Tuesday, June 30, 2015

Farhana Taj चेतक याद है परंतु शुभ्रक नहीं! प्रस्तुति: फरहाना ताज कुतुबुद्दीन ने राजपूताना में कहर...

Farhana Taj
चेतक याद है परंतु शुभ्रक नहीं!
प्रस्तुति: फरहाना ताज

कुतुबुद्दीन ने राजपूताना में कहर बरपाया और राजकुंवर को बंदी बनाकर Lahore ले गया। उदयपुर के कुंवर का शुभ्रक नाम का घोड़ा स्वामिभक्त था, लेकिन कुतुबुद्दीन उसे भी साथ ले गया।
कैद से भागने के प्रयास में एक दिन राजकुंवर को सजा ऐ मौत देने के लिए मैदान में लाया गया। यह तय हुआ कि राजकुंवर का सिर काटकर उससे खेला जाएगा। मूल खेल तो पोलो खेलना था, लेकिन राजकुंवर के सिर से खेलना था। कुतुबुद्दीन शुभ्रक घोड़े पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ जन्नत बाग में आया। शुभ्रक ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे और जब राजकुंवर का सिर कलम करने के लिए उसे जंजीरों से खोला गया तो शुभ्रक से रहा नहीं गया, उसे उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया, उसकी छाती पर अपने पैरों के कई वार किए, जिससे उसके प्राण पखेरू वहीं उड गए और राजकुंवर के पास आकर सिपाहियों से जंग लड़ने लगा तो कुंवर शुभ्रक पर सवार हो गया और हवा की तरह उड़ने लगा। कई दिन और रात दौड़ता रहा और एक दिन बिना रुके उदयपुर के महल के सामने आ गया। राजकुंवर जैसे ही घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने लगे तो देखा घोडा प्रतिमा जैसा बना खडा था, लेकिन उसमें प्राण नहीं थे। सिर पर हाथ रखते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढक गया।
इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता, जबकि फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है।

आदमी बिना रुके दौडते हैं, तो उसके नाम पर मैराथन दौड की परम्परा शुरू हो जाती है, लेकिन पशुओं के नाम भी याद नहीं रखे जाते, क्यों?

स्रोत: इतिहास की भूली बिसरी कहानियां, सूर्या भारती प्रकाशन दिल्ली
2. अजेय अग्नि, हिन्दी साहित्य सदन, करोल बाग नई दिल्ली
3. हिस्ट्री ऑफ लाहौर, शब्बीर पब्लिकेशंस लाहौर, 1902
4. गुलामे शाह, संस्करण 1875


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जब हम वेदो से दूर हटे तब महाभारत का युद्ध हुआ जिसमे हमारा समस्त ज्ञान विज्ञानं लगभग समाप्त सा हो गया...

जब हम वेदो से दूर हटे तब महाभारत का युद्ध हुआ जिसमे हमारा समस्त ज्ञान विज्ञानं लगभग समाप्त सा हो गया क्षत्रियो के साथ ब्राह्मणों को भी युद्ध लड़ना पड़ा उसके बाद सत्य विद्या वेद से हम दूर होते चले गए कुछ स्वार्थी लोगो ने अपने मत पन्थ सम्पर्दाय बना लिये निराकार ओम् ईश्वर जिसको योग उपासना से प्राप्त करने की विधि वेद ने बताई थी वो छूट गयी और मनगढ़त पूजा पद्धति गढ़ दी गयी धर्म के नाम पर व्यापार होने लगा सबसे पहले यहाँ बौद्ध फिर जैनी ईशाई व् इश्लाम ने पाव पसारे और एक समय ऐसा भी आया संसार की शिरोमणि आर्य जाति म्लेछो की गुलाम बन गयी हजारो वर्षो की गुलामी में इनको इतना प्रताड़ित किया गया जिसकी कल्पना भी नही की जा सकती हैं।अरे 2 -2 अन्ने में हमारी बहन बेटियो की बोली लगाई गयी (दोकतरे हिन्दुस्थान दो दो दिनार ) इस भयंकर काल में कोई नही था जो हमारे स्वाभिमान को जगाता मित्रों जरा विचारों जिन आर्य पूर्वजो ने संसार में चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित किया हो करोड़ो वर्षो तक संसार का नेतृत्व किया हो उसके वंसजो को हजारो वर्षो की गुलामी झेलनी पड़े कुछ तो कारण रहे होँगे।गुलामी की इस भयानक रात में ऋषि दयानंद का आगमन हुआ उसने हमे बताया की हम क्या थे और क्या हो गये वो हमे जगाता रहा उठाता रहा और हम उसको जहर पिलाते रहे उस पर पत्थर बरसाते रहे ओह कितने मुर्ख थे हम जो हमे बचाने आया हमने उसे ही अपना शत्रु समझा और अन्तः उसे मार ही दिया इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता ह जो हमारा रक्षक था उसे ही हमने अपना भक्षक समझा।वो ऋषि जाते जाते हमे सत्यार्थ प्रकाश रूपी ऐसा शस्त्र दे गया जिसको पढ़कर अनेको की काया पलट हो गयी अनेको युवाओं ने ऋषि को अपना आदर्श मान स्वतन्त्रता हेतु अपने प्राण न्यौछावर कर दिये इतिहास बताता ह 85 %आर्य समाजी क्रांतिकारियों ने राष्ट की आजादी हेतु अपने प्राण देशहित आहूत कर दिये।ऋषि के अनुयायियों ने आर्य समाज को वो अग्नि बना दिया जिसके आगे किसी की नही चली ।देश में फैली अविद्या अभाव अन्याय पाखण्ड अन्धविस्वास् रूपी बीमारी को आर्य लोग समाप्त करने लगे ।1947 को देश भौतिक रूप से आजाद हो गया और दुर्भाग्य से देश ऐसे काले अंग्रेजो के हाथो में चला गया जो पशुओं के भी बड़े भाई थे इन दुष्टों ने देश की पुनः दुर्दशा कर डाली और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य ये जिस ऋषि के शिष्यों को देश सम्भालना था वो अपने छोटे छोटे घर घरोंदों में फंस गये और देश फिर पाखण्ड अन्धविश्वास भृष्टाचार आतँकवाद रूपी समाजिक शत्रुओं की चपेट में आता गया और इसके दोषी केवल और केवल आर्य समाजी ही ह क्योकि ऋषि दयानंद ने देश इनको सौपा था इनका कर्तव्य था ये समाज को आर्यसमाज बनाते अर्थात श्रेष्ठ समाज बनाकर पुनः आर्यावर्त बनाते ओह दुर्भाग्य ये आपस में ही लड़ने लगे देश लूटता रहा और ये जमीन व् भवनों के छोटे छोटे टुकड़ो पर लड़ते रहे।अरे आर्यो ऋषि दयानंद की आत्मा रोती होगी उन 7 लाख से जायदा क्रान्तिकारियो की आत्मा रोती होंगी जिन्होंने भरी जवानी में हँसते हँसते फाँसी के फंदे चूमे थे।आर्यो अभी भी समय ह सम्भल जाओ अन्यथा मिटा दिये जाओगे ।सम्भाल लो इस आर्य जाति (हिन्दुओ को) जिसको आपसी फूट के राक्षस ने कहि का नही छोड़ा जो ज़ोक की भाँति दीमक की भाँति इनको खोकला कर रही हैं और इनको पता तक नही हैं।ये कबूतर की भाँति आँख मूँदकर सुनहरे सपने देख रहे हैं और विधर्मी इन्हें मिटाने का षड्यंत्र रच रहे हैं।आओ हम पुनः अपने श्रेष्ठ पूर्वजो को स्मरण कर वेद की आज्ञाओं का पालन करे और दृढ़ आर्य बनकर आर्यावर्त की नींव रखें निश्चित जानो वो दिन दूर नही जब पुनः संसार भर के मनुष्य ये कहेंगे की ओह आर्यसमाज फिर वहीँ अग्नि बन गया जिससे पूरा संसार सुख रूपी सुगंध से पोषित होगा।यही कामना थी दयानंद ऋषि की ,यही गूँज थी उनके प्रत्येक स्वर की,*कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम *।।निवेदन कर्ता।।अमित आर्य दिल्ली 9266993383


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“ यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति । स्व र्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:...

“ यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति । स्व र्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम: ”

भाइयों महर्षि वेदव्यास जी ने कहा है - न ही मानुषत् श्रेष्ठतरंहि किचित् ( पृथ्वी पर मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ नहीँ ) 
आख़िर क्यो श्रेष्ठ है ? 
क्योकि इसी मे धर्म विशेष है । मानव और पशु मे चार समानता है आहार , निद्रा ,भय , और मैथुन । 
एक पशु बड़ा होकर अपनी जन्मदात्री से ही कुकृत्य कर सकता है पर मानव चाहे कितना बड़ा होजाये वो अपनी माँ को माँ ही मानेगा यही है धर्म । 
जरा विचारिये इतना सुन्दर शरीर देने वाले इतना सुन्दर धर्म देने वाले परमपिता परमेश्वर के धन्यवाद हेतु आपके पास समय है ? उसकी उपासना हेतु आपके पास समय है ? 
कुछ कुतर्क करते है कि विज्ञान के आगे क्या है ईश्वर ! तो हम बता दे उनको कोई माई का लाल नहीँ जो रोटी और सब्ज़ी से एक बूँद खून भी बना दे पर ये संभव हुआ ईश्वर की बनायी मशीन से जरा विचारिये परमपिता का सर्वशक्तिमान रूप ! 
पर दुर्भाग्य आज मानव के पास ईश्वर की शरण मे जाने का सत्संग मे जाने का समय नहीँ । और तो और एक सीमा बाँध दी है कि जब 60 साल के ऊपर हो जायेगे तब ईश शरण मे जायेगे आश्चर्य होगा कोई नवयुवक युवती इस ओर कदम बढाये तो दुनियावाले मज़ाक शुरू कर देते है ।

अगर मोदी जी एक माह के लिए बिजली मुफ़्त करा दे तो हम थकेगे नहीँ मोदी गुणगान करते करते पर उस परमेश्वर ने इतना कुछ दिया वो भी निशूल्क अहो दुर्भाग्य उस परमपिता हेतु किसी के पास समय नहीँ ?

मानसिकता बदलिए और प्रतिदिन प्रातः सायं ईश्वर भक्ति हेतु समय दीजिए । 
और लिख लीजिए आत्मिक बल केवल ईश्वर भक्ति से मिलता है और आज आत्मिक बल का सर्वथा अभाव दिखता है ।


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महर्षि दयानन्द के अनुयायी क्यों बनें? —————– 1. दयानन्द का सच्चा...

महर्षि दयानन्द के अनुयायी क्यों बनें?
—————–
1. दयानन्द का सच्चा अनुयायी भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी आदि कल्पित पदार्थों से कभी भयभीत नहीं होता ।

2. आप फलित ज्योतिष, जन्म-पत्र, मुहूर्त, दिशा-शूल, शुभाशुभ ग्रहों के फल, झूठे वास्तु शास्त्र आदि धनापहरण के अनेक मिथ्या जाल से स्वयं को बचा लेंगें ।

3. कोई पाखण्डी साधु, पुजारी, गंगा पुत्र आपको बहका कर आपसे दान-पुण्य के बहाने अपनी जेब गरम नहीं कर सकेगा ।

4. शीतला, भैरव, काली, कराली, शनैश्चर आदि अप-देवता, जिनका वस्तुतः कोई अस्तित्व ही नहीं है, आपका कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकेंगे । जब वे हैं ही नहीं तो बेचारे करेंगे क्या ?

5. आप मदिरापान, धूम्रपान, विभिन्न प्रकार के मादक से बचे रह कर अपने स्वास्थ्य और धन की हानि से बच जायेंगे ।

6. बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, नारी-प्रताडना, पर्दा-प्रथा, अस्पृश्यता आदि सामाजिक बुराइयों से दूर रहकर सामाजिक सुधार के उदाहरण बन सकेंगे ।

7. जीवन का लक्ष्य सादगी को बनायेंगे और मित व्यवस्था के आदर्श को स्वीकार करने के कारण दहेज, मिलनी, विवाहों में अपव्यय आदि पर अंकुश लगाकर आदर्श उपस्थित करेंगे ।

8. दयानन्द का अनुयायी होने के कारण अपने देश की भाषा, संस्कृति, स्वधर्म तथा स्वदेश के प्रति आपके हृदय में अनन्य प्रेम रहेगा ।

9. आप पश्चिम के अन्धानुकरण से स्वयं को तथा अपनी सन्तान को बचायेंगे तथा फैशन परस्ती, फिजूलखर्ची, व्यर्थ के आडम्बर तथा तडक-भडक से दूर रहेंगे ।

10. आप अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालेंगे ताकि आगे चलकर वे शिष्ट, अनुशासन प्रिय, आज्ञाकारी बनें तथा बडों का सम्मान करें ।

11. आप अपने कार्य, व्यवसाय, नौकरी आदि में समय का पालन, ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता को महत्त्व देंगे ताकि लोग आपको मिसाल के तौर पर पेश करें ।

12. वेदादि सद् ग्रन्थों के अध्ययन में आपकी रुचि बढेगी, फलतः आपका बौद्धिक क्षितिज विस्तृत होगा और विश्व-बन्धुता बढेगी ।

13. जीवन और जगत् के प्रति आपका सोच अधिकाधिक वैज्ञानिक होता चला जायेगा । इसे ही स्वामी दयानन्द ने ‘सृष्टिक्रम से अविरुद्ध होना’ कहा है । आप इसी बात को सत्य मानेंगे जो युक्ति, तर्क और विवेक की कसौटी पर खरी उतरती हो । मिथ्या चमत्कारों और ऐसे चमत्कार दिखाने वाले ढोंगी बाबाओं के चक्कर में दयानन्द के अनुयायी कभी नहीं आते ।

14. दयानन्द की शिक्षा आपको एक परिपूर्ण मानव बना देगी । आप जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति के भेदों से ऊपर उठकर मनुष्य मात्र की एकता के हामी बन जायेंगे ।

15. निन्दा-स्तुति, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता आप में अनायास आ जायेगी ।

16. शैव, शाक्त, कापालिक, वैष्णव, ब्रह्माकुमारी आदि सम्प्रदायों के मिथ्या जाल से हटकर आप एक अद्वितीय सच्चिदानन्द परमात्मा के उपासक बन जायेंगे ।

17. आपकी गृहस्थी में पंच महायज्ञों का प्रवर्त्तन होगा जिससे आप परमात्मा, सूर्यादि देवगण, माता-पिता आदि पितृगण, अतिथि एवं सामान्य जीवों की सेवा का आदर्श प्रस्तुत करेंगे ।

क्या दयानन्द के अनुयायी बनने से मिलने वाले उपर्युक्त लाभ कोई कम महत्त्व के हैं ?

तो फिर देर क्यों ?

आज ही दयानन्द के सैनिकों में अपना नाम लिखायें ।


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जैसे धनवान शब्द का अर्थ है, धनवाला। बलवान शब्द का अर्थ है, बलवाला. इसी प्रकार से भगवान शब्द का अर्थ...

जैसे धनवान शब्द का अर्थ है, धनवाला। बलवान शब्द का अर्थ है, बलवाला. इसी प्रकार से भगवान शब्द का अर्थ है भगवाला. एक शब्द कोष में भग शब्द के ६ अर्थ लिखे हुए हैं. १- ऐश्वर्य, २- तेज, ३- यश, ४- श्रीः=शोभा, ५- ज्ञान और ६- वैराग्य. जिस व्यक्ति के पास ये ६ चीज़ें हों, वह भगवान कहलायेगा. यदि ये ६ चीज़ें श्री राम जी के पास हैं, यही ६ चीज़ें श्री कृष्ण जी के पास हैं, तो उन्हें भगवान कह सकते हैं. परन्तु इतना होने पर भी उन्हें हम परमात्मा नहीं मानेंगे. क्योंकि परमात्मा तो एक ही है. जो सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सृष्टिकर्ता है. उसके पास भी ये ६ चीज़ें हैं, इसलिये उसे भी भगवान कह सकते हैं. इस प्रकार से भगवान शब्द दोनों=(जीव और ईश्वर) के लिये प्रयुक्त हो सकता है. जबकि परमात्मा शब्द केवल एक के लिये ही प्रयुक्त हो सकता है


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नास्तिक नही “आर्य समाजी” थे भगतसिंह | भगत सिंह का जन्म २८ सितंबर, १९०७ में हुआ था,उनके...

नास्तिक नही “आर्य समाजी” थे भगतसिंह |

भगत सिंह का जन्म २८ सितंबर, १९०७ में हुआ था,उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था,यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था। उनके परिवार पर आर्य समाज व महर्षि दयानन्द की विचारधारा का गहरा प्रभाव था !

भगत सिंह दादा सरदार अर्जुन सिंह “महर्षि दयानन्द” के सम्पर्क मे आऐ तब ऋषि ने उपदेश मे कहा की सिंख कौम की स्थापना मुगलो से युद्ध के लिए हुई थी,अब आपको पुन: वैदिक धर्म की ओर लोट अाना चाहिए तभी से यह परिवार आर्य समाज के वैदिक विचारो की ओर लोट आया ।

अधिकांश क्रांतिकारियों को देश प्रेम की प्रेरणा महर्षि दयानन्द के साहित्य व आर्य समाज से मिली ! जब भगतसिंह के पिता जेल मे थे तब उनके दादाजी ने उनकी माॅ को ऋषि दयानन्द द्वारा रचित “संस्कार चंद्रिका” (१६ संस्कार पर आधारित) वृहद पुस्तक दी उसी के अध्ययन के बाद भगतसिंह का जन्म हुवा ।

हम आभारी है,
“दी लेजेंड आफ भगतसिंह” बनाने वाली शोधार्थी दल के, जिन्होने भगत सिंह के आर्य समाजी परिवार से जुडे होने के प्रमाणो को एकत्रित करके चलचित(फिल्म) के माध्यम से सारी दुनिया को बताया।

चलचित्र मे १४:१० मिनट पर महर्षि दयानंद का चित्र दिखाया गया व ३५:५७ मिनट पर भगत सिंह का जनेऊ संस्कार हुआ था ये भी स्पष्ट किया गया,सब जानते है सिखो मे जनेऊ संस्कार नहीं होता,वैसे तो लगभग सभी क्रांतिवीर जनेऊधारी थे,क्योंकि उनके मूल मे आर्य समाज व ऋषि दयाननद के क्रांतिकारी विचार थे |

अगर भगतसिंह कम्युनिष्ट होते तो क्याॅ ???

