लिखी गयी इस पुस्तक का उत्तर पंडित मनसारामजी “वैदिक तोप” ने १९३६ में बहुत ही सभ्य और सम्मानजनक भाषा में अपनी पुस्तक “पौराणिक पोप पर वैदिक तोप” तथा “पौराणिक पोल प्रकाश” लिख कर दिया.
“पौराणिक पोल प्रकाश”- पुस्तक क्या है, रत्नों से तोलने योग्य है. यह ग्रन्थ पाठकों के मन और मस्तिष्क को ज्ञान-ज्योति से भर देगा. इसके अध्ययन से उन्हें वैदिक सिद्धांतों की महत्ता और सार्वभौमिकता का ज्ञान होगा. महर्षि पर जितने भी आक्षेप किये गए हैं, उन सबका यह मुहंतोड़ उत्तर है. प्रमाणों की झड़ी लगी हुई है. पुस्तक ऐसी है की पढते ही अपने पाठकों के हृदयों पर अपना सिक्का जमा देगी. पुराणों से ही प्रमाण देकर लेखक ने पुराणों की अश्लीलता, खोखलेपन और अनर्गलता का पर्दा फाश किया है. इन्ही आलोचनाओं से घबराकर लोगों ने अपने ग्रंथों को बदल डाला, या तो अनेक शलोकों को निकाल डाला या अनेक स्थनों पर पाठ ही बदल दिये.
८० वर्ष पूर्व लिखी गयी इस पुस्तक को अभी तक कुछ लोग हज़म नहीं कर पाये हैं और अभी हाल ही में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर का ईमेल प्राप्त हुआ है.“पौराणिक पोल प्रकाश” पुस्तक के पृष्ठ ९७, ९८ व ९९ पर शिव लिंग का एक प्रश्न आया है जिसका उत्तर पंडित मनसारामजी ने भविष्य, गरुड़, शिव, ब्रह्मवैवर्त व भागवत पुराणों से प्रमाण सहित दिया है. वह प्रोफेसर पूछते हैं कि क्या जो हिंदी व्याख्या इन उपरोक्त पुराणों के श्लोकों की दी गयी है वह personal व्यक्तिगत व्याख्या है? या वह सन्दर्भ उन्हें बताये जाएँ जहाँ से यह हिंदी व्याख्याएं लीं गयी हैं. क्योंकि उन्हें यह व्याख्याएं disgustingdisgustingdisgusting यानि घिनौनी लगती हैं. वह यह भी धमकी देते हैं की यदि हमने उन्हें यह सन्दर्भ नहीं दिखाए तो वह प्रकाशक व पुस्तक को बढावा देने वालों (अर्थात आर्य समाज पर) कानूनी कार्यवाही के लिए बाध्य हो जायेंगे.
इस पर विभिन्न विद्वानों से चर्चा के बाद निष्कर्ष यह निकलता है कि पुराणों से जो संस्कृत श्लोक उधृत किये गए हैं उनका हिंदी अनुवाद तो वही होगा जो पंडित मनसारामजी ने दिया है. यदि वह कहते है कि यह व्याख्याएंdisgustingdisgusti घिनौनी हैं तो यह तो हमारे विद्वान ने ८० वर्ष पूर्व ही कह दिया, फिर मतभेद कहाँ, बल्कि अब समय है कि चिंतन-मनन कर इन प्रक्षेपों से छुटकारा पाया जाये. यदि वह इसीलिए कानून कार्यवाही करना कहते हैं की हमारे विद्वान् ने यह ८० वर्ष पहले ही क्यों कह दिया तो यह मुर्खता की पराकाष्टा है.
हमें लगता है की इस तरह के प्रश्न कानूनी परीधि से परे हैं. किसी संस्कृत श्लोक की हिंदी व्याख्या क्या है इस पर कोई कोर्ट कैसे राय देगा? यदि वह वास्तविक निदान चाहते हैं तो उन्हें कानून से पृथक मंच पर आना पड़ेगा, और हमने उन्हें यही लिखा है कि बिना प्रतिकूल प्रभाव डाले आर्य समाज खुले मन से इस पर चर्चा के लिए तैयार है कि इस पुस्तक में ऐसी कोई सामग्री नहीं जो किसी कि भावनाओ को चोट पहुंचती हो और ऐसा हमारे विद्वान् का कोई उद्देश्य भी नहीं है. सत्य को सत्य कहना ही इसका एकमात्र उद्देश्य है.
यह प्रसंग इसीलिए यहाँ दिया जा रह है कि हमारे पाठक भी इस पर चिंतन-मनन करें और ऐसी किसी भी चुनौती के लिए तैयार रहें.
-संपादक वेद प्रकाश
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