Friday, September 30, 2016

ईश्वर का वैदिक स्वरुप – ईश्वर, जीव और प्रकृति – तीनो कारण स्वयं सिद्ध और अनादि हैं JULY 1, 2015...

ईश्वर का वैदिक स्वरुप – ईश्वर, जीव और प्रकृति – तीनो कारण स्वयं सिद्ध और अनादि हैं JULY 1, 2015 RAJNEESH LEAVE A COMMENT संस्कृत भाषा में परमात्मा = परम + आत्मा तथा जीवात्मा = जीव + आत्मा दो शब्द हैं। परमात्मा शब्द का अर्थ है – सर्वश्रेष्ठ आत्मा और जीवात्मा का अर्थ है प्राणधारी आत्मा आत्मा शब्द दोनों के लिए आता है और बहुधा परम-आत्मा तथा जीव-आत्माओ का भेदभाव किये बिना समस्त जीवनतत्वो के लिए व्यवहृत किया जाता है। परमात्मा और जीवात्माओं के कार्यो में इतनी समानता है [मगर दोनों के कार्य क्षेत्र निसंदेह अत्यंत विभिन्न हैं] की प्रायः इनके सम्बन्ध के विषय में भ्रम हो जाता है और इस भ्रम के कारन दर्शनशास्त्र तथा धर्म दोनों क्षेत्रो में बाल की खाल निकाली जाती है। खासतौर पर ईश्वर को ना मानने वाले लोग मनुष्य को ही “सिद्ध” व “ईश्वर” का दर्ज देकर अपनी अल्पज्ञता के कारण ऐसा विचार लाते हैं – वैदिक ईश्वर का स्वरुप कैसा है और जीव का स्वरुप कैसा है – जब इस प्रकार की चर्चा की जाती है तब आवश्यक हो जाता है इस प्रकृति के बारे में भी कुछ जाना जाए – तो आइये – इस विषय पर कुछ विचार करे – इस कार्यरूप सृष्टि में तीन नियम बहुत ही स्पष्ट रूप से दीखते हैं : पहिला – इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ नियमपूर्वक, परिवर्तनशील है। दूसरा – प्रत्येक जाती के प्राणी अपनी जाती के ही अंदर उत्तम, माध्यम और निकृष्ट स्वाभाव से पैदा होते हैं। तीसरा – इस विशाल सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है वह सब नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है। पहिला नियम : सृष्टि नियमपूर्वक परिवर्तनशील है इसका अर्थ जो लोग सृष्टि को स्वाभाविक गुण से परिवर्तनशील मानते हैं वे गलती पर हैं क्योंकि स्वाभाव में परिवर्तन नहीं होता ऐसे लोग भूल जाते हैं की परिवर्तन नाम है अस्थिरता का और स्वाभाव में अस्थिरता नहीं होती क्योंकि उलटपलट, अस्थिर ये नैमित्तिक गुण हैं स्वाभाविक नहीं। इसलिए सृष्टि में परिवर्तन स्वाभाविक नहीं। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है की यदि प्रकृति में परिवर्तन स्वाभाविक माने तो ये अनंत परिवर्तन यानी अनंत गति माननी पड़ेगी और फिर एकसमान अनंत गति मानने से संसार में किसी भी प्रकार से ह्रासविकास संभव नहीं रहेगा किन्तु सृष्टि में बनने और बिगड़ने की निरंतर प्रक्रिया से सिद्ध होता है की सृष्टि का परिवर्तन नैमित्तिक है सवभविक नहीं, इसीलिएि इस परिवर्तनरुपी प्रधान नियम के द्वारा यह सिद्ध होता है की सृष्टि के मूल कारणों में से यह एक प्रधान कारण है जो खंड खंड, परिवर्तन शील और परमाणुरूप से विद्यमान है। परन्तु यह परमाणु चेतन और ज्ञानवान नहीं हैं इसकी बड़ी वजह है की जो भी चेतन और ज्ञानवान सत्ता होगी वो कभी दूसरे के बनाये नियमो में बंध नहीं सकती बल्कि ऐसी सत्ता अपनी ज्ञानस्वतंत्रता से निर्धारित नियमो में बाधा पहुचाती है – जहाँ तक हम देखते हैं परमाणु बड़ी ही सच्चाई से अपना काम कर रहे हैं – जिस भी जगह उनको दूसरे जड़ पदार्धो में जोड़ा गया – वहां आँख बंद करके भी कार्य कर रहे हैं जरा भी इधर उधर नहीं होते इससे ज्ञात होता है की इस सृष्टि का परिवर्तनशील कारण जो परमाणु रूप में विद्यमान है ज्ञानवान नहीं बल्कि जड़ है – इसी जड़, परिवर्तनशील और परमाणु रूप उपादान कारण को माया, प्रकृति, परमाणु मेटर आदि नामो से कहा जाता है और संसार के कारणों में से एक समझा जाता है दूसरा नियम : सभी प्राणियों के उत्तम और निकृष्ट स्वाभाव हैं। अनेक मनुष्य प्रतिभावान, सौम्य और दयावान होते हैं, अनेक मुर्ख उद्दंड और निर्दय होते हैं। इसी प्रकार अनेक गौ, घोडा आदि पशु स्वाभाव से ही सीधे होते हैं और अनेक शेर, आदि क्रोधी और दौड़दौड़कर मारने वाले होते हैं यहाँ देखने वाली बात है की ये स्वभावविरोध शारीरिक यानी भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक है, जो चैतन्य बुद्धि और ज्ञान से सम्बन्ध रखता है। लेकिन ध्यान देने वाली है ये ज्ञान प्राणियों के सारे शरीर में व्याप्त नहीं है, क्योंकि यदि सारे शरीर में ये ज्ञान व्याप्त होता तो किसी का कोई अंग भंग यथा अंगुली, हाथ, पैर आदि कट जाने पर उसका ज्ञानंश कम हो जाना चाहिए लेकिन वस्तुतः ऐसा होता नहीं इसलिए यह निश्चित और निर्विवाद है की ज्ञानवाली शक्ति जो प्राणियों में वास करती है वो पुरे शरीर में व्याप्त नहीं है प्रत्युत वह एकदेशी, परिच्छिन्न और अनुरूप ही है क्योंकि सुक्षतिसूक्ष्म कृमियों में भी मौजूद है दूसरा तथ्य ये भी है की यदि पुरे शरीर में ज्ञानशक्ति मौजूद होती तो जैसे शरीर का आकर बढ़ता है वैसे उस शक्ति को भी बढ़ना पड़ता जबकि ऐसा होता नहीं और ये शक्ति परमाणुओ के संयोग से भी नहीं बनी क्योंकि ऊपर सिद्ध किया गया की ज्ञानवान तत्व, परमाणु संयुक्त होकर नहीं बन सकता और न ही ये हो सकता है की अनेक जड़ और अज्ञानी परमाणु एकत्रित होकर परस्पर संवाद ही जारी रख सकते हो। यदि कोई मनुष्य ब्रिटेन में जिस समय पर गाडी दौड़ा रहा है – तो उसी समय पूरी दुनिया में मौजूद इंसान उस गाडी और मनुष्य को नहीं देख पा रहे इसलिए प्राणियों में मौजूद ज्ञानवान शक्ति, अल्पज्ञ है, एकदेशी है, परिच्छिन्न है। इसलिए इस शक्ति को जीव, रूह और सोल के नाम से जानते हैं। इस विस्तृत सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है, वह नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है। सूर्य चन्द्र और समस्त ग्रह उपग्रह अपनी अपनी नियत धुरी पर नियमित रूप से भ्रमण कर रहे हैं। पृथ्वी अपनी दैनिक और वार्षिक गति के साथ अपनी नियत सीमा में घूम रही है। वर्षा, सर्दी और गर्मी नियत समय में होती है। मनुष्य और पशुपक्ष्यादि के शरीरो की बनावट वृक्षों में फूलो और फलो की उत्पत्ति, बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज का नियम और प्रत्येक जाती की आयु और भोगो की व्यवस्था आदि जितने इस सृष्टि के स्थूल सूक्ष्म व्यवहार हैं, सबमे व्यवस्था, प्रबंध और नियम पाया जाता है। नियामक के नियम का सब बड़ा चमकार तो प्रत्येक प्राणी के शरीर की वृद्धि और ह्रास में दिखलाई देता है। क्यों एक बालक नियत समय तक बढ़ता और क्यों एक जवान धीरे धीरे ह्रास की और – वृद्धावस्था की और बढ़ता जाता है इस बात का जवाब कोई नहीं दे सकता यदि कोई कहे की वृद्धि और ह्रास का कारण आहार आदि पोषक पदार्थ हैं, तो ये युक्तियुक्त और प्रामाणिक नहीं होगा क्योंकि हम रोज देखते हैं एक ही घर में एक ही परिस्थिति में और एक ही आहार व्यवहार के साथ रहते हुए भी छोटे छोटे बच्चे बढ़ते जाते हैं और जवान वृद्ध होते जाते हैं तथा वृद्ध अधिक जर्जरित होते जाते हैं। इन प्रबल और चमत्कारिक नियमो से सूचित होता है की इस सृष्टि के अंदर एक अत्यंत सूक्ष्म, सर्वव्यापक, परिपूर्ण और ज्ञानरूपा चेतनशक्ति विद्यमान है जो अनंत आकाश में फ़ैल हुए असंख्य लोकलोकान्तरो का भीतरी और बाहरी प्रबंध किये हुए हैं। ऐसा इसलिए तार्किक और प्रामाणिक है क्योंकि नियम बिना नियामक के, नियामक बिना ज्ञान के और ज्ञान बिना ज्ञानी के ठहर नहीं सकता। हम सम्पूर्ण सृष्टि में नियमपूर्वक व्यवस्था देखते हैं, इसलिए सृष्टि का यह तीसरा कारण भी सृष्टि के नियमो से ही सिद्ध होता है। इसी को परमात्मा, ईश्वर खुदा और गॉड कहते आदि अनेक नामो से पुकारते हैं हैं जिसका मुख्य नाम ओ३म है। सृष्टि के ये तीनो कारण स्वयंसिद्ध और अनादि हैं। मेरे मित्रो, ज्ञान और विज्ञान की और लौटिए, सत्य और न्याय की और लौटिए वेदो की और लौटिए…. आओ लौट चले वेदो की और।

Read more at Aryamantavya: ईश्वर का वैदिक स्वरुप – ईश्वर, जीव और प्रकृति – तीनो कारण स्वयं सिद्ध और अनादि हैं http://wp.me/p6VtLM-1Wc


from Tumblr http://ift.tt/2duBvX4
via IFTTT

Thursday, September 29, 2016

हिन्दू कैसे अपने महापुरुषों का अपमान करते है देखिये - 1⃣क्या...

हिन्दू कैसे अपने महापुरुषों का अपमान करते है देखिये - 1⃣क्या आपने कभी देखा है की सिखों के दस गुरु है उनको कभी मंचों य स्टेजों पर नाचते हुए - 2⃣किसी माई के लाल की हिम्मत नहीं की किसी भी सिख गुरु की कहीं नचवा दे । 3⃣क्यों की सिख अपने गुरुओं का आदर करते है और उनका अपमान बिलकुल भी सहन नहीं कर सकते ।। 4⃣क्या कभी किसी मुश्लिम को उनके गुरु य मोहम्मद य कोई भी उनके नजरों में उनका कोइ महापुरुष य महामानव आपने नाचता हुआ य उसका अपमान होता देखा है । 5⃣क्यों की मुश्लिम भी अपने महापुरुषों की ( उनकी नजरों में ) बेज्जती सहन नहीं कर सकते ,किसी के माई के लाल में हिम्मत नहीं है की कोइ उनके मोहम्मद य किसी और के बारे में कुछ कह दे तलवार चल जाती है । 6⃣ऐसे ही इसाई है
7⃣लेकिन हिन्दू - अपने महापुरुष श्री कृष्ण को स्टेजों पर “ राधा "के साथ ( जबकि राधा के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं था ) नचवाने में अपनी शान समझते है ,, एक तरफ तो उनको परमात्मा मान कर पूजा करते है और दूसऱी तरफ उनको चोर , रास रचाने वाला , स्त्रियों के कपडे चुराने वाला कहने में अपनी शान समझते है ,,, ऐसे ही शिव जी को अपना परमात्मा बना कर पूजते है , और दूसरी तरफ उनको भंगेड़ी ( भांग पीने वाला ) भी कहने में अपनी शान समझते है ,,,,,, हिन्दुओं ( आर्यो ) कब तक अपने महापुरुषों का अपमान तुम अपने आप ही करते रहोगे ।………………..


from Tumblr http://ift.tt/2dxSqNe
via IFTTT

ओ३म् *🌷अण्डा―एक जहर🌷* _(1) अण्डे में कोलिस्ट्रोल की मात्रा अधिक होती है।इसका पीत-भाग कोलिस्ट्रोल...