🌑 लाला लाजपत राय जेसे प्रखर आर्य समाजी जिन्होने ऋषि दयानन्द के साथ मिलकर के सम्पुर्ण पंजाब मे
“आर्य समाज” की स्थापना की व ऋषि की मृत्यु के उपरांत “महात्मा हंसराज स्वामी” के साथ मिलकर के डी.ए.वी स्कुल व कालेज की स्थापना की तो क्यॉ वो उन्ही के कालेज मे पढकर के लाला जी हत्या की बदला लेते.?जब फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान पहुंचने के बाद जब जल्लाद उनके पास आया तब वो आर्य समाज के रत्न

“पंण्डित राम प्रसाद बिस्मिल”
( जिन्हे एक बार पिता ने क्रोध मे आकर के कहा या तो घर छोड दे या आर्य समाज मे आना-जाना तब उन्होने अपने पिता की आज्ञा से घर छोड दिया लेकिन अपनी वैदिक विचारधारा नही ) की जीवनी पढ रहे थे !(कुछ लोगों का मानना है कि वो लेनिन की जीवनी पढ रहे थे)!!
उन्होंने बिना सिर उठाए हुए उससे कहा ‘ठहरो भाई, मैं पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी पढ़ रहा हूं !! एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है !! थोड़ा रुको !!’ ऐसा इंसान जिसे कुछ पलों के बाद फांसी होने वाली है उसके बावजूद वो किताबें पढ़ रहा है, ये कल्पना कर पाना भी बेहद
मुश्किल है !!

अंततः फांसी के निर्धारित समय से १ दिन पहले २३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई !!

फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -

मेरा रँग दे बसन्ती चोला,मेरा रँग दे !! मेरा रँग दे बसन्ती चोला !! माय रँग दे बसन्ती चोला !!

अगर कोई लेनिन व कार्ल माकर्स को पड करके वामपंथी हो सकता है,तो क्यॉ आप मुझ जैसे से आर्य समाजी जो की 'खंडन-मंडन’ व “शास्त्रार्थ” के लिऐ “कुरान” व “बाईबल” पडते है, को भी आप मुसलमान व ईसाई कहोगे ???

भगतसिंह के वंशज आज भी “आर्य समाज” के वैदिक विचारो के अनुरूप ही रहते है,ना की सिंख सम्प्रदाय की तरह


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कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ ‘राघवयादवीयम्’ एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ...

कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ ‘राघवयादवीयम्’ एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। इसमें केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक। उदाहरण के लिए देखें :

अनुलोम :
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ 1 ॥

विलोम :
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ 1 ॥

अनुलोम :
साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ 2 ॥

विलोम :
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ 2 ॥

क्या ऐसा कुछ अंग्रेजी में रचा जा सकता है ??? ….. न जाने कैसे कैसे नमूनो ने इस देश पर राज किया जिनको संस्कृत एक मरती हुई भाषा नज़र आती थी |

‪🙏🙏🙏🙏🙏


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१६ आषाढ़ 30 जून 15 😶 “ भूमिमात: ” 🌞 🔥🔥ओ३म् उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा...

१६ आषाढ़ 30 जून 15
😶 “ भूमिमात: ” 🌞

🔥🔥ओ३म् उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवी प्रसूता:।🔥🔥
🍃🍂 दीर्घ न आयु: प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिह्त: स्याम ।। 🍂🍃
अथर्व० १२ । १ । ६२
शब्दार्थ :- हे भूमे!
हम तुझसे उत्पत्र, तेरे पुत्र है, अतएव तेरी गोद,तेरे आश्रय-स्थानों के सब पदार्थ हमारे लिए हों और आरोग्यवर्धक व रोगनाशक हों हमारी आयु दीर्घ हो जागते हुए,ज्ञान-स्म्पत्र होते हुए तेरे लिए अपनी बलि देनेवाले हो ।

विनय :- हे भूमिमात: !
हम तेरे पुत्र हैं,तुझसे उत्पत्र हुए है । यह पार्थिव देह हमें तेरे रज:कणों से मिली है ।
हे मात: !
हमें अपनी गोद में बिठाओ । तेरी आनंदमयी गोद में बैठकर हम सम्पूर्ण मातृसुख को प्राप्त करें,तेरे दुग्धामृत का पान भी करें । तू हमे केवल सुखमय आश्रय-स्थानों को ही प्रदान करती,अपितु अपने उन सर्वस्थानों में तू हमें हमारी उपयोगी भोग्य-पदार्थों को भी देती है । तेरी ऐसी गोद में हमारा आश्रय पाना,हमारे लिए रोग रहित,निरन्तर-निर्बाध पुष्टि(उत्रति)का देनेवाला हो ।
हे विस्तृत मातृभूमे !
तेरे आश्रय में रहते हुए हमे जो तेरे अत्र,फल,औषध, जल,वायु,धन,पशु,मान,रक्षा,विद्या,सुख मिलते है वे हमे ऐसे शुद्ध ओर उचित रूप में मिलते रहें कि ये हमारे रोगों और दुखों को हटाकर हमारी स्वास्थ्य वर्धक पुष्टि को ही करते जाएँ और हमारी मानसिक,शारीरिक और आत्मिक उत्रती ही साधते जाएँ । किन्तु
हे मात: ! हममे तेरे प्रति कर्तव्य का बोध ऐसा जाग्रत हो जाए कि हम तेरे लिए सब कुछ बलिदान करने को सदा उद्यत रहें । तुझसे मिला हुआ यह शरीर यह आयु यह प्राण यह पुष्टि यह धन किस काम का है? यदि ये तेरी वस्तुएं आवश्कता पड़ने पर तेरे लिए समर्पित ना हो सकें -तेरे दूध को चुकाने का समय आने पर यदि हम इन्हें भेंट चडाने से हिचके-तो ऐसे धन,ज्ञान,और जीवन का धिक्कार है ! इन पापमय वस्तुओं का भूमि पर रहना व्यर्थ है ! नहीं,हम सर्वस्व तुझपर बलि चढा देने को सदा उद्यत रहेंगे ।


🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂
ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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देशी गाय के पंचगव्य घृत व् घी से होने वाले लाभ … *०*गाय का पं घृत नाक में डालने से पागलपन...

देशी गाय के पंचगव्य घृत व् घी से होने वाले लाभ …
*०*गाय का पं घृत नाक में डालने से पागलपन दूर होता है।*०*
.*०*गाय का पं घृत नाक में डालने से एलर्जी खत्म हो जाती है।*०*
.*०*गाय का पं घृत नाक में डालने से लकवा का रोग में भी उपचार होता है।*०*
.*०*(20-25 ग्राम) घी व मिश्री खिलाने से शराब, भांग व गांझे का नशा कम हो जाता है।*०*
.*०*गाय का घी नाक में डालने से कान का पर्दा बिना ओपरेशन के ही ठीक हो जाता है।*०*
.*०*नाक में घी डालने से नाक की खुश्की दूर होती है और दिमाग तरोताजा हो जाताहै।*०*
.*०*गाय का घी नाक में डालने से कोमा से बाहर निकल कर चेतना वापस लोट आती है।*०*
.*०*गाय का पं घृत नाक में डालने से बाल झडना समाप्त होकर नए बाल भी आने लगते है।*०*
.*०*गाय के घी को नाक में डालने से मानसिक शांति मिलती है, याददाश्त तेज होती है।*०*
*०*हाथ पाव मे जलन होने पर गाय के घी को तलवो में मालिश करें जलन ठीक होता है।*०*
.*०*हिचकी के न रुकने पर खाली गाय का आधा चम्मच घी खाए, हिचकी स्वयं रुक जाएगी।*०*
.*०*गाय के घी का नियमित सेवन करने से एसिडिटी व कब्ज की शिकायत कम हो जाती है।*०*
.*०*गाय के घी से बल और वीर्य बढ़ता है और शारीरिक व मानसिक ताकत में भी इजाफा होता है*०*
.*०*गाय के पुराने घी से बच्चों को छाती और पीठ पर मालिश करने से कफ की शिकायत दूर हो जाती है।*०*
.*०*अगर अधिक कमजोरी लगे, तो एक गिलास दूध में एक चम्मच गाय का घी और मिश्री डालकर पी लें।*०*
.*०*हथेली और पांव के तलवो में जलन होने पर गाय के घी की मालिश करने से जलन में आराम आयेगा। *०*
.*०*गाय का घी न सिर्फ कैंसर को पैदा होने से रोकता है और इस बीमारी के फैलने को भी आश्चर्यजनक ढंग से रोकता है। *०*
.*०* ज़ीस व्यक्ति को हार्ट अटैक की तकलीफ है और चिकनाइ खाने की मनाही है तो गाय का घी खाएं, हर्दय मज़बूत होता है।*०*
.*०*देसी गाय के घी में कैंसर से लड़ने की अचूक क्षमता होती है। इसके सेवन से स्तन तथा आंत के खतरनाक कैंसर से बचा जा सकता है।*०*
.*०*घी, छिलका सहित पिसा हुआ काला चना और पिसी शक्कर (बूरा) तीनों को समान मात्रा में मिलाकर लड्डू बाँध लें। प्रातः खाली पेट एक लड्डू खूब चबा-चबाकर खाते हुए एक गिलास मीठा गुनगुना दूध घूँट-घूँट करके पीने से स्त्रियों के प्रदर रोग में आराम होता है, पुरुषों का शरीर मोटा ताजा यानी सुडौल और बलवान बनता है.*०*
.*०*फफोलो पर गाय का देसी घी लगाने से आराम मिलता है।*०*
. *०* गाय के घी की झाती पर मालिस करने से बच्चो के बलगम को बहार निकालने मे सहायक होता है।*०*
*०*सांप के काटने पर 100 -150 ग्राम घी पिलायें उपर से जितना गुनगुना पानी पिला सके पिलायें जिससे उलटी और दस्त तो लगेंगे ही लेकिन सांप का विष
कम हो जायेगा।*०*
.*०*दो बूंद देसी गाय का पं घृत नाक में सुबह शाम डालने
से माइग्रेन दर्द ठीक होता है। *०*
.*०*सिर दर्द होने पर शरीर में गर्मी लगती हो, तो गाय के घी की पैरों के तलवे पर मालिश करे, सर दर्द ठीक हो जायेगा।*०*
.*०*यह स्मरण रहे कि गाय के घी के सेवन से कॉलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ता है। वजन भी नही बढ़ता, बल्कि वजन
को संतुलित करता है । यानी के कमजोर व्यक्ति का वजन बढ़ता है, मोटे व्यक्ति का मोटापा (वजन) कम होता है।*०*
*०*एक चम्मच गाय का शुद्ध घी में एक चम्मच बूरा और ¼ चम्मच पिसी काली मिर्च इन तीनों को मिलाकर सुबह खाली पेट और रात को सोते समय चाट कर ऊपर से गर्म मीठा दूध पीने से आँखों की ज्योति बढ़ती है।*०*
.*०*गाय के घी को ठन्डे जल में फेंट ले और फिर घी को पानी से अलग कर ले यह प्रक्रिया लगभग सौ बार करे और इसमें थोड़ा सा कपूर डालकर मिला दें। इस विधि द्वारा प्राप्त घी एक असर कारक औषधि में परिवर्तित हो जाता है जिसे त्वचा सम्बन्धी हर चर्म रोगों में चमत्कारिक कि तरह से इस्तेमाल कर सकते है। यह सौराइशिस के लिए भी कारगर है।
*०*गाय का घी एक अच्छा (LDL) कोलेस्ट्रॉल है। उच्च
कोलेस्ट्रॉल के रोगियों को गाय का घी ही खाना चाहिए। यह एक बहुत अच्छा टॉनिक भी है।*०*
*०*अगर आप गाय के घी की कुछ बूँदें दिन में तीन बार, नाक में प्रयोग करेंगे तो यह त्रिदोष (वात पित्त और कफ) को संतुलित करता है।
नोट :- गाय के पंचगव्य (दूध,दही,शुद्ध घी,गोमय, अर्क) से बने घरेलू उत्पाद (साबुन,शैम्पू, धूप बत्ती,फिनायल,बाम,फेसपैक,क्लीनर,व अन्य उत्पाद के लिए सम्पर्क करे - देवेन्द्र आर्य 9992288157
।। वन्दे गौ मातरम् ।।


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।।। कर्म और ज्ञान ।।। एक बार एक जंगल में आग लग गई, उसमें दो व्यक्ति फँस गए थे। उनमें से एक अँधा तथा...

।।। कर्म और ज्ञान ।।।
एक बार एक जंगल में आग लग गई, उसमें दो व्यक्ति फँस गए थे।
उनमें से एक अँधा तथा दूसरा लंगड़ा था, दोनों बहुत डर गए थे।
अंधे ने आव देखा न ताव बस दौड़ना शुरू कर दिया।
अंधे को यह भी ख्याल नहीं रहा की वो आग की तरफ दौड़ रहा था।
लंगड़ा उसे आवाज़ देता रहा पर अंधे ने पलटकर जवाब नहीं दिया।
लंगड़ा आग को अपनी तरफ आती तो देख रहा था पर वह भाग नहीं सकता था।
अंत में दोनों आग में जलकर मर गए।
अंधे ने भागने का कर्म किया था पर उसे ज्ञान नहीं था की किस तरफ भागना है।
लंगड़े को ज्ञान था की किस तरफ भागना है पर वो भागने का कर्म नहीं कर सकता था।
अगर दोनों एक साथ रहते और अँधा, लंगड़े को अपने कंधे पर बिठा कर भागता तो दोनों की जान बच सकती थी।
छोटी सी कथा तात्पर्य:
बस यही है की:-
।। कर्म के बिना ज्ञान व्यर्थ है ।।
।। ज्ञान के बिना कर्म व्यर्थ है ।।


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११ आषाढ़ 25 जून 15 😶 “ देवत्त्व की ओर ” 🌞 🔥🔥ओ३म् ईजानशिचतमारूक्षदग्रिं...

११ आषाढ़ 25 जून 15
😶 “ देवत्त्व की ओर ” 🌞

🔥🔥ओ३म् ईजानशिचतमारूक्षदग्रिं नाकस्य पृष्ठद् दिवमुत्पतिष्यन् ।🔥🔥
🍃🍂 तस्मै प्रभाति नभसो ज्योतिषीमान् स्वर्ग पन्था सुकृते देवयान:।। 🍂🍃
अथर्व० १८ । ४। १४
शब्दार्थ :- जो मनुष्य सुखभोग के लोक से प्रकाशमय “द्यौ” लोक के प्रति ऊपर उठना चाहता हुआ ओर इस प्रयोजन से वास्तविक यजन करता हुआ पुण्यकर्मो द्वारा चिनी हुई अग्रि का,आंतर अग्रि का आश्रय ग्रहण करता है उसी शोभन कर्म करने वाले मनुष्य के लिए ज्योतिर्मय आत्मसुख को प्राप्त करने वाला ‘देवयान’ मार्ग इस प्रकाश रहित संसार-आकाश के बीच में प्रकाशित हो जाता है ।


विनय :- क्या तुम देवत्व पाना चाहते हो?
उस प्रसिद्ध बड़ी महिमावाले 'देवयान’ मार्ग के पथिक बनना चाहते हो?
परन्तु शायद तुम उस देवों के चलने के मार्ग अभी समझ ही ना सकोगे । बात यह है कि संसार में दो मार्ग चल रहे है । एक मार्ग संसार के लोगो में भोग में, प्रकृति में,प्रवृत हो रहें है-विश्व के एक-से-एक ऊँचे सुख भोग पाने के लिए दृढ़तापूर्वक अग्रसर हो रहे है ।
दुसरे मार्ग वाले लोग भोगों से निवृत होकर अपवर्ग की और आत्मा को और जा रहे है । ये क्रमश: पितृयान और देवयान है । इन दोनों मार्गों द्वारा प्रकृति मनुष्य के भोग और अपवर्ग नामक दोनों अर्थों को पूरा कर रही है,परन्तु प्रवृति और निवृति एक साथ कैसे हो सकती है?
इसलिए जो लोग भोगों में विश्वास रखतें हुए मुँह उधर उठायें जा रहे है,उन्हें लाख समझाने पर भी वो आत्मा की बात ना सुनेंगे ।
देवयान मार्ग तो उन्हें ही भासता है जो लोगो कि नि:सारता को अच्छी प्रकार समझ गये है,परम लुभावने बड़े-बड़े भोगों को दिव्य भोगो को देखकर जो उनसे भी विरक्त हो चुके हो वे अब बड़े सुखों को इन्द्रासन को छोड़ कर ज्ञानरूप तत्व की क्षरण में जाने को व्याकुल हो भोगों में अन्धकार-ही-अन्धकार पाकर जो ज्योतिर्मय की तरफ बढना चाहते है । यही मार्ग स्वयं को आत्मा-सुख को,आत्म ज्योति को प्राप्त करने वाला है ।
अनन्त सूर्य के प्रकाश को भी मात करनेवाली ज्योति की भांति वह देवयान दिव्य प्रकाश तुम्हारी ओर उतरोत्तर बढता जाएगा ।
और तब भोग्वादियों के लाख समझाने पर भी तुम्हें इन ज्योतिर्म्य भोगों में राग पैदा नहीं होगा ।


🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂
ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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उद्वृह रक्षः सहमूलमिन्द्र वृश्चा मध्यं प्रयग्रं श्रृणीहि । आ कीवतः सललूकं चकर्थ ब्रह्मद्विषे तपुषिं...

उद्वृह रक्षः सहमूलमिन्द्र वृश्चा मध्यं प्रयग्रं श्रृणीहि ।
आ कीवतः सललूकं चकर्थ ब्रह्मद्विषे तपुषिं हेतिमस्य ।। ( ऋग्वेद ३/३०/१७ )
अर्थ :– धर्मात्माओं पर कभी शस्त्र मत उठाओ । और दुष्टों को मारे बिना मत छोड़ो ।
www.vedicpress.com


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पौराणिक पण्डित कहते है की मूर्तिपूजा करनी चाहिए। जागरण करवाना चाहिए। प्रसाद चढ़ाकर मन्नत मागनी...

