Wednesday, October 31, 2018

स्मरणांजलि ऋषि तुम आज के दिन चले गए !———————–- भावेश...

स्मरणांजलि

ऋषि तुम आज के दिन चले गए !

———————–

- भावेश मेरजा

135 वर्ष पूर्व आज के ही दिन आर्य समाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानन्द जी का अजमेर में देहावसान हुआ था – 30 अक्टूबर 1883, मंगलवार, दीपावली के पर्व की सन्ध्या काल की वेला।

जीवनचरितों के मतानुसार देहावसान के लगभग एक मास पूर्व 29 सितम्बर को स्वामी जी को उनके किसी एक पाचक ने – जिसका नाम धौड़मिश्र (जगन्नाथ नहीं) बताया जाता है जो शाहपुरा के नरेश ने उनकी सेवा में नियुक्त किया था – उसने दूध में विष दे दिया।

उसी रात को कष्ट होने पर स्वामी जी ने अपने अनुभव के आधार पर स्व-चिकित्सा की। पता नहीं, वे तुरन्त जान गए थे या नहीं कि उन्हें विष दिया गया है। दो दिनों से उनका स्वास्थ्य जुकाम या प्रतिश्याय के कारण वैसे भी कुछ ठीक नहीं चल रहा था।

दूसरे दिन से डॉ. सूरजमल की चिकित्सा आरम्भ हुई और तत्पश्चात् उसी दिन से डॉ. अलीमर्दान खां ने उपचार आरम्भ किया। डॉ. अलीमर्दान खां को बुलाना ठीक नहीं रहा। यहां स्वामी जी का कोई ऐसा हितैषी भी नहीं था जो सजगता का परिचय देता हुआ कुछ आवश्यक हस्तक्षेप करता।

डॉ. अलीमर्दान खां के द्वारा की गई चिकित्सा ने स्वामी जी को लगभग समाप्त-सा कर दिया। दो सप्ताह की इस विचित्र चिकित्सा से हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, केवल बिगाड़ ही होता चला गया। क्या किया जाए? अन्त में डॉ. अलीमर्दान ने डॉ. एडम से कुछ विमर्श कर स्वास्थ्य लाभ के लिए स्वामी जी को आबू पर्वत ले जाने का सुझाव दिया। स्वामी जी स्वयं इसके लिए कितने उद्यत थे, कुछ कह नहीं सकते। वे तो सम्भवतः मसूदा जाना चाहते थे।

स्वामी जी को आबू ले गए। इस यात्रा ने लगभग 5-6 दिन लिये होंगे। वहां के डॉ. लक्ष्मणदास के इलाज से कुछ लाभ के संकेत दिखाई दिए। परन्तु फिर नयी विपदा आई। इस भक्त डॉक्टर का स्थानान्तर अजमेर कर दिया गया। स्वामी जी को इस चिन्तनीय हालत में छोड़कर अजमेर जाने का मन नहीं था डॉ. लक्ष्मणदास का। त्यागपत्र तक लिख दिया उन्होंने, परन्तु स्वामी जी ने उसे फाड़ दिया।

डॉ. लक्ष्मणदास अजमेर आ गए। स्वामी जी आबू पर मात्र 6 दिन ही रहे होंगे । डॉ. लक्ष्मणदास से चिकित्सा कराने के उद्देश्य से स्वामी जी को भी अजमेर ले जाया गया। 27 अक्टूबर को स्वामी जी अजमेर पहुंचे। स्थिति भयावह थी।

ऐसी भीषण अवस्था में स्वामी जी को लगभग दस दिनों के अन्दर छः सौ किलोमीटर से अधिक की यात्रा रेल तथा पालकी के द्वारा करनी पड़ी। इसमें कितना कष्ट हुआ होगा उन्हें ! वे सब कुछ सहते रहे।

अजमेर में चिकित्सा की गई परन्तु कुछ फलदायी नहीं रही। 30 अक्टूबर का अन्तिम दिन आ ही गया। अपने कुछ अनुयायिओं तथा भक्तजनों की उपस्थिति में ध्यानस्थ होकर पुलकित भाव के साथ ईश्वर का स्मरण करते हुए और उसकी करुणामय व्यवस्था को विनम्र भाव से नतमस्तक होते हुए उन्होंने अपनी आखरी सांस ली। स्थान था - अजमेर की भिनाय कोठी। टंकारा का मूलशंकर दयानन्द सरस्वती के नाम से जगविख्यात होकर अपनी यात्रा का यहीं पर समापन कर आगे चल दिया।

प्रतिवर्ष आज के दिन का सन्ध्या काल हमारे जैसे सामान्य व्यक्तिओं के मन में कुछ शोक के भाव जगा ही जाता है।

वे चले गए, परन्तु हमारे लिए, समस्त मानवता के लिए कितनी अमूल्य विचार सम्पदा छोड़ गए हैं !

हमें उनके अपूर्व योगदान के स्वयं लाभान्वित होना है और अन्यों को भी इससे लाभ पहुंचाना है। यही बोध पाठ है हमारे लिए महर्षि दयानन्द के इस बलिदान दिवस का !


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अहोई अहोई = अ+होई अर्थात् जो कभी हुई ही नहीं । अब जो कभी हुई ही नहीं उसे क्या मानना मानो उसे जो हुई...

