Wednesday, October 11, 2017

 हिन्दू सत्य सनातन धर्म की - अद्भुत पूजा पद्धति जो पूर्णतया वेदानुकूल है,अनुकरणीय है, ध्यान मुद्रा...

 हिन्दू सत्य सनातन धर्म की - अद्भुत पूजा पद्धति जो पूर्णतया वेदानुकूल है,अनुकरणीय है, ध्यान मुद्रा में बैठ कर निम्न वेदमंत्रों का अर्थ सहित चिन्तन करें, ईश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करें-*

*अथ वैदिक सन्ध्या*-


ओ३म्‌ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ॥

-यजु. ३६.३


ओ३म्‌ शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभि स्रवन्तु नः॥

-यजु. ३६.१२

(दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें)


ओं वाक्‌ वाक्‌। ओं प्राणः प्राणः। ओं चक्षुः चक्षुः। ओं श्रोत्रं श्रोत्रम्‌। ओं नाभिः।

ओं हृदयम्‌। ओं कण्ठः। ओं शिरः। ओं बाहुभ्यां यशोबलम्‌। ओं करतलकरपृष्ठे॥

(इन्द्रिय स्पर्श करें)


ओं भूः पुनातु शिरसि। ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः। ओं स्वः पुनातु कण्ठे।

ओं महः पुनातु हृदये । ओं जनः पुनातु नाभ्याम्‌। ओं तपः पुनातु पादयोः।

ओं सत्यम्‌ पुनातु पुनश्शिरसि। ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र॥

(जल से मार्जन करें)


ओं भूः। ओं भुवः। ओं स्वः। ओं महः। ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्‌॥

(प्राणायाम करें)


ओं ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः॥


समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥


सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्‌।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥

-ऋग्‌. १०.१९०.१-३


ओ३म्‌ शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभि स्रवन्तु नः॥

-यजु. ३६.१२

(दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें)


ओं प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं उदीची दिक्सोमोेऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥

-अथर्व.३.२७.१-६


ओम्‌ उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्तऽउत्तरम्‌।

देवं देवत्रा सूर्य्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्‌॥

-यजु. ३५.१४


उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः।

दृशे विश्वाय सूर्य्यम्‌॥

-यजु. ३३.३१


चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।

आप्रा द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षम्‌

सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा॥

-यजु. ७.४२


तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्‌।

पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं

शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं

भूयश्च शरदः शतात्‌॥

-यजु. ३६.२४


ओ३म्‌ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ॥

-यजु. ३६.३


हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा

धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः॥


ओं नमः शम्भवाय च मयोभवाय च

नमः शंकराय च मयस्कराय च

नमः शिवाय च शिवतराय च॥

-यजु. १४.४१


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सत्यार्थ प्रकाश : क्या और क्योंमहर्षि दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में अपना कालजयी...

सत्यार्थ प्रकाश : क्या और क्यों


महर्षि दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में अपना कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश रचकर धार्मिक जगत में एक क्रांति कर दी . यह ग्रन्थ वैचारिक क्रान्ति का एक शंखनाद है . इस ग्रन्थ का जन साधारण पर और विचारशील दोनों प्रकार के लोगों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा . हिन्दी भाषा में प्रकाशित होनेवाले किसी दुसरे ग्रन्थ का एक शताब्दी से भी कम समय में इतना प्रसार नहीं हुआ जितना की इस ग्रन्थ का अर्धशताब्दी में प्रचार प्रसार हुआ . हिन्दी में छपा कोई अन्य ग्रन्थ एक शताब्दी के भीतर देश व विदेश की इतनी भाषाओँ में अनुदित नहीं हुआ जितनी भाषाओँ में इसका अनुवाद हो गया है. हिन्दी में तो कवियों ने इसका पद्यानुवाद भी कर दिया .