ओ३म्

*🌷अण्डा―एक जहर🌷*

_(1) अण्डे में कोलिस्ट्रोल की मात्रा अधिक होती है।इसका पीत-भाग कोलिस्ट्रोल का बहुत बड़ा स्रोत है।यह मानव चर्म की परतों में जमा हो धमनियों को सिकुड़ा देता है।परिणामतः दिल का दौरा, लकवा, जेथोमा जैसे भयंकर रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है।"हायपर-कौलिस्टेरोलेमिया" होने पर मनुष्य उच्च रक्तचाप का रोगी बन जाता है।बच्चों के लिए तो यह बिल्कुल भी अनुकूल नहीं है।इसमें सोडियम सॉल्ट की मात्रा अधिक होती है।ब्लडप्रैशर के मरीजों के लिए जहर रुप है।अण्डे के सफेद भाग में नमक और पीले भाग में कोलिस्ट्रोल दोनों ही स्वास्थ्य हेतु घातक हैं।_

_(2) अण्डे में कार्बोहाइड्रेटस बिल्कुल नहीं है।इससे कब्ज, जोडों के दर्द जैसी बीमारियां अनायास हो जाती हैं।अण्डा कफदायक होने से शरीर के पोषक-तत्त्वों को असन्तुलित कर देता है।अण्डे में साल्मोनेला नामक बैक्टीरिया के अतिरिक्त एक नया माइक्रोव बैक्टीरिया भी पाया जाता है।यह आंतों में भयंकर रोग उत्पन्न करता है।अण्डे खाने से गठिया, गाउट जैसी वात-जनित बीमारियाँ हो जाती हैं जो बुढ़ापे में खतरनाक, पीड़ादायक मोड़ ले-लेती हैं।अण्डे में तुरन्त ऊर्जा देने वाले शुगर और स्टार्च नहीं हैं।_

_(3) पोल्ट्री-फार्म की मुर्गियों को रख-रखाव हेतु विभिन्न प्रकार की घातक दवाइयाँ दी जाती हैं, या उनका छिड़काव किया जाता है, परिणामतः वे घातक दवाइयों का बहुत सारा अंश श्वास अथवा मुँह के माध्यम से खाने के संग पेट में पहुँच जाता है।यही कारण है कि कई प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुका है कि उनके पेट में डी०डी०टी० जैसा जहर भी पाया जाता है जो खाने वालों के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध होता है।जैसे गाय, बैल, भैंसों, सूअर, बकरा आदि को मांसवर्द्धक दावाएँ दी जाती हैं।पोल्ट्री-फार्मों में भी इनका प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है।चूजे और गिद्ध को एण्टीबायोटिक्स की हल्की मात्रा वजन वृद्धि हेतु दी जाती है और उनका व्यापारिक शोषण किया जाता है।बुद्धिधारियो ! जरा गम्भीर चिन्तन करें।ऐसे अण्डे, मांस खाने वालों पर इसका क्या दुष्परिणाम होगा?क्या यह मनुष्य समाज पर अभिशाप सिद्ध नहीं होगा ?_

_(4) अण्डे में १३.३ प्रतिशत, हरे चने में २४ तथा मूंगफली में ३१.५ प्रतिशत और सोयाबीन में ४३.२ प्रतिशत प्रोटीन होता है।एक अण्डे से ८६.५ प्रतिशत कैलोरिज़ मिलती है जबकि गेहूं के आटे से १७६.५ प्रतिशत कैलोरिज प्राप्त होती है।अण्डे कोई कैल्शियम का स्रोत भी नहीं हैं।एक अण्डे में ३० मि०ग्रा० कैल्शियम मिलता है जो कि लगभग १५ पैसे में उपलब्ध हो जाता है, इसके विपरित ७५ ग्राम सरसों की भाजी में ३० मि०ग्रा० कैल्शियम सस्ते भाव में प्राप्त हो सकता है।दूध और अण्डे को समान मानना बहुत भारी भूल सिद्ध होगी।अण्डे में विटामिन बी-२, बी-१२, तथा कैल्शियम होते हैं।अण्डे को पकाने में या तलने में बी-१, बी-२, पच्चीस प्रतिशत तक नष्ट हो जाता है और बी-१२ भी अंशतः नष्ट हो जाता है।_

_(5) भारतीय धर्म, संस्कृति अण्डे,मांस के पक्ष में नहीं है।*अथर्ववेद ८।६।१२ में स्पष्ट है कि―"मैं उन दुष्टों को नष्ट करता हूँ जो अण्डे, मांस खाते हैं।"* अण्डे कई बार एनीमल हायपर सेंसिटिविटि (पाशविक अति संवेदनशीलता) उत्पन्न कर देते हैं।परिणामतः अण्डाहारी बर्बर आदतों से नहीं चूकता। उसकी भावनाओं में जोश ही जोश होता है , होश नहीं।अतः परिणाम बहुत भयंकर भुगतने पड़ते हैं।बाद में तो केवल पछताना ही उसके पास रह जाता है।_

_(6) अण्डा कभी शाकाहारी नहीं होता। यह भ्रामक नामकरण है कि सेये हुए अण्डे का कोई प्राणिक उद्देश्य होता है, अनिषेचित अण्डे का कोई प्राणिक उद्देश्य नहीं होता। इसे अखाद्य मानना चाहिए।_

_सच्चाई तो यह है कि ये मनुष्य के सेवन हेतु नहीं बना।यह तो सेवन करने वाले को ही अप्राकृतिक बना देता है।पश्चिम देशों में अब इसे पौष्टिक आहार की श्रेणी में नहीं रखते।वहाँ इसका प्रयोग निषेध रुप में पाया जा रहा है।यदि चिन्तन करें तो विदित होगा कि मनुष्य मूलतः ‘मस्तिष्क’ है 'पेट’ नहीं।विभिन्न अध्ययन, अनुसन्धान स्पष्ट करते हैं कि अण्डाहारी का मस्तिष्क तानाशाही, अशालीनता और अपराधीवृत्ति की और झुक जाता है।भारतीय संस्कृति और सभ्यता में हमारे धार्मिक ग्रन्थ मनुष्य को यही चेतावनी देते आए हैं कि" जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन, जैसा पीए पानी, वैसी बोले वाणी" । अर्थात् तामसिक पाशविक भोजन मानव की वृद्धि और विकास नहीं बल्कि उसके अधोपतन का कारण बनता है।_


from Tumblr http://ift.tt/2d9bGxY
via IFTTT

Tuesday, September 27, 2016

દુશ્મની માં ખાનદાની નું ઉત્કૃષ્ઠ ઉદાહરણ:– સત્યઘટના છે: - ગોંડલ રાજાના કુંવર, સંગ્રામજીના...

દુશ્મની માં ખાનદાની નું ઉત્કૃષ્ઠ ઉદાહરણ:–

સત્યઘટના છે: -

ગોંડલ રાજાના કુંવર, સંગ્રામજીના દિકરા, નામ એનુ પથુભા. નાની ઉંમર એમની. કોઈ કામ સબબ એમને કુંભાજીની દેરડી કેવાય છે ત્યા જવાનુ બનેલું. એટલે ૨૫-૩૦ ઘોડેસવારોની સાથે પોતે નીકળ્યા.

એમા કુકાવાવના પાદરમા પહોચ્યા. ઘોડાઓ નદિમા પાણી પીએ છે.

કુંવર (માણસોને) : હવે દેરડી કેટલુ દુર છે?

માણસો : કેમ કુંવરસાબ?

કુંવર : મને ભુખ બહુ લાગી છે.

માણસો : બાપુ, હવે દેરડી આ રહ્યુ, અહિથી ૪ માઇલ દેરડી આઘુ છે, આપણે ઘોડા ફેટવીએ એટલે હમણા આપણે ન્યા પોગી જાઈ અને ત્યા ડાયરો ભોજન માટે આપણી વાટ જોતો હશે.

કુંવર : ના, મારે અત્યારે જ જમવુ છે.

આ તો રાજાનો કુંવર એટલે બાળહઠ ને રાજહઠ બેય ભેગા થ્યા.

એટલામા કુકાવાવનો એક પટેલ ખેડુત પોતાનુ બળદગાડું લઈને નીકળ્યો ને એણે કુંવરની વાત સાંભળી એટલે આડા ફરીને રામ રામ કર્યા ને કિધુ કે, “ખમ્મા ઘણી બાપુને, આતો ગોંડલનું જ ગામ છે ને, પધારો મારા આંગણે.”

કુંવર અને માણસો પટેલની ઘરે ગ્યા.

ઘડિકમા આસન નખાઇ ગ્યા, આ બાજુ ધિંગા હાથવાળી પટલાણીયુ એ રોટલા ઘડવાના શરૂ કરી દિધા, રિંગણાના શાક તૈયાર થઈ ગ્યા, મરચાના અથાણા પીરસાણા અને પોતાની જે કુંઢિયુ બાંધેલી એની તાજી માખણ ઉતારેલી છાશું પીરસાણી.

કુંવર જમ્યા ને મોજના તોરા મંડ્યા છુટવા કે શાબાશ મારો ખેડુ, શાબાશ મારો પટેલ અને આદેશ કર્યૌ કે બોલાવો તલાટીને, ને લખો, “કે હુ કુવર પથુભા કુકાવાવમા પટેલે મને જમાડ્યો એટલે હું પટેલને ચાર સાતીની ઉગમણા પાદરની જમીન આપુ છું.” ને નિચે સહિ કરી ને ઘોડે ચડિને હાલતા થ્યા.

કુંવર ગયા પછી તલાટી જે વાણિયો હતો તે ચશ્મામાંથી મરક મરક દાંત કાઢવા લાગ્યો ને પટેલને કિધુ કે, “પટેલ, આ દસ્તાવેજને છાશમા ઘોળીને પી જાવ. આ ક્યા ગોંડલનુ ગામ છે કે કુંવર તમને જમીન આપી ને વ્યા ગ્યા.”આ તો કાઠી દરબાર જગા વાળા નુ ગામ છે.

પટેલને બિચારાને દુઃખ બહુ લાગ્યુ અને આખુ ગામ પટેલની મશ્કરી કરવા લાગ્યુ.

પટેલને ધરતી માર્ગ આપે તો સમાઈ જવા જેવુ થ્યુ. પણ એક વાત નો પોરસ છે કે કુંવરને મે જમાડ્યા.

ઉડતી ઉડતી એ વાત જેતપુર દરબાર જગાવાળાને કાને પડી.

એમણે ફરમાન કીધુ
કે -“બોલાવો પટેલને અને એને કેજો કે સાથે દસ્તાવેજ પણ લાવે.”

પટેલ બીતા-બીતા જેતપુર કચેરીમા આવે છે.

જગાવાળા : પટેલ, મે સાંભળ્યુ છે કે મારા દુશ્મન ગોંડલના કુંવર પથુભા કુકાવાવ આવ્યાતા ને તમે એને જમાડ્યા. સાચું ?

પટેલ : હા બાપુ, એમને ભુખ બહુ લાગીતી એટલે મે એને જમાડ્યા.

જગાવાળા : હમ્મ્મ્મ અને એણે તમને ચાર સાતીની જમીન લખી આપી એય સાચું ?

પટેલ : હા બાપુ એને એમ કે આ ગોંડલનુ ગામ છે એટલે આ દસ્તાવેજ લખી આપ્યો.

ત્યારે જગાવાળાએ પોતાના માણસોને કિધુ કે - તાંબાના પતરા પર આ દસ્તાવેજમા જે લખેલ છે એ લખો અને નીચે લખો કે, “મારા પટેલે મારા દુશ્મનને જમાડ્યો એટલે મારી વસ્તીએ મને ભુંડો નથી લાગવા દિધો. એટલે હું જગાવાળો, જેતપુર દરબાર, પટેલને બીજી ચાર સાતીની જમીન આપુ છુ અને આ આદેશ જ્યા સુધી સુર્યને ચાંદો તપે ત્યા સુધી મારા વંશ વારસોએ પાળવાનો છે અને જે નહિ પાળે એને ગૌહત્યાનુ પાપ છે”
એમ કહીને નીચે જગાવાળાએ સહિ કરિ નાખી,

અને એક પત્ર ગોંડલ લખ્યો કે, “સંગ્રામજીકાકા તારો કુંવર તો દેતા ભુલ્યો, કદાચ આખુ કુકાવાવ લખી દિધુ હોત ને તોય એય પટેલ ને આપી દેત.”

આ વાતની ખબર સંગ્રામસિંહજીને પડતા એને પણ પોરસના પલ્લા છુટવા માંડ્યા કે “વાહ જગાવાળા શાબાશ બાપ! દુશ્મન હોય તો આવો. જા બાપ તારે અને મારે કુકાવાવ અને બીજા ૧0 ગામનો જે કજિયો ચાલે છે
તે તને માંડિ દવ છું…!“

આનુ નામ દુશ્મન કેવાય, આને જીવતરના મુલ્ય કેવાય.
વેરથી વેર ક્યારેય શમતુ નથી એને આમ મિટાવી શકાય,
આવા અળાભીડ મર્દો આ ધરતિમા જન્મ્યા.

ધન્ય છે…

” આપણી સંસ્કૃતિ અને આપણો વારસો “


from Tumblr http://ift.tt/2d7awSL
via IFTTT

Monday, September 26, 2016

*मधुमेह पर राजयोग का प्रयोग* *✿>>*♛ मैं एक चैतन्य शक्ति आत्मा हूँ परम् पिता परमात्मा मेरे...

*मधुमेह पर राजयोग का प्रयोग*

*✿>>*♛ मैं एक चैतन्य शक्ति आत्मा हूँ परम् पिता परमात्मा मेरे परम चिकित्सक है। पवित्रता, शान्ति और शक्ति की किरणें परमात्मा से उतारकर मुझ आत्मा पर पढ़ रही है। मैं आत्मा परमात्मा की शक्तिशाली किरणों से भरपूर हो रही हूँ। अब इन अद्भुत किरणों को मैं अपने शरीर के भीतर प्रवाहित कर रही हूँ। ये किरणे पेट के वरिष्ठ भाग में स्थित पैंक्रियास ग्रंथि पर पढ़ रही है अब मैं इनके अलौकिक प्रभाव को देख रही है। मेरे पैंक्रियास के अंदर बिता सेल्स जो की लगभग नष्ट हो चुके थे अब उनका निर्माण होना शुरू हो रहा है। इन नवनिर्मित बीटा सेल्स से आवश्यक मात्रा में इन्सुलिन बनता जा रहा है ..। फिर से मेरी एक एक कोशिका के भीतर ग्लूकोस बड़ी आसानी से पहुँच रहा है। मेरा इन्सुलिन रजिस्ट्रेशन भी अब खत्म हो रहा है। ग्लूकोस हर कोशिका के अंदर जा कर पर्याप्त शक्ति का संचार कर रही है। अब मैं आत्मा देख रही हूँ की कैसे मेरे रक्त में ग्लूकोस की मात्रा का स्तर सामान्य होता जा रहा है। मेरा हर अंग परमात्मिक प्रकाश से प्रभावित हो स्वस्थ होता जा रहा है। मधुमेह से ग्रस्त सभी विकृतियां दूर हो रही हैं। मेरे रक्त में वसा की मात्रा भी संतुलित हो रही है। मैं अपने शरीर को अब स्वस्थ रूप में अब देख रही हूँ, ईश्वर के शक्तिशाली प्रकम्पन से आत्मा के साथ साथ शरीर भी सतोप्रधान और पावन होता जा रहा है। अब मैं स्वयं को एवेरहेल्थी महसूस कर रही हूँ और सुखद जीवन जीने का मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है।

*अभ्यास*

रोज़ाना सुबह और शाम कम से कम 5 मिनट करें। इससे तन और मन दोनों स्वस्थ होते जा रहे हैं।


from Tumblr http://ift.tt/2cYWx27
via IFTTT

सत्संग का महत्व नियमित सत्संग में आने वाले एक आदमी नें जब एक बार सत्संग में यह सुना कि जिसने जैसे...