अहोई

अहोई = अ+होई

अर्थात्

जो कभी हुई ही नहीं ।

अब जो कभी हुई ही नहीं उसे क्या मानना

मानो उसे जो हुई हो …………जैसे आदि-शंकराचार्य जी की माँ को मानें , महर्षि दयानन्द जी की माँ को मानें , भगतसिंह की माँ को मानें, सुभाषचन्द्र बोस से लेकर वीर सावरकर या शिवाजी या महाराणा प्रताप की माँ को मानें ………….क्यों की ये सब हुई थीं |

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आज अहोई अष्टमी है | आज महिलाएं संतान प्राप्‍ति और उनकी लंबी उम्र के लिए अहोई अष्‍टमी का व्रत रखती हैं।

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मतलब चार दिन (चौथ/चतुर्थी) पहले पति की लम्बी आयु के लिए पूरा दिन भूखा रहो फिर अष्टमी के दिन सन्तान के लिए उपवास

इसे कहते हैं दोनों हाथों में लड्डू …….ओह्ह सॉरी ….दोनों कष्ट एक के ऊपर

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कृपया अन्धविश्वास से बचें ।

धन्यवाद

सादर

विदुषामनुचर

विश्वप्रिय वेदानुरागी

यदि किसी के पास अहोई माता जी का इतिहास (जन्म व मृत्यु, उनके कार्यों का विस्तृत प्रमाणिक वर्णन) हो तो बतायें | अग्रिम धन्यवाद


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✍*अहोई अष्टमी पर*अहोई मतलब जो हुआ नहीं पर है अवश्य अर्थात जिसका जन्म नहीं होता वह अज परमात्मा ही...

*अहोई अष्टमी पर*

अहोई मतलब जो हुआ नहीं पर है अवश्य अर्थात जिसका जन्म नहीं होता वह अज परमात्मा ही अहोई है ऐसा जानना चाहिए,

हम सब उसकी संतान हैं

हमारी लालना पालना वह मातृवत पितृवत करता है इसलिए उसकी उपासना नैत्यिक और नैमित्तइक करनी ही

चाहिए। हो सकता है यह परम्परा जब बनी हो तब संतानें छोटी उम्र में मर जाती हों तो किसी ने कहा हो उस देव की उपासना करो जो कभी होता नहीं पर सबको बनाता है पालना करता है सबका रक्षक है।

उसकी उपासना कैसे हो तो उसकी वेदकथा

सुनकर शुद्ध ज्ञान कर ही हो सकती है शायद इसलिए ही कथा सुनने का विधान भी है वह अलग बात है कि आज विकृति विसंगति के चलते कथा का कोई सिर पैर नहीं। इसलिए आज के इस दिवस को उत्तम संतति कैसे बनाएं इस संकल्प अर्थात व्रत के साथ मनाना चाहिए जिसमें सामूहिक यज्ञ

का वृहद अनुष्ठान और संतति जनने वाली माताओं का संगतिकरण कर उत्तम शिक्षा लालन पालन हेतु,

और ऐसी जगह दान होना चाहिए जिनके बच्चे भूख से पीड़ित हों गरीबी की मार झेल रहे हों। अर्थात

यज्ञ - देवपूजा संगतिकरन और दान द्वारा।

इस तरह ही सभी सुखों की प्राप्ति कर सकते हैं समाज में आई हुई विकृतियों का रूप बदलें संस्कृति का स्वरूप नहीं।

हर पर्व उत्सव व्रत त्यौहार सब यज्ञों की विस्तृत धुआं से महकें तभी परम्पराओं की सार्थकता।

-विमलेश बंसल आर्या

🙏🙏🙏🙏🙏


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Tuesday, October 30, 2018

धर्मरक्षा के लिए सर्वाधिक जरूरत अगर किसी की है तो वह है *विवेक*अर्थात , जो जैसा है उसे वैसा ही समझना...

धर्मरक्षा के लिए सर्वाधिक जरूरत अगर किसी की है तो वह है *विवेक*

अर्थात , जो जैसा है उसे वैसा ही समझना और मानना , कल्पनाओं , कहानियों को सच मानकर उनके भरोसे रहने वाला मिट जाता है।

साईं बाबा एक जिहादी था, उसे जिहादी मानना ही *विवेक* है

मुसलमान , गैर मुसलमानों के शत्रु है , तो उन्हें ऐसा ही मानना *विवेक* है

मूर्ति जड़ होती है, ईश्वर चेतन होता है, मूर्ति को मूर्ति व ईश्वर को ईश्वर मानना *विवेक* है।

ईश्वर किसी की सहायता करने नही आता, धर्मरक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य है ऐसा मानना ही *विवेक* है

ईश्वर का ध्यान करने से ईश्वर अंतःकरण मे हमे प्रेरणा देता है , सद्बुद्धि देता है, कर्म हमे ही करना होगा, यह समझ जाना ही *विवेक* है।

गुरुकुलीय शिक्षा मे विवेक सिखाया जाता है , तभी राम, कृष्ण व चाणक्य जैसे वीरो का निर्माण होता है।

*हिन्दुओ , आओ गुरुकुल द्वारा आयोजित दो दिवीसीए सत्र करे*


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Monday, October 29, 2018

“आओ चलें वेदों की ओर”आज युवाओं का वेद पढ़ना तो दूर देखने के लिए भी नसीब नहीं होते. आज...