सार्वभौमिक नित्य सत्य : इस ग्रन्थ का लेखक ईश्वर जीव प्रकृति इन तीन पदार्थों को अनादि मानता है .ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव भी अनादि व नित्य हैं . सृष्टि नियमों को भी ग्रन्थ करता अनादि व नित्य तथा सार्वभौमिक मानता हिया . विज्ञान का भी यही मत है की सृष्टि नियम Laws of Nature अटल अटूट सार्वभौमिक हैं . इन नियमों का नियंता परमात्मा है . परमात्मा की सृष्टी नियम न तो बदलते हैं न टूटते हैं न घटते हिएँ न बढते हैं और न ही घिसते हैं इसलिए चमत्कार की बातें करना एक अन्धविश्वास है . किसी भी मत का व्यक्ति चमत्कार में आस्था रखता है तो यह अन्धविश्वास है.


सबसे पहला ग्रन्थ विश्व में इस युत में चमत्कारों को चुनौती देने वाला सबसे पहला ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश है. जिस मनीषी ने चमत्कारों को तर्क तुला पर तोलकर मत पंथों को अपनों व परायों को झाक्खोरा विश्व का वह पहला विचारक महर्षि दयानन्द सरस्वती है. सत्यार्थ प्रकाश के प्रणेता तत्ववेत्ता ऋषि दयानन्द को न तो पुराणों के चमत्कार मान्य हैं और न ही बाइबल व कुरान के . हनुमान के सूर्य को मुख में ले लिया यह भी सत्य नहीं है और हजरत ईसा ने रोगियों को चंगा कर दिया , मृतकों को जीवित कर दिया तथा हजरत मुहम्मद साहेब ने चाँद के दो टुकडे कर दिए – ये भी ऐतिहासिक तथ्य नहीं है . हजरत मुसा हों अथवा इब्राहीम सृष्टि नियम तोड़ने में कोई भी सक्षम नहीं हो सकता . दयानन्द जी के इस घोष का कड़ा विरोध हुआ . आर्य विद्वानों ने इस विषय मरण सैकड़ों शाश्त्रार्थ किये. पंडित लेखराम जी आर्य पथिक को इसी कारण बलिदान तक देना पड़ा . ख्वाजा हसन निजामी को सन १९२५ में एक आर्य विचारक प्रो हासानन्द ने चमत्कार दिखाने की चुनौती दी और कहा की में आपसे बढकर जादूगरी से चमत्कार दिखाऊंगा . ख्वाजा साहेब को आगे बढकर चमत्कार दिखाने का साहस ही नहीं हुआ . (दृष्टव्य : दैनिक तेज उर्दू दिनांक ३०.१०.१९२५ पृष्ठ ५ ) सत्य साईं बाबा भी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की चुनौती को स्वीकार करके कोई चमत्कार न दिखा सका.


अब तो विरोधी भी मन रहे हैं : ईश्वर की कृपा हुयी . ऋषी की पुण्य प्रताप व अनेक बलिदानों की फलस्वरूप अब विरोधी भी सत्यार्थ प्रकाश के प्रभाव को स्वीकार करके इस अन्धविश्वास से मुक्ति पा रहे हैं . हाँ ऐसे लोगों की अब भी कमी नहीं है जो सत्यार्थ प्रकाश से प्रकाश भी पा रहे हैं और इसे कोष भी रहे हैं . गुड का स्वाद भी लेते हैं और गन्ने को गालीयाँ भी देते हैं . पुराण बाइबिल व कुरान के ऐसे प्रसंगों की व्याख्याएं ही बदल गयीं हैं . अब रोगियों को चंगा करने का अर्थ मानसिक और आध्यात्मिक रोगों को दूर करना हो गया है . मृतकों को जिलाने का अर्थ नैतिक मृत्यु से बचाना किया जाने लगा है . यह व्याख्या कैसे सूझी? इन धर्म ग्रंथों के भाष्य व तफ्सीरें बदल गयीं हैं .


सत्य असत्य की कसौटी : आज से साथ वर्ष पहले तक धर्म की सच्चाई की कसौटी चमत्कारों को माना जाता था . आज है कोई जो कुमारी मरियम से ईसा की उत्पत्ति को इसाई मत की सचाई का प्रबल प्रमाण मानता हो ? कौन है जो पुराणों की असंभव बातों को संभव व सत्य मानता हो ? कौन है जो बुराक पर सवार होकर पैगम्बर मुहम्मद की आसमानी यात्रा को सत्य मानता हो ? मुसलमानों के नेता सर सैयद अहमद खां ने बड़ी निर्भीकता से इन गप्पों को झुठलाया है ( दृष्टव्य “ हयाते जावेद लेखक मौलाना हाली – पानीपत ). यह सब सत्यार्थ प्रकाश का ही प्रभाव है .