सत्संग का महत्व

नियमित सत्संग में आने वाले एक
आदमी नें जब एक बार सत्संग में
यह सुना कि जिसने जैसे कर्म किये
हैं उसे अपने कर्मो अनुसार वैसे ही
फल भी भोगने पड़ेंगे । यह सुनकर
उसे बहुत आश्चर्य हुआ अपनी आशंका
का समाधान करने हेतु उसने सतसंग
करने वाले संत जी से पूछा….. अगर
कर्मों का फल भोगना ही पड़ेंगा तो
फिर सत्संग में आने का किया फायदा
है…..?
संत जी नें मुसकुरा कर उसे देखा
और एक ईंट की तरफ इशारा
कर के कहा की तुम इस ईंट को छत
पर ले जा कर मेरे सर पर फेंक दो ।
यह सुनकर वह आदमी बोला संत जी
इससे तो आपको चोट लगेगी दर्द होगा ।
मैं यह नहीं कर सकता…..
संत ने कहा….अच्छा, फिर उसे उसी
ईंट के भार के बराबर का रुई का
गट्ठा बांध कर दिया और कहा अब
इसे ले जाकर मेरे सिर पे फैंकने से
भी कया मुझे चोट लगेगी….??
वह बोला नहीं…..
संत ने कहा…..
बेटा इसी तरह सत्संग में आने से
इन्सान को अपने कर्मो का बोझ
हल्का लगने लगता है और वह हर
दुःख तकलीफ को परमात्मा की
दया समझ कर बड़े प्यार से सह
लेता है ।
सत्संग में आने से इन्सान का मन
निरमल होता है और वह मोह माया
के चक्कर में होने वाले पापों से भी
बचा रहता है और अपने सतगुरु की
मौज में रहता हुआ एक दिन अपने
निज घर सतलोक पहुँच जाता है,
जहाँ केवल सुख ही सुख है….
🙏🙏


from Tumblr http://ift.tt/2dn05xA
via IFTTT

मॆनॆ ढुंढा अपना शरीर वामॆ पाया अलख अमिर मांइ मॆ ताॆ बन गया फकिर जी ✺प जनमाॆ जनम का मॆल चडिया धॆाबी...

मॆनॆ ढुंढा अपना शरीर
वामॆ पाया अलख अमिर
मांइ मॆ ताॆ बन गया फकिर जी
✺प
जनमाॆ जनम का मॆल चडिया
धॆाबी मीलीया पीर जी
घर्म घाट पॆ दॆ पछाडा
नहाया निरमळ निर
मांइ मॆ ताॆ बन गया फकिर जी
✺र
अल्लाहु का जाप जपीया
तब ताॆ आइ धीर जी
नुरता सुरता ऎक किनी
हुवा मनवा स्थीर
मांइ मॆ ताॆ बन गया फकिर जी
✺ब
बिन बादल ऎक बिजली चमकॆ
जरमर बरसॆ निर जी
अनहद निशदिन नाॆबत बाजॆ
ग्नान घर हॆ गंभीर
मांइ मॆ ताॆ बन गया फकिर जी
✺त
सुरता सुनमॆ आंय ठॆहरी
अवघट घाट कॆ तीर जी
तन काॆ ताॆडा मन काॆ जाॆडा
कंचन हुवा हॆ शरीर
मांइ मॆ ताॆ बन गया फकिर जी

डुंगर चडीया दॆखी मढीया
भया मॆ शुरविर जी
दास सत्तार गुरु क्रिपा सॆ
अमर हुइ जागीर
मांइ मॆ ताॆ बन गया फकिर जी

✺टाइपींग~परबत गाॆरीया✺


from Tumblr http://ift.tt/2d5m4Wt
via IFTTT

Sunday, September 25, 2016

“अविभक्त; विभक्त जैसे’ -आचार्यश्री राजेष मंत्र: चक्षुर्मुसलं काम उलूखलम्। दितिः...

“अविभक्त; विभक्त जैसे’
-आचार्यश्री राजेष

मंत्र:
चक्षुर्मुसलं काम उलूखलम्।
दितिः शूर्पमदितिः शूर्पग्राही वातोऽपाविनक्।।
(अथर्ववेद 11.3.3,4)

भावार्थ:
ओखली में ड़ालकर धान को मारते जैसे ब्रह्मजिज्ञासु इस ब्राहृाण्ड में ब्रह्म को देखने या समझने का परिश्रम करते है। पृथक करके धान से छिलके को निकालते जैसे सत्त्वबुद्धि द्वारा वह विराट शरीर में से परमात्मा को पृथक करके समझ लेता है।

भाष्य:
भगवद्गीता के क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग के सत्रहवाँ श्लोक में इसी अथर्ववेद मंत्र के बारे में ही बोल दिया है। "दितिः शूर्पं
अदितिः शूर्पग्राही’ ये मंत्रांश गीताश्लोक में "अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव स्थितं’- ऐसा विवरण किया है। "दितिः’ का मतलब विभाजन करने योग्य (विभक्तं) है और अविभजनीय पदार्थों को "अदितिः” शब्द से कहा गया है। ये दोनों शब्द “दो अवखण्डने’ - धातु से निष्पन्न हुआ है। ये मंत्र क्या बता रहा है? मंत्र में से "शूर्पं’ शब्द देखिए, पाणिनीय धातुपाठ में "शूर्प माने’ - ऐसा धात्वर्थ को देख सकता है। परिमेय व्यक्त पदार्थों को शूर्प शब्द से कहा गया तो वे अपरिमेय एवं अव्यक्त ब्रह्म को ही शूर्पग्राही समझना चाहिए। क्योंकि सूर्यचन्द्रादि सब पदार्थ वे प्रभु में ही आधारित हैं। वे ब्रह्म विविध वस्तुओं में विविध रूप में प्रकट होते हैं। ऐसे अविभक्त परमात्मा विभक्त जैसा स्थित है। यही गीता श्लोक में भी कहा जाता है। लेकिन बहुत सारे लोग गीताश्लोक को अपनी-अपनी मनमाने ढंग से व्याख्यान किया है। घट, आकाश आदि उदाहरण लेकर अज्ञानरूपी उपाधी से ब्रह्म जीव हो जाता है- ऐसा कहे गये हैं। ये तो ठीक नहीं, क्योंकि इस अथर्वमंत्रों का पूर्व मंत्र में ऐसा कहा है कि "द्यावापृथिवी श्रोत्रे सूर्याचन्द्रमसावक्षिणी’ - अर्थात् द्युलोक और पृथिवीलोक उनके कानों तथा सूर्यचन्द्रादि उनके आँखें हैं। इससे सुव्यक्त होता है कि इधर प्रपंच रूपी विराट् शरीर का वर्णन किया है, मनुष्य शरीर का नहीं। वेदों पर आधारित किये बिना गीता श्लोकों को भाष्य लिखने पर ही ऐसा खलत अर्थ भगवद्गीता श्लोकों पर आरोपित होता है।


from Tumblr http://ift.tt/2dl5eXn
via IFTTT

ओ३म् *🌷ईश्वर का आश्रय ही सबसे बड़ा आश्रय🌷* ईश्वर कहता है― *अहमिन्द्रो न परा जिग्य इद्धनं न...

ओ३म्

*🌷ईश्वर का आश्रय ही सबसे बड़ा आश्रय🌷*


ईश्वर कहता है―

*अहमिन्द्रो न परा जिग्य इद्धनं न मृत्यवेऽव तस्थे कदा चन ।*
*सोममिन्मा सुन्वतो याचता वसु न मे पूरवः सख्ये रिषाथन ।।*
―(ऋ० १०/४८/५)

*भावार्थ―*मैं परमैश्वर्यवान् सूर्य के सदृश सब जगत् का प्रकाश हूँ। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूँ।मैं ही जगद्रूप धन का निर्माता हूँ। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले मुझ ही को जानो। हे जीवो ! ऐश्वर्य-प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझसे माँगो और तुम लोग मेरी मित्रता से अलग मत होओ।

कठोपनिषद् में यमाचार्य ने ईश्वर को ही परमाश्रय बताते हुए कहा है―

*एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।*
*एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ।।*
―(कठ० २/१७)

*अर्थात्―*यह आश्रय श्रेष्ठ है, यह आश्रय सर्वोपरि है। इस आलम्बन को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक में आनन्दित होता है।

ईश्वर को परमाश्रय मानने की बात कवि रहीम ने सुन्दर शब्दों में कही है―

*अमरबेलि बिन मूल की, प्रतिपालत है ताहि ।*
*रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ।।*

*अर्थात्―*जो परमात्मा बिना जड़ की अमरबेल को पालता है, ऐसे प्रभु को छोड़कर तुम किसको खोजते हो? अर्थात् ईश्वर का सहारा पकड़ो, और किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है।

*अतः मनुष्य को ईश्वर पर ही भरोसा रखना चाहिए। बच्चों के समान दिये गये झूठे दिलासों से क्या होता है ?*

भर्तृहरि जी ने इस सनदर्भ में धनवानों के दरवाजे पर जाकर माँगने वालों को एक उपयोगी परामर्श दिया है―

*नायं ते समयो रहस्यमधुना निद्राति नाथो यदि*
*स्थित्वा द्रक्ष्यति कुप्यति प्रभुरिति द्वारेषु येषां वचः ।*
*चेतस्तानपहाय याहि भवनं देवस्य विश्वेशितुर्*
*निर्द्रौर्वारिक निर्दयोक्त्यपरुषं निःसीमशर्मप्रदम् ।।*
―(वै० श० ८५)

*अर्थात्―*जब कोई याचक धनवान् के दरवाजे पर जाता है तो दरबान उससे कहता है कि अभी उनसे मिलने का समय नहीं हैं, वे अभी गुप्त परामर्श कर रहे हैं। अभी स्वामी तो सो रहे हैं। यदि स्वामी ने तुम्हें देख लिया तो क्रोध प्रकट करेंगे। हे मन ! जिनके दरवाजे पर ऐसी बातें सुननी पड़ती हैं तू उनके दरवाजे को छोड़कर उस परमपिता परमात्मा के दरवाजे पर जा जहाँ तुझे कोई दरबान नहीं मिलेगा। वहाँ कठोर बात सुनने को नहीं मिलेगी। परमात्मा का भवन असीम कल्याण का देने वाला है।

*सच्चे विरक्त केवल ईश्वर के आगे ही झुकते हैं। वे संसार के किसी शासक के आगे नहीं झुकते। एक बार लोगों ने सिकन्दर लोधी से सन्त कबीर की शिकायत की कि वे इस्लाम का खण्डन करके अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं।सिकन्दर लोधी ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया। सन्त कबीर ने न लोधी का अभिवादन किया न सत्कार। सिकन्दर लोधी ने इसका कारण पूछा। उन्होंने उत्तर दिया कि मैं केवल ईश्वर के आगे ही सिर झुकाता हूँ; अन्य किसी राजा के आगे शीश नहीं झुकाता। बादशाह ने उनके हाथों में हथकड़ी और पाँव में बेड़ी डलवाकर नदी में छुड़वा दिया। सन्त कबीर को कोई हानि नहीं हुई। अन्त में सिकन्दर लोधी को बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसने कबीर से क्षमा माँगी।*

*महर्षि दयानन्द भी परमात्मा को परमाश्रय समझते थे। उदयपुर के महाराणा ने जब महर्षि से यह कहा कि “भले ही आप मूर्त्तिपूजा न करें, परन्तु मूर्त्तिपूजा का खण्डन न करें।” तो इस पर महर्षि ने उत्तर दिया, “मैं एक दौड़ लगाऊँ तो भी आपके राज्य को पार कर सकता हूँ, परन्तु यदि जन्म-जन्मान्तर की दौड़ लगाऊँ तो भी परमात्मा के राज्य से बाहर नहीं निकल सकता।बताओ आपकी आज्ञा का पालन करुँ कि ईश्वर की आज्ञा का पालन करुँ ?”*


from Tumblr http://ift.tt/2diWdxK
via IFTTT

दयानंद की गाथा हम आज एक ऋषिराज की पावन कथा सुनाते हैं। आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं।। हम...