“आओ चलें वेदों की ओर”

आज युवाओं का वेद पढ़ना तो दूर देखने के लिए भी नसीब नहीं होते. आज युवा अपनी जिंदगी में वेदों का मतलब भी नहीं जान पाते, हालाँकि जिसने वेद नहीं पढ़े उसको वैदिक परंपरा के अनुसार ब्राह्मण कहलाने का हक नहीं लेकिन देश की व्यवस्था के अनुरूप जन्मना ब्राह्मण और कर्मना ब्राह्मण एक ब्राह्मण स्वरुप ही देखे जाते हैं.

ॐ अनंता वै वेदा : Vedas Are Limitless ॐ

1) वेद का सामान्य अर्थ:

“वेदो अखिलो धर्म मूलम ”, “वेद धर्म का मूल हैं”, राजऋषि मनु के अनुसार मूलतः वेद शब्द ‘विद’ मूल शब्द से बना है, जिसका अर्थ है ज्ञान.

2) कितने पुराणिक वेद:

वेद 1.97 बिल्लियन वर्ष पुराने हैं ,वेदों के अनुसार वर्तमान सृष्टि करीब 1 अरब, 96 करोड़, 8 लाख और लगभग 53000 वर्ष पुरानी है और इतने ही पुराने वेद भी हैं. ऋग्वेद मन्त्र 10/191/3 में कहा गया है कि यह सृष्टि, इससे पिछली सृष्टि के समान ही है और सृष्टि के चलने का क्रम शाश्वत है , इसलिए वेद भी शाश्वत हैं. वेदों का वास्तव में सृजन या विनाश नहीं होता, वेद केवल प्रकाशित और अप्रकाशित होते हैं. परन्तु, आदि शंकराचार्य “वेद अपौरुषेय हैं”.

3) वेद एवं वेद-पठन के फायदे:

वेद वास्तव में मात्र पुस्तकें नहीं हैं, बल्कि यह वो ज्ञान है जो ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित हुआ. 'ईश्वर’ वेदों के ज्ञान को सृष्टि के प्रारंभ के समय चार ऋषियों को देता है जो जैविक सृष्टि के द्वारा पैदा नहीं होते हैं. इन ऋषियों के नाम हैं ,अग्नि ,वायु, आदित्य और अंगीरा.

अ). अग्नि ऋषि ने ऋग्वेद को, जोकि सर्वशक्तिमान ईश्वर के ज्ञान को प्रदान करता है.

ब). वायु ऋषि ने यजुर्वेद को, जोकि कर्मों के ज्ञान को प्रदान करता है.

स). आदित्य ऋषि ने सामवेद को, जोकि आराधना ,योग और दर्शन को समझाता है. और

द). अंगीरा ऋषि ने अथर्ववेद को, जोकि औषधियों और ईश्वर के बारे में जानकारी देता है, प्राप्त किया.

इसके बाद इन चार ऋषियों ने दूसरे लोगों को इस दिव्य ज्ञान को प्रदान किया.

वेदों का ज्ञान अपार है, उदाहरण के लिए 6 ऋतुएँ, सूर्य, चन्द्र, जीवन के क्रम, मृत्यु के क्रम, आराधना, योग, दर्शन, आणुविक ऊर्जा, कृषि, पशुपालन, राजनीति ,प्रशासनिक कार्य, सौर्य ऊर्जा,व्यापार, पुरुष, स्त्रियाँ बच्चे, विवाह, ब्रह्मचर्य, शिक्षा, कपड़े आदि … “तिनके से लेकर ब्रह्मा तक” का ज्ञान…इन वेदों में निहित है.

[1] ऋगवेद:

ऋग्वेद दिव्य मन्त्रों की संहिता हैI इसमें 1017 ऋचाएं अथवा सूक्त हैं जो कि 10300 छंदों में पंक्तिबद्ध हैं. ये आठ “अष्टको” में विभाजित हैं एवं प्रत्येक अष्टक के क्रमानुसार आठ अध्याय एवं उप- अध्याय हैंI माना जाता है कि ऋग्वेद का ज्ञान मूलतः अत्रि, कन्व, वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदाग्नि, गौतम एवं भरद्वाज ऋषियों को प्राप्त हुआ,ऋग वेद की ऋचाएं एक सर्वशक्तिमान पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर की उपासना अलग अलग विशेषणों से करती हैं.

[2] सामवेद:

साम वेद संगीतमय ऋचाओं का संग्रह हैं I विश्व का समस्त संगीत सामवेद की ऋचाओं से ही उत्पन्न हुआ है, ऋगवेद के मूल तत्व का सामवेद संगीतात्मक सार हैं, प्रतिपादन हैं

[3] यजुर्वेद:

यजुर वेद मानव सभ्यता के लिए नीयत कर्म एवं अनुष्ठानों का दैवी प्रतिपादन करते हैं. यजुर वेद का ज्ञान मद्यान्दीन, कान्व, तैत्तरीय, कथक, मैत्रायणी एवं कपिस्थ्ला ऋषियों को प्राप्त हुआ.

[4] अर्थवेद:

'अथर्ववेद’ ऋगवेद में निहित ज्ञान को व्यावहारिक रूप से क्रियान्वयन प्रदान करता है ताकि मानव जाति उस परम ज्ञान से पूर्णतयः लाभान्वित हो सके.