पौराणिक पण्डित कहते है की मूर्तिपूजा करनी चाहिए। जागरण करवाना चाहिए। प्रसाद चढ़ाकर मन्नत मागनी चाहिए।

ऐसी चिकनी चुपड़ी बातो को बोल कर पंडित पण्डे पुजारी लोगो को बेवकूफ उल्लू बनाते है और मूर्तिपूजा से अपना स्वार्थ सिद्ध करते है।

कहते है की अपने बड़ो की फोटो पर किचड़ या थूककर दिखाओ। तो जाने।

माता-पिता इत्यादि की फोटो का नाम लेकर उनको भरम में डालते है। परन्तु विद्वान् और ज्ञानी लोग इन मूर्खो की बातो में नही आते।

मन्दिर में जब लोग जाते है तो उनको ज्ञान कर्म धर्म की बाते न बताकर अपना प्रयोजन सिद्ध करते है और कहते है की १० रूपये यहा रखो ५० रूपये वहाँ रखो। ये फल, नारियल और मिठाई कपड़े हमे दो तुम्हारे कष्ठ दूर हो जायेगे। अब शीघ्र ही घर जाओ दुसरो को आने दो।

लोग पुरे दिन जितना धन मेहनत से कमाते है ये दुष्ट पण्डे-पुजारी रात को उसी धन से जागरण करवाते है।
धन तो गया ही इसके अलावा रात्रि भर जाग कर स्वास्थ्य भी चला जाता है।
ना ही ईश्वर की उपासना होती है, ना ही कुछ मिलता है सिर्फ अशान्ति के आलावा।

विद्वान पुरुष ईश्वर को अपने हृदय में देखते है ।

* अन्धन्तम: प्र विशन्ति येsसम्भूति मुपासते ।

  ततो भूयsइव ते तमो यs उसम्भूत्या-रता: ।।

                           - ( यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 9 )

अर्थ – जो लोग ईश्वर के स्थान पर जड़ प्रकृति या उससे बनी मूर्तियों की पूजा उपासना करते हैं , वह लोग घोर अंधकार ( दुख ) को प्राप्त होते हैं ।

* यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यन्ति ।

  तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ – केनोपनि० ॥ – सत्यार्थ प्र० २५४

अर्थात जो आंख से नहीं दीख पड़ता और जिस से सब आंखें देखती है , उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर । और जो उस से भिन्न सूर्य , विद्युत और अग्नि आदि जड़ पदार्थ है उन की उपासना मत कर ॥

* अधमा प्रतिमा पूजा ।

 अर्थात् – मूर्ति-पूजा सबसे निकृष्ट है ।

* यष्यात्म बुद्धि कुणपेत्रिधातुके

  स्वधि … स: एव गोखर: ॥         - ( ब्रह्मवैवर्त्त )

  अर्थात् – जो लोग धातु , पत्थर , मिट्टी आदि की मूर्तियों में परमात्मा को पाने का विश्वासय तथा जल वाले य को तीर्थ समझते हैं , वे सभी मनुष्यों में बैलों का चारा ढोने वाले गधे के समान हैं ।

* जो जन परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य की उपासना करता है वह विद्वानों की दृष्टि में पशु ही है ।                 
-  ( शतपथ ब्राह्मण )

अभी भी समय है आखे खोलो। सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर बुद्धि को तोलो

बिना अष्टांगयोग के परमात्मा की भक्ति ना होगी। बिना योग के मुक्ति ना होगी।


🌾🌾विकास आर्य🌾🌾


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🔴आयुर्वेदिक दोहे🔴 ============= १Ⓜ दही मथें माखन मिले, केसर संग मिलाय, होठों पर लेपित करें, रंग...

🔴आयुर्वेदिक दोहे🔴
=============

१Ⓜ
दही मथें माखन मिले,
केसर संग मिलाय,
होठों पर लेपित करें,
रंग गुलाबी आय..
२Ⓜ
बहती यदि जो नाक हो,
बहुत बुरा हो हाल,
यूकेलिप्टिस तेल लें,
सूंघें डाल रुमाल..

३Ⓜ
अजवाइन को पीसिये ,
गाढ़ा लेप लगाय,
चर्म रोग सब दूर हो,
तन कंचन बन जाय..

४Ⓜ
अजवाइन को पीस लें ,
नीबू संग मिलाय,
फोड़ा-फुंसी दूर हों,
सभी बला टल जाय..

५Ⓜ
अजवाइन-गुड़ खाइए,
तभी बने कुछ काम,
पित्त रोग में लाभ हो,
पायेंगे आराम..

६Ⓜ
ठण्ड लगे जब आपको,
सर्दी से बेहाल,
नीबू मधु के साथ में,
अदरक पियें उबाल..

७Ⓜ
अदरक का रस लीजिए.
मधु लेवें समभाग,
नियमित सेवन जब करें,
सर्दी जाए भाग..

८Ⓜ
रोटी मक्के की भली,
खा लें यदि भरपूर,
बेहतर लीवर आपका,
टी० बी० भी हो दूर..

९Ⓜ
गाजर रस संग आँवला,
बीस औ चालिस ग्राम,
रक्तचाप हिरदय सही,
पायें सब आराम..

१०Ⓜ
शहद आंवला जूस हो,
मिश्री सब दस ग्राम,
बीस ग्राम घी साथ में,
यौवन स्थिर काम..

११Ⓜ
चिंतित होता क्यों भला,
देख बुढ़ापा रोय,
चौलाई पालक भली,
यौवन स्थिर होय..

१२Ⓜ
लाल टमाटर लीजिए,
खीरा सहित सनेह,
जूस करेला साथ हो,
दूर रहे मधुमेह..

१३Ⓜ
प्रातः संध्या पीजिए,
खाली पेट सनेह,
जामुन-गुठली पीसिये,
नहीं रहे मधुमेह..

१४Ⓜ
सात पत्र लें नीम के,
खाली पेट चबाय,
दूर करे मधुमेह को,
सब कुछ मन को भाय..

१५Ⓜ
सात फूल ले लीजिए,
सुन्दर सदाबहार,
दूर करे मधुमेह को,
जीवन में हो प्यार..

१६Ⓜ
तुलसीदल दस लीजिए,
उठकर प्रातःकाल,
सेहत सुधरे आपकी,
तन-मन मालामाल..

१७Ⓜ
थोड़ा सा गुड़ लीजिए,
दूर रहें सब रोग,
अधिक कभी मत खाइए,
चाहे मोहनभोग.

१८Ⓜ
अजवाइन और हींग लें,
लहसुन तेल पकाय,
मालिश जोड़ों की करें,
दर्द दूर हो जाय..

१९Ⓜ
ऐलोवेरा-आँवला,
करे खून में वृद्धि,
उदर व्याधियाँ दूर हों,
जीवन में हो सिद्धि..

२०Ⓜ
दस्त अगर आने लगें,
चिंतित दीखे माथ,
दालचीनि का पाउडर,
लें पानी के साथ..

२१Ⓜ
मुँह में बदबू हो अगर,
दालचीनि मुख डाल,
बने सुगन्धित मुख, महक,
दूर होय तत्काल..

२२Ⓜ
कंचन काया को कभी,
पित्त अगर दे कष्ट,
घृतकुमारि संग आँवला,
करे उसे भी नष्ट..

२३Ⓜ
बीस मिली रस आँवला,
पांच ग्राम मधु संग,
सुबह शाम में चाटिये,
बढ़े ज्योति सब दंग..

२४Ⓜ
बीस मिली रस आँवला,
हल्दी हो एक ग्राम,
सर्दी कफ तकलीफ में,
फ़ौरन हो आराम..

२५Ⓜ
नीबू बेसन जल शहद ,
मिश्रित लेप लगाय,
चेहरा सुन्दर तब बने,
बेहतर यही उपाय..

२६.Ⓜ
मधु का सेवन जो करे,
सुख पावेगा सोय,
कंठ सुरीला साथ में ,
वाणी मधुरिम होय.

२७.Ⓜ
पीता थोड़ी छाछ जो,
भोजन करके रोज,
नहीं जरूरत वैद्य की,
चेहरे पर हो ओज..

२८Ⓜ
ठण्ड अगर लग जाय जो
नहीं बने कुछ काम,
नियमित पी लें गुनगुना,
पानी दे आराम..

२९Ⓜ
कफ से पीड़ित हो अगर,
खाँसी बहुत सताय,
अजवाइन की भाप लें,
कफ तब बाहर आय..

३०Ⓜ
अजवाइन लें छाछ संग,
मात्रा पाँच गिराम,
कीट पेट के नष्ट हों,
जल्दी हो आराम..

३१Ⓜ
छाछ हींग सेंधा नमक, x
दूर करे सब रोग, जीरा
उसमें डालकर,
पियें सदा यह भोग..।

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Friday, June 26, 2015

~•~ आर्य कौन थे ~•~ ? * 🌏🌏🌏🌏🌏🌏🌏🌏💥💥💥💥💥💥💥💥 •••• भारत तथा यूरोप की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में आर्य...

~•~ आर्य कौन थे ~•~ ?

*
🌏🌏🌏🌏🌏🌏🌏🌏💥💥💥💥💥💥💥💥

•••• भारत तथा यूरोप की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में आर्य शब्द यौद्धा अथवा वीर के अर्थ में व्यवहृत है ! …………
पारसीयों पवित्र धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में अनेक स्थलों पर आर्य शब्द आया है जैसे –सिरोज़ह प्रथम- के यश्त ९ पर, तथा सिरोज़ह प्रथम के यश्त २५ पर …अवेस्ता में आर्य शब्द का अर्थ है ——-€ …तीव्र वाण (Arrow ) चलाने वाला यौद्धा —यश्त ८. स्वयं ईरान शब्द आर्यन् शब्द का तद्भव रूप है ..
परन्तु भारतीय आर्यों के ये चिर सांस्कृतिक प्रतिद्वन्द्वी अवश्य थे !! ये असुर संस्कृति के उपासक आर्य थे. देव शब्द का अर्थ इनकी भाषाओं में निम्न व दुष्ट अर्थों में है …परन्तु अग्नि के अखण्ड उपासक आर्य थे ये लोग… स्वयं ऋग्वेद में असुर शब्द उच्च और पूज्य अर्थों में है —-जैसे वृहद् श्रुभा असुरो वर्हणा कृतः ऋग्वेद १/५४/३. तथा और भी महान देवता वरुण के रूप में …त्वम् राजेन्द्र ये च देवा रक्षा नृन पाहि .असुर त्वं अस्मान् —ऋ० १/१/७४ तथा प्रसाक्षितः असुर यामहि –ऋ० १/१५/४. ऋग्वेद में और भी बहुत से स्थल हैं जहाँ पर असुर शब्द सर्वोपरि शक्तिवान् ईश्वर का वाचक है ..
पारसीयों ने असुर शब्द का उच्चारण ..अहुर ….के रूप में किया है….अतः आर्य विशेषण.. असुर और देव दौनो ही संस्कृतियों के उपासकों का था ….और उधर यूरोप में द्वित्तीय महा -युद्ध का महानायक ऐडोल्फ हिटलर Adolf-Hitler स्वयं को शुद्ध नारादिक nordic आर्य कहता था और स्वास्तिक का चिन्ह अपनी युद्ध ध्वजा पर अंकित करता था विदित हो कि जर्मन भाषा में स्वास्तिक को हैकैन- क्रूज. Haken- cruez कहते थे …जर्मन वर्ग की भाषाओं में आर्य शब्द के बहुत से रूप हैं ….
..ऐरे Ehere जो कि जर्मन लोगों की एक सम्माननीय उपाधि है ..जर्मन भाषाओं में ऐह्रे Ahere तथा Herr शब्द स्वामी अथवा उच्च व्यक्तिों के वाचक थे …और इसी हर्र Herr शब्द से यूरोपीय भाषाओं में..प्रचलित सर ….Sir …..शब्द का विकास हुआ. और आरिश Arisch शब्द तथा आरिर् Arier स्वीडिश डच आदि जर्मन भाषाओं में श्रेष्ठ और वीरों का विशेषण है …..
………………🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻
इधर एशिया माइनर के पार्श्व वर्ती यूरोप के प्रवेश -द्वार ग्रीक अथवा आयोनियन भाषाओं में भी आर्य शब्द. …आर्च Arch तथा आर्क Arck के रूप मे है जो हिब्रू तथा अरबी भाषा में आक़ा होगया है…ग्रीक मूल का शब्द हीरों Hero भी वेरोस् अथवा वीरः शब्द का ही विकसित रूप है और वीरः शब्द स्वयं आर्य शब्द का प्रतिरूप है जर्मन वर्ग की भाषा ऐंग्लो -सेक्शन में वीर शब्द वर Wer के रूप में है ..तथा रोम की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह वीर शब्द Vir के रूप में है……… ईरानी आर्यों की संस्कृति में भी वीर शब्द आर्य शब्द का विशेषण है यूरोपीय भाषाओं में भी आर्य और वीर शब्द समानार्थक रहे हैं !….हम यह स्पष्ट करदे कि आर्य शब्द किन किन संस्कृतियों में प्रचीन काल से आज तक विद्यमान है.. लैटिन वर्ग की भाषा आधुनिक फ्रान्च में…Arien तथा Aryen दौनों रूपों में …इधर दक्षिणी अमेरिक की ओर पुर्तगाली तथा स्पेन भाषाओं में यह शब्द आरियो Ario के रूप में है पुर्तगाली में इसका एक रूप ऐरिऐनॉ Ariano भी है और फिन्नो-उग्रियन शाखा की फिनिश भाषा में Arialainen ऐरियल-ऐनन के रूप में है .. रूस की उप शाखा पॉलिस भाषा में Aryika के रूप में है.. कैटालन भाषा में Ari तथा Arica दौनो रूपों में है स्वयं रूसी भाषा में आरिजक Arijec अथवा आर्यक के रूप में है इधर पश्चिमीय एशिया की सेमेटिक शाखा आरमेनियन तथा हिब्रू और अरबी भाषा में क्रमशः Ariacoi तथाAri तथा अरबी भाषा मे हिब्रू प्रभाव से म-अारि.
M(ariyy तथा अरि दौनो रूपों में.. तथा ताज़िक भाषा में ऑरियॉयी Oriyoyi रूप. …इधर बॉल्गा नदी मुहाने वुल्गारियन संस्कृति में आर्य शब्द ऐराइस् Arice के रूप में है .वेलारूस की भाषा मेंAryeic तथा Aryika दौनों रूप में..पूरबी एशिया की जापानी कॉरीयन और चीनी भाषाओं में बौद्ध धर्म के प्रभाव से आर्य शब्द .Aria–iin..के रूप में है …..
आर्य शब्द के विषय में इतने तथ्य अब तक हमने दूसरी संस्कृतियों से उद्धृत किए हैं…. परन्तु जिस भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव आर्यों की संस्कृति से हुआ ..🐂🐂🐂🐎🐎🐎🐂🐎🐕🐕🐕🐾🌲🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🌰उस के विषय में हम कुछ कहते हैं ….विदित हो कि यह समग्र तथ्य 📖📚📖📚📗📕📘📙📓📓📔📑📑📃📄📝✏ ……योगेश कुमार रोहि के शोधों पर……. आधारित हैं ..⚡⚡⚡❄❄❄❄.भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं
स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ Rootnal-Mean ..आरम् धारण करने वाला वीर …..संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा ….अथवा वीरः |आर्य शब्द की व्युत्पत्ति Etymology संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन प्राचीनत्तम हैं ..

१–गमन करना Togo २– मारना to kill ३– हल (अरम्) चलाना …. Harrow मध्य इंग्लिश—रूप Harwe कृषि कार्य करना… ..प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे …..🍪🍪🍪🍪🍪🌽🍅🍈🍇🍒🍍🍐🍠🍑🍋🍊🍇🍓🍌🍌🍌🍌
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कात्स्न्र्यम् धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च..परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा .अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है 
वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity.यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =togo 
के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर Err है
…….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशःAraval तथा Aravalis हैं अर्थात् कृषि कार्य.सम्बन्धी …..आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य ही थे …सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था …🐂🐕🐂🐎🐄🐏🐚🐚🐚🐚🐚🐚🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌿आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ….यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था …🏠🏡🏠🏡🌄🌅🎠🎠🎠🚣🚣🚣🚣🏤🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡..अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी(घास के मैदान )देखते 
उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे …क्यों किअब भी .
संस्कृत तथा यूरोप की सभी भाषाओं में…. ग्राम शब्द का मूल अर्थ ग्रास-भूमि तथा घास है 
…..इसी सन्दर्भ यह तथ्य भी प्रमाणित है कि आर्य ही ज्ञान और लेखन क्रिया के विश्व में प्रथम प्रकासक थे …ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—–ग्रस् +मन् प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है जिससे ग्रह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है 
गृह ही ग्राम की इकाई रूप है ..जहाँ ग्रसन भोजन की सम्पूर्ण व्यवस्थाऐं होती हैं👣👣👣👣👣👣🔰🔰🔰🔰🔰📖📖📖📕📓📑📒📰📚📚📙📘📗📔📒📝📝📄💽📐. सर्व प्रथम आर्यों ने घास केे पत्तों पर लेखन क्रिया की थी.. क्यों कि वेदों में गृभ धातु का प्रयोग ..लेखन उत्कीर्णन तथा ग्रसन (काटने खुरचने )केेे अर्थ में भी प्रयुक्त है… यूरोप की भाषाओं में देखें–जैसे ग्रीक भाषा में ग्राफेन Graphein तथा graphion = to write वैदिक रूप .गृभण..इसी से अंग्रेजी मेंGrapht और graph जैसे शब्दों का विकास हुआ है पुरानी फ्रेन्च मेंGraffe लैटिन मेंgraphiumअर्थात् लिखना .ग्रीक भाषा मेंgrammaशब्द का अर्थ वर्ण letterरूढ़ हो गया .जिससे कालान्तरण में ग्रामर शब्द का विकास हुआ..
आर्यों ने अपनी बुद्धिमता से कृषि पद्धति का विकास किया अनेक ध्वनि संकेतों काआविष्कार कर कर अनेक लिपियों को जन्म दिया …अन्न और भोजन के अर्थ में भी ग्रास शब्द यूरोप की भाषाओं में है पुरानी नॉर्स ,जर्मन ,डच, तथा गॉथिक भाषाओं में Gras .पुरानी अंग्रेजी मेंgaers .,green ग्रहण तथा grow, grasp लैटिनgranum- grain स्पेनिस्grab= to seize …
सभी विद्वानों से निवेदन करता हूँ !कि इस सन्देश को समीक्षात्मक दृष्टि से अवश्य देखें ! ओ३म् !ओ३म् !!ओ३म्


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C T M वैदिक धर्म की विशेषता— वैदिक धर्म का उपदेश सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर ने स्वयं दिया...