दयानंद की गाथा
हम आज एक ऋषिराज की पावन कथा सुनाते हैं।
आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं।।
हम कथा सुनाते हैं…..
हम एक अमर इतिहास के कुछ पन्ने पलटाते हैं।
आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं।
हम कथा सुनाते हैं…..
ऋषिवर को लाख प्रणाम, गुरुवर को लाख प्रणाम।
धर्मधुरन्धर मुनिवर को कोटि-कोटि प्रणाम,
कोटि-कोटि प्रणाम।।
भारत के प्रान्त गुजरात में एक ग्राम है टंकारा।
उस गाँव के ब्राह्मण कुल में जन्मा इक बालक प्यारा।
बालक के पिता थे करसन जी माँ थी अमृतबाई।।
उस दम्पती से हम सबने इक अनमोल निधि पाई।
हम टंकारा की पुण्यभूमि को शीश झुकाते हैं।। 1।।
फिर नामकरण की विधि हुई इक दिन कर्सन जी के
घर।
अमृत बा का प्यारा बेटा बन गया मूलशंकर।।
पाँचवे वर्ष में स्वयं पिता ने अक्षरज्ञान दिया।
आठवें वर्ष में कुलगुरु ने उपवीत प्रदान किया।
इस तरह मूलजी जीवनपथ पर चरण बढ़ाते हैं।। 2।।
जब लगा चौदहवाँ साल तो इक दिन शिवरात्रि
आई।
उस रात की घटना से कुमार की बुद्धि चकराई।।
जिस घड़ि चढ़े शिव के सिर पर चूहे चोरी-चोरी।
मूलजी ने समझी तुरंत मूर्तिपूजा की कमजोरी।
हर महापुरुष के लक्षण बचपन में दिख जाते हैं।। 3।।
फिर इक दिन माँ से पुत्र बोला माँ दुनियाँ है
फानी।
मैं मुक्ति खोजने जाऊँगा पानी है ये जिन्दगानी।।
चुपचाप सुन रहे थे बेटे की बात पिता ज्ञानी।
जल्दी से उन्होंने उसका ब्याह कर देने की ठानी।।
इस भाँति ब्याह की तैयारी करसन जी कराते हैं।।
4।।
शादी की बात को सुनके युवक में क्रान्तिभाव
जागे।
वे गुपचुप एक सुनसान रात में घर से निकल भागे।।
तेजी से मूलजी में आए कुछ परिवर्तन भारी।
दीक्षा लेकर वो बने शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी।।
हम कभी-कभी भगवान की लीला समझ न पाते हैं।।
5।।
फिर जगह-जगह पर घूम युवक ने योगाभ्यास किया।
कुछ काल बाद पूर्णानन्द ने उनको संन्यास दिया।।
जिस दिवस शुद्ध चैतन्य यहाँ संन्यासी पद पाए।
वो स्वामी दयानन्द सरस्वती उस दिन से कहलाए।।
हम जगप्रसिद्ध इस नाम पे अपना हृदय लुटाते हैं।। 6।।
संन्यास बाद स्वामी जी ने की घोर तपश्चर्या।
सच्चे सद्गुरु की तलाश यही थी उनकी दिनचर्या।।
गुजरात से पहुँचे विन्ध्याचल फिर काटा पन्थ बड़ा।
फिर पार करके हरिद्वार हिमालय का रस्ता
पकड़ा।।
अब स्वामीजी के सफर की हम कुछ झलक दिखाते
हैं।। 7।।
तीर्थों में गए मेलों में गए वो गए पहाड़ों में।
जंगल में गए झाड़ी में गए वो गए अखाड़ों में।।
हर एक तपोवन तपस्थलि में योगीराज ठहरे।
पर हर मुकाम पर मिले उन्हें कुछ भेद भरे चेहरे।।
साधू से मिले सन्तों से मिले वृद्धों से मिले स्वामी।
जोगी से मिले यतियों से मिले सिद्धों से मिले
स्वामी।।
त्यागी से मिले तपसी से मिले वो मिले अक्खड़ों से।
ज्ञानी से मिले ध्यानी से मिले वो मिले फक्कड़ों
से।।
पर कोई जादू कर न सका मन पर स्वामी जी के।
सब ऊँची दूकानों के उन्हें पकवान लगे फीके।।
योगी का कलेजा टूट गया वो बहुत हताश हुए।
कोई सद्गुरु न मिला इससे वो बहुत निराश हुए।।
आँखों से छलकते आँसू स्वामी रोक न पाते हैं।। 8।।
इतने में अचानक अन्धकार में प्रकटा उजियाला।
प्रज्ञाचक्षु का पता मिला इक वृद्ध सन्त द्वारा।।
मथुरा में रहते थे एक सद्गुरु विरजानन्द नामी।
उनसे मिलने तत्काल चल पड़े दयानन्द स्वामी।।
आखिर इक दिन मथुरा पहुँचे तेजस्वी संन्यासी।
गुरु के दर्शन से निहाल हुई उनकी आँखे प्यासी।।
गुरु के अन्तर्चक्षुने पात्र को झट पहचान लिया।
उसकी प्रतिभा को पहले ही परिचय में जान
लिया।।
सद्गुरु की अनुमति मांग दयानन्द उनके शिष्य बने।
आगे चलकर के यही शिष्य भारत के भविष्य बने।।
गुरु आश्रम में स्वामी जी ने जमकर अभ्यास किया।
हर विद्या में पारंगत बन आत्मा का विकास
किया।।
जो कर्मठ होते हैं वो मंझिल पा ही जाते हैं।। 9।।
गुरुकृपा से इक दिन योगिराज वामन से विराट बने।
वो पूर्ण ज्ञान की दुनियाँ के अनुपम सम्राट बने।।
सब छात्रों में थे अपने दयानन्द बड़े बुद्धिशाली।
सारी शिक्षा बस तीन वर्ष में पूरी कर ड़ाली।।
जब शिक्षा पूर्ण हुई तो गुरुदक्षिणा के क्षण आए।
मुट्ठीभर लौंग स्वामी जी गुरु की भेंट हेतु लाए।।
जो लौंग दयानन्द लाए थे श्रद्धा से चाव से।
वो लौंग लिए गुरुजी ने बड़े ही उदास भाव से।।
स्वामी ने गुरु से विदा माँगी जब आई विदा घड़ी।
तब अन्ध गुरु की आँख में गंगा-यमुना उमड़ पड़ी।।
वो दृश्य देखकर हुई बड़ी स्वामी को हैरानी।
पर इतने में ही मुख से गुरु के निकल पड़ी वाणी।।
जो वाणी गुरुमुख से निकली वो हम दोहराते हैं।।
10।।
गुरु बोले सुनो दयानन्द मैं निज हृदय खोलता हूँ।
जिस बात ने मुझे रुलाया है वो बात बोलता हूँ।।
इन दिनों बड़ी दयनीय दशा है अपने भारत की।
हिल गईं हैं सारी बुनियादें इस भव्य इमारत की।।
पिस रही है जनता पाखण्डों की भीषण चक्की में।
आपस की फूट बनी है बाधा अपनी तरक्की में।।
है कुरीतियों की कारा में सारा समाज बन्दी।
संस्कृति के रक्षक बनें हैं भक्षक हुए हैं स्वच्छन्दी।।
कर दिया है गन्दा धर्म सरोवर मोटे मगरों ने।
जर्जरित जाति को जकड़ा है बदमाश अजगरों ने।।
भक्ति है छुपी मक्कारों के मजबूत शिकंजों में।
आर्यों की सभ्यता रोती है पापियों के फंदों में।।
गुरु की वाणी सुन स्वामी जी व्याकुल हो जाते हैं।।
12।।
गुरु फिर बोले ईश्वर बिकता अब खुले बजारों में।
आया है भयंकर परिवर्तन आचार-विचारों में।।
हर चबूतरे पर बैठी है बन-ठन कर चालाकी।
उस ठगनी ने है सबको ठगा कोई न रहा बाकी।।
बीमार है सारा देश चल रही है प्रतिकूल हवा।
दिखता है नहीं कोई ऐसा जो इसकी करे दवा।।
हे दयानन्द इस दुःखी देश का तुम उद्धार करो।
मँझधार में है बेड़ा बेटा तुम बेड़ा पार करो।।
इस अन्ध गुरु की यही है इच्छा इस पर ध्यान धरो।
भारत के लिए तुम अपना सारा जीवन दान करो।।
संकट में है अपनी जन्मभूमि तुम जाओ करो रक्षा।
जाओ बेटे भारत के भाग्य का तुम बदलो नक्शा।।
स्वामी जी गुरु की चरणधूल माथे पे लगाते हैं।। 13।।
गुरु की आज्ञा अनुसार इस तरह अपने ब्रह्मचारी।
करने को देश उद्धार चल पड़े बनके क्रान्तिकारी।।
कर दिया शुरु स्वामी जी ने एक धुँआधार दौरा।
हर नगर-गाँव के सभी कुम्भकर्णों को झँकझोरा।।
दिन-रात ऋषि ने घूम-घूम कर अपना वतन देखा।
जब अपना वतन देखा तो हर तरफ घोर पतन देखा।।
मन्दिरों पे कब्जा कर लिया था मिट्टी के
खिलौनों ने।
बदनाम किया था भक्ति को बदनीयत बौनों ने।।
रमणियाँ उतारा करती थी आरती महन्तों की।
वो दृश्य देखती रहती थी टोली श्रीमन्तों की।।
छिप-छिप कर लम्पट करते थे परदे में प्रेमलीला।
सारे समाज के जीवन का ढाँचा था हुआ ढीला।।
यह देख ऋषि सम्पूर्ण क्रान्ति का बिगुल बजाते हैं।।
14।।
क्रान्ति का करके ऐलान ऋषि मैदान में कूद पड़े।
उनके तेवर को देख हो गए सबके कान खड़े।।
इक हाथ में था झंडा उनके इक हाथ में थी लाठी।
वो चले बनाने हर हिन्दू को फिर से वेदपाठी।।
हरिद्वार में कुम्भ का मेला था ऐसा अवसर पाकर।
पाखण्ड खण्डनी ध्वजा गाड़ दी ऋषि ने वहाँ
जाकर।।
फिर लगे घुमाने संन्यासी जी खण्डन का खाण्डा।
कितने ही गुप्त बातों का उन्होंने फोड़ दिया
भाँडा।।
धज्जियाँ उड़ा दी स्वामी ने सब झूठे ग्रन्थों की।
बखिया उधेड़ कर रख दी सारे मिथ्या पन्थों की।।
ऋषिवर ने तर्क तराजू पर सब धर्मग्रन्थ तोले।
वेदों की तुलना में निकले वो सभी ग्रन्थ पोले।।
वेदों की महत्ता स्वामी जी सबको समझाते हैं।।
15।।
चलती थी हुकूमत हर तीरथ में लोभी पण्ड़ों की।
स्वामी ने पोल खोली उनके सारे हथकण्ड़ों की।।
आए करने ऋषि का विरोध गुण्डे हट्टे-कट्टे।
पर अपने वज्रपुरुष ने कर दिए उनके दाँत खट्टे।।
दुर्दशा देश की देख ऋषि को होती थी ग्लानि।
पुरखों की इज्जत पर फेरा था लुच्चों ने पानी।।
बन गए थे देश के देवालय लालच की दुकानें।
मन्दिरों में राम के बैठी थीं रावण की सन्तानें।।
स्वामी ने हर भ्रष्टाचारी का पर्दाफाश किया।
दम्भियों पे करके प्रहार हरेक पाखण्ड का नाश
किया।।
लाखों हिन्दू संगठित हुए वैदिक झंडे के तले।
जलनेवाले कुछ द्वेषी इस घटना से बहुत जले।।
इस तरह देश में परिवर्तन स्वामी जी लाते हैं।। 16।।
कुछ काल बाद स्वामी ने काशी जाने की ठानी।
उस कर्मकाण्ड की नगरी पर अपनी भृकुटि तानी।।
जब भरी सभा में स्वामी की आवाज बुलन्द हुई।
तब दंग हो गए लोग बोलती सबकी बन्द हुई।।
वेदों में मूर्तिपूजा है कहाँ स्वामी ने सवाल किया।
इस विकट प्रश्न ने सभी दिग्गजों को बेहाल
किया।।
काशीवालों ने बहुत सिर फोड़ा की माथापच्ची।
पर अन्त में निकली दयानन्द जी की ही बात
सच्ची।।
मच गया तहलका अभिमानी धर्माधिकारियों में।
भारी भगदड़ मच गई सभी पंडित-पुजारियों में।
इतिहास बताता है उस दिन काशी की हार हुई।
हर एक दिशा में ऋषिराजा की जय-जयकार हुई।।
अब हम कुछ और करिश्में स्वामी के बतलाते हैं।। 17।।
उन दिनों बोलती थी घर-घर में मर्दों की तूती।
हर पुरुष समझता था औरत को पैरों की जूती।।
ऋषि ने जुल्मों से छुड़वाया अबला बेचारी को।
जगदम्बा के सिंहासन पर बैठा दिया नारी को।।
बदकिस्मत बेवाओं के भाग भी उन्होंने चमकाए।
उनके हित नाना नारी निकेतन आश्रम खुलवाए।।
स्वामी जी देख सके ना विधवाओं की करुण व्यथा।
करवा दी शुरु तुरन्त उन्होंने पुनर्विवाह प्रथा।।
होता था धर्म परिवर्तन भारत में खुल्लम-खुल्ला।
जनता को नित्य भरमाते थे पादरी और मुल्ला।।
स्वामी ने उन्हें जब कसकर मारा शुद्धि का चाँटा।
सारे प्रपंचियों की दुनियाँ में छा गया सन्नाटा।।
फिर भक्तों के आग्रह से स्वामी मुम्बई जाते हैं।।
18।।
भारत के सब नगरों में नगर मुम्बई था भाग्यशाली।
ऋषि जी ने पहले आर्य समाज की नींव यहीं
डाली।।
फिर उसी वर्ष स्वामी से हमें सत्यार्थ प्रकाश
मिला।
मन पंछी को उड़ने के लिए नूतन आकाश मिला।।
सदियों से दूर खड़े थे जो अपने अछूत भाई।
ऋषि ने उनके सिर पर इज्जत की पगड़ी बँधवाई।।
जो तंग आ चुके थे अपमानित जीवन जीने से।
उन सब दलितों को लगा लिया स्वामी ने सीने से।।
मुम्बई के बाद इक रोज ऋषि पंजाब में जा निकले।
उनके चरणों के पीछे-पीछे लाखों चरण चले।।
लाखों लोगों ने मान लिया स्वामी को अपना गुरु।
सत्संग कथा प्रवचन कीर्तन घर-घर हो गए शुरु।।
स्वामी का जादू देख विरोधी भी चकराते हैं।।
19।।
पंजाब के बाद राजपूताना पहुँचे नरबंका।
देखते-देखते बजा वहाँ भी वेदों का डंका।।
अगणित जिज्ञासु आने लगे स्वामी की सभाओं में।
मच गई धूम वैदिक मन्त्रों की दसों दिशाओं में।।
सब भेद भाव की दीवारों को चकनाचूर किया।
सदियों का कूड़ा-करकट स्वामी जी ने दूर किया।।
ऋषि ने उपदेश से लाखों की तकदीर बदल डाली।
जो बिगड़ी थी वर्षों से वो तस्वीर बदल ड़ाली।।
फिर वीर भूमि मेवाड़ में पहुँचे अपने ऋषि ज्ञानी।
खुद उदयपुर के राणा ने की उनकी अगुवानी।।
राणा ने उनको देनी चाही एकलिंग जी की गादी।
पर वो महन्त की गादी ऋषि ने सविनय ठुकरा दी।।
इतने में जोधपुर का आमन्त्रण स्वामी पाते हैं।। 20।।
उन दिनों जोधपुर के शासन की बड़ी थी बदनामी।
भक्तों ने रोका फिर भी बेधड़क पहुँच गए स्वामी।।
जसवतसिंह के उस राज में था दुष्टों का बोलबाला।
राजा था विलासी इस कारण हर तरफ था
घोटाला।।
एक नीच तवायफ बनी थी राजा के मन की रानी।।
थी बड़ी चुलबुली वो चुड़ैल करती थी मनमानी।
स्वामी ने राजा को सुधारने किए अनेक जतन।।
पर बिलकुल नहीं बदल पाया राजा का चाल-चलन।।
कुलटा की पालकी को इक दिन राजा ने दिया
कन्धा।
स्वामी को भारी दुःख हुआ वो दृश्य देख गन्दा।।
स्वामी जी बोले हे राजन् तुम ये क्या करते हो।
तुम शेर पुत्र होकर के इक कुतिया पर मरते हो।।
स्वामी जी घोर गर्जन से सारा महल गुँजाते हैं।।
21।।
राजा ने तुरत माफी माँगी होकर के शर्मिन्दा।
पर आग-बबूला हो गई वेश्या सह न सकी निन्दा।।
षडयन्त्र रचा ऋषि के विरुद्ध कुलटा पिशाचिनी ने।
जहरीला जाल बिछाया उस विकराल साँपिनी
ने।।
वेश्या ने ऋषि के रसोइये पर दौलत बरसा दी।
पाकर सम्पदा अपार वो पापी बन गया अपराधी।।
सेवक ने रात में दूध में गुप-चुप संखिया मिला दिया।
फिर काँच का चूरा ड़ाल ऋषिराजा को पिला
दिया।।
वो ले ऋषि ने पी लिया दूध वो मधुर स्वाद वाला।
पर फौरन स्वामी भाँप गए कुछ दाल में है काला।।
अपने सेवक को तुरन्त ही बुलवाया स्वामी ने।
खुद उसके मुख से सकल भेद खुलवाया स्वामी ने।।
पश्चातापी को महामना नेपाल भगाते हैं।। 22।।
आए डाक्टर आए हकीम और वैद्यराज आए।
पर दवा किसी की नहीं लगी सब के सब घबराए।।
तब रुग्ण ऋषि को जोधपुर से ले जाया गया आबू।
पर वहाँ भी उनके रोग पे कोई पा न सका काबू।।
आबू के बाद अजमेर उन्हें भक्तों ने पहुँचाया।
कुछ ही दिन में ऋषि समझ गए अब अन्तकाल आया।।
वे बोले हे प्रभू तूने मेरे संग खूब खेल खेला।
तेरी इच्छा से मैं समेटता हूँ जीवनलीला।।
बस एक यही बिनति है मेरी हे अन्तर्यामी।
मेरे बच्चों को तू सँभालना जगपालक स्वामी।।
जब अन्त घड़ि आई तो ऋषि ने ओ3म् शब्द बोला।
केवल ओम् शब्द बोला।
फिर चुपके से धर दिया धरा पर नाशवान् चोला।।
इस तरह ऋषि तन का पिंजरा खाली कर जाते हैं।।
23।।
संसार के आर्यों सुनो हमारा गीत है इक गागर।
इस गागर में हम कैसे भरें ऋषि महिमा का सागर।।
स्वामी जी क्या थे कैसे थे हम ये न बता सकते।
उनकी गुण गरिमा अल्प समय में हम नहीं गा सकते।।
सच पूछो तो भगवान का इक वरदान थे स्वामी जी।
हर दशकन्धर के लिए राम का बाण थे स्वामी जी।।
प्रतिभा के धनि एक जबरदस्त इन्सान थे स्वामी जी।
हिन्दी हिन्दू और हिन्दुस्थान के प्राण थे स्वामी
जी।।
क्या बर्मा क्या मॉरिशस क्या सुरिनाम क्या
फीजी।
इन सब देशों में विद्यमान् हैं आज भी स्वामी जी।।
केनिया गुआना त्रिनिदाद सिंगापुर युगण्डा।
उड़ रहा सब जगह बड़ी शान से आर्यों का झंड़ा।।
हर आर्य समाज में आज भी स्वामी जी मुस्काते हैं।।
24।।
ओ३म