लोगों का ध्यान नहीं गया :सत्यार्थ प्रकाश ने भारतीय जनमानस में मातृभूमि का प्यार जगाया . जन्म भूमि व पूर्वजों के प्रति आस्था पैदा की . जातीय स्वाभिमान को पैदा किया . एकादश समुल्लास की अनुभुमिका ने भारतीयों की हीन भावना को भगाया. सत्यार्थ प्रकाश की इसी अनुभुमिका का प्रभाव था की गर्ज -२ कर आर्य लोग गाया करते थे :


कभी हम बुलन्द इकबाल थे तुम्हें याद हो कि न याद हो


हर फेन में रखते कमाल थे तुम्हें याद हो य न याद हो .


सत्यार्थ प्रकाश ने देशवासियों को स्वराज्य का मंत्र दिया . इनके अतिरिक्त सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित कुछ वाक्यों व विचारों की मौलिकता व महत्व्य को विचारकों ने जाना व माना परन्तु उनका व्यापक प्रचार नहीं किया गया .इन्हें हम संक्षेप में यहाँ देते हैं :


ऋषी दयानन्द आधुनिक विश्व के प्रथम विचारक हैं जिन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में सबके लिए अनिवार्य व निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा का सिद्धांत रखा . उनके एक प्रमुख शिष्य स्वामी दर्शनानंद जी ने भारत में सबसे पहले निःशुल्क शिक्षा प्रणाली का प्रयोग किया .ऋषी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कृषक व श्रमिक आदि राजाओं के राजा हैं . कृषकों व श्रमिकों का समाज में सम्मान का स्थान है . इस युग में ऐसी घोषणा करने वाले पहले धर्म गुरु ऋषी दयानन्द ही थेऋषी ने अपने सत्यार्थ प्रकाश के १३ वे समुल्लास में लिखा है की यदि कोई गोरा किसी काले को मार देता है तो भी पक्षपात करते हुए न्यायालय उसे दोषमुक्त करके छोड़ देता है . इसाई मत की समीक्षा करते हुए ऐसा लिखा गया है . यह महर्षि की निर्भीकता व सत्य वादिता एवं प्रखर देशभक्ति का एक प्रमाण है . बीसवीं शताब्दी में आरंभिक वर्षों में मद्रास कोलकाता व रावलपिंडी आदि नगरों में ऐसे घटनाएं घटती रहती थें . मरने वालों के लिए कोई बोलता ही नहीं था .प्रथम विश्व युद्ध तक गांधी जी भी अंग्रेज जाति की न्याय प्रियता में अडिग आस्था रखते हुए अंग्रेजी न्याय पालिका का गुणगान करते थे

महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय महापुरुष हैं जिन्होंने विदेशी शाषकों की न्याय पालिका का खुलकर अपमान किया . ऋषी ने विदेशियों की लूट खसोट व देश की कंगाली पर तो इस ग्रन्थ में कई बार खून के आंसू बहाये हैं

सत्यार्थ प्रकाश के तेरहवें समुल्लास में ही इसाई मत की समीक्षा करते हुए लिखा है कि तभी तो ये इसाई लोग दूसरों के धन पर ऐसे टूटते हैं जैसे प्यासा जल पर व भूखा अन्न पर . ऐसी निर्भीकता का हमारे देश के आधुनिक इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता


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ओ३म् ओ३म् ओ३म् सभी को सादर वैदिक नमस्ते जी जब हम मूर्ति पूजा का ख़ंडन करते हैँ तो लोग ये तर्क करते...