अथर्ववेद जादू और आकर्षण के मन्त्रों एवं विद्या की पुस्तक नहीं है.

4) वेद में मूर्ति पूजा:

वेदों में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि वेदों में 'यज्ञ’ को ही ईश्वर के प्रति आस्था का मूल आधार माना गया है हालाँकि ब्रह्म तक योग द्वारा पहुँचने का 'मूर्ति पूजा’ एक जरिया है जरूर, बशर्ते 'मूर्ति पूजा’ एकांत में की जाए.

वेद: संरचना:

प्रत्येक वेद “संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् नामक चार भागों में विभाजित हैं.

ऋचाओं एवं मन्त्रों के संग्रहण से संहिता,

नियत कर्मों और कर्तव्यों से ब्राह्मण,

दार्शनिक पहेलू से आरण्यक एवं

ज्ञातव्य पक्ष से उपनिषदों का निर्माण हुआ है.

आरण्यक समस्त योग का आधार हैं. उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है एवं ये वैदिक शिक्षाओं का सार हैं.

वेद समस्त ज्ञान के आधार:

वैसे ये उनकी खुशकिस्मती है जो ब्राह्मण कुल में पैदा हुए तथापि बिना ज्ञान का ब्राह्मण किसी काम का नहीं. आज भले ही एक ब्राह्मण… डॉक्टर, इंजीनियर, सी.ए. आदि बन जाए पर असली जिंदगी मृत्यु के बाद शुरू होगी तब ब्राह्मण से पूछा जायेगा कि…

"आप अपने आप को ब्राह्मण बोलते रहे, ठीक है… ईश्वर ने पहले ही आपको ब्राह्मण वंश में जन्म देकर धरती पर भेजा था, उसको भुलाकर, स्वयं को सांसारिक कार्यो में लगाकर व वेदों के ज्ञान की अनदेखी कर, आपने अपने स्वार्थ के लिए सांसारिक डिग्री को सर्वोच्च महत्ता पदान करते हुए आपने जो भी नौकरी-पैसा अख्तियार किया, सो एक तरह से आपने पशु समान ही जिन्दगी जीकर जीवन निकाल दिया ! सो आप कैसे ब्राह्मण??? ”

अभी भी समय है, 'समस्त हिन्दू’ वेदों की ओर बढ़ें, और ब्राह्मणों के लिए तो यह नितांत आवश्यक है.


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Wednesday, October 24, 2018

*वेद किसने लिखे और वेदों का प्रकाश कब हुआ-* सृष्टि के आदि में सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक ज्ञानस्वरूप...

*वेद किसने लिखे और वेदों का प्रकाश कब हुआ-*

सृष्टि के आदि में सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ने अपने शाश्वत ज्ञान- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमश: अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के हृदयों में जनकल्याण हेतू प्रकाशित किया । इसको 1 अरब, 97 करोड, 29 लाख,49 हजार 119 वर्ष बीत चुके हैं और यह 120 वाँ वर्ष चल रहा है । सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर आज तक आर्य लोग दिन दिन गिनते और प्रसिद्ध करते चले आ रहे हैं और हर याज्ञिक कार्य में संकल्प कथन करते लिखते लिखाते रहे हैं जो बही खाते की तरह मान्य है । वेदों की उत्पत्ति परमेश्वर द्वारा ही होना वेदों में भी उल्लखित है :-

*तस्माद यज्ञात सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद यज्ञुस्तस्मादजायत।।* (यजु० 31.7)

उस सच्चिदानंद, सब स्थानों में परिपूर्ण, जो सब मनुष्यों द्वारा उपास्य और सब सामर्थ्य से युक्त है, उस परब्रह्म से ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और छन्दांसि - अथर्ववेद ये चारों वेद उत्पन्न हुए।

*यस्मादृचो अपातक्षन्* *यजुर्यस्मादपकशन।*

*सामानि यस्य लोमानी अथर्वांगिरसो मुखं।*

*स्कम्भं तं ब्रूहि कतमःस्विदेव सः।।*

(अथर्व० 10.4.20)

अर्थ : जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, उसी से (ऋचः) ऋग्वेद (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद (अंगिरसः) अथर्ववेद, ये चारों उत्पन्न हुए हैं।


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Tuesday, October 23, 2018

સત્યાર્થ-સૂત્ર-સંગ્રહ - ભાગ ૧/૮(સત્યાર્થપ્રકાશના ૧૧મા સમુલ્લાસમાંથી ચૂંટેલાં કેટલાંક અગત્યનાં...

સત્યાર્થ-સૂત્ર-સંગ્રહ - ભાગ ૧/૮

(સત્યાર્થપ્રકાશના ૧૧મા સમુલ્લાસમાંથી ચૂંટેલાં કેટલાંક અગત્યનાં વાક્યોનો સંગ્રહ)

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૧. વેદવિદ્યાહીન લોકોની કલ્પના બધી રીતે સત્ય તો કેવી રીતે હોઈ શકે છે ?

૨. ઈશ્વર સિવાય બીજા દિવ્ય ગુણવાળા પદાર્થો અને વિદ્વાનોને પણ ‘દેવ’ ન માનવા એ ઠીક નથી.

૩. જેવો સત્યોપદેશથી સંસારને લાભ પહોંચે છે, તેવી જ અસત્યોપદેશથી સંસારની હાનિ થાય છે.