from Tumblr http://ift.tt/2cVcDJQ
via IFTTT

मंडल कमीशन की रिपोर्ट : भारत का विशालतम ‪फर्जीवाड़ा‬ 👇🏽👇🏽👇🏽👇🏽👇🏽 मंडल कमीशन‬ की रिपोर्ट पढ़ रहा हूँ....

मंडल कमीशन की रिपोर्ट : भारत का विशालतम ‪फर्जीवाड़ा‬ 👇🏽👇🏽👇🏽👇🏽👇🏽
मंडल कमीशन‬ की रिपोर्ट पढ़ रहा हूँ. 200 प्रतिशत फर्जीवाड़ा है ये दस्तावेज़. दिल्ली के aircondition कमरे मे बैठकर तैयार की गई. पता नहीं किसी ने आज तक इसको ध्यान से क्यों नहीं पढ़ा? परिणाम पहले से रेडीमेड था, बाकी डाटा की खानापूर्ति बाद में की गई.
मसलन डाटा मांगा गया Sample Survey का 1 प्रतिशत, लेकिन समय कम होने का हवाला देते हुये हर जिले के मात्र 2 गांव और एक कस्बे की सैम्पलिंग हुई. एक जिले के मात्र 2 गाँव का सर्वे पर्याप्त है? और वो भी, कुल अवधि सर्वे के टीम के गठन से उसके रिज़ल्ट के दाखिले की मात्र 5 महीने.
24 सितम्बर 1979 में पहली बैठक लखनऊ में होती है और 6 मार्च 1980 तक सर्वे के देश भर से आंकड़े तैयार.
इसमें राज्य के statistics ऑफिसर से जिले के ऑफिसर और फिर गाँव में सर्वे करने वाले की ट्रेनिंग का समय भी इसी काल अवधि के बीच है.
क्या मज़ाक है ?
मसलन रिपोर्ट में लिखा है कि ब्रिटिश भारत में जाति के आधार पर जनगणना 1881 से 1931 तक हुई. जबकि जातिगत जनगणना पहली बार 1901 में हुई थी.
H H Risley ने एंथ्रोपोलोजी और nasal base index को आधार बनाकर सोशल Hierarchy तय की थी. मसलन फर्जी गढ़ी हुयी कहानी आर्यन invasion theory , जिसको डॉ अंबेडकर ने 1946 में ही नकार दिया था, उसका समावेश करते हुये लिखा गया कि 3 ऊंचे वर्ण 3 Dominant Caste हैं?
वर्ण और जाति एक ही चीज है?
caste पुर्तगाली शब्द Castas से उद्धृत है इसको बाकायदा परिभाषित किया गया है Imperial Guzzetear Of India में.
जबकि संस्कृत ग्रन्थों के अनुसार ‪‎जाति‬ का अर्थ सुमन और मालती नामक दो पुष्प और सामान्य जन्म भर है इसको कैसे forward और backward को परिभाषित कर पाएंगे?
और वही रिसले People Of India में लिखता है कि आर्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य), जो गोरे रंग के थे, आए और यहाँ के Aborigines की स्त्रियॉं को रखैल बनाया या शादी की, जिससे जातियों का जन्म हुआ? ये गाली बर्दाश्त करने लायक है?
जबकि ‪‎वर्ण‬ का अर्थ है सामाजिक कार्यों का वर्गीकरण और वो भी स्वधर्म यानि अपने प्रवृत्ति के अनुसार वृत्ति का चुनाव क्योंकि जब कौटिल्य लिखते हैं कि यदि एक माँ के चार पुत्र हो और उनमें से एक ब्राह्मण वृत्ति चुने, एक क्षत्रिय वृत्ति चुने, एक वैश्य वृत्ति चुने और एक शूद्र वृत्ति, तो संपत्ति के बँटवारे के समय ब्राह्मण को बकरी, क्षत्रिय को अश्व, वैश्य को गाय और शूद्र को भेड़ दी जाना चाहिए. ये कौटिल्य का GO (शासनादेश) है.
इसीलिए कह रहा हूं कि ‪फर्जी Aryan Invasion theory‬ हमारे संविधान का हिस्सा बन चुका है. ये साज़िश गोरे अंग्रेजों ने रची और काले गुलाम अंग्रेज़ उसको आज भी ढो रहे हैं.
भारत का विशालतम ‪‎फर्जीवाड़ा‬.
http://ift.tt/2dbTPaQ


from Tumblr http://ift.tt/2dieGKT
via IFTTT

समरण करी लॆ तुं साचा धणी नुं ताराॆ नर तन सुधरॆ नफ्फट रॆ समरण करी लॆ तुं साचा धणी नुं ✺प अभीमान...

समरण करी लॆ तुं साचा धणी नुं
ताराॆ नर तन सुधरॆ नफ्फट रॆ
समरण करी लॆ तुं साचा धणी नुं
✺प
अभीमान मुकी दॆ आंधळा तुं
नॆ राम जीभ्या यॆ रट रॆ
जाॆरावर जमडां आवशॆ रॆ
तॆदी वॆराइ जासॆ ताराॆ वट रॆ
समरण करी लॆ तुं साचा धणी नुं
✺र
अचानक जीवनॆ उपाडसॆ ऩॆ
गळी जसॆ गटाॆ गट रॆ
परजाळी दॆशॆ तारा पींड नॆ
तॆदी सरवॆ जाॆवॆ ऎम सावड सट रॆ
समरण करी लॆ तुं साचा धणी नुं
✺ब
उतर दॆवॆा धरम आगळॆ
लॆखुं मांगसॆ जपट रॆ
इ वॆळा छॆ घणी आकरी
तुं काढी नॆ जाजॆ त्यां कपट रॆ
समरण करी लॆ तुं साचा धणी नुं
✺त
पछी अवतार थासॆ ताराॆ अजा तणाॆ
बंधासॆ कसायु ना हाट रॆ
करणी पाॆतॆ कांतुं थशॆ
त्यारॆ तारां शरीर कपासॆ सटाॆसट रॆ
समरण करी लॆ तुं साचा धणी नुं

दास सवाॆ कहॆ त्यां इ ऩथी साॆयलुं
नथी काकाजी नुं हाट रॆ
वात वात मां आवि ग्याॆ वायदाॆ
हवॆ जाजुं शुं कॆवुं चॆताॆ जट रॆ
समरण करी लॆ तुं साचा धणी नुं
✺टाइपींग~परबत गाॆरीया ✺


from Tumblr http://ift.tt/2cUmtfc
via IFTTT

📢 *सनातन धर्म को नष्ट करने हेतु किये गये इस्लामी प्रयासों की एक झलक* इस्लामी शासन काल में...

📢 *सनातन धर्म को नष्ट करने हेतु किये गये इस्लामी प्रयासों की एक झलक*

इस्लामी शासन काल में *षड्यंत्रिक TAX* और सनातन संस्कारों की हानि

*THEY WILL NEVER TEACH YOU THIS IN HISTORY*

इस्लामी आक्रमणों के 1200 वर्षों के इतिहास में धर्म की बहुत हानि हुई, सती प्रथा, बाल विवाह, जात पात, आदि जाने कितनी ही सामाजिक बुराइयां सनातन धर्म को छू गयीं, और जाने कितनी ही विकृतियाँ सनातन धर्म को चोटिल करती रहीं। ऐसी ही कुछ बुराइयों के बारे में भारतवर्ष की इतिहास की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है परन्तु उन्हें पढ़कर लगता है कि वो केवल ऊपरी ज्ञान हैं, और ज्यादातर
बुराइयों को सनातन धर्म से जोड़कर ही दिखा दिया जाता है, परन्तु *ये नहीं बताया जाता कि उन बुराइयों के असली कारण क्या थे*, और किन कारणों से उन बुराइयों का उदय हुआ और विस्तार हुआ?

