★★★★ हर मनुष्य के लिए दो विकल्प खुले हैं ★★★★
एक अति प्राचीन कथा है।
घने वन में एक तपस्वी साधनारत
था – आंख बंद किए सतत प्रभु-स्मरण में
लीन। स्वर्ग को पाने की उसकी आकांक्षा थी; न
भूख की चिंता थी, न प्यास की चिंता थी। एक दीन-दरिद्र
युवती लकड़ियां बीनने आती थी वन में। वही दया खाकर कुछ फल तोड़ लाती, पत्तों के दोने बना कर सरोवर से जल भर लाती, और तपस्वी के पास छोड़ जाती। उसी सहारे
तपस्वी जीता था। फिर धीरे-धीरे उसकी तपश्चर्या
और भी सघन हो गई – फल बिना खाए ही पड़े
रहने लगे; जल दोनों में पड़ा-पड़ा ही गंदा हो
जाता – न उसे याद रही भूख की और न
प्यास की। लकड़ियां बीनने वाली युवती
बड़ी दुखी और उदास होती, पर कोई
उपाय भी न था।
इंद्रासन डोला; इंद्र चिंतित हुआ;
तपस्या भंग करनी जरूरी है; सीमा के
बाहर जा रहा है यह व्यक्ति – क्या स्वर्ग के
सिंहासन पर कब्जा करने का इरादा है? लेकिन
कठिनाई ज्यादा न थी, क्योंकि इंद्र मनुष्य के मन को
जानता है। स्वर्ग से जैसे एक श्वास उतरी–सूखी, दीन-दरिद्र, काली-कलूटी वह युवती अचानक अप्रतिम सौंदर्य से भर गई; जैसे एक किरण उतरी स्वर्ग से और उसकी साधारण सी
देह स्वर्णमंडित हो गई। पानी भर रही थी सरोवर से
तपस्वी के लिए, अपने ही प्रतिबिंब को देखा,
भरोसा न कर पाई – साधारण स्त्री न रही,
अप्सरा हो गई; खुद के ही बिंब को देख
कर मोहित हो गई! तपस्वी की सेवा
उसने करनी जारी रखी।
फिर एक दिन तपस्वी ने आंख
खोलीं। इस वनस्थली से जाने का
समय आ गया – तपश्चर्या को और गहन
करना है, पर्वत-शिखरों की यात्रा पर जाना है।
उसने युवती से कहा कि मैं अब जाऊंगा, यहां मेरा
कार्य पूरा हुआ। अब और भी कठिन मार्ग चुनना है, स्वर्ग
को जीत कर ही रहना है।
युवती रोने लगी। उसकी आंख से
आंसू गिरने लगे। उसने कहा, मैंने कौन
सा दुष्कर्म किया कि मुझे अपनी सेवा से वंचित
करते हो? और तो कुछ मैंने कभी मांगा नहीं! तपस्वी ने
सोचा, उस युवती के चेहरे की तरफ देखा। ऐसा सौंदर्य कभी देखा नहीं था। स्वप्न में भी ऐसा सौंदर्य कभी देखा नहीं था। युवती पहचानी भी लगती थी और अपरिचित भी लगती
थी। रूप-रेखा तो वही थी, लेकिन कुछ महिमा उतर
आई थी। अंग-प्रत्यंग वही थे, लेकिन कोई स्वर्ण-
आभा से घिर गए थे। जैसे कोई गीत की कड़ी,
भूली-बिसरी, फिर किसी संगीतज्ञ ने बांसुरी
में भर कर बजाई हो।
तपस्वी बैठ गया। उसने पुनः
आंख बंद कर लीं। वह रुक गया।
उस रात युवती सो न सकी – विजय का
उल्लास भी था और साधु को पतित करने का
पश्चात्ताप भी। आनंदित थी कि जीत गई और दुखी
थी कि किसी को भ्रष्ट किया, किसी के मार्ग में बाधा बन
गई, और कोई जो ऊर्ध्वगमन के लिए निकला था, उसकी
यात्रा को भ्रष्ट कर दिया। रात भर सो न सकी – रोई भी, हंसी भी। सुबह निर्णय लिया, आकर तपस्वी के चरणों में झुकी
और कहा, मुझे जाना पड़ेगा, मेरा परिवार दूसरे गांव जा
रहा है।
तपस्वी ने आशीर्वाद दिया कि जाओ,
जहां भी रहो, खुश रहो, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे
साथ है। युवती चली गई। वर्ष बीते, तपस्या पूरी हुई।
इंद्र उतरा, तपस्वी के चरणों में झुका और कहा, स्वर्ग के द्वार स्वागत के लिए खुले हैं।
तपस्वी ने आंखें खोलीं और कहा,
स्वर्ग की अब मुझे कोई जरूरत नहीं! इंद्र
तो भरोसा भी न कर पाया कि कोई मनुष्य और
कहेगा कि स्वर्ग की मुझे अब कोई जरूरत नहीं। इंद्र
ने सोचा, तब क्या मोक्ष की आकांक्षा इस तपस्वी को पैदा
हुई है। पूछा, क्या मोक्ष चाहिए?
तपस्वी ने कहा, नहीं,
मोक्ष का भी मैं क्या करूंगा।
तब तो इंद्र चरणों में सिर रखने को
ही था कि यह तो आत्यंतिक बात हो गई,
तपश्चर्या का अंतिम चरण हो गया, जहां मोक्ष
की आकांक्षा भी खो जाती है। पर झुकने के पहले
उसने पूछा, मोक्ष के पार तो कुछ भी नहीं है, फिर तुम
क्या चाहते हो?
उस तपस्वी ने कहा, कुछ भी नहीं,
वह लकड़ियां बीनने वाली युवती कहां है, वही चाहिए।
हंसना मत; आदमी की ऐसी कमजोरी है।
सोचना, हंसना मत; क्योंकि पृथ्वी का ऐसा प्रबल
आकर्षण है। कहानी को कहानी समझ कर टाल मत
देना, मनुष्य के मन की पूरी व्यथा है। और ऐसा मत सोचना
कि ऐसा विकल्प उस तपस्वी के सामने ही था कि युवती
थी, स्वर्ग था, दोनों के बीच चुनना था। तुम्हारे सामने
भी विकल्प वही है; सभी के सामने विकल्प वही है
– या तो उन सुखों को चुनो जो क्षणभंगुर हैं, या
उसे चुनो जो शाश्वत है।
और अधिकतम लोग वही चुनेंगे,
जो तपस्वी ने चुना। ऐसा मत सोचना
कि तुमने कुछ अन्यथा किया है। चाहे इंद्र
तुम्हारे सामने खड़ा हुआ हो या न खड़ा हुआ
हो; चाहे किसी ने स्पष्ट स्वर्ग और पृथ्वी के विकल्प
सामने रखे हों, न रखे हों – विकल्प वहां हैं। और जो एक
को चुनता है, वह अनिवार्यतः दूसरे को गंवा देता है। जिसकी आंखें पृथ्वी के नशे से भर जाती हैं,वह स्वर्ग के जागरण से वंचित रह जाता है। और जिसके हाथ पृथ्वी की धूल से
भर जाते हैं, स्वर्ग का स्वर्ण बरसे भी तो कहां बरसे,
हाथों में जगह नहीं होती! हाथ खाली चाहिए तो
ही स्वर्ग उतर सकता है; आत्मा खाली चाहिए
तो ही परमात्मा विराजमान हो सकता है।
~ ओशो ~
(भज गोविन्दम मूढ़मते, प्रवचन #8)
from Tumblr http://ift.tt/2aJyP72
via IFTTT
No comments:
Post a Comment