૪. જા તમે પરમેશ્વરનું ભજન કરતાં હોત તો તમારો આત્મા પણ પવિત્ર હોત.

૫. જા તમે ભીતરથી શુદ્ધ હોત તો તમારાં બહારનાં કામ પણ શુદ્ધ હોત.

૬. ‘કલિયુગ’ તો સમયનું નામ છે. સમય નિષ્ક્રિય હોવાથી એ કંઈ ધર્મ-અધર્મ કરવામાં સાધક-બાધક બનતો નથી.

૭. આ બધાં (ગિરી, પુરી, ભારતી વગેરે સંન્યાસીઓનાં) દસ નામ પાછળથી કલ્પિત કરવામાં આવ્યાં છે; એ કાંઈ સનાતન નથી.

૮. મનુષ્યનું ખરી આંખ વિદ્યા જ છે. વિદ્યા-શિક્ષા વિના જ્ઞાન થઈ શકતું નથી.

૯. જેઓ બચપણમાં ઉત્તમ શિક્ષા - શિક્ષણ મેળવે છે, તેઓ જ ‘મનુષ્ય’ અને વિદ્વાન થાય છે.

૧૦. જે મનુષ્ય જ્ઞાની-ધાર્મિક સત્પુરુષોનો સંગી, યોગી, પુરુષાર્થી, જિતેન્દ્રિય અને સુશીલ હોય છે, તે જ ધર્મ-અર્થ-કામ-મોક્ષને પ્રાપ્ત કરીને આ જન્મ અને પરજન્મમાં હંમેશાં આનંદમાં રહે છે.

[સંપાદન - ભાવેશ મેરજા]


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મૂર્તિપૂજા પર શાસ્ત્રાર્થ(ફેસબુક પર એક ગ્રુપ બનાવી મહર્ષિ દયાનંદ અને આર્યસમાજ વિરુદ્ધ અપશબ્દો લખીને...

મૂર્તિપૂજા પર શાસ્ત્રાર્થ

(ફેસબુક પર એક ગ્રુપ બનાવી મહર્ષિ દયાનંદ અને આર્યસમાજ વિરુદ્ધ અપશબ્દો લખીને મૂર્તિપૂજાની વકિલાત કરનાર હિરેન ત્રિવેદીને આર્યસમાજના વિદ્વાન શ્રી ભાવેશભાઈ મેરજાએ બહુ જ ઉત્તમ રીતે જવાબ આપ્યો

અને કેટલાક તાર્કિક પ્રશ્નો પણ પૂછ્યા. જે નીચે પ્રસ્તુત છે.)

શ્રી હિરેન ભાઈ ત્રિવેદીને ઉત્તરઃ (કુલ ચાર ભાગમાં)

ભાગઃ ¼

મેં જે ત્રણ વેદમંત્રો ઈશ્વર સાકાર નથી અને તેની મૂર્તિ બની શકતી નથી આથી મૂર્તિપૂજા વેદ-વિરુદ્ધ છે, એ બતાવવા માટે સાર્થ ટાંક્યા હતા, એ તમને માન્ય નથી એ જાણ્યું. તમને એ કેમ માન્ય નથી એ પણ હું સમજું છું. તમે મારી એ કોમેંટ પર જે કંઈ લખ્યું છે તેનો અહીં ક્રમશઃ પ્રત્યુત્તર આપું છું. યથાયોગ્ય વિચાર કરશો -

1. તમે લખ્યું છે કે न तस्य प्रतिमा अस्ति આ યજુર્વેદ મંત્રનો “સાચો અર્થ થાય છે એની કોઈ ઉપમા (તુલના) નથી, કેમ કે એમનો મહિમા અનંત છે. એ સંપૂર્ણ સૃષ્ટિને પોતાના ગર્ભમાં ઘારણ કરવાવાળા (હિરણ્યગર્ભ) છે, સર્વ વ્યાપક છે (કણ કણમાં એમનો વાસ છે).” ભાઈ હિરેન, તમે આ જ વાત પર થોડો વિચાર કરો. જે સત્તા સર્વવ્યાપક અને કણ કણમાં વ્યાપ્ત હોત તે કદી ભૌતિક કે સાકાર હોય એ સંભવ છે? “વ્યાપ્ય” (pervaded) પદાર્થ કરતાં “વ્યાપક” (pervader) પદાર્થ હંમેશાં સૂક્ષ્મ હોય છે. અમારું પણ આ જ કહેવું છે કે ઈશ્વર સમસ્ત જગત તથા સર્વ જીવોમાં વ્યાપક છે. વેદમાં પણ કહ્યું છે – “ઈશા વાસ્યમિદં સર્વમ્ યત્કિંચ જગત્યાં જગત્…” (યજુ. 40.1) તથા “સ ઓતશ્ચપ્રોતશ્ચ વિભૂઃ પ્રજાસુ” (યજુ.32.8) આવો સર્વવ્યાપી ઈશ્વર નિરાકાર જ હોઈ શકે, હાથ-પગ આદિ અવયવો ધરાવતો ભૌતિક શરીરયુક્ત ન હોઈ શકે. આ તથ્યનો શાંતિથી વિચાર કરો. તમને પણ સારી રીતે સમજાઈ જશે, જો તમારો ઉદ્દેશ્ય સત્યને જાણવા-સમજવાનો હોય તો. આથી જ યજુર્વેદના न तस्य प्रतिमा अस्ति મંત્રમાં ઈશ્વરની “પ્રતિમા”નો નિષેધ કર્યો છે. પ્રતિમાનો અર્થ મૂર્તિ થાય છે એ નિર્વિવાદ છે. માનવું જ ન હોય તેનો કોઈ ઈલાજ ન હોઈ શકે. વાત પણ સરળતાથી સમજાઈ જાય એવી છે કે જે સત્તા સર્વત્ર વ્યાપક અને અનંત હોય તેની કોઈ મૂર્તિ, ચિત્ર, મોડલ, સાદૃશ્ય, આકૃતિ, પરિમાણ આદિ કદી બની કે હોઈ ન શકે. એ સર્વથા, સર્વદા નિરાકાર જ હોય. બસ, આર્યસમાજનું પણ આ જ કહેવું છે. શાંત મને વિચાર કરો, આ સમજાય જાય તેવું સત્ય છે. વેદમાં ઈશ્વરનું નિરાકારત્વ તથા સર્વવ્યાપકત્વ સમજાવવા માટે આકાશ (અનુત્પન્ન અનંત અવકાશ – space)ની હીન-ઉપમા આપવામાં આવી છે અને લખ્યું છે કે – “ઓમ્ ખમ્ બ્રહ્મ” (યજુ. 40.17). આમ, વેદની દૃષ્ટિએ ઈશ્વર આકાશની માફક અનંત વ્યાપક, નિરાકાર છે.

