ओ३म्
*🌷मनुष्य हैं या पत्थर की मूर्त्तियाँ🌷*
सरपट घोड़ा दौड़ाते-दौड़ाते थककर और चूर होकर सवार ने ग्राम से बाहर एक सुन्दर घनी छाँव देखी और घोड़े से उतरकर वहीं विश्राम करने लगा।एक-दो घण्टे व्यतीत हो गये।इतने में उसने देखा कि सामने के सुन्दर मन्दिर में लोग झुण्ड-के -झुण्ड इकट्ठे हो रहे हैं।सवार अपने स्थान से उठा और मन्दिर की और चल पड़ा।अन्दर प्रविष्ट हुआ और पूछा-“आज यहाँ क्या हो रहा है।”
उत्तर मिला,इस स्थान पर प्रतिदिन कथा हुआ करती है।लोग कथा सुनने के लिए एकत्रित हो रहे हैं।
सवार ने भी कथा सुनने का मन बनाकर घोड़े को वृक्ष के साथ बाँध दिया और एक कोने में चुपचाप बैठकर कथा सुनने लगा।
आज का विषय “वैराग्य” था।कथा करने वाले की आवाज ह्रदय को लुभाने वाली और कथा करने का ढंग मनोहारी था।सबसे बढ़कर शास्त्र के वचन ह्रदय पर प्रभाव करने वाले थे।
*कथा हो रही थी-“संसार में असंख्य दुःख हैं।इन दुःखों से बचने का उपाय केवल वैराग्य है।जो लोग अपने जीवन को संसार के धन्धों में ही नष्ट कर देते हैं,उन्हें आगामी जीवन में न सुन्दर मुखमण्डल,न प्यारी-प्यारी आँखें,न सोचने-समझने वाला मस्तिष्क,न ही विद्या पढ़ने की शक्ति और न ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने का अधिकार दिया जाता है।ऐसे लोगों को ऐसे कारागारों में बन्द कर दिया जाता है,जिनकी शक्लें व सूरतें भौंडी और घृणित होती हैं।किसी की थूथनी निकली होती है।किसी की चार टाँगें होती हैं;किसी की सहस्रों,किसी की होती ही नहीं।इनकी दृष्टि नीची कर दी जाती है (पशु योनि)।शर्म के कारण उन्हें गर्दन ऊँचा करने का साहस नहीं होता।इसी प्रकार इनका श्रेष्ठ जीवन घृणित जीवन में परिवर्तित हो जाता है।इसलिए हे दुनिया वालों ! हे संसार के धन्धों में फँसे हुए लोगों ! क्षण-क्षण में परमात्मा के नाम का स्मरण करो।सदा ‘ओम्’ का जप करते रहो।यह जप कल्याण करने वाला है।श्वास का कुछ भरोसा न रख।जो श्वास तूने बाहर भेज दिया,क्या जाने फिर आ सके या न आ सके।बस,इसी समय 'ओम्’ का जप आरम्भ कर दे।ह्रदय में वैराग्य पैदा कर और संसार के धन्धों से बच।”*
सवार ने इस वैराग्य उत्पन्न करने वाले उपदेश को सुना।कथा समाप्त हुई।सवार भी उठा।बाहर आया।अपना सारा सामान उसी समय लोगों में बाँट दिया।घोड़ा भी एक लूले-लङ्गड़े को दान में दे दिया।स्वयं एक चादर शरीर पर ओढ़े वैरागी बनकर आगे चल पड़ा।
वैरागी सवार इसी प्रकार वर्षों घूमता रहा।ईश्वर भक्ति में अपना बहुमूल्य समय लगाता रहा।तपस्या के द्वारा अपने मन को वश में करता रहा और फिर लोगों को ईश्वरभक्ति का उपदेश देता रहा।
होते-होते बारह वर्ष बीत गये।वही ऋतु थी।गर्मी के दिन थे।वैरागी सवार उसी गाँव की ओर,जहाँ उसे वैराग्य का उपदेश मिला था,आ निकला।मन्दिर के निकट वैसी ही मनोहारी छाया थी।मन्दिर भी उसी प्रकार बना हुआ था।वैरागी सवार ने देखा,लोग उसी प्रकार मन्दिर में जा रहे हैं।भीड़-भाड़ पर्याप्त है।
वैरागी साधु चकित था।हैं ! बारह वर्ष के पश्चात् वैसी ही भीड़-भाड़।एक व्यक्ति को पकड़कर पूछा-“क्योंजी ! यहाँ मन्दिर में क्या हो रहा है?”
*मनुष्य-*महाराज ! कथा हो रही है।
*वैरागी-*यह कथा कब से हो रही है?
*मनुष्य-*भगवन् ! आज कोई बीस वर्ष से हो रही है।
*वैरागी-*ये सुनने वाले कब से सुन रहे हैं?
*मनुष्य-*स्वामिन् ! कोई बीस वर्ष से,कोई दस वर्ष से।कोई कम से,कोई अधिक से।इसी प्रकार से सुन रहे हैं।
*वैरागी-*क्या ये सुनने वाले जीवित लोग हैं, सचमुच के मनुष्य हैं अथवा पत्थर और लकड़ी की मूर्त्तियाँ हैं।
*मनुष्य-*नहीं महाराज ! यह आप क्या कहते हैं?
*वैरागी-*क्या झूठ कहता हूँ।हमने तो इसी मन्दिर में इसी कथा करने वाले से एक ही दिन कथा सुनी थी।शास्त्र की एक ही चाबुक लगी थी,परन्तु ये लोग विचित्र हैं, जो इतने समय से शास्त्र की चाबुकें खा रहे हैं और फिर भी इन्हें होश नहीं आती।ऐसी अवस्था में इन्हें मनुष्य समझें या पत्थर की मूर्त्तियाँ?
*यह एक मनोरञ्जक कहानी है।जो अत्यन्त सुन्दरता से आर्यपुरुषों पर लागू होती है।आर्यपुरुष तनिक अपनी अवस्था देखें और बतलाएँ कि क्या वे सचमुच के मनुष्य हैं या पत्थर की मूर्त्तियाँ, क्योंकि वर्षों से आर्यसमाज में व्याख्यान,भाषण और उपदेश होते रहते हैं,परन्तु देखा जाता है कि न केवल नये आर्यभाई भी,अपितु पुराने-से-पुराने आर्यपुरुष भी उन पर आचरण करके दिखलाने का प्रयत्न नहीं करते।कई बार घोषणा हो चुकी है कि वृद्ध आर्यपुरुषों को अब संन्यास धारण करना चाहिए।वानप्रस्थी बनना चाहिए,परन्तु हाय रे सांसारिक धन्धो ! तुम्हारा कल्याण हो जो इन वृद्धों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगने देते।*
*क्या जानें संसार के धन्धे अधिक मीठे हैं,अधिक रसीले हैं,जो इन वृद्धों को जातिसेवा और ईश्वरभक्ति की ओर लगने नहीं देते अथवा इन धन्धों से पीड़ित,दुखित और क्लेशित होकर भी आजीवन कैदी की भाँति वे इस कैदखाने (कारागार) को छोड़ना नहीं चाहते।ये पंक्तियाँ केवल और केवल वृद्ध आर्यपुरुषों के लिए लिखी गई हैं।*
क्या वे इस बात का उत्तर देंगे कि क्या वे-
*सचमुच के मनुष्य हैं या पत्थर की मूर्त्तियाँ।*
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