सनातन संस्कृति के शास्त्रों के अनुसार में मनुष्यों को 16 संस्कारों के साथ अपना जीवन व्यतीत करने का आदेश दिया गया है, जिनके नियम और उद्देश्य अलग-अलग हैं। इस्लामी आक्रमणों से पहले तक संस्कार प्रथा अपने नियमो के अनुसार निरंतर आगे बढ़ रही थी, परन्तु इस्लामी आक्रमणों के बाद और सफलतम अंग्रेजी स्वप्नकार Lord McCauley ने संस्कार पद्धतियों को सनातन संस्कृति से पृथक-सा ही कर दिया। यदि सही शब्दों में कहूँ तो शायद संस्कार प्रथा लुप्तप्राय सी ही हो चुकी है। इस्लामी शासनों के कार्यकालों में किस प्रकार संस्कारों में कमी हुई इसके बारे में आप सबको कुछ बताना चाहता हूँ, कृपया ध्यान से पढ़ें और सबको पढ़ा कर जागरूक करें…

आप सबने इस्लामी शासन कालों में *जजिया और महसूल* के बारे में ही सुना होगा… परन्तु सोचने वाली बात है कि क्या इस्लामी मानसिकता के अनुसार हिन्दुओं पर धर्मांतरण के लिए दबाव बनाने हेतु ये दो ही कर (TAX) काफी थे… ये सोचना ही हास्यापद होगा।

इस्लामी शासन कालों में समस्त 16 संस्कारों पर TAX लगाया जाता था, जिसको की नेहरु, प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहासकारों ने भारतीय शिक्षा पद्धति की इतिहास की पुस्तकों में जगह नहीं दी l ऐसे और भी बहुत से विषय हैं जिन पर यह बहस की जा सकती है, परन्तु वो किसी और दिन करेंगे।

अरब से जब इस्लामी आक्रमण प्रारम्भ हुए तो अपनी क्रूरता, वह्शीपन, आक्रामकता, दरिंदगी से इरान, मिस्र, तुर्की, इराक आदि सब देशों विजय करते हुए सनातन संस्कृति को समाप्त करने मलेच्छों द्वारा ऋषि भूमि देव तुल्य भारत पर आक्रमण किये गए। लक्ष्य केवल एक था… *दारुल हर्ब को… दारुल इस्लाम* बनाने का और इस लक्ष्य के लिए जिस नीचता पर उतरा जाए वो सब उचित थीं। इस्लामी मानसिकता के अनुसार जजिया और
महसूल जैसे TAXES के बाद सनातन संस्कृति के 16 संस्कारों पर भी TAX लगाया गया।

संस्कारों पर TAX लगाने का मुख्य कारण यह था कि सनातन धर्म के अनुयायी TAX के बोझ के कारण अपने संस्कारों से दूर हो जाएँ। धीरे धीरे इस प्रकार के षड्यंत्रों के कारण इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा अपनाई गयी इस सोच का यह लक्ष्य सिद्ध होता गया। *धीरे-धीरे समय ऐसा भी आया कि कुछ लोग केवल अति आवश्यक संस्कारों को ही करवाने लगे, और कुछ लोग संस्कारों से पूर्णतया कट से गए।*

सबसे पहले आता है *‘गर्भाधान संस्कार’*।
किसी सनातन धर्म की स्त्री द्वारा जब गर्भ धारण किया जाता था तो एक निश्चित TAX इलाके के मौलवी या इमाम के पास जमा किया जाता था और उसकी एक रसीद भी मिलती थीl *यदि उस TAX को दिए बिना किसी भी सनातन धर्म के अनुसायी के घर में कोई सन्तान उत्पन्न होती थी तो उसे इस्लामी सैनिक उठाकर ले जाते थे और उसकी इस्लामी नियमों के अनुसार सुन्नत करके उसे मुसलमान बना दिया जाता था।*

*नामकरण संस्कार*
नामकरण संस्कार का षड्यंत्र यदि देखा जाए तो सबसे महत्वपूर्ण है । इस को समझने में नामकरण संस्कार में जब किसी बच्चे का नाम रखा जाता था तो उन पर विभिन्न प्रकार के TAX निर्धारित किये गए थे। उदाहरण के लिए - कुंवर व्यापक सिंह। इसमें 'कुंवर’ शब्द एक सम्माननीय उपाधि को दर्शाता है, जोकि किसी राजघराने से सम्बन्ध रखता है। उसके बाद 'व्यापक’ शब्द सनातन संस्कृति के
शब्दकोश का एक ऐसा शब्द है जो जब तक चलन में रहेगा तब तक सनातन संस्कृति जीवित रहेगी।
उसके बाद 'सिंह’ शब्द आता है जोकि एक वर्ण व्यवस्था या एक वंशावली का सूचक है।
'कुंवर’ पर TAX 10000 रुपये
'व्यापक’ पर TAX 1000 रुपये
'सिंह’ पर TAX 1000 रुपये
अब जो TAX चुकाने में सक्षम लोग थे वो अपने-अपने बजट के अनुसार अपने बच्चों के लिए शुभ नाम निकाल लेते थे। समस्या वहाँ उत्पन्न हुई जिनके पास पैसे न हों। क्या ऐसे बच्चों का कोई नाम नहीं होता होगा ?
नहीं, ऐसा नहीं था। ऐसे गरीब परिवारों के बच्चों के लिए भी नाम रखे जाने का प्रावधान था। परन्तु ऐसे नाम उस इलाके के मौलवी या इमाम द्वारा मुफ्त में दिया जाता था और यह कड़ा नियम था कि जो नाम इमाम या मौलवी देंगे वही रखा जायेगा अन्यथा दंड का प्रावधान भी होता था। अब ज़रा सोचिये कि किस प्रकार के नाम दिए जाते होंगे इलाके के मौलवी या इमाम द्वारा।
लल्लू राम,
झंडू राम,
कूड़े सिंह,
घासी राम,
घसीटा राम,
फांसी राम,
फुग्गन सिंह,
राम कटोरी,
लल्लू सिंह,
फुद्दू राम,
रोंदू सिंह,
रोंदू राम,
रोंदू मल,
खचेडू राम,
खचेडू मल,
लंगड़ा सिंह

इस प्रकार के नाम इलाके के मौलवी और इमामों द्वारा मुफ्त में दिए जाते थे।
क्या आप ऐसे नाम अपने बच्चों के रख सकते हैं … कभी?? शायद नहीं?

*विवाह संस्कार* के लिए इलाके के मौलवी से स्वीकृति लेनी पडती थी, बारात निकालने, ढोल-नगाड़े बजाने पर भी TAX होता था और बारात
किस-किस मार्ग से जाएगी यह भी मौलवी या इमाम ही तय करते थे। *इस्लामिक केन्द्रों के सामने ढोल नगाड़े नहीं बजाये जायेंगे, वहाँ पर से सर झुका कर जाना पड़ेगा।* वर्तमान समय में असम और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में तो यह आम बात है।

*अंतिम संस्कार* पर तो भारी TAX लगाया जाता था, जिसके कारण यह तक कहा जाता था कि यदि TAX देने का पैसा नहीं है तो इस्लाम स्वीकार करो और कब्रिस्तान में दफना दो।
वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, आजमगढ़, आदि क्षेत्रों में यह आम बात है। केरल, बंगाल, असम के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में खुल्लम-खुल्ला यह फरमान सुनाया जाता है, जहाँ पर प्रशासन और पुलिस द्वारा कोई सहायता नहीं उपलब्ध करवाई जाती।

इस्लामिक शासन काल में *सनातन गुरुकुल शिक्षा पद्धति* को भी धीरे-धीरे नष्ट किया जाने लगा। औरंगजेब के शासनकाल में तो यह खुल्लम खुल्ला फरमान सुनाया गया था कि
किस प्रकार हिन्दुओं को मुसलमान बनाना है?
किस-किस प्रकार की यातनाएं देनी हैं?
किस प्रकार औरतों का शारीरिक मान मर्दन करना है?
किस प्रकार मन्दिरों को ध्वस्त करना है?
किस प्रकार मूर्तियों का विध्वंस करना है?

*मूर्तियों को तोड़कर उन पर मल-मूत्र का त्याग करके उनको मन्दिर के नीचे ही दबा देना खासकर मंदिरों की सीढ़ियो के नीचे, और फिर उसी के ऊपर मस्जिद का निर्माण कर दिया जाए।*
मन्दिरों के पुजारियों को कत्ल कर दिया जाए। यदि वे इस्लाम कबूल करें तो छोड़ दिया जाए।
जितने भी गुरुकुल हैं उनको ध्वस्त कर दिया जाए और आचार्यों को तत्काल मौत के घाट उतार दिया जाए।
गौशालाओं को अपने नियन्त्रण में ले लिया जाए।
कई मन्दिरों को ध्वस्त करते हुए तो वहाँ पर गाय काटी जाती थी।

वर्तमान समय में औरंगजेब के खुद के हाथों से लिखे ऐसे हस्तलेख हैं जिन पर उसके दस्तखत भी हैं l ऐसे अत्याचारों और दमन के कारण *उपनयन* जैसा अति महत्वपूर्ण संस्कार भी विलुप्ति कि कगार पर पहुँचने लगा l धीरे-धीरे संस्कारों का यह सिलसिला ख़त्म-सा होता चला गया। *वानप्रस्थ* और *सन्यास* संस्कारों को तो लोग भूल ही गए क्योंकि उनका अर्थ ही नहीं ज्ञात हो पाया आनेवाली कई पीढ़ियों को।

*छत्रपति शिवाजी महाराज* द्वारा एक बार *पंजाब* क्षेत्र में Survey करवाया गया था जिसके अनुसार पंजाब के कई क्षेत्र ऐसे थे जहाँ पर लोग *गायत्री महामंत्र* भी भूल चुके थे, उन्हें उसका उच्चारण तो क्या इसके बारे में पता ही नहीं था। धीरे धीरे पंजाब और अन्य क्षेत्रों में छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा ध्वस्त मन्दिरों का निर्माण करवाया गया और कई जगहों पर आचार्यों को भेजा गया जिन्होंने धर्म प्रचार एवं प्रसार के कार्य किये।

एक महत्वपूर्ण बात सामने आती है। कृपया ध्यान से पढ़ें और समझें एक अनोखी कहानी जो भुला दी गयी SICKULAR भारतीय इतिहासकारों द्वारा और नेहरू के द्वारा। औरंगजेब की मृत्यु के 10 वर्ष के अंदर-अंदर ही मुगलिया सल्तनत मिट्टी में मिल चुकी थी। *रंगीले शाह* अपनी रंगीलियों के लिए प्रसिद्ध था और दिन प्रतिदिन मुगलिया सल्तनत कर्जों में डूब रही थीl रंगीले शाह को कर्ज देने में सबसे आगे जयपुर का महाराजा था l एक बार मौका पाकर जयपुर के महाराजा ने अपना कर्जा माँग लिया। रंगीले शाह ने बुरे समय पर जयपुर के महाराजा से सम्बन्ध खराब करना उचित न समझा क्योंकि आगे के लिए कर्ज मिलना बंद हो सकता था जयपुर के महाराज से परन्तु रंगीले शाह ने जयपुर के महाराजा की रियासतों को बढ़ाकर बहुत ही ज्यादा विस्तृत कर दिया और कहा कि जो नए क्षेत्र आपको दिए गए हैं आप वहाँ से अपना कर वसूलें जिससे कि कर्ज उतर जाए। जयपुर के महाराज के प्रभाव क्षेत्र में अब गंगा किनारे ब्रजघाट, आगरा, बिजनौर, सहारनपुर, पानीपत, सोनीपत आदि बहुत से क्षेत्र भी सम्मिलित हो गए। इन क्षेत्रों में संस्कारों के ऊपर लगने वाले TAX - जजिया और महसूल आदि धार्मिक TAXES के कारण जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी और जयपुर के महाराजा के प्रभाव क्षेत्र में आने के कारण सनातन धर्मी अपनी आशाएं लगाकर बैठे थे कि अब यह पैशाचिक सिलसिला बंद होगा। परन्तु जयपुर के महाराजा ने TAXES वापिस नहीं लिए।

मराठा साम्राज्य के पेशवा के *राजदूत दीनानाथ शर्मा* उन दिनों जयपुर में नियुक्त थे। उन्होंने
भरतपुर के *जाट नेता बदनसिंह* की मदद की और जाटों की अपनी ही एक सेना बनवा डाली जिनको पेशवा द्वारा मान्यता भी दिलवा दी गयी और 5000 की मनसबदारी भी दिलवा दी गयी। धीरे-धीरे बदनसिंह ने अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया और दीनानाथ शर्मा के कहने पर समस्त जगहों से मुस्लिम TAXES से पाबंदी हटवाने लगेl
जयपुर के महाराजा नि:सहाय हो गए क्योंकि पेशवा से सीधे टकराव उनके लिए सम्भव नहीं था। इन्हीं दिनों ब्रजघाट तक का क्षेत्र जाटों द्वारा मुक्त करवा लिया गया जिसका नाम रखा गया - *गढ़मुक्तेश्वर*।

बदन सिंह और राजा सूरजमल ने बहुत से क्षेत्रों पर अपना प्रभाव स्थापित किया और मुस्लिम अत्याचारों से मुक्ति दिलवाने का कार्य किया। फिर भी ऐसी समस्याएं यदाकदा सामने आ ही जाती थीं कि कई-कई जगहों पर मुस्लिम हिन्दुओं को घेरकर उनसे TAX लेते थे या फिर संस्कारों के कार्यों में विघ्न पैदा करते थे। इस समस्या से निपटने के लिए आगे चलकर बदनसिंह के बाद राजा सूरजमल ने *गंगा-महायज्ञ* का आयोजन किया जिसमे गंगोत्री से 11000 कलश मंगवाए गए गंगाजल के और उन्हें *भरतपुर* के पास ही *सुजान गंगा* के नाम से स्थापित करवाया और सभी देवी देवताओं को स्थापित करवाया गया और बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया गया। सुजान गंगा पर आनेवाले कई वर्षों तक संस्कारों के कार्य होते रहे।

1947 के बाद *नेहरू और SICKULAR जमात* ने मिलकर सुजान गंगा का अस्तित्व समाप्त कर दिया। उसमें आसपास के सारे गंदे नाले मिलवा दिए और आसपास की फेक्टरियों का गंदा पानी आदि उसमें गिरवा दिया। आसपास के लोग मल-मूत्र त्याग करने लगे। इसी वर्ष हुए एक सर्वे के अनुसार सुजानगंगा के चारों और 650 से ज्यादा लोगों द्वारा प्रतिदिन मल-मूत्र त्याग किया जाता है।

आप सबसे विनम्र अनुरोध है कि अपने इतिहास को जानें जोकि आवश्यक है। अपने पूर्वजों के इतिहास जो जानें और समझने का प्रयास करें। उनके द्वारा स्थापित किये गए सिद्धांतों को जीवित रखें। *जिस सनातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए और अखंड भारत की सीमाओं की रक्षा हेतु हमारे असंख्य पूर्वजों ने अपने शौर्य और पराक्रम से अनेकों बार अपने प्राणों तक की आहुति दी गयी हो, उसे हम किस प्रकार आसानी से भुलाते जा रहे हैं*। 💣💣💣


from Tumblr http://ift.tt/2diesDw
via IFTTT

Saturday, September 24, 2016

धर्म रक्षक कैसा हो? डॉ विवेक आर्य एक बार प्रसिद्द वैदिक अन्वेषक पंडित भगवत दत्त रिसर्च स्कॉलर जी...

धर्म रक्षक कैसा हो?