2. તમે न तस्य प्रतिमा अस्ति આ વેદમંત્રના સંબંધમાં લખ્યું છે કે – એ વખતે અવતાર થયેલા નહોતા એટલે પ્રતિમાનો અર્થ મૂર્તિ કરી જ ન શકાય. ભાઈ, વેદો તો સૃષ્ટિના આરંભમાં પ્રકાશિત થયા છે, પરંતુ તેમાં સર્વજ્ઞ પરમાત્માએ પોતાના સ્વરૂપનું તથા તેનું ધ્યાન-ઉપાસનાનું વિજ્ઞાન પણ પ્રકાશિત કર્યું છે. તેમાં આ મંત્ર દ્વારા આપણને જ્ઞાન આપ્યું છે કે - હું અદ્વિતીય છું, મારા જેવું કોઈ નથી, મારું કોઈ પ્રતીક, મૂર્તિ, પ્રતિમા આદિ પણ નથી. “પ્રાપ્ત-નિષેધ” અને “અપ્રાપ્ત-નિષેધ”ને સમજશો તો આ વાત તમને પણ સમજાય જશે. અવતારની કલ્પના પૌરાણિક છે; વેદ તથા વૈદિક ગ્રંથોમાં ક્યાંય અવતારનો ઉલ્લેખ નથી. જ્યારથી ઈશ્વરનું વેદોક્ત સ્વરૂપ ભૂલાયું ત્યારથી આવા અવૈદિક તથા તર્ક-વિરુદ્ધ ખ્યાલો પ્રચલિત થયા. પતંજલિ મુનિએ તેમના યોગદર્શનમાં ઈશ્વર સાક્ષાત્કારના વૈદિક વિજ્ઞાનનો પ્રકાશ કર્યો છે અને અસંપ્રજ્ઞાત સમાધિ અને મોક્ષની પ્રાપ્તિ પર્યંતની વિદ્યા સૂત્રાત્મક શૈલીમાં પ્રસ્તુત કરી છે, પરંતુ તેમાં તેમણે ક્યાંય મૂર્તિ, અવતાર, મંદિર આદિનો કોઈ જ ઉલ્લેખ કર્યો નથી. આ તથ્ય પર પણ વિચાર કરો. પતંજલિ મુનિ આર્યસમાજી નહોતા !

(ક્રમશઃ)

શ્રી હિરેન ભાઈ ત્રિવેદીને ઉત્તરઃ (કુલ ચાર ભાગમાં)

ભાગઃ 2/4

3. તમે “स पर्यगाच्छुक्रमकायम्” આ વેદ મંત્રના સંબંધમાં લખ્યું છે કે - ઈશ્વર સર્વવ્યાપી છે, સર્વવ્યાપક છે, આમાં મૂર્તિપૂજાનો વિરોધ ક્યાં છે, વગેરે. ભાઈ હિરેન, જે સર્વવ્યાપી અને સર્વવ્યાપક હોય તે એકદેશી અને આકારયુક્ત ન જ હોય એ જ્ઞાન તો અર્થાપત્તિથી સિદ્ધ થાય છે. આ મંત્રમાં ઈશ્વરને “અકાયમ્” (bodyless) લખ્યા છે, ઈશ્વરના શરીરનો સ્પષ્ટ નિષેધ કર્યો છે. એ તરફ ધ્યાન ન ગયું? જેને શરીર નથી તેની મૂર્તિઓ બનાવવાનું અને તે મૂર્તિઓને પૂજવાનું છે કોઈ ઔચિત્ય?