C T M वैदिक धर्म की विशेषता—
वैदिक धर्म का उपदेश सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर ने स्वयं दिया है ।वैदिक धर्म का उपदेश किसी मनुष्य द्वारा नहीं दिया गया है ।

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता(३)—
‪#‎कर्मफल‬ का अटल सिद्धान्त है ।
‪#‎जो‬ करेगा फल उसको ही भोगना पड़ेगा ।
‪#‎जैसा‬ करेगा वैसा फल ही भोगना पड़ेगा ।
‪#‎जितना‬ करेगा उतना ही भोगना पड़ेगा ।
‪#‎भोग‬ ,प्रसाद आदि चढ़ा कर, विश्वास आदि के द्वारा या अन्य किसी भी कारण से कर्मफल के भोग से बचा नहीं जा सकता है ।
#कर्मफल के बुरे भोग से बचाने की बात कहनेवाले भोली भाली जनता को ठगते हैं ।

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता(४)—
पुनर्जन्म का अटल सिद्धांत है ।
आत्मा जब तक मुक्ति नहीं प्राप्त कर लेता है तब तक अपनी वासनाओं , संस्कारों , कर्मों के आधार पर विभिन्न योनियों में जन्म लेता रहेगा ।

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता(५)
ईश्वर न्यायकारी है ।
किसी के भोग आदि चढ़ाने से, विश्वास करने से, उसके समूह में भाग लेने मात्र से, किसी की सिफारिश से या अन्य किसी भी कारण से ईश्वर के न्याय से बचा नहीं जा सकता है

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता (६)
वेद का उपदेश मानव मात्र के लिए है ।किसी स्थान विशेष के लोगों के लिए, किसी वर्ग विशेष के लिए ही नहीं है ।स्त्री-पुरुष सभी वेद पढ़ सकते हैं ।उसके अनुसार अपना जीवन ढाल सकते हैं ।

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता (७)
तीन अनादि सत्ता हैं —
पररमात्मा ,आत्मा और प्रकृति ।
इनका आदि भी नहीं है और अन्त भी नहीं है ।इन तीनों के गुण , कर्म और स्वभाव भी भिन्न हैं ।

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता (८)
प्रत्येक मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों को बिना किसी भेदभाव के मोक्ष पद का अधिकारी माना गया है।

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता(९)
विश्व में कहीं भी, जो कुछ भी अच्छे कार्य , सदाचरण , सद्विद्या, सद्गुण पाए जाते हैं उन सब का वर्णन वेद में है। अतः शुभकर्म , सदाचरण, सद्विद्या, सद्गुण आदि सभी धर्मों का आदिमूल वेद ही है।

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता(१०)
मानव जीवन के सर्वाङ्गीण विकास के लिए वैदिक धर्म में ही उपदेश किया गया है ।
मानव जीवन के सुख साधन एवम् सफलता के लिए वैदिक धर्म एक व्यवस्थित जीवन पद्धति , व्यवस्थित रूपरेखा प्रस्तुत करता है ।
वैदिक धर्म एक पूर्ण धर्म है ।

C T M वैदिक धर्म की विशेषता(११)
वैदिक धर्म बुद्धिवादी धर्म है ।यह बुद्धि संगत है ।वैदिक धर्म के सारे तत्त्व बुद्धि की कसौटी पर खरे उतरते हैं ।वैदिक धर्म के सारे उपदेश तर्क संगत हैं ।

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता(१२)
वैदिक धर्म में ईश्वर और उपासक का सीधा सम्बन्ध है ।किसी भी बिचौलिये की आवश्यकता नहीं पड़ती है ।ईश्वर से कोई हमारी सिफारिश कर दे ,इसकी भी आवश्यकता नहीं पड़ती है ।कोई सिफारिश करना चाहे भी तो उसकी चलती नहीं है ।

C T M वैदिक धर्म की विशेषता(१३)
लौकिक जीवन और पारलौकिक जीवन में समन्वय है ।जिसका लौकिक जीवन सफल होगा उसी का परलोक भी सिद्ध हो सकेगा ।जिसका लौकिक जीवन असफल होगा उसका परलोक भी सिद्ध नहीं हो सकेगा ।

C T M वैदिक धर्म की विशेषता(१४)
वैदिक धर्म में मानव धर्म के चार लक्ष्य माने गए हैं—(१)धर्म
(२)अर्थ
(३)काम
(४)मोक्ष ।

C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता(१५)
ईश्वर सर्वज्ञ है ।
वह स्वयं ही सब कुछ जानता है ।
उसे किसी द्वारा कुछ बतलाने की आवश्यकता नहीं ।
C T M Mdy वैदिक धर्म की विशेषता(१६)
ईश्वर ब्रह्माण्ड के कण कण में व्याप्त है ।ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ ईश्वर न हो ।ईश्वर किसी स्थान विशेष में नहीं रहता है ।

C T M वैदिक धर्म की विशेषता(१७)
ईश्वर ने मनुष्य की उत्पत्ति के साथ ही वैदिक ज्ञान दिया ।अत: आदि मानव को भी मोक्ष का उपदेश प्राप्त होने के कारण ईश्वर ने किसी के साथ पक्षपात नहीं किया है ।सब पर ईश्वर की एक समान कृपा है ।

C T M वैदिक धर्म की विशेषता(१८)
ईश्वर स्वभाव से आनन्दमय सत्ता है ।
ईश्वर किसी पर रुष्ट या तुष्ट नहीं होता है ।वह किसी को दुख या सुख नहीं देता है ।सभी अपने अपने कर्मों के अनुसार अच्छे या बुरे फल भोगते हैं ।


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शुगर का इलाज" १-लहसुन छिला हुआ 25 gm २-अदरक (ताज़ा) 50 gm ३-पुदीना fresh 50 gm ४-अनारदाना खट्टा...

शुगर का इलाज"

१-लहसुन छिला हुआ 25 gm
२-अदरक (ताज़ा) 50 gm
३-पुदीना fresh 50 gm
४-अनारदाना खट्टा 50 gm

इन चारों चीज़ों को पीस कर चटनी बना लें।
और सुबह, दोपहर और शाम को एक-एक चम्मच खा लें।
पुरानी से पुरानी शुगर, यहाँ तक कि शुगर की वजह से जिस मरीज़ के जिस्म के किसी हिस्से को काटने की सलाह भी दी गयी हो तब भी ये चटनी बहुत फायदेमंद इलाज है।
अगर हो सके तो इसे आगे भी फॉरवर्ड कर दें।
क्या पता किसी ज़रूरतमंद को वक़्त पर मिल जाये।


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जिस प्रकार जल शुद्धि के लिए उपयुक्त है सम्पूर्ण है ठीक वैसे ही विद्वान ज्ञान का भंडार है ज्ञान...

जिस प्रकार जल शुद्धि के लिए उपयुक्त है सम्पूर्ण है ठीक वैसे ही विद्वान ज्ञान का भंडार है

ज्ञान वर्धन के लिए विद्वानों की शरण में जाना चाहिए और जितना हो सके उनसे ज्ञान लेते रहना चाहिए

समय अलग है विद्वानों का तिरस्कार भी होता रहता है जो बिलकुल गलत है और भारत के पतन का मूल कारण भी यही है

यजुर्वेद ६-१७(6-17)

इ॒दमा॑पः॒ प्रव॑हताव॒द्यञ्च॒ मलञ्च॒ यत् । यच्चा॑भिदु॒द्रोहानृ॑तं॒ यच्च॑ शे॒पे अ॑भी॒रुण॑म् । आपो॑ मा॒ तस्मा॒देन॑सः॒ पव॑मानश्च मुञ्चतु ॥६-१७॥

भावार्थ:- जैसे जल सांसारिक पदार्थों को शुद्धि का निदान है, वैसे विद्वान् लोग सुधार का निदान हैं, इस से वे अच्छे कामों को करें। मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर की उपासना और विद्वानों के संग से दुष्टाचरणों को छोड़ सदा धर्म में प्रवृत्त रहें।


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ओ३म् अर्चत प्रार्चत नर: प्रिय मेधासो अर्चत| अर्चन्तु पुत्रका उत् पुरमिद् धृष्णवर्चत|| (साम ३६२...

ओ३म् अर्चत प्रार्चत नर: प्रिय मेधासो अर्चत|
अर्चन्तु पुत्रका उत् पुरमिद् धृष्णवर्चत|| (साम ३६२ )

जैसे मम मित्रों पुत्रों को, कोई उपकारी उपदेश करे,
त्यों कामलिप्त को शुभ गुण का, प्रभु श्रुतियों से सन्देश करे |

पुत्र पौत्र प्रिय सखा सहेली, आओ आओ सब जन आओ|
प्यारे प्रभुवर का मधुर गान, एक साथ सब मिलकर गाओ||

यह गान न तम भड़किला हो,
हर शब्द सुखद चमकीला हो,
मन कमल कली हो खिली खिली
ऐसा यह गान सुरीला हो|

जिससे से मन कलमष धुल जाये, ऐसा स्वर संगीत सुनाओ|
प्यारे प्रभुवर का मधुर गान, एक साथ सब मिलकर गाओ||

हृदय उमड़ती सहज अर्चना,
मधुर अर्चना प्रखर अरचना,
श्रुति मेधा को प्यारी प्यारी
गतिदायक हो सुखद अर्चना|

मन गहराई बुद्धि उँचाई, हृदय बुद्धि मे‍ संगति लाओ|
प्यारे प्रभुवर का मधुर गान, एक साथ सब मिलकर गाओ||

मातृ अर्चना पितु अर्चना,
गुरु अर्चना अतिथि अर्चना,
माज वासना हरे न्यूनता
वरे पूर्णता ईश अर्चना |

हर रचना हो युक्त अर्चना, अर्चना गान ऐसा गाओ|
प्यारे प्रभुवर का मधुर गान्, एक साथ सब मिलकर गाओ||

******************************************
राजेन्द्र आर्य‌


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१३ आषाढ़ 27 जून 15 😶 “ अभय ही अभय ” 🌞 ओ३म् इदमुच्छेयो अवसानमागां शिवे मे द्यावापृथ्वी...

१३ आषाढ़ 27 जून 15
😶 “ अभय ही अभय ” 🌞

ओ३म् इदमुच्छेयो अवसानमागां शिवे मे द्यावापृथ्वी अभूताम् ।
 असपत्न प्रदिशे में भवन्तु न वै त्वा द्विष्मो अभयं नो अस्तु ।।  
अथर्व० १९ । १४ । १ 
शब्दार्थ :- अब यही कल्याणकार है कि मै अब समाप्ति पर आ जाऊँ, द्वेष-परम्परा का विराम कर दूँ,अत:
हे शत्रो !
तेरे साथ मै तो द्वेष करना छोड़ ही देता हूँ । द्यौ और पृथ्वी भी मेरे लिए अब कल्याणकारी हो जाएँ, सभी दिशाएँ मेरे लिए शत्रुरहित हो जाएँ मेरे लिए अब अभय-ही-अभय हो जाए ।


विनय :- हे मेरे भाई !
मैंने अब तक तुमसे बहुत द्वेष किया,खूब दुश्मनी की । अगर तुमने मुझे नुक्सान पहुँचाया तो मैंने भी तुम्हें पहुँचाया ।तुमने फिर उसका बदला लिया तो मैंने भी उसका प्रत्युतर दिया । इस प्रकार हमारी द्वेषाग्रि दिनोंदिन बदती ही गयी हाउ,भयंकर रूप धारण करटी गयी । इस द्वेष से हम दोनों का ही बहुत नुक्सान हुआ । मै देखता हूँ कि ईट का जवाब ईंट से देने से नुक्सान दोनों का होता है और ये तब तक नहीं रुकता जब तक सम्पूर्ण विनाश ना हो जाएँ । कल्याण इसी में है कि ये अब रुक जाएँ । हम दोनों में एक क्रोध का जवाब क्रोध से ना देकर प्यार से शान्ति से देकर इसे यहीं विराम लगा दे,इसी में कल्याण है । इस प्रकार बदती विनाशलीला यहीं शांत हो जायेगी ।
अत:तुम मुझसे चाहो जितना मर्जी द्वेष करों मै उसका जवाब नहीं दूंगा । मै आज द्वेष परम्परा का अवसान करता हूँ विराम लगाता हूँ आज से तुम मेरे शत्रु नहीं भाई हो । मेरे ह्दय के किसी भी कोने में तुम्हारे लिए द्वेष नहीं प्यार है ।
देखें,
अब तुम मेरे से कब तक द्वेष करोगे । मै अब तुम्हारे क्रोध को सहता रहूँगा,और तुमसे प्रेम ही करता जाऊँगा । 
हे भाई !
अब सिर्फ तुमसे ही नहीं मै अब किसी भी आदमी से द्वेष नहीं करूँगा । अत: ये सब विस्तृत दिशाएँ मेरे लिए आज से बिलकुल असपत्न हो गयी हैं, शांत और सुखदायिनी हो गयी है ।

ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

 वैदिक विनय से 

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Tuesday, June 23, 2015

🌞 ओ३म् 🌞 🌺 नमस्ते जी, सुप्रभातम् 🌺 🌻वेदामृतम् 🌻 उत स्वया तन्वा संवदे तत्कदा न्वन्तर्वरुणे...

🌞 ओ३म् 🌞
🌺 नमस्ते जी, सुप्रभातम् 🌺

🌻वेदामृतम् 🌻

उत स्वया तन्वा संवदे तत्कदा न्वन्तर्वरुणे भिवानी । (ऋग्वेद ७/८६/२)

मैं अपने शरीर के साथ संवाद करता हूं , कि कब मैं अन्तर्यामी परमात्मा के ही आधार से रहने लगूंगा ।
हे अन्तर्यामिन् मेरे स्वामिन् परमात्मा देव ! मेेरा आधार तू है । मैं अपने शरीर द्वारा तुझ से पूछता हूं, तू मुझे बता कि मैं कब सब कुछ भूला कर तेरे भरोसे रहने लगूंगा ।

🌹🌹 सुभाषितम् 🌹

।। सन्तोष ॥
सन्तोषामृततृप्तानां, यत्सुखं शान्तचेतसाम् । कुतस्तद्धन लुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ॥ (हितोपदेश १४३)

सन्तोष रुपी अमृत से तृप्त हुए शान्त चित्त वाले मनुष्यों को जो सुख प्राप्त होता है , वह सुख धन के लोभी और इधर - उधर निरन्तर भाग दौड करने वालों को कहां ?

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

🌞 आज का पंचांग🌞

तिथि…………सप्तमी
वार…………..मंगलवार
नक्षत्र ……….पूर्वाफाल्गुनी
योग………….सिद्धि

(समय मान जयपुर का है)
सूर्योदय ———– ५-३७
सूर्यास्त ———–१९-१९
चन्द्रोदय ———-११-३०
चन्द्रास्त ———-२४-०१
सूर्य राशि ———-मिथुन
चन्द्र राशि———-सिंह

सृष्टि संवत् -१,९६,०८,५३,११६
कलियुगाब्द……………५११६
विक्रमी संवत्…………..२०७२
अयन……………..उत्तरायण
ऋतु……………………ग्रीष्म
मास पूर्णिमांत——-आषाढ
(अधिक मास)
विक्रमी संवत् (गुजरात)-२०७१
मास अमांत( गुजरात)…..आषाढ
पक्ष………………… शुक्ल

आंग्ल मतानुसार
२३ जून सन् २०१५ ईस्वी ।

🌻आज का दिन आपके लिए मंगलमय एवं शुभ हो।🌻


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Monday, June 22, 2015

न देवा न वियन्ति नो च विद्वषतेमिथः।तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।।-अथर्व....

न देवा न वियन्ति नो च विद्वषतेमिथः।तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।।-अथर्व. ३.३०.४मन्त्र में घर के बढ़ाने की बात है। यहाँ इसके लिए ब्रह्म शब्द कर प्रयोग किया गया है। ब्रह्म शब्द ईश्वर का भी वाचक है, क्योंकि वह सबसे बड़ा है। इसी प्रकार ज्ञान को भी ब्रह्म कहा जाता है। जो ज्ञान में सबसे बढ़करहै, उसे ब्रह्मा कहा गया है। इसी कारण संसार के प्रारम्भ में जो सबसे ज्ञानी पुरुष हुआ, उसका भी नाम ब्रह्मा है। इसके लिए उपनिषद्में कहा गया है,ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव।देवताओं में प्रथमब्रह्मा हुआ। आज भी यज्ञ आदि कर्मों में जो अधिक जानकार होता है, उसे ही हम अपना मार्गदर्शक चुनते हैं। उसे ब्रह्मा बनाते हैं।मन्त्र में घर को भी बड़ा बनाने की बात की गई है। मन्त्र कहता है-मैं तुम्हारे घर को बड़ा बनाना चाहता हूँ। घर बड़ा होता है, समृद्धि से। घर को समृद्ध करने काउपाय इस मन्त्र में बताया गया है।उपाय क्या हो सकता है? उपाय हैसंज्ञानम्।संज्ञान का शास्त्रीय अर्थ ज्ञान है, चेतना है। हम इसे सामान्य भाषा में कहें तो समझ कह सकते हैं। घर को बड़ा बनाने के लिए, सम्पन्न या समृद्ध बनाने के लिए घर में रहने वाले सदस्यों को समझदार बनना होगा। सभी सदस्य समझदार होंगे, तभी घर परिवार समृद्ध होगा। घर में सबका समझदार होना आवश्यक है। एक भी नासमझ व्यक्ति घर की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके रख देता है। घर में सबकी समझदारी से ही व्यवस्था बनी रह सकती है। आजकल समझदार का अर्थ चालाक या स्वार्थी भी हो जाता है।लोग कहते हैं- यह व्यक्ति बड़ा समझदार है, उसे अपना काम बनाना आता है। ऐसे शब्द श्रेष्ठ अर्थ कोनहीं देते, इसलिये दुनियादार, समझदार, व्यावहारिक आदि शब्द सदा उचित और श्रेष्ठ अर्थ में ही प्रयोग में नहीं आते, परन्तु वेद में इस समझदारी की कसौटी भी दी है। वेद कहता है- समझदार देव होतेहैं। मनुष्यों को समझदार बनने के लिए देवों के गुण अपने में धारण करने होंगे। देवों का देवत्व जिन गुणों से आता है, उसे देवों के कर्म से समझा जा सकता है। देवों का एक पर्यायवाची शब्द है-अनिमेष।ऐसा माना जाता है कि देवता लोग कभी पलक नहीं झपकाते। क्यों नहीं झपकाते, इसे समझाने केलिये पुराण में कथा आती है। देवताओं ने और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया। जो पहले मिला वह असुरों ने लिया, जो बाद में मिला वह देवताओं ने लिया। पहले मिलने वाली वस्तुओं में विष था, जिसे बाँटने के लिए कोई तैयार ही नहीं था, जो शिव के कण्ठ का अलंकरण बन गया। अन्त में अमृत का कलश निकला, जिस पर देवताओं ने अधिकार कर लिया। इसी अमृत के कारणदेवता अमरता को प्राप्त हुए। असुरइस अमृत को पाने के लिए सतत संघर्षरत हैं, इस कारण देवताओं कोअमृत की रक्षा के लिए सतत् जागना पड़ता है। वे इतने सावधान हैं कि पलक भी नहीं झपकाते। पलक झपकने कीअसावधानी भी उनसे अमृत कलश के छीने जाने का कारण बन सकती है। देवताओं के पास अमृत ही नहीं रहा तो देवत्व कैसे रहेगा? संस्कार विधि में बालक की दीर्घायु की कामना करते हुए जो मन्त्र पढ़े गये हैं, उनमें एक मन्त्र में कहागया है- देवताओं की दीर्घायु का कारण अमृत है। उनके पास अमृत है, इसलिए वे दीर्घजीवी हैं-देवा आयुष्मन्तः ते अमृतेनायुष्मन्तः।अतः देव दीर्घजीवी अमृत से हैं। इसका अभिप्राय है कि जो मनुष्य समृद्ध होना चाहता है, उसे सावधानरहना होगा। सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है।विवाह संस्कार में सप्तपदी कराते हुए चौथे कदम कोमयोभवाय चतुष्पदीभवकहा है। यहाँ यह तो कह दिया, परन्तु कोई वस्तु नहीं बताई। अन्नके लिये पहला कदम, बल के लिये दूसरा, समृद्धि के लिये तीसरा, वैसे ही सुख के लिए चौथा। अब समझने की बात है कि समृद्धि के लिये जब तीसरा कदम कह दिया था तो चौथा कदम सुख के लिये कहने की क्या आवश्यकता थी? इससे पहले अन्न, बल और धन प्राप्त करने की बात कह चुका है, फिर पृथक् से सुखके लिये प्रयास करने की आवश्यकता कहाँ पड़ती है? परन्तु पृथक् कहने का अभिप्राय है, इन सब साधनों के होने के बाद भी घर-परिवार में सुख हो, यह आवश्यक नहीं है। भौतिक साधनों का अभाव कष्ट देता है, परन्तु वे मुख्य रूप से शरीर तक ही सीमित रहते हैं। उन कष्टों के रहते हुए भी मनुष्य सुखी रह सकता है, परन्तु साधनों के रहते सुख का होना आवश्यक नहीं। सुख मानसिक परिस्थिति है, जबकि सुविधा शारीरिक वस्तु के अभाव में शारीरिक श्रम बढ़ जाता है, इतना ही है। सुख पाने के लिए मनुष्य केमन में देवत्व के भाव जगाना आवश्यक है, अतः मन्त्र में देवत्वके बाधक भावों को दूर करने के लिएकहा गया है।Share this:
ज्ञान अर्जन मौन समूह 7404437199 व्हात्सप्प


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उपासना काल में यह नियम बना लेना चाहिए कि -  पहला - अब मैं ईश्वर के अतिरिक्त किसी भी अन्य विषय का...