डॉ विवेक आर्य

एक बार प्रसिद्द वैदिक अन्वेषक पंडित भगवत दत्त रिसर्च स्कॉलर जी ने महान त्यागी महात्मा हंसराज जी से पूछा की क्या कारण है मुग़लों का राज विशेष रूप से आगरा-दिल्ली में केंद्रित होने पर भी सीमांत नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान आदि जो वहां से अत्यंत दूरी पर थे। परन्तु फिर भी सीमांत प्रांत में रहने वाले हिन्दू अधिक संख्या में मुसलमान बन गए जबकि मुग़लों की नाक के नीचे रहने वाले आगरा-मथुरा के हिन्दू न केवल चोटी-जनेऊ और अपने धर्म ग्रंथों की रक्षा करते रहे अपितु समय समय पर मुग़लों का प्रतिरोध भी करते रहे और अंत तक हिन्दू ही बने रहे? महात्मा हंसराज ने गंभीर होते हुआ इस प्रश्न का उत्तर दिया,“इसका मूल कारण उत्तर भारत के हिन्दुओं का पवित्र आचरण था। एक अल्प शिक्षित हिन्दू भी सदाचारी, शाकाहारी, संयमी, धार्मिक, आस्तिक, ज्ञानी लोगों का मान करने वाला, दानी, ईश्वर विश्वासी,पाप-पुण्य में भेद करने वाला और सद्विचार रखने वाला था। उन्हें अपना सर कटवाना मंजूर था मगर चोटी कटवानी मंजूर नहीं थी। उन्होंने जजिया देना मंजूर किया मगर इस्लाम स्वीकार करना मंजूर नहीं किया। उन्होंने पलायन करना मंजूर किया मगर मस्जिद जाना मंजूर नहीं किया। उन्होंने वेद, दर्शन और गीता का पाठ करने के लिए द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनना स्वीकार किया मगर क़ुरान पढ़ना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने गोरक्षा के लिए प्राण न्योछावर करना स्वीकार किया मगर गोमांस खाना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपनी बेटियों को पैदा होते ही न चाहते हुए भी उनका बाल विवाह करना स्वीकार किया मगर मुसलमानों के हरम में भेजना अस्वीकार किया।”

यही सदाचारी श्रेष्ठ आचरण जिसे हम “High Thinking Simple Living” के रूप में जानते हैं उनके जीवन का अभिन्न अंग था। यही सदाचार मुग़लों से धर्म रक्षा करने का उनका प्रमुख साधन था। सीमांत प्रान्त वासियों ने इन उच्च आदर्शों का उतनी तन्मयता से पालन नहीं किया। इसलिए उनका बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन हो गया।

मित्रों! अपने चारों ओर देखिये। पश्चिमी सभ्यता और आधुनिकता ने नाम पर आज हिन्दुओं को वर्तमान पीढ़ी को व्यभिचारी, नास्तिक, मांसाहारी, अधार्मिक, कुतर्की, शराबी, कबाबी, ईश्वर अविश्वासी, पाखंडी आदि बनाया जा रहा हैं। 90% से अधिक हिन्दू युवाओं की धर्म रक्षा के स्थान पर ऐश, लड़कियों, फैशन, शराब, सैर सपाटे में रूचि हैं। इसीलिए चाहे गौ कटे, चाहे लव जिहाद हो, चाहे किसी हिन्दू का धर्म परिवर्तन हो। इन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसे कमज़ोर कन्धों पर हिन्दू कितने दिन अपने धर्म की रक्षा कर पायेगा? इसलिए धर्मरक्षक बनने के लिए

सदाचारी बनो। संयमी बनो। तभी प्रभावशाली धर्म रक्षक बन सकोगे।
वेदों में सदाचारी जीवन जीने के लिए ऋग्वेद 10/5/6 में ऋषियों ने सात अमर्यादाएं बताई हैं। उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी है। ये अमर्यादाएँ हैं चोरी करना, व्यभिचार करना, श्रेष्ठ जनों की हत्या करना, भ्रूण हत्या करना, सुरापान करना, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना।

वेदों की इस महान शिक्षा का पालन कर ही आप धर्म रक्षक बन सकते है।

(यह प्रेरक प्रसंग धर्मरक्षा के लिए जीवन आहूत करने वाले वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोबिंद सिंह, बंदा बैरागी, वीर हकीकत राय, वीर गोकुला जाट,स्वामी दयानंद, पंडित लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, भक्त फूल सिंह सरीखे ज्ञात एवं अज्ञात उन हजारों महान आत्माओं को समर्पित हैं जिनका बलिदान आज भी हमें प्रेरणा दे रहा है ।

🚩✍🏻✍🏻

वैदिक धर्म को समर्पित ऋषि दयानंद जी के विचारों से ओत प्रोत फेसबुक सोशल मीडिया पर बने इस पेज को लाइक करें आर्य समाज से जुड़े और दोस्त सम्बंधियों को भी जोड़े

http://ift.tt/2d0lTNY


from Tumblr http://ift.tt/2d8sjJu
via IFTTT

महर्षि दयानन्द ने क्या दिया ? और क्या क्या किया ? इस विषय में जितना भी लिखा जाए थोड़ा है तथापि हम...

महर्षि दयानन्द ने क्या दिया ? और क्या क्या किया ? इस विषय में जितना भी लिखा जाए थोड़ा है तथापि हम संक्षेप मेँ ठोस सामग्री देने का प्रयास करेगेँ।

आधुनिक भारत के एक प्रसिद्ध इतिहासकार श्री ईश्वरीप्रसाद ने ‘सरस्वती’ मासिक के सन्‌ १९२९ के एक अंक मेँ अपने एक पठनीय लेख मेँ लिखा था-

“हिन्दूसमाज मेँ स्वामीजी ने हलचल मचा दी। अदम्य निर्भीकता के साथ उन्होँने स्वेच्छाचारी, निरंकुश "पोपोँ” का सामना किया और काशी के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ मेँ अपनी विद्वता का सिक्का जमा दिया। आर्यसमाज के विस्तृत कार्यक्रम ने हिन्दू जाति की मृत हड्डियोँ मेँ फिर से जान डाल दी। राष्ट्रीय आदोँलन का अभी नामो-निशान नहीँ था। अंग्रेजी शासन के विरूद्ध किसी को ताब न थी कि जबान निकाले। आजकल के युवकोँ के लिए उस परिस्थिति को समझना दुष्कर है।"

यशस्वी इतिहासकार श्रीयुत काशीप्रसाद जायसवालजी ने लिखा है- The Sanyasi Dayanand gave freedom to the soul of the Hindus, as did Luther unto the Europeans" अर्थात्‌ संन्यासी दयानन्द ने हिन्दुओँ की आत्मा को ऐसे ही स्वतन्त्र करवाया जैसे योरूपियन लोगोँ को लूथर ने ।

ऋषि दयानन्द ने देखा कि भारतीय साधुओँ को केवल अपने मोक्ष की ही चिन्ता है। वे संसार से उदासीन रहने को ही वैराग्य, भक्ति की पराकाष्ठा व सन्तपना जानते व मानते थे–

'कोई नृप होय हमेँ क्या हानि’

कबीरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास।
जो करगने सो भरन गे तू क्योँ भयो उदास।।

जहाँ देश के विचारकोँ की, महात्माओँ की ऐसी सोच हो वहाँ देशोन्नति व विकास कैसे सम्भव है ? ऋषि का घोष था कि मुझे अपनी मुक्ति की चिन्ता नहीँ, मैँ करोड़ोँ देशवासियोँ के बन्धन काटने आया हूँ। ऋषि की इस सोच ने युग बदल दिया । स्वामी अनुभवानन्द जी आर्य संन्यासी को जलियाँवाला हत्याकाण्ड मेँ फांसी का दण्ड सुनाया गया। स्वामी श्रद्धानंद ने संगीनोँ से सीना अड़ाकर शूरता का गान किया। स्वामी स्वतन्त्रानन्द ने सिर पर कुल्हाड़े के वार सहे। परहित जीने-मरने का पाठ आर्योँ ने ऋषि का अनुसरण करके सीखा–

“पराई आग मेँ जलना मरीजोँ की दवा होना।
कोई सीखे दयानन्द से धर्म पर जाँ फिदा करना।।”

महर्षि दयानन्द ने धर्म को कर्म का रूप दिया। ईश्वर आत्मबल का देनेवाला है यह कहने वाले तो बहुत हैँ, पर ऋषि ने इस आत्मबल का प्ररिचय पग पग पर दिया । उनके शिष्योँ प॰लेखराम, स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा नारायण स्वामी ने अपने आचार्य से ये गुण ग्रहण कर नया इतिहास लिख दिया।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति प्रख्यात इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने ऋषि दयानन्द की देन या उपलब्धि पर बड़े सुन्दर शब्दोँ मेँ लिखा था-

“Today Hinduism calls upon it as its bestally. Today Hinduism has paid the Arya samaj the highest tribute, that of imitation by stealing its programme.” अर्थात्‌ आज हिन्दू समाज अपने आपको आर्यसमाज का सर्वोत्तम सहयोगी कहता। आज हिन्दू समाज ने आर्यसमाज के कार्यक्रम व मान्यताओँ का अनुकरण करके इसके कार्यक्रम को चुराकर
इसे सबसे उत्तम श्रद्धा पुष्प अर्पित किया है ।

क्या ये सत्य नही है ? आज अस्पृश्यता का समर्थन करने का साहस किसे है? आज बालविवाह, अनमेल विवाह का पोषक और विधवा विवाह का विरोधी कौन है ? मूर्ति मेँ भगवान्‌ है यह तो कहते हैँ, मूर्ति भगवान है, यह सिद्ध करने वाला कौन है ? सागर पार जाना पाप नहीँ रहा। यह उस ऋषि का प्रताप है। मायावादी हिन्दू कहते चले आ रहे थे कि सब कुछ ब्रह्मा ही ब्रह्मा है, जगत मिथ्या है, यह सब जो दिखता है स्वप्नवत है | स्वप्न तो सोने वालों को आते हैं | सोने वाले संसार का क्या भला कार सकते हैं ? जगत को मिथ्या मानने वालों से इसके विकास, उन्नत्ति व सुधार का प्रश्न ही नही उठता | परन्तु–

महर्षि दयानन्द ने यथार्थ दर्शन दिया- “He has given us a bold philosophy of life. A philosophy of the reality of God, reality of man and the reality of the universe in which man has to live in. अर्थात्‌ ऋषि ने हमेँ वीरोचित दर्शन दिया। ईश्वर की वास्तविकता (सत्ता) का दर्शन दिया, उसने मनुष्य की सत्ता की सच्चाई तथा उस विश्व की वास्तविकता का दर्शन दिया जिसमेँ मनुष्य को रहना है।” “His is a philosophy of bold actions and not of idle musings.” उस ऋषि का दर्शन साहसिक कार्योँ का दर्शन है न कि निठल्ले चिन्तन का।

निर्भीक सत्यवाणी- अंग्रेजी राज आया। 'अंग्रेजी राज की बरकतेँ’(Blessings) यह पाठ स्कूलोँ, कालेजोँ मेँ पढ़ाया जाता था। गांधी जैसे लोग प्रथम विश्वयुद्ध तक अंग्रेज जाति के न्याय, न्यायपालिका की भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे। वहीँ ऋषि दयानन्द ने 'सत्यार्थप्रकाश’ के तेहरवेँ समुल्लास मेँ अंग्रेजी न्यायपालिका की निष्पक्षता व न्याय की धज्जियाँ उड़ाकर रख दीँ।

महर्षि सन्‌ १८७७ मेँ जालन्धर पधारे तब आपने एक दिन कहा- “आजकल के राजा न्याय नहीँ प्रत्युत अन्याय करते हैँ। अंग्रेज लोग अपने मनुष्योँ पर अत्यधिक कृपादृष्टि रखते हैँ। यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी की हत्या कर दे तथा वह(हत्यारा) न्यायालय मेँ कह दे कि मैँने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैँ।” राजा राममोहनराय से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक कोई भी सुधारक, विचारक, महात्मा इस निर्भीकता का परिचय न दे सका, ऋषि की इसी निर्भीकता ने बिस्मिल, रोशन, अशफाक, भगत सिँह जैसे प्राणवीरोँ की छातियोँ को गर्मा दिया।

ऋषि दयानन्द की विश्व को देन समझने के लिए पाठक यह ध्यान देँ कि पूरे विश्व मेँ यह प्रचार होता रहा है कि अल्लाह या God ने हो जा कहा और सब कुछ हो गया। सात दिन मेँ सृष्टि बन गयी। सात दिन मेँ तो टमाटर, मेथी, प्याज, मिर्ची आदि नही उगते। माता के गर्भ से बालक को जन्मने मेँ भी नौ माह लगते हैँ। सृष्टि का सृजन सात दिन मेँ हो गया- कितना हास्यास्पद कथन है ! लेकिन आज पूरा विश्व ऋषि की वाणी के साथ मानता है- 'Matter can neither be created nor it can be destroyed’ अर्तात्‌ प्रकृति न उत्पन्न की जा सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है। यह अनादि अनंत है। महर्षि दयानन्द ने जो किया व जो दिया वह सबके सामने हैँ और सबको मान्य हो रहा है।

इतिहासकार श्री काशीप्रसाद जयसवाल की ये पंक्तियाँ इतिहास का निचोड़ हैँ- “In nineteenth century there was nowhere else such a powerfull teacher of monotheism, such a preacher of the unity of man, such a successful crusader against capitalism in spirituality” अर्थात्‌ उन्नीसवीँ शताब्दी मेँ धराधाम पर एकेश्वरवाद का ऐसा महाप्रतापी सन्देशवाहक गुरू कोई नहीँ हुआ, मानवीय एकता का ऐसा प्रचारक तथा आध्यात्मक जगत्‌ मेँ पूंजीवाद के विरूद्ध लड़ने वाला कोई ऐसा धर्मयोद्धा नहीँ हुआ (जैसा कि स्वामी दयानन्द था)

जुग बीत गया दीन की शमशीर जनी का।
है वक्त दयानन्द शजाअत के धनी का।
(पं.चमूपति)


from Tumblr http://ift.tt/2cvFTsy
via IFTTT

Saturday, September 17, 2016

*मैं बौध्द हुँ…* क्योंकि मैं शाकाहारी हुँ…क्या माँस भक्षी भी कभी बौध्द...