4. તમે લખ્યું છે કે - ઈશ્વર નિરાકાર છે તો ઋગ્વેદ મંડળ 10 સૂક્ત 91માં વર્ણિત “દિવ્ય પુરુષ” કોણ છે? ભાઈ, તમે સૂક્ત સંખ્યા લખવામાં ભૂલ કરી છે, 91ને બદલે 90 લખવું જોઈતું હતું. હશે, ભૂલ થઈ ગઈ હશે. ઋગ્વેદનું આ 90મું સૂક્ત ‘પુરુષ સૂક્ત”ના નામે સુપ્રસિદ્ધ છે. અન્ય વેદમાં પણ આ સૂક્ત આવે છે. આ સૂક્તમાં ઈશ્વરને માટે “પુરુષ” શબ્દનો પ્રયોગ થયેલો જોઈ એમ સમજી લેવું કે ઈશ્વર આપણા જેવા પુરુષ (Male human being) છે, બહુ જ સ્થૂળ બુદ્ધિનો પરિચય આપે છે. વૈદિક શબ્દો યૌગિક હોય છે, રુઢિ નથી હોતા. વેદની ભાષાનું આ વૈશિષ્ટ્ય સમજવું જ રહ્યું. અહીં ઈશ્વરને માટે આ પુરુષ શબ્દ પણ યૌગિક અર્થમાં જ પ્રયુક્ત થયો છે - પુરિ સર્વસ્મિન્સંસારેઽભિવ્યાપ્ય સીદતી વર્ત્તત ઇતિ. યઃ સ્વયં પરમેશ્વર ઇદં સર્વ જગત્ સ્વરૂપપેણ પૂરયતિ વ્યાપ્નોતિ તસ્માત્સ પુરુષઃ; પુરુષં પુરિશય ઇત્યાચક્ષીરન્ (દ્ર. મહર્ષિ યાસ્ક રચિત નિરુક્ત 1.13) આમ, ઈશ્વર આ સંપૂર્ણ ‘પુર’ અર્થાત્ બ્રહ્માંડમાં, આપણાં શરીર તથા આત્મામાં પણ અંતર્યામી રૂપે વ્યાપક હોવાથી ‘પુરુષ’ કહેવાય છે. આવા ઈશ્વરમાં સર્વજ્ઞતા, સર્વવ્યાપકત્વ, સર્વસામર્થ્ય આદિ અનેક દિવ્ય ગુણો હોવાથી તે દિવ્ય પુરુષ છે. આથી પુરુષ સૂક્તમાં આવતા પુરુષ શબ્દથી ઈશ્વરને સાકાર માની લેવા ઉચિત નથી.

5. તમે પ્રશ્ન કર્યો છે કે – ઈશ્વર સર્વવ્યાપક છે તો મૂર્તિમાં કેમ નહીં? ભાઈ, તે મૂર્તિમાં પણ વ્યાપક છે, પરંતુ એથી મૂર્તિ ઈશ્વર નથી થઈ જતી. વ્યાપક અને વ્યાપ્યનો ભેદ તો સમજવો જ રહ્યો. વ્યાપક અને વ્યાપ્ય ભિન્ન-ભિન્ન પદાર્થ હોય છે, તે અભિન્ન નથી હોતા. મૂર્તિ તો ભાંગી જાય છે, ચોરાઈ જાય છે, પડી પણ જાય છે. પરંતુ ઈશ્વર ન તો ભાંગી જાય છે, ન તો કોઈ તેને ચોરીને લઈ જઈ શકે છે અને ન તો તે પડી જાય છે. તે તો અનાદિ કાળથી જેવો છે તેવો ને તેવો અનંત કાળ સુધી વર્તમાન રહે છે. આપણું કર્તવ્ય છે કે આપણે તેના યથાર્થ સ્વરૂપને સમજીએ. બીજું, ઈશ્વર તો સર્વવ્યાપક હોઈ મૂર્તિમાં પણ વિદ્યમાન છે, પરંતુ મારો કે તમારો આત્મા તો આપણાં શરીરમાં જ બદ્ધ છે. માટે આત્મા ઈશ્વરનો સાક્ષાત્કાર પોતાના હૃદયપ્રદેશમાં જ કરી શકે છે કે જ્યાં બંને ઈશ્વર અને આત્મા મોજૂદ હોય છે.

(ક્રમશઃ)

શ્રી હિરેન ભાઈ ત્રિવેદીને ઉત્તરઃ (કુલ ચાર ભાગમાં)

ભાગઃ ¾

6. તમે પ્રશ્ન કર્યો છે કે – ઈશ્વર દયાળુ છે, ન્યાયકારી છે, તો શરીર વિના ન્યાય કેવી રીતે કરે? ભાઈ, ન્યાય, દયા આદિ કરવા માટે તે સર્વશક્તિમાન છે. તે નિરાકાર હોવા છતાં સમસ્ત બ્રહ્માંડની રચના કરી શકે છે, તો પછી ન્યાય, દયા આદિ કરવામાં, સૃષ્ટિનું સંચાલન કરવામાં એ ચેતન, સર્વવ્યાપક, અંતર્યામીને શરીર જેવા કોઈ ભૌતિક ઉપકરણની બિલકુલ આવશ્યકતા નથી હોતી. તેની કર્મફળ વ્યવસ્થા તથા સર્વ જીવો પ્રત્યે દયા અનાદિ કાળથી ચાલ્યાં આવે છે અને સદૈવ બની રહેશે, કારણ કે એ તે અનાદિ, અનુત્પન્ન, નિત્ય સત્તા છે. તેનાં ગુણ-કર્મ-સ્વભાવ નિત્ય અનાદિ છે.