उपासना काल में यह नियम बना लेना चाहिए कि - 
पहला - अब मैं ईश्वर के अतिरिक्त किसी भी अन्य विषय का चिन्तन नहीं करूँगा,यदि कोई अति आवश्यक कार्य आ जाये तो उसे निपटाकर पुनः उपासना करें परन्तु अब वह विषय न हो केवल ईश्वर ही हो। 
दूसरा - मन को जड़ मानकर अपनी इच्छानुसार ही चलाना है ऐसा उसके मन में दृढ़ निश्चय हो। 
तीसरा - व्यक्ति प्रायः लौकिक विषयों में सुख और ईश्वर भक्ति व उपासना में दुःख मानता है। जब उसे पता चलता है कि ईश्वर में तो अनन्त सुख है और लौकिक सुख दुःखमिश्रित है तो वह लौकिक सुख को छोड़कर ईश्वर की इच्छा करता हुआ [उपासना करता है। अतः ऐसा ही करूँगा। 
स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक


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जीवन और मृत्यु का रहस्य—–जीवन और मृत्यु ये दोनों ही शब्द संस्कृत भाषा के है।तथा परस्पर...

जीवन और मृत्यु का रहस्य—–जीवन और मृत्यु ये दोनों ही शब्द संस्कृत भाषा के है।तथा परस्पर विरोधी हैं।जीव प्राणधारणे-धातु सः जीवन शब्द और मृड प्राणत्यागे से मृत्यु शब्द की उत्तपति होती है।प्राणधारण से प्राणत्याग बिलकुल विपरीतार्थक है।इसका सीधा सा अभिप्राय है कि जब तक प्राण वायु का संचार नासिकारन्ध्र द्वारा होता रहता है तब तक जीवध औरजब प्राणवायु का नासिका रन्ध्रों से गतागत समप्त हो जाता है तब मृत्यु शब्द का प्रयोग होने लगता है।इस प्राण वायु के धारण और परात्याग द्वारा जो जीवन और मरण ये दो अवस्थाएं बनी ये शरीर की हैं या शरीर के अभयन्तर निवास करने वाले जीव की अथवा वायु की? जीवन और मृत्यु का व्यपदेश शरीर से सम्बंध रखता है।अर्थात जब तक शरीर में प्राण वायु संचार रहता है,तब तक नेत्रों से अन्धा,कानों से बधीर,वाणी से गूंगा भी जीवित ही कहा जाता है।जब प्राण वायु का सम्बंध शरीर से हट जाता है तब सभी ईन्द्रियों से सम्पृक्त होता हुआ भी वह मृत माना जाता है।इसलिए प्राण को सबसे उत्तम माना गया। अब विचार यह करना है कि क्या प्राण परित्याग शरीर की मृत्यु और प्राण के रहते रहते जीवन बस इतना ही सत्य और तत्त्व है या जीवन मरण व्यपदेश में अन्य भी कोई तथ्य है।इस सम्बंध में नास्तिक और आस्तिक दो सम्प्रदाय माने जाते हैं। गीता में कहा गया हैजिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग करदूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है उसी प्रकार जीवआत्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।पुराने वस्त्रों के त्याग और ग्रहण में भी कुछ निमित्त होता है।कोई उत्सव या अन्य हेतु होने पर ही वस्त्रान्तर धारण किये जाते हैं।ठीक उसी प्रकार कर्मनिनित्तक ही देहान्तर के धारण करने का कारण होता है।इसलिए छान्दोग्योपनिषद् में यह कहकर सिद्ध किया गया है कि हे सौम्य !इस संसार का मूल सत्तत्त्व हैऔर इस सब प्रजा का एकमात्र सदधिष्ठान है और सब प्रजा सत्तत्त्व में ही स्थित है।इस प्रकार शरीर से भिन्न प्राण से भिन्न तथा इन्द्रिय ग्राम से भिन्न एक तत्त्व है जो शरीरान्तरों में गतागत करता है और उसकी जीवन तथा मृत्यु—ये दो गतियां हैं। यह तो एक अत्यन्त सामान्य बात है। पर इससे आगेबहुत ही विचारणीय बात यह है कि आछिर वह तत्त्व जो पुर्वोक्त तीन वस्तुओं का संघ हैवह कैसे मनुष्य और स्त्री के शुक्र शोणित में पहुंचा,कहां से गया,कैसे गया इत्यादि।इसी प्रसंग को दृष्टि में रखते हुए कहा है—और उत्तर दते हुए कहा है—–काल ,स्वभाव,नियति,भूत,आत्म-संयोग से शरीर के कारण होते हैं।केवल आत्मा इस संबंध में कारण नहीं माना जाता।जिस प्रकार उत्पत्स्यमान अंकुर के प्रति न केवल बीज न केवल भूमि और न केवल कृषक कारण है—-बीज,भूमि,कृषक,जल,वायु सभी समुदित होकर अंकुर के कारण बनते हैं,ठीक उसी प्रकारअन्नादि मेघ द्वाराऔर शुक्र शोणित अन्न द्वारा बनने पर जीव भीउन उन पदार्थों के द्वाराउन्हीं में ओत प्रोत हुआ जीवन मरण के चक्र में पडा रहता है।इस महाचक्र से छुटकार पाने के लिए जप,तप ,ध्यान और समाधि का विधान शास्त्रों में बताया गया है।वह एक देवआत्मा याब्रह्मपदवाच्य (उर्णनाभि)मकङी की भांति अपने द्वारा उत्पन्न की गयि वस्तुओं से ही अपने को बांध लेता है।ठीक उसी प्रकार यह आत्म रूपी दिव्य प्रकाश वाला देव अपने द्वारा उत्त्पन्न की गयी वस्तुओं से अपने को ही बांध लेता है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहा है कि लोग इस संसार को छोङकर परलोक में जाते समय पहले चन्द्रमा में पहुंचते हैं।यदि उन जीवों के कर्म तुरन्त जन्म लेने वाले होते हैं तो वे वर्षा द्वारा भूमि पर आ जाते हैं।और जिन शरीरों के उपयोगी उनके कर्म होते हैं उन शरीरों में वे पहुंच जाते हैं।कोई कीङे पतंगे पक्षी मनुष्य दव गन्धर्व इत्यादि शरीर में जन्म ग्रहण कर लेते हैं।इस प्रकार जीवप मृत्यु का शास्त्रों में बहुत विवेचन है।पर वस्तु स्थिति यह है कि वह एक तत्त्व ब्रह्म या आत्मा सर्वत्र है। कर्मानुसार उसी का देहान्तर में प्रवेश निवेश होता है।यह सब सत असत कर्म-कलाप का परिणाम है।वास्तव में यदि आत्म तत्त्व को ठीक समझ लिया जाए मनन और निधिध्यासन द्वारा पूर्ण निष्ठा हो जाए तो जन्म देने वाले कर्मों की समाप्ति हो जाती है।जब जन्म देने वाले कर्म नहीं तो मृत्यु कहां से?इसलिए वेदान्तियों का यह डिण्डिम घोष है————-आत्मोषनिषद31 में न तो आत्मा की कभी उत्तपति होती हैऔर न कहीं ये अवरूद्ध किया जा सकता है न आत्मा कभी बंधन में पङता है और न ही इसे कभी साधनि करने की आवश्यकता पङती है न तो इसे कभी मोक्ष के लिए प्रयत्न करना पङता हैऔर न ये कभी मुक्त ही होता है।क्योंकि यह पहले से ही मुक्त है। वास्तव में यही पारमार्थिक स्थिति है। ओम तत् सत्।।


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🌞 ओ३म् 🌞  नमस्ते जी, सुप्रभातम्  वेदामृतम्  उत स्वया तन्वा संवदे तत्कदा न्वन्तर्वरुणे भुवानि।...

🌞 ओ३म् 🌞
 नमस्ते जी, सुप्रभातम् 

वेदामृतम् 

उत स्वया तन्वा संवदे तत्कदा न्वन्तर्वरुणे भुवानि। (ऋग्वेद ७/८६/२)

मैं अपने शरीर के साथ संवाद करता हूं , कि कब मैं अन्तर्यामी परमात्मा के ही आधार से रहने लगूंगा ।
हे अन्तर्यामिन् मेरे स्वामिन् परमात्मा देव ! मेेरा आधार तू है । मैं अपने शरीर द्वारा तुझ से पूछता हूं, तू मुझे बता कि मैं कब सब कुछ भूला कर तेरे भरोसे रहने लगूंगा ।

 सुभाषितम् 

।। सन्तोष ॥
सन्तोषामृततृप्तानां, यत्सुखं शान्तचेतसाम् । कुतस्तद्धन लुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ॥ (हितोपदेश १४३)

सन्तोष रुपी अमृत से तृप्त हुए शान्त चित्त वाले मनुष्यों को जो सुख प्राप्त होता है , वह सुख धन के लोभी और इधर - उधर निरन्तर भाग दौड करने वालों को कहां ?


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मूर्ति पूजा , ईश्वर प्राप्ति का साधन नहीं है! ईश्वर प्राप्ति का सिर्फ एक ही मार्ग है; योग(अष्टांग...

मूर्ति पूजा , ईश्वर प्राप्ति का साधन नहीं है!
ईश्वर प्राप्ति का सिर्फ एक ही मार्ग है; योग(अष्टांग योग)
वेद में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है | वेद तो घोषणापूर्ण कहते है –
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः | ( यजुर्वेद ३२ -३ )
अर्थात जिसका नाम महान यशवाला है उस परमात्मा की कोई मूर्ति , तुलना , प्रतिकृति , प्रतिनिधि नहीं है |
प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस देश में मूर्तिपूजा कब प्रचलित हुई और किसने चलाई ?
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में प्रश्नोत्तर रूप में इस सम्बन्धमें लिखते है –
प्र - मूर्तिपूजा कहाँ से चली ?
उ - जैनियों से |
प्र - जैनियों ने कहाँ से चलाई ?
उ - अपनी मूर्खता से |
मूर्तिपूजा बौद्धकाल से प्रचलित हुई | वे लिखते है –
“यह एक मनोरंजक विचार है कि मूर्तिपूजा भारत में यूनान से आई | वैदिक धर्म हर प्रकार की मूर्ति तथा प्रतिमा-पूजन का विरोधी था | उस काल ( वैदिकयुग ) में देवमूर्तियों के किसी प्रकार के मंदिर नहीं थे|……..प्रारम्भिक बौद्ध धर्म इसका घोर विरोधी था ………पीछे से स्वयं बुद्ध की मूर्तियाँ बनने लगी | फ़ारसी तथा उर्दू भाषा मेंप्रतिमा अथवा मूर्ति के लिए अब भी बुत शब्द प्रयुक्त होता है जोबुद्ध का रूपांतर है | ” ( हिन्दुस्तान की कहानी -पृ १७२ )
एक अन्य स्थल पर वे लिखते है –“ग्रीस और यूनान आदि देशों में देवताओं की मूर्तियाँ पुजती थीं| वहाँ से भारत में मूर्तिपूजा आई | बौद्धों ने मूर्तिपूजा आरम्भ की | फिर अन्य जगह फ़ैल गई|” ( विश्व इतिहास की झलक - पृ ६९४)
इन उद्धरणों से इतना निश्चित है कि मूर्तिपूजा हमारे देश में जैन-बौद्धकाल से आरम्भ हुई |
जिससमय भारत में मूर्तिपूजा आरम्भ हुई और लोग मन्दिरों में जाने लगे तो भारतीय विद्वानों ने इसका घोर खण्डन किया | मूर्तिपूजा खण्डन में उन्होंने यहाँ तक कहाँ –
गजैरापीड्यमानोsपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम् ( भविष्य पु . प्रतिसर्गपर्व ३-२८-५३ )
अर्थात , यदि हाथी मारने लिए दौड़ा आता हो और जैनियों के मन्दिर में जाने से प्राणरक्षा होती हो तो भी जैनियों के मन्दिरमें नहीं जाना चाहिए |
लेकिन …ब्राह्मणों , उपदेशकों और विद्वानों के कथन का साधारण जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा औरउन लोगों ने भी मन्दिरों का निर्माण किया | जैनियों के मन्दिरों में नग्न मूर्तियाँ होती थी , इन मन्दिरों में भव्यवेश में भूषित हार-श्रृंगारयुक
्त मूर्तियों की स्थापना और पूजा होने लगी |
भारत में पुराणों की मान्यता है लेकिन पुराणों में भी मूर्तिपूजा का घोर खण्डन किया गया है |
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके |
स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ||
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कहिर्चिज् |
जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखारः || ( श्रीमद भागवत १०-८४-१३ )
अर्थात , जो वात , पित और कफ -तीन मलों से बने हुए शरीर में आत्मबुद्धि रखता है , जो स्त्री आदि में स्वबुद्धि रखता है , जो पृथ्वी से बनी हुई पाषाण -मूर्तियों में पूज्य बुद्धि रखता है , ऐसा व्यक्ति गोखर - गौओं का चारा उठाने वाला गधा है|
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः |
ते पुनन्त्यापि कालेन विष्णुभक्ताः क्षणादहो || ( देवी भागवत ९-७-४२ )
अर्थात , पानी के तीर्थ नहीं होते तथा मिटटी और पत्थर के देवता नहीं होते | विष्णुभक्त तो क्षण मात्र में पवित्र कर देते हैं | परन्तु वे किसी काल में भी मनुष्य को पवित्र नहीं करसकते |
दर्शन शास्त्रों में भी मूर्तिपूजा का निषेध है
न प्रतीके न ही सः ( वेदान्त दर्शन ४-१-४ )
प्रतीक में , मूर्ति आदि में परमात्मा की उपासना नहीं हो सकती , क्योंकि प्रतीक परमात्मा नहीं है |
संसार के सभी महापुरुषों और सुधारकों ने भी मूर्तिपूजा का खण्डन किया है |
श्री शंकराचार्य जी परपूजा में लिखते हैं –
पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् |
स्वच्छस्य पाद्यमघर्यं च शुद्धस्याचमनं कुतः ||
निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्पं निर्वसनस्य च |
निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम् ||
अर्थात , ईश्वर सर्वत्र परिपूर्ण है फिर उसका आह्वान कैसा ?
जो सर्वाधार है उसके लिए आसन कैसा ?
जो सर्वथा स्वच्छ एवं पवित्र है उसके लिए पाद्य और अघर्य कैसा ?
जो शुद्ध है उसके लिए आचमन की क्या आवश्यकता ?
निर्लेप ईश्वर को चन्दन लगाने से क्या ?
जो सुगंध की इच्छा से रहित है उसे पुष्प क्यों चढाते हो ?
निर्गंध को धूप क्यों जलाते हो ?
जो स्वयं प्रकाशमान है उसके समक्ष दीपक क्यों जलाते हो ?
चाणक्य जी लिखते –अग्निहोत्र करना द्विजमात्र का कर्तव्य है | मुनि लोग हृदय में परमात्मा की उपासना करते हैं | अल्प बुद्धि वाले लोग मूर्तिपूजा करते है | बुद्धिमानों के लिए तो सर्वत्र देवता है | ( चाणक्य नीति ४-१९ )
कबीरदास जी कहते है –
पाहन पूजे हरि मिले तो हम पूजे पहार |
ताते तो चाकी भली पीस खाए संसार ||
दादुजी कहते है –
मूर्त गढ़ी पाषण की किया सृजन हार |
दादू साँच सूझे नहीं यूँ डूबा संसार ||
गुरुनानकदेव जी का उपदेश है –
पात्थर ले पूजहि मुगध गंवार |
ओहिजा आपि डूबो तुम कहा तारनहार||
कुछ अज्ञात लोगों के कथन –
पत्थर को तू भोग लगावे वह क्या भोजन खावे रे |
अन्धे आगे दीपक बाले वृथा तेल जलावे रे ||
यह क्या कर रहे हो किधर जा रहे हो |
अँधेरे में क्यों ठोकरें खा रहे हो ||
बनाया है स्वयं जिसको हाथों से अपने |
गजब है ! प्रभु उसको बतला रहे हो||
बुतपरस्तों का है दस्तूर निरालादेखो |
खुद तराशा है मगर नाम खुदा रखा है ||
सच तो यह है खुदा आखिर खुदा है औरबुत है बुत |
सोच ! खुद मालूम होगा यह कहाँ और वह कहाँ ||
महर्षि दयानन्द जी का कथन –
“मूर्ति जड़ है , उसे ईश्वर मानोगे तो ईश्वर भी जड़ सिद्ध होगा | अथवा ईश्वर के समान एक और ईश्वर मानो तो परमात्मा का परमात्मापन नहीं रहेगा | यदि कहो कि प्रतिमा में ईश्वर आ जाताहै तो ठीक नहीं | इससे ईश्वर अखण्ड सिद्ध नहीं हो सकता | भावना में भगवान् है यह कहो तो मैं कहता हूँ कि काष्ठ खण्ड में इक्षु दण्ड की और लोष्ठ में मिश्री की भावना करने से क्या मुख मीठा हो सकता है ? मृगतृष्णा में मृग जल की बहुतेरी भावना करता है परन्तु उसकी प्यास नहीं बुझती है | विशवास , भावना और कल्पना के साथ सत्य का होना भी आवश्यक है |” ( दयानन्दप्रकाश - पृ २६४ )
प्रश्न - मूर्ति पूजा सीढ़ी है | मूर्तिपूजा करते-करते मनुष्य ईश्वर तक पहुँच जाता है |
उत्तर - मूर्तिपूजा परमात्मा -प्राप्ति की सीढ़ी नहीं है | सीढ़ी तो गंतव्य स्थान पर पहुँचने के पश्चात छूट जाती है परन्तु हम देखते है कि एक व्यक्ति आठ वर्ष की आयु में मूर्तिपूजा आरम्भ करता है और अस्सी वर्ष की अवस्था में मरते समय तक भी इसी दलदल से निकल नहींपाता |
एक बच्चा दूसरी कक्षा में पढता है , उसे पाँच और छ का जोड़ करना हो तो वह पहले स्लेट अथवा कापी पर पाँच लकीरे खेंचता है फिर उसके पास छ लकीरे खेंचता है , उन्हें गिनकर वह ग्यारह जोड़ प्राप्त करता है | परन्तु तीसरी अथवा चौथी कक्षा में पहुँचने पर वह उँगलियों पर गिनने लग सकता हैऔर पाँचवी -छठी कक्षा में पहुंचकर वह मानसिक गणित से ही जोड़ लेता है | यदि मूर्तिपूजा सीढ़ी होती तो मूर्तिपूजक उन्नति करते-करते मन में ध्यान करने लग जाते परन्तु ऐसा होता नहीं है , अतः
महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है –
“नहीं नहीं , मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमे गिरकर मनुष्य चकनाचूर हो जाता है , पुनः इस खाई से निकल नहीं सकता किन्तु उसी में मर जाता है |” ( सत्यार्थ प्रकाश , एकादश समुल्लास )
ईश्वर प्राप्ति की सीढ़ी तो है महर्षि पतंजलि कृत - “अष्टांग योग” -
जिसके अंग - यम , नियम , आसन, प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा, ध्यान और समाधि हैं | विद्वान , ज्ञानी और योगीजन ईश्वर प्राप्ति की सीढियाँ हैं , पाषाण आदि नहीं |
( साभार : स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती कृत –उपासना और मूर्ति पूजा )


