★★★★ मनुष्य का मृत्यु से भय का कारण ★★★★
अधिक लोगों की जीवन की यात्रा
तो व्यर्थ है ही, मृत्यु की मंजिल भी व्यर्थ
हो जाती है। और इसीलिए तो तुम इतने डरे
हुए हो मृत्यु से। तुम्हारा डर मृत्यु का डर नहीं है,
तुम्हारा डर इसी बात का है कि अभी तो जीवन जिया
नहीं, कहीं मौत न आ जाए! अभी तो फल पका नहीं, कहीं
डाल से गिर न जाए। अभी तो वृक्ष फूला भी नहीं, कहीं सूख न जाए। अभी वसंत तो आया ही नहीं और यह पतझड़ आने
लगा और ये पत्ते सूखने और झरने लगे। तुम्हारा भय
मृत्यु का भय नहीं है, तुम्हारा भय है कि आज तक
तो मैं व्यर्थ ही रहा हूं और कल का अब कुछ
भरोसा न रहा। मौत तुमसे “कल” छीन
लेगी, और क्या छीनेगी? लेकिन जो
आज जिया है, उससे क्या छीन
सकती है मौत? मौत सिर्फ
“कल” छीन सकती है,
“आज” नहीं छीन सकती।
मौत सिर्फ भविष्य छीन सकती है,
वर्तमान नहीं छीन सकती। तुम मौत की
नपुंसकता देखते हो, सिर्फ भविष्य छीन सकती
है; भविष्य - जोकि है ही नहीं; वर्तमान को नहीं छीन
सकती; वर्तमान – जोकि है।
इसलिए जो वर्तमान में जीना सीख ले
वही संन्यासी है। और जो वर्तमान में जी
लेता है, वह परमात्मा से परिचित हो जाता है
क्योंकि वर्तमान परमात्मा की अभिव्यक्ति है। अनंत -
अनंत रूपों में, वह एक ही प्रकट हो रहा है - वही पक्षियों
के गीत में, वही रात के सन्नाटे में, वही झरनों के संगीत में, उसी की टंकार है वीणा में, वही बादलों की गड़गड़ाहट में।
~ ओशो ~
(गुरु परताप साध की संगति, प्रवचन #5)
from Tumblr http://ift.tt/2aJyVfg
via IFTTT
No comments:
Post a Comment