7. તમે લખ્યું છે કે - હજારો માથાં, હજારો હાથ, હજારો પગ શરીર વિના છે? ભાઈ હિરેન, તમે વેદનું કાવ્યત્વ અને તેની પ્રતિપાદન શૈલી પર વિચાર કરશો તો આવા પ્રશ્ન નહિ થાય. પુરુષ સૂક્તના આ પ્રથમ મંત્રમાં ઈશ્વરની વ્યાપકતાનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે અને એ બતાવવા માટે કે તેની સત્તામાં, તેની વ્યાપ્તિમાં અસંખ્ય માથાં, અસંખ્ય આંખો, હાથ વગેરે સ્થિત છે. આ મંત્રમાં ઈશ્વરને સહસ્રશીર્ષા, સહસ્રાક્ષ, સહસ્રપાત્ વગેરે તે અનંત છે, એ બતાવવા માટે છે. બાકી તો જો તમારી કલ્પનાને અનુસરીએ તો પ્રશ્ન થાય કે આ તે કેવો ઈશ્વર છે કે જેને માથાં તો 1000 છે, પરંતુ આંખો અને પગ 2000-2000 હજાર નથી, પરંતુ 1000-1000 હજાર જ છે ! આવું કેમ? શું જવાબ આપશો આવા પ્રશ્નનો? વિચાર કરો.

8. આર્યસમાજનો ઈશ્વરવાદ વેદોક્ત છે. તેને સમજવાનો પ્રયાસ કરો, નાહકનો વિરોધ ઉચિત નથી. માટે વિનંતી છે કે ઉપરોક્ત વાતો પર ખુલ્લા મને વિચાર કરશો. અને સંસ્કાર-પ્રબળતા, આર્યસમાજ પ્રત્યેના તીવ્ર પૂર્વાગ્રહ કે અન્ય કોઈ કારણસર જો હજુ પણ સાકારવાદ અને મૂર્તિપૂજાનો આગ્રહ કરવો જ હોય તો તમારી સેવામાં “તમારા માથામાં વાગે તેવા” કેટલાક પ્રશ્નો નીચે લખ્યા છે, તેના યોગ્ય જવાબ શોધવાનો પ્રયાસ કરશો. (ક્રમશઃ)

શ્રી હિરેન ભાઈ ત્રિવેદીને ઉત્તરઃ (કુલ ચાર ભાગમાં)

ભાગઃ 4/4

પ્રશ્નઃ

1. કોઈ પણ સાકાર વસ્તુ અથવા સાકાર પદાર્થ ઈશ્વરના આશ્રય વગર ટકી શકતો નથી. માટે જો ઈશ્વર સાકાર હોય તો એ બતાવવામાં આવે કે તે શાના આશ્રયે ટકેલો છે ?

2. સાકાર વસ્તુ રંગ-રૂપ ધરાવતી હોય છે. જો ઈશ્વર સાકાર હોય તો એ બતાવો કે તેનો રંગ કેવો છે ?

3. સાકાર વસ્તુ હંમેશાં સીમિત (એકદેશી – મર્યાદિત) હોય છે, એ સર્વવ્યાપક હોઈ શકતી નથી. જો ઈશ્વર સાકાર હોય તો તે સર્વવ્યાપક શી રીતે હોઈ શકે ?

4. સાકાર વસ્તુનું વજન, માપ, લંબાઈ વગેરે હોય છે. જો ઈશ્વર સાકાર હોય તો તેનું વજન, માપ, લંબાઈ વગેરે બતાવશો ?

5. ચારેય વેદોમાંથી ‘મૂર્તિપૂજા’ શબ્દ શોધી બતાવશો ?

6. જો મૂર્તિપૂજા વૈદિક અર્થાત્‌ વેદ-વિહિત હોય તો કોની મૂર્તિ, કેટલી મૂર્તિ, કેવા પ્રકારની મૂર્તિ બનાવવી જાઈએ તે, અને તેના પૂજનની શી વિધિ હોવી જોઈએ – આ બધું વેદોમાંથી શોધી બતાવશો ?

7. એક જ સમયે કોઈ પણ પદાર્થમાં બે પરસ્પર વિરોધી ગુણો સાથે ન રહી શકે. તો પછી એક જ સમયે ઈશ્વર સાકાર અને નિરાકાર બંને શી રીતે સંભવી શકે ?

8. ઈશ્વર મૂર્તિમાં વ્યાપક છે કે નહિ ? જો છે, તો પછી પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા શા માટે કરો છો ? ઈશ્વર પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કર્યા પહેલાં મૂર્તિમાં હોય છે કે પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કર્યા બાદ જ મૂર્તિમાં આવે છે ? શું પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કર્યા બાદ મૂર્તિમાં કોઈ વિશેષ શક્તિ આવી જાય છે ?

9. જો પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કર્યા બાદ મૂર્તિમાં કોઈ વિશેષ શક્તિ આવી જતી હોય તો એ મૂર્તિ પોતાની ઉપરથી ઉંદર વગેરેને કેમ દૂર નથી કરી શકતી ?

10. અને જો પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કરવાથી મૂર્તિમાં કોઈ વિશેષ શક્તિ આવી જતી ન હોય તો પછી એક સામાન્ય પથ્થર અને મૂર્તિમાં શો ફરક રહ્યો ?

(સંપૂર્ણ)


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