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ब्राह्मण कौन है? यास्क मुनि के अनुसार- जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः। वेद पाठात्भवेत्...

ब्राह्मण कौन है?

यास्क मुनि के अनुसार-

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः।
वेद पाठात्भवेत् विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।

अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले,वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।

योग सूत्र व भाष्य के रचनाकार महर्षि पतंजलि के अनुसार-

विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥

अर्थात- ”विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जायँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है, वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता” (पतंजलि भाष्य 51-115)।

महर्षि मनु के अनुसार-

विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥

अर्थात- शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताड़नकर्ता, वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है।
अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं” (मनु; 11-35)

महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार “जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं है उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो” (सन्दर्भ ग्रन्थ–महाभारत)

महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार “जो निष्कारण (कुछ भी मिले एसी आसक्ति का त्याग कर के) वेदों के अध्ययन में व्यस्त है और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रिय है वही ब्राह्मण है”(सन्दर्भ ग्रन्थ – शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०, पराशर स्मृति)

भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार “शम, दम, करुणा, प्रेम, शील (चारित्र्यवान),निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है”
और “चातुर्वर्ण्य माय सृष्टं गुण कर्म विभागशः” (भ.गी. ४-१३) इसमे गुण कर्म ही क्यों कहा भगवान ने जन्म क्यों नहीं कहा?

जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार “ब्राह्मण वही हे जो “पुंस्त्व” से युक्त है जो “मुमुक्षु” है। जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन है। जो सरल है। जो नीतिवान हे, वेदों पर प्रेम रखता है, जो तेजस्वी है, ज्ञानी है, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदो का अध्ययन और अध्यापन कार्य है।
वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण है।”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह,आत्मा-अनात्मा विवेक) किन्तु जितना सत्य यह है कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं है। कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है यह भी उतना ही सत्य है। इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हे जैसे

(१) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे| परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की।
ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।

(२) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और चरित्रहीन भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अन्वेषण करके अनेक अविष्कार किये।
ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया।(ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(३) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।

(४) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)

(५) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया।(विष्णु पुराण ४.१.१३)

(६) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया।(विष्णु पुराण ४.२.२)

(७) आगे उन्हीं के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए।(विष्णु पुराण ४.२.२)

(८) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।

(९) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोत्तर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने।

(१०) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए।(विष्णु पुराण ४.३.५)

(११) क्षत्रिय कुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया।(विष्णु पुराण ४.८.१)

वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए।
इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं।

(१२) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने।

(१३) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।

(१४) राजा रघु का पुत्र कर्मों से प्रवृद्ध राक्षस हुआ।

(१५) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।

(१६) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया।
विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।
(१७) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।

मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक है कि नही यह अलग विषय है, किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी है, उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी। वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं है।

अतः आईये हम कर्म पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था को अपनाये।


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Sunday, June 21, 2015

(1) प्रश्न :- अवतारवाद क्या है ? उत्तर :- जब जीवात्माएँ पुनर्जन्म के अनुसार शरीर परिवर्तन करती हैं...

(1) प्रश्न :- अवतारवाद क्या है ?
उत्तर :- जब जीवात्माएँ पुनर्जन्म के अनुसार शरीर परिवर्तन करती हैं तो यह उनका अवतार लेना कहा जाता है ।
(2) प्रश्न :- क्या ईश्वर अवतार लेता है ?
उत्तर :- नहीं ईश्वर कभी भी अवतार नहीं लेता ।
(3) प्रश्न :- ईश्वर का अवतार क्यों नहीं होता ?
उत्तर :- ईश्वर विराट और अनन्त है वह सीमित होकर एक छोटे से शरीर में नहीं आ सकता ।
(4) प्रश्न :- लेकिन ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है वह तो कुछ भी कर सकता है, फिर अवतार क्यों नहीं ले सकता ?
उत्तर :- सर्वशक्तिमान का अर्थ ये नहीं है कि वह कुछ भी कर जाना । ईश्वर वही करता है जो उसके स्वभाव में है । अपने स्वभाव के विरुद्ध वह कुछ नहीं करता और उसका स्वभाव अवतार लेने का नहीं है ।
(5) प्रश्न :- ईश्वर का स्वभाव अवतार लेने का क्यों नहीं है ?
उत्तर :- इसमें यह बातें सोचने की हैं कि कोई पदार्थ जब परिवर्तित होता है तो या तो वह अपनी पहली अवस्था से या तो बेहतर होगा या कमतर होगा । तो ऐसे में :-
(१) अगर ईश्वर अवतार लेकर ही सम्पूर्ण हुआ, तो क्या यह सृष्टि की रचना करने वाला वह ईश्वर अवतार लेने से पहले सम्पूर्ण नहीं था ?
(२) यदि वह ईश्वर अवतार लेने के बाद सम्पूर्णता से थोड़ा कम हुआ है तो फिर तो वह बिना अवतार लिए ही ठीक था । इससे ईश्वर का ही अपमान हुआ ।
(6) प्रश्न :- हम मानते हैं कि लोगों में आदर्श स्थापित करने के लिए ही ईश्वर मनुष्य रूप में अवतार लेता है ताकि वह लोगों को शिक्षा दे सके तो क्या ये बात गलत है ?
उत्तर :- वेदों में ऐसी कौन सी शिक्षा है जो ईश्वर ने पहले से नहीं दी ? जो उसे दुबारा शरीर लेकर संसार में आना पड़ा ? यदि ये कहो कि ईश्वर हमारे सामने ये आदर्श रखने आया कि एक मनुष्य कैसे वैदिक मर्यादाओं का पालन किया जाए ? तो फिर ये कोई बड़ी बात नहीं हुई । क्योंकि ईश्वर अपने ही बनाए नियमों को पालन करे तो यह बड़ी बात है या कि कोई मनुष्य उन नियमों का पालन करके आदर्श स्थापित करके दिखाए तब बड़ी बात है ?
उदहारण लें कि कोई बाहरवीं की श्रेणी का विद्यारथी , किसी दूसरी श्रेणी की पुस्तक का प्रश्न हल करे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है । परंतु यदि कोई आठवीं श्रेणी का विद्यार्थी यदि बाहरवीं की पुस्तक का प्रश्न हल करे तो बहुत बड़ी बात है ।
ठीक ऐसे ही वेदों की मर्यादाओं का पालन यदि कोई मनुष्य ही पालन करे तो वही सबके लिए आदर्श होगा न कि ईश्वर के मनुष्य शरीर में आने पर ।
(7) प्रश्न :- तो क्या अयोध्या पति श्रीराम और देवकीनन्दन श्रीकृष्ण जी ईश्वर का अवतार नहीं हैं ?
उत्तर :- नहीं ये मनुष्य ही थे और अपने वैदिक कर्तव्यों का पालन करने के कारण ये महामानव बने, ऋषि बुद्धि के हुए । पर वे कभी भी ईश्वर का अवतार नहीं थे ।
(8) प्रश्न :- श्रीकृष्ण जी ने गीता में कहा है “ यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानम् सुर्जाम्यहम् …… ” जिसमें वो कहते हैं जब जब धर्म की हानी होगी वो धर्म और साधुओं का उद्धार करने के लिए बारा बार अवतार लेंगे, तो आप इसे कैसे झुठला सकते हो ?
उत्तर :- प्रथम तो अगर आपकी संस्कृत अच्छी है तो ये बतायें कि इस पूरे श्लोक में कहीं भी अवतार शब्द कहाँ आया ? यदि नहीं तो फिर अवतार होना कैसे सिद्ध हुआ ?
और दूसरी बात इस श्लोक में भारत लिखा हुआ है । यदि ये मानें कि भारत में वो अवतार लेते रहेंगे तो क्या बाकी दुनिया अरब, ईराक, ईरान, फ्रांस, टर्की, जर्मनी, अमरीका आदि में धर्म की हानी नहीं होगी ?? तो ये तो साफ श्लोक का अर्थ करने वाले की मूर्खता है, एक ओर भारत को पुन्य भूमी बोलता है और दूसरी ओर बोलता है कि यहाँ पाप बढ़ता है जिस कारण ईश्वर को बार बार अवतार लेना पड़ता है । इससे यह भारत पुण्य भूमी की बजाए पाप भूमी सिद्ध हुआ जहाँ बार बार ईश्वर को अवतार लेना पड़ता है । पुण्य भूमी तो बाकी कि दुनिया को बोलना पड़ेगा जहाँ ईश्वर को अवतार नहीं लेना पड़ रहा ।
तीसरी बात ये है कि इसी श्लोक को आधार बना कर पाखंडी लोग अपने आप को ईश्वर या कृष्ण, विष्णु आदि का अवतार सिद्ध करते हुए दिखाई देते हैं । और लोगों से पैसे ऐंठते रहते हैं और मूर्ख लोग भेड़ चाल की भांती एक दूसरे के पीछे इन नये नये भगवानों को सिर पर चढ़ा लेते हैं ।
चौथी मज़े की बात ये है कि ये नये भगवान केवल कृष्ण के अवतार ही बन बैठते हैं और उनकी भांती रासलीला रचाने का ढोंग करके ( स्त्रीयों का मेला ) अपने आश्रमों में लगाते हैं । लेकिन अजीब बात तो ये है कि कोई पाखंडी राम या हनुमान जी का अवतार बनने की सोचता भी नहीं क्योंकि राम या हनुमान बन कर तो ब्रह्मचर्य की मर्यादा का पालन करना पड़ेगा और उस स्थिती में ये पंडे स्त्रीयों का आनन्द कैसे ले पाएँगे ?
(9) प्रश्न :- तो क्या भगवान विष्णु के जो दस अवतार कहे गए हैं, क्या वो झूठ है ?
उत्तर :- अगर आपके गणित को मानें तो सत्युग में पाप नहीं होता, तो त्रेता, द्वापर और कलियुग आते आते पाप बढ़ता जाता है । लेकिन आपके अवतार क्यों कम होते जाते हैं ?
सत्युग में मोहिनी, मत्सय, कुर्म, वराह अवतार हुए हैं ।
त्रेतायुग में वामन, राम, परशुराम ।
द्वापरयुग में कृष्ण, कपिल, वशिष्ट ।
कलियुग में बुद्ध और कल्कि ।
होना तो यह चाहिए था कि ये अवतार कलियुग आते आते यह अवतार बढ़ने चाहिए थे । पर ये यहाँ पौराणिकों की उल्टी गंगा कैसे बह रही है भाई ?? ये तो सरासर ही मूर्खता है ।
(10) प्रश्न :- पर अवतारवाद का तो स्पष्ट वर्णन वेदों में है, तो आप क्यों नहीं मानते ?
उत्तर :- वेदों में ईश्वर के कई नाम हैं, जिनके आधार पर ही संसार में लोगों के नाम रखे जाते रहे हैं , नाकि वेदों में अवतार का वर्णन है । जैसे किसी का नाम विष्णु है तो ये विष्णु नाम वेदों से लिया गया है, जो निराकार परमेश्वर सर्व सुंदर विशेषणों से युक्त है उसे ही विष्णु कहा जाता है । इसका अर्थ ये नहीं कि वो विष्णु नामक व्यक्ति वेदों का विष्णु भगवान है, किसी का नाम ओम् प्रकाश है तो ये नहीं कि ये व्यक्ति वेदों में कहे गए ओम् का अवतार है । अपनी बुद्धि को खोलिए ।
(11) प्रश्न :- आपके तर्क ठीक हो सकते हैं, परंतु हम यह मानते हैं कि ईश्वर हमारी रक्षा करने के लिए शरीर रूप में आता है, यदि हम उसे प्रेम से भक्ति भाव से पुकारें तो ?
उत्तर :- यदि ऐसी बात है तो भारत पिछले १००० वर्ष तक विदेषीयों का गुलाम रहा है जिसमें असंख्य अत्याचार प्रजा पर हुए हैं । जैसे मुसलमान शासक के काल में :-
गर्भवती स्त्रीयों के पेट फाड़ डाले जाते थे ।
मुसलमान सैनिक सुंदर लड़कियों को उठा ले जाते थे और गज़नी के बाज़ार में बेच देते थे ।
हिन्दुओं के मूँह पर थूक दिया जाता था ।
पाकिस्तान बनते समय हिन्दू सिक्खों के बच्चों को पका पका कर खाया गया, उनकी स्त्रीयों से सामूहिक बलात्कार हुए उनके स्तन काटे गए ।
तो ऐसे असंख्य अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए ईश्वर ने अवतार क्यों नहीं लिया ? कहाँ थे आपके चतुर्भुज विष्णु ? तो जब विदेशी आपके बहु बेटियों, माओं बहनों की और आपके देश, आपकी संस्कृति की अस्मत लूटते रहे तब आप राम राम, कृष्ण कृष्ण की तोता रट लगाते रहे और ये आशा करते रहे कि कोई कल्कि कोई कृष्ण आपकी रक्षा के लिए आयेगा । ये आपकी नपुंसकता नहीं तो क्या है ?
(12) प्रश्न :- अवतारवाद के मानने से क्या हानी है ?
उत्तर :- अवतारवाद के मानने से :-
(१) पुरूषार्थ छोड़ मनुष्य भाग्यवादी हो जाता है । वो सोचता है कि मेरी रक्षा आकर कोई अवतार ही करेगा ।
(२) समाज अनेकों ईश्वरों में बंट जाता है जिससे की राष्ट्र कमज़ोर हो जाता है ।
(३) अनेकों पाखंड चलने लगते हैं कई मनुष्य भगवान के अवतार बनकर जनता को ठगते हैं और उनका शोषण करते हैं । और लोगों को अवतार के भरोसे बैठ कर नपुंसक बनाते रहते हैं ।
(४) निर्बल हुए धर्म समाज पर अनेकों विदेशी ईसाई और मुसलमान मत परिवर्तन का गंदा खेल खेलते हैं ।
(५) अनेकों मत होने से देश टूटने लगता है ।
(13) प्रश्न:- ईश्वर अवतार लेकर धरती पर दुष्टों का विनाश करने आते हैं।
उ. ईश्वर सर्वव्यापक है वा एकदेशी? -उत्तर होगा सर्वव्यापक। अब आया-जाया तो तब जाता है जब कोई एकदेशी हो। उदाहरण के लिए मैं एकदेशी हूं। और मुझे ब्राज़ील देखना है तो मुझे वहाँ जाकर ही देखना होगा। लेकिन यदि मैं सर्वव्यापक होता तो मुझे कहीं जाने की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि आया-जाया तो वहां जाता है जहां हम हों न। ईश्वर सब जगह है तो उसे आने-जाने की क्या ज़रूरत? रही बात दुष्टों के संहार की बात। ईश्वर सबके अंदर है। अब ईश्वर को यदि दुष्टों को मारना है तो वो उन दुष्टों की दिल की धड़कने, सांस आदि रोक कर भी मार सकता है। अवतार की क्या ज़रूरत ??


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बिच्छू के डंक मरने का इलाज ! ___________________ मित्रो बिच्छू काटने पर बहुत दर्द होता है और जिसको...

बिच्छू के डंक मरने का इलाज !
___________________
मित्रो बिच्छू काटने पर बहुत दर्द होता है और जिसको बिच्छू काटता है उसके सिवा और कोई जान नही सकता कितना भयंकर कष्ट होता है। तो ऐसी परिस्थिति मे क्या करना चाहिए ? तो बिच्छू काटने पर एक दावा है होमेओपेथी की दवा है !