ओ३म् ओ३म् ओ३म्
सभी को सादर वैदिक नमस्ते जी
जब हम मूर्ति पूजा का ख़ंडन करते हैँ तो लोग ये तर्क करते हैं—-
वे कहते है की अगर आप अपने पिता की तस्वीर पर नहीं थूक सकते तो फिर मूर्ति का तिरस्कार क्यों करते है ।
उत्तर : हम मूर्ति का तिरस्कार नहीं वरन मूर्ति को ईश्वर मान उसको पूजने का विरोध करते हैं।हम पिता की तस्वीर अपने घर में लगाते है क्योंकि वह हमारे प्रिय हैँ हमारे आदर्श हैँ ,हमारे पूर्वज हैँ ।किन्तु उस तस्वीर को पिता समझ कर पिता की तरह व्यवहार नही करते। तस्वीर से धन नही मांगते ,सहायतानही मांगते ।क्योकि यह जानते है कि यह पिता की तस्वीर है पिता नहीं ,पिता की तरह चेतन नही है , यह जड़ है, ना सुनती है , ना देखती है ओर ना प्रतिक्रिया करती है।सबसे बड़ी बात , अगर पिता जीवित है तो सिर्फ उस चेतन पिता से चर्चा करके ही कुछ प्राप्त किया जा सकता , उनकी जड़ तस्वीर या मूर्ति से नही। अगर हमारे जीवित पिता हमे अपनी तस्वीर से बात करते देंखे तो वे हमें मूढ़ समझेंगे, बुद्धिहीन समझेंगे ओर क्रोध भी करेंगे ।क्या यही गलती हम उस चेतन ईश्वर के सम्बन्ध में नही कर रहे है??वह परमपिता परमात्मा जीवित है , चेतन है , हमारे ह्र्दय में है , फिर भी हम उसकी जगह मूर्तियों से मांगते है, जो जड़ है , हम जड़ वस्तुओं से बात करते है ईश्वर समझ कर । क्या ईश्वर यह देखकर प्रसन्न होगा??ईश्वर का कोई रूप रंग आकर नहीं होता फिर एक मनुष्य जैसी आकृति ईश्वर का प्रतिक कैसे आभासित करवासकती है??और चलो करवा भी दिया तो फिर मूर्ति में जरा भी टूट होते ही फेंक क्यों देते हो , फिर उसका भगवान् मर गया ?? गायब हो गया??क्यों नहीं सड़को पर पड़ी टूटी फूटी मूर्तियो को भी उठा लाते हो ??सच तो ये है तुम लोग मूर्तियो में ईश्वर का प्रतिक नहीं देखते बल्कि मूर्ति को ही भगवान् माने बैठे हो , वो भी एक ख़ास समय और स्तिथि में जब उसमे कोई मुर्ख पाखंडी पंडा आकर प्राण ना फूँक देतभी और जब तक वह खंडित ना हो जाए तब तक ।इससे आगे पीछे की स्तिथियों में वे ही मूर्तियां सड़को पर पड़ी रहती है।
2 : दूसरा तर्क है मूर्ति में भी भगवान है क्योकि वह कण कण में है तो मूर्ति को ही क्यों नहीं पूजते?
उत्तर : ईश्वर तो कण कण में है परंतु मूर्ति उसने नहीं बनाई , मूर्ति तो मनुष्य ने बनाई , ईश्वर ने बनाया फूल तो बताओ कौन बड़ा मूर्ति या फूल , तुम छोटी वस्तु पर बड़ी वस्तु चढ़ाते हो ।वह ईश्वर सर्वव्यापक है और तुम उसे एक छोटी सी मूर्ति में सिमित कर देते हो ।जब किसी से मिलना होता है तो उस स्थान पर हमारा ओर जिससे मिलना हो उसकी एक साथ उपस्तिथि आवश्यक है ।उदाहरण के लिए , अगर मुझे अपने मोदी जी से मिलना हो तो या तो दिल्ली जाना पड़ेगा या मोदी जी को मुजफ्फरनगर आना पड़ेगा ।इसी प्रकार अगर ईश्वर का साक्षत्कार करना है तो ईश्वर ओर हमे एक स्थान पर उपस्थित होना पड़ेगा ।हम से आशय हमारा शरीर नही बल्कि हमारी आत्मा से है।अर्थात वह स्थान बताइये जहां हमारी आत्मा ओर ईश्वर एक साथ उपस्थित हो।ईश्वर तो सर्वव्यापक होने से मूर्ति में भी है, आपके शरीर के भीतर भी है।अब आप कहाँ कहाँ है ??क्या आप मूर्ति के भीतर है ??क्या आप संसार की किसी भी वस्तु के भीतर है??आप सिर्फ अपने शरीर के भीतर है , यही वह स्थान है जहां आपका ईश्वर से साक्षात्कार सम्भव है , अन्यथा कही नही।यह मेरे विचार नही अपितु वेद वाणी है जो तर्क की कसौटी पर भी खरी उतरती है।वेद अंतिम प्रमाणवेद निंदक नास्तिकों अस्तिचिंतन करे, ओर ईश्वर को अपने भीतर खोजे ओर उसका तरीका भी वेदो में ही है जिसे महृषि पतंजलि ने अष्टांग योग के नाम से प्रचारित किया है।
3: तीसरा तर्क एकाग्रता के लिए मूर्ति जरुरी है, उत्तर : मूर्ति पर एकाग्रता किस लिए बढ़ा रहे हो , क्या मूर्ति भगवान् है , नहीं मूर्ति भगवान नहीं । मूर्ति को एकाग्रचित होकर भगवान् समझने से भी वह भगवान् नहीं बनेगी , मूर्ति ही रहेगी ।और किसी दिन टूट गयी 20 साल की एकाग्रता को ठेष पहुचेगी किन्तु आप फिर भी आप बिना मूर्ति के उपासना नही करेंगे बल्कि दूसरी मूर्ति खरीद लाओगे।सभी मूर्तिपूजक ये दावा करते है कि एक दिन मूर्तिपूजा करते करते एकाग्रता इतनी अधिक हो जाएगी किमूर्ति छूट जाएगी और ध्यान निराकार पर लग जायेगा।यह झुठ है क्योंकि निराकार पर ध्यान तभी लगेगा जब निराकार उपासना विधि आर्थत अष्टांग योग का प्रयास करोगे।इसीलिए एक 10 साल का बालक मूर्तिपूजा करते करते 80 साल का हो जाता है किंतु मूर्तिपूजा नहीछोड़ताअष्टाङ्ग योग विधि अपना कर कोई भी व्यक्ति एकाग्रता भी बढ़ा सकता है और निराकार ईश्वर का ध्यान भी कर सकता है ।