उसका नाम है Silicea -200 इसका लिकुइड 5 ml घर में रखे । बिच्छू काटने पर इस दावा को जीभ पर एक एक ड्रोप 10-10 मिनट अंतर पर तीन बार देना है । बिच्छू जब काटता है तो उसका जो डंक है न उसको अन्दर छोड़ देता है वो ही सबसे ज्यादा दर्द करता है । इस डंक को बाहर निकलना आसान काम नही है, 

डॉक्टर के पास जायेंगे वो काट करेगा चीरा लगायेगा फिर खिंच के निकालेगा उसमे उसमे ब्लीडिंग भी होगी तकलीफ भी होगी । ये मेडिसिन इतनी बेहतरीन मेडिसिन है के आप इसके तीन डोस देंगे 10-10 मिनट पर एक एक बूंद और आप देखेंगे वो डंक अपने आप निकल कर बाहर आ जायेगा। सिर्फ तीन डोस में आधे घन्टे में आप रोगी को ठीक कर सकते है। बहुत जबरदस्त मेडिसिन है ये Silicea 200. 

आपको जानकार हैरानी होगी ये मेडिसिन मिट्टी से बनती है,वो नदी कि मिट्टी होती है न जिसमे थोड़ी बालू रहती है उसी से ये मेडिसिन बनती है ।इस मेडिसिन को और भी बहुत सारी काम में आती है । अगर आप सिलाई मशीन में काम करती है तो कभी कभी सुई चुभ जाती है और अन्दर टूट जाती है उस समय भी आप ये मेडिसिन ले लीजिये ये सुई को भी बाहर निकाल देगा। 

आप इस मेडिसिन को और भी कई जगह मे प्रयोग कर सकते है जैसे कांटा लग गया हो , कांच घुस गया हो, ततैया ने काट लिया हो, मधुमखी ने काट लिया हो ये सब जो काटने वाले अन्दर जो छोड़ देते है वो सब के लिए आप इसको ले सकते है । बहुत तेज दर्द निवारक है और जो कुछ अन्दर छुटा हुआ है उसको बाहर निकलने की मेडिसिन है ।

और तो और हमारी सेना के जवानो को युद्ध बम आदि के कारण बम के छर्रे शरीर मे रह जाते है ! जिसे डाक्टर मे भाई बहुत बार निकालने के लिए माना कर देते है ! राजीव भाई ने ऐसे बहुत से जवानो को इसी दवा से ठीक किया है ! इसके बहुत ही चमत्कारिक परिणाम आते है !

बहुत सस्ता मेडिसिन है 5 ml सिर्फ 10-20 रूपए की आती है इससे आप कम से कम 50 से 100 लोगों का भला कर सकते है ।पूरी post पढ़ने के लिए बहुत आभार !
यहाँ जरूर click कर देखें !
ज्ञान अर्जन मौन ग्रुप 7404437199


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Saturday, June 20, 2015

“अब वो नस्ल है बदल चुकी , जब फिर से हिन्दू छला जाये ,” जिसको योगा स्वीकार नहीं वह मक्का...

“अब वो नस्ल है बदल चुकी , जब फिर से हिन्दू छला जाये ,”
जिसको योगा स्वीकार नहीं वह मक्का मदीना चला जाये!
जिसको भारत स्वीकार नहीं,…….वो पाकिस्तान चला जाये ।"
“हम त्याग चुके वह मानवता,……जो कायरता कहलाती थी ,”
“कोई तिलक लगाता था तो , वह कट्टरता समझी जाती थी…..”
नियम ना माने जो घर के,……वो लेकर सामान चला जाये ,“ "जिसको भारत स्वीकार नहीं,……वो पाकिस्तान चला जाये ।।”
सर्व धर्म समभाव के बदले , भारत का अपमान नहीं होगा ,“
"माता को डायन कहने वालों का,…..अब सम्मान नहीं होगा…..”
जबतक चुप बैठे हैं,…..वो बचाकर अपनी जान चला जाये ।"
जिसको भारत स्वीकार नहीं,…..वो पाकिस्तान चला जाये ।।"
“जो जाति, धर्म, मज़हब का रोना , छाती पीटकर रोते हैं ,” आंतकियों के मरने पर उनकी , मय्यत में शामिल होते हैं…..“
खून खौलता है सबका,….कबतक हाथों को मला जाये ।”
“जिसको भारत स्वीकार नहीं,…..वो पाकिस्तान चला जाये ।।”
“कुछ लोग देश में गद्दारों को भी साहब और जी कहते हैं ,”
जयचन्दों से है इतिहास भरा,…..ये हर युग में ही रहते हैं…..“
"हमदर्द हो जो गद्दारों का,….वो खुद शमशान चला जाये ।” “जिसको भारत स्वीकार नहीं ,……वो पाकिस्तान चला जाये ।।”
“हर मज़हब को अपनाया हर धर्म को हमने शरण दी हैं ,”
“इस उदारवाद ने ही केवल , मर्यादा अपनी हरण की हैं….”
“ऐसा दानी क्या कि खुद का,…..नामोनिशान चला जाये ।”
“जिसको भारत स्वीकार नहीं,…… वो पाकिस्तान चला जाये ।।”
“राष्ट्र की बलिबेदी पर जो भी कुर्बान हुआ , वो तरा ही हैं ,” “जिसे धर्म धरा पर गर्व नहीं , वह जीवित हो भी तो मरा ही हैं….”
“वीर सुभाष , भगत सिंह का व्यर्थ ना बलिदान चला जाये ।”
जिसको भारत स्वीकार नहीं,…..वो पाकिस्तान चला जाये ।।"
“शान्ति-शान्ति करते-करते , कितना नुकसान करा बैठें हैं ,”
“हम जिनको भाई कहते हैं , वो कब से लेके छुरा बैठें हैं…..”
“कही इतनी देर ना हो जाये कि ,…..सब सम्मान चला जाये ।” “जिसको भारत स्वीकार नहीं,…..वो पाकिस्तान चला जाये


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ओउम् तीन अक्षरों से बना है। अ उ म् । ईश्वर का वाचक है। ॐ सनातनियो ने गढ़ लिया और ओउम् तो वास्तविक...

ओउम् तीन अक्षरों से बना है।
अ उ म् । ईश्वर का वाचक है।
ॐ सनातनियो ने गढ़ लिया और ओउम् तो वास्तविक वेदों का है जो ईश्वर वाचक है, ओउम् का शाब्दिक अर्थ तीन अक्षरों में है, ॐ symbol है और ओउम् पूर्ण ईश्वर का नाम।ओउम्-अकार, उकार, मकार-तीन शब्दों से बना है-अव धातु से बना, जिसका मतलब रक्षा करना है, अवती रक्षति सकलं ब्रहमंडम इति ओउम्।पहला प्रतीक/निशान/सिम्बल है दूसरे का । दूसरा प्लुत उच्चारित है, जो एकदम सही है । लेकिन हिन्दी आदि पढने वाले तो मात्र ह्रस्व व दीर्घ ही जानते हैं, प्लुत उच्चारण का प्रतीक देवनागरी वर्णों में तीन का अंक ही ह्रस्व या दीर्घ स्वरों के साथ प्लुत का द्योतक है ।।
———
अकार=विराट,अग्नि,विश्व। उकार=हिरण्यगर्भ, वायु और तेजस। मकार=ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञः।


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Thursday, June 18, 2015

५ आषाढ़ 19 जून 15 😶 “ हमें अनृण करो ” 🌞 🔥🔥ओ३म् अनृण अस्मित्रनृणा: परस्मिन्...

५ आषाढ़ 19 जून 15
😶 “ हमें अनृण करो ” 🌞

🔥🔥ओ३म् अनृण अस्मित्रनृणा: परस्मिन् तृतीये लोके अनृणा: स्याम ।🔥🔥
🍃🍂 ये देवयाना: पितृयाणाश्च लोका: सवीन् पथो अनृणा आ क्षियेम ।। 🍂🍃
अथर्व० ६ । ११७ ।३
शब्दार्थ :- इस लोक में हम अनृण हों,पहले लोक में अनृण हों और तीसरे लोक में भी अनृण हों ये जो देवयान या पितृयान मार्गों के लोक है उनमें सब मार्ग चलते हुए हम ऋणमुक्त होकर रहे, बसें ।

विनय :- मनुष्य तो जन्म से ही कुछ ऊँचे ऋणों से बंधा हुआ है । मनुष्य उत्पत्र होते ही ऋणी है और उन वास्तविक ऋणों से मुक्त होना ही मनुष्य-जीवन की इतिकर्तव्यता है । मनुष्य ने संसार के तीनों लोकों को भोगने के लिए जो तीन शरीर पायें हैं,उसी से वह तीन प्रकार से ऋणी है ।
हे प्रभो !
हम चाहे पितृयान मार्ग के यात्री हों या देवयान के, हम इन तीन लोकों की अनृणता करते ही रहे । हम अपनी सब शक्ति और यत्र इन ऋणों को उतारने में ही व्यय करते हुए जीवन बिताएं । इस स्थूल भूलोक का ऋण अन्यों को भौतिक सुख देंने से, तथा समाज को कोई अपने से श्रेष्ठतर भौतिक संतान दे जाने से उतरता है । इसी प्रकार मनुष्य को जगत् की प्राक्रतिक अग्रि आदि शक्तियों से तथा साथी मनुष्य को नि:स्वार्थ सेवायों से जो सुख निरन्तर मिल रहा है उसके ऋण को उतारने के लिए,इन यज्ञ-चक्रों को जारी रखने के लिए निरंतर यज्ञ-कर्म करना भी आवश्ग्क है और तीसरे ज्ञान लोक से जो ज्ञान का परम लाभ हो रहा है उसकी सन्तति भी जारी रखने के लिए स्वयं विद्या का स्वाध्याय और प्रवचन करके उससे अनृण होना चाहिए ।
ओह !
मनुष्य तो सर्वदा ऋणों से लदा हुआ है । जो जीव इस त्रिविध शरीर को पाकर भी अपने को ऋणबद्ध अनुभव नहीं करता वह कितना अज्ञानी है । हमें तो,
हे स्वामिन !
ऐसी बुद्धि और शक्ति दो कि हम चाहे देवयानी हो या पितृयानी, हम सब लोकों में रहते हुए, सब मार्गों पर चलते हुए, लगातार अनृण होते जाएँ । अगले लोक में पहुँचने से पहले पूर्वलोक के ऋण हम अवश्य पूरा कर दें । अगले मार्ग पर जाते हुए पिछले मार्ग के ऋण उतार चुकें हों । इस लगातार घोर यत्न करते हुए हम सदा, सब लोकों में अनृण होकर ही रहें ।


🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂
ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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शरीर की अतिरिक्त चर्बी कम करने के कुदरती उपचार- सियेर करना ना भूले, जय हिन्द...

शरीर की अतिरिक्त चर्बी कम करने के कुदरती उपचार-

सियेर करना ना भूले, जय हिन्द वंदेमातरम्
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१) चर्बी घटाने के लिये व्यायाम बेहद आवश्यक उपाय है।एरोबिक कसरतें लाभप्रद होती हैं। आलसी जीवन शैली से मोटापा बढता है। अत: सक्रियता बहुत जरूरी है।
२) शहद मोटापा निवारण के लिये अति महत्वपूर्ण पदार्थ है। एक चम्मच शहद आधा चम्मच नींबू का रस गरम जल में मिलाकर लेते रहने से शरीर की अतिरिक्त चर्बी नष्ट होती है। यह दिन में ३ बार लेना कर्तव्य है।
३) पत्ता गोभी(बंद गोभी) में चर्बी घटाने के गुण होते हैं। इससे शरीर का मेटाबोलिस्म ताकतवर बनता है। फ़लत: ज्यादा केलोरी का दहन होता है। इस प्रक्रिया में चर्बी समाप्त होकर मोटापा निवारण में मदद मिलती है।
४) पुदीना में मोटापा विरोधी तत्व पाये जाते हैं। पुदीना रस एक चम्मच २ चम्मच शहद में मिलाकर लेते रहने से उपकार होता है।
५) सुबह उठते ही २५० ग्राम टमाटर का रस २-३ महीने तक पीने से शरीर की वसा में कमी होती है।
६) गाजर का रस मोटापा कम करने में उपयोगी है। करीब ३०० ग्राम गाजर का रस दिन में किसी भी समय लेवें।
७) एक अध्ययन का निष्कर्ष आया है कि वाटर थिरेपी मोटापा की समस्या हल करने में कारगर सिद्ध हुई है। सुबह उठने के बाद प्रत्येक घंटे के फ़ासले पर २ गिलास पानी पीते रहें। इस प्रकार दिन भर में कम से कम २० गिलास पानी पीयें। इससे विजातीय पदार्थ शरीर से बाहर निकलेंगे और चयापचय प्रक्रिया(मेटाबोलिस्म) तेज होकर ज्यादा केलोरी का दहन होगा ,और शरीर की चर्बी कम होगी। अगर २ गिलास के बजाये ३ गिलास पानी प्रति घंटे पीयें तो और भी तेजी से मोटापा निवारण होगा।
८) कम केलोरी वाले खाद्य पदार्थों का उपयोग करें। जहां तक आप कम केलोरी वाले भोजन की आदत नहीं डालेंगे ,मोटापा निवारण दुष्कर कार्य रहेगा। अब मैं ऐसे भोजन पदार्थ निर्देशित करता हूं जिनमें नगण्य केलोरी होती है। अपने भोजन में ये पदार्थ ज्यादा शामिल करें–
नींबू
जामफ़ल (अमरुद)
अंगूर
सेवफ़ल
खरबूजा
जामुन
पपीता
आम
संतरा
पाइनेपल
टमाटर
तरबूज
बैर
स्ट्राबेरी
सब्जीयां जिनमें नहीं के बराबर केलोरी होती है–
पत्ता गोभी
फ़ूल गोभी
ब्रोकोली
प्याज
मूली
पालक
शलजम
सौंफ़
लहसुन
९) कम नमक,कम शकर उपयोग करें।
१०) अधिक वसा युक्त भोजन पदार्थ से परहेज करें। तली गली चीजें इस्तेमाल करने से चर्बी बढती है। वनस्पति घी हानिकारक है।
११) सूखे मेवे (बादम,खारक,पिस्ता) ,अलसी के बीज,ओलिव आईल में उच्चकोटि की वसा होती है। इनका संतुलित उपयोग उपकारी है।
१२) शराब और दूध निर्मित पदार्थ का उपयोग वर्जित है।
१३) अदरक चाकू से बरीक काट लें ,एक नींबू की चीरें काटकर दोनो पानी में ऊबालें। सुहाता गरम पीयें। बढिया उपाय है।
१४) रोज पोन किलो फ़ल और सब्जी का उपयोग करें।
१५) ज्यादा कर्बोहायड्रेट वाली वस्तुओं का परहेज करें।शकर,आलू,और चावल में अधिक कार्बोहाईड्रेट होता है। ये चर्बी बढाते हैं। सावधानी बरतें।
१६) केवल गेहूं के आटे की रोटी की बजाय गेहूं सोयाबीन,चने के मिश्रित आटे की रोटी ज्यादा फ़यदेमंद है।
१७) शरीर के वजने को नियंत्रित करने में योगासन का विशेष महत्व है। कपालभाति,भस्त्रिका का नियमित अभ्यास करें।।
१८) सुबह आधा घंटे तेज चाल से घूमने जाएं। वजन घटाने का सर्वोत्तम तरीका है।
१९) भोजन मे ज्यादा रेशे वाले पदार्थ शामिल करें। हरी सब्जियों ,फ़लों में अधिक रेशा होता है। फ़लों को छिलके सहित खाएं। आलू का छिलका न निकालें। छिलके में कई पोषक तत्व होते हैं।


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Wednesday, June 17, 2015

ईश्वर का स्वराज्य सर्वत्र व्याप्त और अविनाशी है उसके नियम अटल अकाट्य हैं किन्तु मनुष्य का राज्य एक...

ईश्वर का स्वराज्य सर्वत्र व्याप्त और अविनाशी है उसके नियम अटल अकाट्य हैं किन्तु मनुष्य का राज्य एक देशी तथा नाशवान होता है परिवर्तन शील होता है


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Tuesday, June 16, 2015

एक बेटे ने पिता से पूछा - पापा ये ‘सफल जीवन’ क्या होता है ? पिता, बेटे को पतंग उड़ाने ले...

एक बेटे ने पिता से पूछा - पापा ये ‘सफल जीवन’ क्या होता है ?

पिता, बेटे को पतंग उड़ाने ले गए।
बेटा पिता को ध्यान से पतंग उड़ाते देख रहा था…

थोड़ी देर बाद बेटा बोला,
पापा.. ये धागे की वजह से पतंग और ऊपर नहीं जा पा रही है, क्या हम इसे तोड़ दें !!
ये और ऊपर चली जाएगी…

पिता ने धागा तोड़ दिया ..

पतंग थोड़ा सा और ऊपर गई और उसके बाद लहरा कर नीचे आइ और दूर अनजान जगह पर जा कर गिर गई…

तब पिता ने बेटे को जीवन का दर्शन समझाया .,,,,

बेटा..
'जिंदगी में हम जिस ऊंचाई पर हैं..
हमें अक्सर लगता की कुछ चीजें, जिनसे हम बंधे हैं वे हमें और ऊपर जाने से रोक रही हैं
जैसे :
घर,
परिवार,
अनुशासन,
माता-पिता आदि
और हम उनसे आजाद होना चाहते हैं…
वास्तव में यही वो धागे होते हैं जो हमें उस ऊंचाई पर बना के रखते हैं..
इन धागों के बिना हम एक बार तो ऊपर जायेंगे
परन्तु
बाद में हमारा वो ही हश्र होगा जो
बिन धागे की पतंग का हुआ…’

“अतः जीवन में यदि तुम ऊंचाइयों पर बने रहना चाहते हो तो, कभी भी इन धागों से रिश्ता मत तोड़ना..”

“ धागे और पतंग जैसे जुड़ाव के सफल संतुलन से मिली हुई ऊंचाई को ही 'सफल जीवन’ कहते हैं बेटा ”


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😶 “ वह एक है ” 🌞 🔥🔥ओ३म् इन्द्रं मित्रं वरुणमग्रिमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्...

😶 “ वह एक है ” 🌞

🔥🔥ओ३म् इन्द्रं मित्रं वरुणमग्रिमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।🔥🔥
🍃🍂 एकं सद्धिप्रा बहुधा वदन्त्यग्रिं यमं मातरिश्वानमाहु: ।। 🍂🍃
ऋ० १ । १६४ । ४६ ; अथर्व० ९ । १०। २८
शब्दार्थ :- ज्ञानी पुरष एक ही होते हुए को अनेक प्रकार से बोलते है । उस एक ही को इन्द्र,वरुण,मित्र,अग्रि कहते है । और वही दिव्य,सुपर्ण,,गरुत्मान् कहलाता हैं उस एक ही को अग्रि,यम और मातरिश्वा कहते हैं ।
विनय :- हे मनुष्य !
इस संसार में एक ही परमात्मा है । हम सब मनुष्यो का एक ही प्रभु है । हम चाहें किसी सम्प्रदाय,किसी पन्थ,किसी मत के माननेवाले हों,पर संसार-भर के हम सब मनुष्यों का एक ही ईश्वर है । भित्र-भित्र देशों में भित्र-भित्र सम्प्रदायवाले उसे भित्र-भित्र नाम से पुकारते हैं,पर वह तो एक ही है । जो जिस देश में व् जिस सम्प्रदाय के वायुमण्डल में रहा हैं, वह वह़ा के प्रचलित प्रभु नाम से उसे पुकारता है । कोई ’ राम ’ कहता है,कोई ‘शिव’ कहता है,कोई 'अल्लाह'कहता है,कोई 'गॉड'कहता है । 'विप्रो’ ने,ज्ञानी पुरषों ने, उस प्रभु को जिस रूप में देखा उसके जिस गुणोत्कर्ष का उन्हें अनुभव हुआ,आपनी भाषा में उसी के वाचक शब्द से पुकारने लगे । उन ज्ञानियों द्वारा वही नाम समाज में फैला और सम्प्रदाय बन गया । कोई अपने गुरु से नाम लेकर ओउम् या नारायण पुकारता है कोई खुदा या रहीम पर वह प्रभु एक ही है ।
हम मनुष्य ने सम्प्रदाय बना कर बड़े बड़े उपद्रव किये और आश्चर्य ये की सब दंगे फसाद प्रभु के नाम पर हुए । वैष्णवों और शैवों के झगडे हुए हिन्दू मुस्लिम के हुए यहूदी और ईसाई में रक्तपात हुआ पर यह सब क्यों ? जब वो एक है ईश्वर होने से वही 'इन्द्र’ है वही 'ओउम्'है
वेद मन्त्रों में नाना प्रकार नामों से पुकारा जाता है पर अज्ञानियों ने उसे भित्र भित्र नामों से जुदा जुदा समझ लिया ।
वेद की पुकार सुनो -
वह एक है -
वह एक है -
एकं सत् -
ओउम् नाम -ओउम् सत् 👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏

🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂
ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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 रामबाण चूर्ण :- 250 ग्राम मैथीदाना 100 ग्राम अजवाईन 50 ग्राम काली जीरी उपरोक्त तीनो चीजों को...

 रामबाण चूर्ण :-
250 ग्राम मैथीदाना
100 ग्राम अजवाईन
50 ग्राम काली जीरी
उपरोक्त तीनो चीजों को साफ-सुथरा करके हल्का-हल्का सेंकना(ज्यादा सेंकना नहीं) तीनों को अच्छी तरह मिक्स करके मिक्सर में पावडर बनाकर अच्छा पैक डिब्बा-शीशी या बरनी में भर लेवें ।
रात्रि को सोते समय चम्मच पावडर एक गिलास पूरा कुन-कुना पानी के साथ लेना है। गरम पानी के साथ ही लेना अत्यंत आवश्यक है लेने के बाद कुछ भी खाना पीना नहीं है। यह चूर्ण सभी उम्र के व्यक्ति ले सकतें है।
चूर्ण रोज-रोज लेने से शरीर के कोने-कोने में जमा पडी गंदगी(कचरा) मल और पेशाब द्वारा बाहर निकल जाएगी । पूरा फायदा तो 80-90 दिन में महसूस करेगें, जब फालतू चरबी गल जाएगी, नया शुद्ध खून का संचार होगा । चमड़ी की झुर्रियाॅ अपने आप दूर हो जाएगी। शरीर तेजस्वी, स्फूर्तिवाला व सुंदर बन जायेगा ।
》फायदे :-
1. गठिया दूर होगा और गठिया जैसा जिद्दी रोग दूर हो जायेगा ।
2. हड्डियाँ मजबूत होगी ।
3. आॅख का तेज बढ़ेगा ।
4. बालों का विकास होगा।
5. पुरानी कब्जियत से हमेशा के लिए मुक्ति।
6. शरीर में खुन दौड़ने लगेगा ।
7. कफ से मुक्ति ।
8. हृदय की कार्य क्षमता बढ़ेगी ।
9. थकान नहीं रहेगी, घोड़े की तहर दौड़ते जाएगें।
10. स्मरण शक्ति बढ़ेगी ।
11. स्त्री का शारीर शादी के बाद बेडोल की जगह सुंदर बनेगा ।
12. कान का बहरापन दूर होगा ।
13. भूतकाल में जो एलाॅपेथी दवा का साईड इफेक्ट से मुक्त होगें।
14. खून में सफाई और शुद्धता बढ़ेगी ।
15. शरीर की सभी खून की नलिकाएॅ शुद्ध हो जाएगी ।
16. दांत मजबूत बनेगा, इनेमल जींवत रहेगा ।
17. नपुसंकता दूर होगी।
18. डायबिटिज काबू में रहेगी, डायबिटीज की जो दवा लेते है वह चालू रखना है।
इस चूर्ण का असर दो माह लेने के बाद से दिखने लगेगा । जिंदगी निरोग,आनंददायक, चिंता रहित स्फूर्ति दायक और आयुष्ययवर्धक बनेगी । जीवन जीने योग्य बनेगा । —


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धर्म और विज्ञान अविरोधी हैं - ————— “स्वामी दयानन्द का चिन्तन...

धर्म और विज्ञान अविरोधी हैं -
—————

“स्वामी दयानन्द का चिन्तन यथार्थता पर आधारित था । वे उन विचारकों तथा दार्शनिकों से सहमत नहीं थे जो मध्यकालीन अंधविश्वासों तथा बुद्धि विरुद्ध धारणाओं की आलंकारिक व्याख्या कर उन्हें येन केन प्रकारेण सत्य सिद्ध करने की चेष्टा करते थे । पुराणों में प्रस्तुत देवगाथावाद (Mythology) तथा अन्य प्रकार की मिथ्या उक्तियों को उन्होंने कल्पित युक्तियों और रहस्यमयता का आवरण चढ़ा कर प्रस्तुत किये जाने वाले हेत्वाभासों और मिथ्या शब्दजाल के द्वारा सत्य सिद्ध करने को कभी स्वीकार नहीं किया । वे विज्ञान और अंधविश्वास में छत्तीस का सम्बन्ध मानते थे । इसलिए उनको यही अभीष्ट था कि धर्म और विज्ञान की साथ साथ उन्नति हो । विज्ञान को धर्माचरण में बाधक नहीं माना जाये । दोनों को अन्योन्याश्रित मानकर हम अपनी सर्वांगीण उन्नति करें । 
स्वामी दयानन्द धर्म में पनपे पाखण्डों और अंधविश्वासों की आलंकारिक व्याख्या कर उन्हें औचित्यपूर्ण ठहराने के विरुद्ध थे । वे To call a spade a spade (काणे को काणा कहने) के पक्षपाती थे ।”


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।।ओउम्।। पीछे तो हर कोई पोस्ट डाल सकता है माँ के दूध का सच तो तब जाहिर होता है जब ललकार के चुनोती दी...

।।ओउम्।।
पीछे तो हर कोई पोस्ट डाल सकता है माँ के दूध का सच तो तब जाहिर होता है जब ललकार के चुनोती दी जाये ।

भगवान शब्द पर राक्षसी भ्रम निवारण -

“ ऐश्वर्यस्व समग्र धर्मस्य यशस: श्रिय: । 
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।।

सम्पूर्ण ऐश्वर्य , धर्म , यश , श्री , ज्ञान , तथा वैराग्य …. इन छह विशेषताओ का नाम है ’ भग ‘ 
अत् जिस प्रकार धन वाले को धनवान कहते है बल वाले को बलवान कहते है उसी प्रकार जिसके पास भग ( छह विशेषताये ) है उसे भगवान कहते है ।

परमेश्वर/ परमात्मा मे ये सभी विशेषताए है अतः परमेश्वर ’ भगवान ’ कहलाता है । उसी प्रकार संसार के जिन महापुरुषो मे उपरोक्त छह विशेषताए है उन्हे भी भगवान कहा जा सकता है । जैसे - भगवान श्री राम , भगवान श्री कृष्ण , भगवान पाणिनि , भगवान पतंजलि ……………. भगवान दयानंद इत्यादि । 
परन्तु भगवान होते हुए भी ये महापुरुष परमेश्वर नहीँ कहे जा सकते , क्योकि किसी भी महापुरुष मे परमेश्वर की अपेक्षा अल्पज्ञता , अल्पशक्तिमत्ता बनी रहती है ।


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संवत 1368 (ई.सन 1311) मंगलवार बैसाख सुदी 5. को विका दहिया जालौर दुर्ग के गुप्त भेद अल्लाउद्दीन खिलजी...

संवत 1368 (ई.सन 1311) मंगलवार बैसाख सुदी 5. को विका दहिया जालौर दुर्ग के गुप्त भेद अल्लाउद्दीन खिलजी को बताने के पारितोषिक स्वरूप मिली धन की गठरी लेकर बड़ी ख़ुशी ख़ुशी लेकर घर लौट रहा था| शायद उसके हाथ में इतना धन पहली बार ही आया होगा| चलते चलते रास्ते में सोच रहा था कि इतना धन देखकर उसकी पत्नी हीरादे बहुत खुश होगी| इस धन से वह बड़े चाव से गहने बनवायेगी| और वह भी युद्ध समाप्ति के बाद इस धन से एक आलिशान हवेली बनाकर आराम से रहेगा| हवेली के आगे घोड़े बंधे होंगे, नौकर चाकर होंगे| अलाउद्दीन द्वारा जालौर किले में तैनात सूबेदार के दरबार में उसकी बड़ी हैसियत समझी जायेगी ऐसी कल्पनाएँ करता हुआ वह घर पहुंचा और धन की गठरी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए अपनी पत्नी हीरादे को सौंपने हेतु बढाई|

अपने पति के हाथों में इतना धन व पति के चेहरे व हावभाव को देखते ही हीरादे को अल्लाउद्दीन खिलजी की जालौर युद्ध से निराश होकर दिल्ली लौटती फ़ौज का अचानक जालौर की तरफ वापस कूच करने का राज समझ आ गया| और समझती भी क्यों नहीं आखिर वह भी एक क्षत्रिय नारी थी| वह समझ गयी कि उसके पति विका दहिया ने जालौर दुर्ग के असुरक्षित हिस्से का राज अल्लाउद्दीन की फ़ौज को बताकर अपने वतन जालौर व अपने पालक राजा कान्हड़ देव सोनगरा चौहान के साथ गद्दारी कर यह धन पारितोषिक स्वरूप प्राप्त किया है|
उसने तुरंत अपने पति से पुछा-
“क्या यह धन आपको अल्लाउद्दीन की सेना को जालौर किले का कोई गुप्त भेद देने के बदले मिला है ?”
विका ने अपने मुंह पर कुटिल मुस्कान बिखेर कर व ख़ुशी से अपनी मुंडी ऊपर नीचे कर हीरादे के आगे स्वीकारोक्ति कर जबाब दे दिया |

यह समझते ही कि उसके पति विका ने अपनी मातृभूमि के लिए गद्दारी की है, अपने उस राजा के साथ विश्वासघात किया है जिसने आजतक इसका पोषण किया था| हीरादे आग बबूला हो उठी और क्रोद्ध से भरकर अपने पति को धिक्कारते हुए दहाड़ उठी-
“अरे ! गद्दार आज विपदा के समय दुश्मन को किले की गुप्त जानकारी देकर अपने वतन के साथ गद्दारी करते हुए तुझे शर्म नहीं आई? क्या तुम्हें ऐसा करने के लिए ही तुम्हारी माँ ने जन्म दिया था? अपनी माँ का दूध लजाते हुए तुझे जरा सी भी शर्म नहीं आई ? क्या तुम एक क्षत्रिय होने के बावजूद क्षत्रिय द्वारा निभाये जाने वाले स्वामिभक्ति धर्म के बारे में भूल गए थे ?

विका दहिया ने हीरादे को समझा कर शांत करने की कोशिश की पर हीरादे जैसी देशभक्त क्षत्रिय नारी उसके बहकावे में कैसे आ सकती थी ? पति पत्नी के बीच इसी बात पर बहस बढ़ गयी| विका दहिया की हीरादे को समझाने की हर कोशिश ने उसके क्रोध को और ज्यादा भड़काने का ही कार्य किया|

हीरादे पति की इस गद्दारी से बहुत दुखी व क्रोधित हुई| उसे अपने आपको ऐसे गद्दार पति की पत्नी मानते हुए शर्म महसूस होने लगी| उसने मन में सोचा कि युद्ध के बाद उसे एक गद्दार व देशद्रोही की बीबी होने के ताने सुनने पड़ेंगे और उस जैसी देशभक्त ऐसे गद्दार के साथ रह भी कैसे सकती है| इन्ही विचारों के साथ किले की सुरक्षा की गोपनीयता दुश्मन को पता चलने के बाद युद्ध के होने वाले संभावित परिणाम और जालौर दुर्ग में युद्ध से पहले होने वाले जौहर के दृश्य उसके मन मष्तिष्क में चलचित्र की भांति चलने लगे| जालौर दुर्ग की राणियों व अन्य महिलाओं द्वारा युद्ध में हारने की आशंका के चलते अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर की धधकती ज्वाला में कूदने के दृश्य और छोटे छोटे बच्चों के रोने विलापने के दृश्य, उन दृश्यों में योद्धाओं के चहरे के भाव जिनकी अर्धान्ग्नियाँ उनकी आँखों के सामने जौहर चिता पर चढ़ अपने आपको पवित्र अग्नि के हवाले करने वाली थी स्पष्ट दिख रहे थे| साथ ही दिख रहा था जालौर के रणबांकुरों द्वारा किया जाने वाले शाके का दृश्य जिसमें जालौर के रणबांकुरे दुश्मन से अपने रक्त के आखिरी कतरे तक लोहा लेते लेते कट मरते हुए मातृभूमि की रक्षार्थ शहीद हो रहे थे| एक तरफ उसे जालौर के राष्ट्रभक्त वीर स्वातंत्र्य की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देकर स्वर्ग गमन करते नजर आ रहे थे तो दूसरी और उसकी आँखों के आगे उसका राष्ट्रद्रोही पति खड़ा था|
ऐसे दृश्यों के मन आते ही हीरादे विचलित व व्यथित हो गई थी| उन विभत्स दृश्यों के पीछे सिर्फ उसे अपने पति की गद्दारी नजर आ रही थी| उसकी नजर में सिर्फ और सिर्फ उसका पति ही इनका जिम्मेदार था|

हीरादे की नजर में पति द्वारा किया गया यह एक ऐसा जघन्य अपराध था जिसका दंड उसी वक्त देना आवश्यक था| उसने मन ही मन अपने गद्दार पति को इस गद्दारी का दंड देने का निश्चय किया| उसके सामने एक तरफ उसका सुहाग था तो दूसरी तरफ देश के साथ अपनी मातृभूमि के साथ गद्दारी करने वाला गद्दार पति| उसे एक तरफ देश के गद्दार को मारकर उसे सजा देने का कर्तव्य था तो दूसरी और उसका अपना उजड़ता सुहाग| आखिर उस देशभक्त वीरांगना ने तय किया कि -“अपनी मातृभूमि की सुरक्षा के लिए यदि उसका सुहाग खतरा बना है और उसके पति ने देश के प्रति विश्वासघात किया है तो ऐसे अपराध व दरिंदगी के लिए उसकी भी हत्या कर देनी चाहिए| गद्दारों के लिए यही एक मात्र सजा है|”

मन में उठते ऐसे अनेक विचारों ने हीरादे के रोष को और भड़का दिया उसका शरीर क्रोध के मारे कांप रहा था उसके हाथ देशद्रोही को सजा देने के लिए तड़फ रहे थे और हीरादे ने आव देखा न ताव पास ही रखी तलवार उठा अपने गद्दार और देशद्रोही पति का एक झटके में सिर काट डाला|

हीरादे के एक ही वार से विका दहिया का सिर कट कर ऐसे लुढक गया जैसे किसी रेत के टीले पर तुम्बे की बेल पर लगा तुम्बा ऊंट की ठोकर खाकर लुढक जाता है|

और एक हाथ में नंगी तलवार व दुसरे हाथ में अपने गद्दार पति का कटा मस्तक लेकर उसने अपने राजा कान्हड़ देव को उसके एक सैनिक द्वारपाल द्वारा गद्दारी किये जाने व उसे उचित सजा दिए जाने की जानकारी दी|

कान्हड़ देव ने इस राष्ट्रभक्त वीरांगना को नमन किया| और हीरादे जैसी वीरांगनाओं पर मन ही मन गर्व करते हुए कान्हड़ देव अल्लाउद्दीन की सेना से आज निर्णायक युद्द करने के लिए चल पड़े|

किसी कवि ने हीरादे द्वारा पति की करतूत का पता चलने की घटना के समय हीरादे के मुंह से अनायास ही निकले शब्दों का इस तरह वर्णन किया है-
"हिरादेवी भणइ चण्डाल सूं मुख देखाड्यूं काळ”

अर्थात्- विधाता आज कैसा दिन दिखाया है कि- “इस चण्डाल का मुंह देखना पड़ा।” यहाँ हीरादेवी ने चण्डाल शब्द का प्रयोग अपने पति वीका दहिया के लिए किया है|

इस तरह एक देशभक्त वीरांगना अपने पति को भी देशद्रोह व अपनी मातृभूमि के साथ गद्दारी करने पर दंड देने से नहीं चुकी|

देशभक्ति के ऐसे उदाहरण विरले ही मिलते है जब एक पत्नी ने अपने पति को देशद्रोह के लिए मौत के घाट उतार कर अपना सुहाग उजाड़ा हो| पर अफ़सोस हीरादे के इतने बड़े त्याग व बलिदान को इतिहास में वो जगह नहीं मिली जिसकी वह हक़दार थी| हीरादे ही क्यों जैसलमेर की माहेची व बलुन्दा ठिकाने की रानी बाघेली के बलिदान को भी इतिहासकारों ने जगह नहीं दी जबकि इन वीरांगनाओं का बलिदान व त्याग भी पन्नाधाय के बलिदान से कम ना था| देश के ही क्या दुनियां के इतिहास में राष्ट्रभक्ति का ऐसा अतुलनीय अनूठा उदाहरण कहीं नहीं मिल सकता| |

काश आज हमारे देश के बड़े अधिकारीयों,नेताओं व मंत्रियों की पत्नियाँ भी हीरादे जैसी देशभक्त नारी से सीख ले अपने भ्रष्ट पतियों का भले सिर कलम ना करें पर उन्हें धिक्कार कर बुरे कर्मों से रोक तो सकती ही है!! नोट :- कुछ इतिहासकारों ने हीरादे द्वारा अपने पति की हत्या तलवार द्वारा न कर जहर देकर करने का जिक्र भी किया है| बेशक हीरादे ने कोई भी तरीका अपनाया हो पर उसने अपने देशद्रोही पति को मौत के घाट उतार कर सजा जरुर दी|


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