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हवन का महत्वफ़्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमे उन्हें पता चला की हवन मुख्यतः...

हवन का महत्व

फ़्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमे उन्हें पता चला की हवन मुख्यतः आम की लकड़ी पर किया जाता है। जब आम की लकड़ी जलती है तो फ़ॉर्मिक एल्डिहाइड नामक गैस उत्पन्न होती है जो की खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणुओ को मारती है तथा वातावरण को शुद्द करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गैस और इसे बनाने का तरीका पता चला। गुड़ को जलाने पर भी ये गैस उत्पन्न होती है।

(२) टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गयी अपनी रिसर्च में ये पाया की यदि आधे घंटे हवन में बैठा जाये अथवा हवन के धुएं से शरीर का सम्पर्क हो तो टाइफाइड जैसे खतरनाक रोग फ़ैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।

(३) हवन की महत्ता देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर एक रिसर्च की क्या वाकई हवन से वातावरण शुद्द होता है और जीवाणु नाश होता है अथवा नही. उन्होंने ग्रंथो. में वर्णित हवन सामग्री जुटाई और जलाने पर पाया की ये विषाणु नाश करती है। फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी काम किया और देखा की सिर्फ आम की लकड़ी १ किलो जलाने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हुए पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलायी गयी एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद बॅक्टेरिया का स्तर ९४ % कम हो गया। यही नही. उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजुद जीवाणुओ का परीक्षण किया और पाया की कक्ष के दरवाज़े खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के २४ घंटे बाद भी जीवाणुओ का स्तर सामान्य से ९६ प्रतिशत कम था। बार बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ की इस एक बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था।

यह रिपोर्ट एथ्नोफार्माकोलोजी के शोध पत्र (resarch journal of Ethnopharmacology 2007) में भी दिसंबर २००७ में छप चुकी है।

रिपोर्ट में लिखा �


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