*मैं बौध्द हुँ…*
क्योंकि मैं शाकाहारी हुँ…क्या माँस भक्षी भी कभी बौध्द हो सकता है…!!!

मित्रों लगभग २५०० वर्ष पहले एक नये पंथ का उदय हुआ जिसे बौध्द पंथ कहा गया और उसके अनुयायी बौध्द कहलाये | बौध्द पंथ के प्रदर्शक आर्य गौतम बुध्द थे |

परन्तु १४ अक्टूबर सन् १९५३ ई० को जब बाबा साहेब अम्बेड़कर जी ने बौध्दमत का वरण किया तो उसके मानने वाले एक तबके ने भी स्वयं को बौध्द कहना शुरू कर दिया |

ऐसे लोगों में से एक बड़ा वर्ग उन लोगों का भी है जो अपने को बौध्द कहना या कहलवाना पसन्द करता है परन्तु उसके कर्म मलेच्छों जैसे है |

ऐसे लोग माँस खाते है और कहते है कि माँसभक्षण का बौध्द धर्म से कोई विरोध नहीं | ऐसे तथाकथित बौध्दों को मैं महात्मा बुध्द के मूल दर्शन और जीवन का दर्शन कराना चाहुगाँ जिससे या तो वो बौध्द बन जाए अथवा मलेच्छ हो जावें |

महात्मा बुध्द के अनुसार बौध्द वहीं है जो उनके बनाये पञ्चशीलादि केे उपदेशों को जीवन में धारण करे | इन पञ्चशील के पाँच उपदेशों में ये पहला उपदेश है कि…

*“पाणातिपाता वेरमणी सिक्वा पदं समादियामि |”*

अर्थात्
मैं प्राणि हिंसा से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हुँ ||

इसी बात को ही बुध्द ने एकादश शील के कायिक सुचरित में भी कहा है, जिसका अर्थ है…

*“मैं प्राणी हत्या से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ ||”*

पाठक बतावे कि
केवल जीभ के स्वाद के लिए माँसाहार करना क्या प्राणी हिंसा या हत्या नहीं | जब है तो आप कौन से बौध्द रह गये |

महात्मा बुध्द ने अपना सम्पूर्ण जीवन भी इसी सिध्दान्त के अनुसार जीया है | उसके जीवन का एक प्रसंग है कि…

*एक बार एक गड़रिया भेड़ों का झुण्ड लेकर जा रहा था उनमें से एक भेड़ लँगड़ा था जो धीरे धीरे चलता था | चरवाहा उसको झुण्ड के साथ मिलाने के लिए डंडे मारता था |*

*जब बुध्द ने इसे देखा तो वो बहुत दुःखी हुए | और उन्होनें चरवाहे से पूछकर उस भेड़ को अपनी गोद में उठाकर नियत स्थान पर ले जाकर छोड़ा |*

ओह ! कितनी करूणा ! कितनी दया ! कितना प्रेम है मेरे बुध्द में | ऐसे बुध्द का अनुयायी भी कभी माँस भक्षण या प्राणी हिंसा कर सकता है |

अतः मेरे प्यारों बनना ही है तो सच्चा बौध्द बनो तब देखो कितने आनन्द की अनुभूति होती है | यूं मलेच्छों जैसे कार्य कर स्वयं को बौध्द कहना उस दया के सागर, करूण हृदय और जीवप्रेमी आर्य गौतम बुध्द का अपमान है…!!!

इति ओ३म् …!
जय आर्य बुध्द ! जय आर्यावर्त्त !!

पाखण्ड खंडन… वैदिक मण्डण… रिटर्न…..
http://ift.tt/1pSKZRu


from Tumblr http://ift.tt/2cR6vlD
via IFTTT

ओ३म् *🌷कुछ वेद-मन्त्र🌷* *गायत्री महामन्त्र* *ओ३म् भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य...

ओ३म्

*🌷कुछ वेद-मन्त्र🌷*


*गायत्री महामन्त्र*

*ओ३म् भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।।*
―(यजु० ३६ । ३)

*भावार्थ:-*सच्चिदानन्द, सकल जगदुत्पादक, प्रकाशकों के प्रकाशक, परमात्मा के सर्वश्रेष्ठ, पापनाशक तेज का हम ध्यान करते हैं। वह परमात्मा हमारी बुद्धि और कर्मों को उत्तम प्रेरणा करे।


*ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव । यद्भद्रं तन्न आ सुव ।।*
―(यजु० ३० । ३)

*भावार्थ:-*हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरुप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए , जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।


*य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः । यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।*
―(यजु० २५ । १३)

*भावार्थ:-*जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देने हारा, जिसकी सब विद्वान् लोग उपासना करते हैं और जिसका प्रत्यक्ष, सत्यस्वरुप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है, जिसका न मानना, अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरुप, सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञापालन करने में तत्पर रहें।


*स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ।।*
―(ऋ० १ । १ । ९)

*भावार्थ:-*हे ज्ञानस्वरुप परमेश्वर ! जैसे पुत्र के लिए पिता वैसे आप हमारे लिए उत्तम ज्ञान और सुख देने वाले हैं । आप हम लोगों को कल्याण के साथ सदा युक्त करें ।


*स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव ।*
*पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि ।।*
―(ऋ० ५ । ५१ । १६)

*भावार्थ:-*हम सूर्य और चन्द्रमा की भाँति कल्याणकारक मार्ग पर चलते रहें । फिर दानी, अहिंसक, ज्ञानीजनों तथा परमात्मा से मेलकर हम सुख प्राप्त करें ।


from Tumblr http://ift.tt/2d81wzc
via IFTTT

🚩🔔🙏🏻आज का चिंतन🔔🙏🏻🚩 इससे पहले कि इस गंभीर विषय पर कुछ कहूं याद दिला दूँ कि भारतीय इतिहास का पहला...

🚩🔔🙏🏻आज का चिंतन🔔🙏🏻🚩
इससे पहले कि इस गंभीर विषय पर कुछ कहूं याद दिला दूँ कि भारतीय इतिहास का पहला सम्राट “चन्द्रगुप्त मौर्य” जाति से शूद्र था और उसे एक सामान्य बालक से सत्ता का शिखर पुरुष बनाने वाला चाणक्य एक ब्राम्हण था ।
शताब्दीयों का शाक्ष्य हैं भारतीय इतिहास मौर्य वंश के बिना पुर्णतः अधूरा है।
स्वातंत्रता के बाद से ही राजनैतिक स्वार्थों के लिए एक सुनियोजित षड्यंत्र के द्वारा दलित उत्थान के नाम पर जो खेल खेला गया उससे सबसे अधिक दलित ही प्रभावित हुए। दलितों से उनका पारंपरिक आय का स्रोत छीना गया।
अजीब लग रहा है ना ? आइये मैं साक्ष्य देता हूँ।
प्राचीन भारत जो जातियों में बटा था उसमे प्रत्येक जाति के पास अपने रोजगार के साधन उपलब्ध थे।
कुम्हार बर्तन बनाता,
लुहार लोहे का काम करता
हजाम हजामत का काम करता
अहीर पशुपालन करते
तेली तेल का धंधा करता
आदि आदि..
कोई भी जाति दूसरी जाति का काम छीनने का प्रयास कभी नही करती थी।
इस व्यवस्था के अनुसार दलितों का जो मुख्य पेशा था वह था
पशुपालन
मांस व्यवसाय
चमड़ा व्यवसाय
और सबसे बड़ा बच्चों के जन्म के समय प्रसव कराने का कार्य।
एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दलितों को यह एहसास दिलाया गया कि आप जो काम कर रहे हैं वह गन्दा है घृणित है। फलस्वरूप वे अपने पेशे से दूर होते गए और उनसे ये सारे धंधे छीन लिए गए।
पर दलितों के छोड़ देने से क्या ये काम बन्द हो गए ?????
आज तनिक आप नजर उठा कर देखिये चमड़ा उद्योग और मांस उद्योग का वार्षिक टर्न ओवर लाखों करोड़ों का नहीं बल्कि खरबों का है।
आज यह व्यवसाय किस के हाथ में है ???
आपकी हमारी आँखों के सामने दलितों से उनकी आमदनी का बडा स्रोत छीन कर एक विशेष समुदाय के झोले में डाल दिया गया और हम यह चाल समझ नही पाये।
उत्तर प्रदेश में
जय भीम जय मीम के धोखेबाज नारे के जाल में दलितों को फंसा कर उन्हें अन्य हिन्दुओ विशेष कर ब्राह्मण के विरुद्ध भड़काने वालों की मंशा साफ है
वे आपको सौ टुकड़े में तोड़ कर आपके सारे हक लूटना चाहते हैं।
तनिक सोशल मिडिया में ध्यान से देखिये दलितवाद का झूठा खेल अधिकांश वे ही लोग क्यों खेल रहे हैं जिन्होंने दलितों के पेशे पर डकैती डाली है ???
दलितों की दुर्दशा के सम्बंध में जो मुख्य बातें बताई जाती हैं जरा उनका विश्लेषण कीजिये।
वे आपको बताते हैं ब्राम्हणों ने दलितों से मल ढोने का काम कराया.!!
इतिहास और प्राचीन साहित्य का कोई ज्ञाता बताये क्या प्राचीन सनातन भारत में घर के मण्डप के अंदर शौचालय निर्माण का कोई साक्ष्य मिलता है ???
कहीं भी नही।
सच तो यह है कि भारत में घर के अंदर शौचालय बनाने की परम्परा अलाउद्दीन खीलजी से लेकर मुगलकाल तक में फैली।
उनके गुलाम बनायें गये लोगों में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र सभी लोग थे..।
उन्होंने ही उनसे मल ढोने का घृणित कार्य गुलाम लोगों से उनका कुफ्र या काफिर होने से घृणा की वजह से कराया।
उन्होने यह घटिया काम भले ही करना पडे पर अपना धर्म को नहीं छोडना चाहते थे क्यूंकि वह अपने धर्म से दिलोजान से जूडे हुए थे।
आज भी उन दलितो की सरनेम टाइटल राजपुतो ब्राह्मणो वैश्यो के मिलेंगे।
भारत के कई गांवों में तो आज से केवल तीस से चालीस वर्ष पहले तक शौचालय होते ही नही थे।
फिर इस घृणित परम्परा के लिए हिन्दू कैसे जिम्मेवार हुए ???
आपको इतना पता होगा कि मध्यकालीन भारत में हिंदुओं का सबसे ज्यादा कन्वर्जन हुआ। जरा पता लगाइये तो क्या अपने धर्म परिवर्तन के बाद एक तेली पठान हो गया ?
कोई लुहार क्या शेख हो गया ?
नहीं न..!! तेली ने धर्म बदला तो मुसलमान तेली हो गया।
नायी बदला तो मुसलमान हजाम हो गया।
गांवों में देखिये,
मुसलमान हजाम लोहार तेली धुनिया धोबी और यहां तक कि राजपूत भी हैं।
उनका सिर्फ धर्म बदला है जातियां और कार्य नहीं।
जिन लोगों में आज दलित प्रेम जोर मार रहा है वे क्या बताएँगे कि उन्होंने अपने धर्म में जाति ख़त्म करने का क्या क्या उपाय किये???
प्राचीन भारत में दलित दुर्दशा के विषय में सोचने के पहले एक बार अपने गांव के सिर्फ पचास बर्ष पहले के इतिहास को याद कर लीजिये..!!
दलितों की स्थिति बुरी थी तो क्या अन्य जातियों की स्थिति बहुत अच्छी थी???
कठे अंवासी बिगहे बोझ (एक कट्ठा में एक मुठा और एक बीघा में एक बोझा भोजपुरी कहावत) वाले जमाने में जब हर चार पांच साल पर अकाल पड़ते तो क्या सिर्फ एक विशेष जाति के ही लोग दुःख भोगते थे ???
सत्य यह है कि उस घोर दरिद्रता के काल में सभी दुःख भोग रहे थे। कोई थोडा कम और कोई थोडा ज्यादा..!!
खैर कल जो हुआ वो हुआ। उसे बदलना हमारे हाथ में नहीं पर हम चाहें तो हमारा वर्तमान सुधर सकता है। यह युग धार्मिक से ज्यादा आर्थिक आधार पर संचालित होता है। इस युग में जिसके पास पैसा है वही सवर्ण है और जिसके पास नही है वे दलित हैं।
अपने आर्थिक ढांचे को बचाने का प्रयास कीजिये वैश्वीकरण के इस युग में हमे अपनी सारी दरिद्रता को उखाड़ फेकने में दस साल से अधिक नही लगेगा।
अंत में एक उदाहरण दे दूँ ब्राम्हणों में एक उपजाति होती है महापात्र की। ये लोग मृतक के श्राद्ध में ग्यारहवें दिन खाते हैं। समाज में इन्हें इतना अछूत माना जाता है कि कोई इन्हें अपने शुभ कार्य में नही बुलाता।इनकी शादियां शेष ब्राम्हणों में नही होती।पर इन्होंने कभी अपना पेशा नही छोड़ा।तो भइया इस आर्थिक युग में स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कीजिये।अरबी और मिशनरी पैसे से पेट भर कर समाज में आग लगाने का प्रयास करने वाले इन चाइना परस्त लोगों के धोखे में न आयें।और हां भारत और पाकीस्तान देश विभाजन के समय पाकीस्तान ने सवर्ण हिंदूओं से उनकी संपति हडप ली उन की मां बहन बेटियों पर अनगिनत बलात्कार कर उनकी हत्याए की बचे कुचे लोग अपने ही देश में निराश्रित बनकर खाली हाथ लौटे और जिसे पाकीस्तान में रहने दिया वह हिंदू कौन थे??वह दलित थे उन्हे केवल उनका मैला उठाने और साफ सफाई का काम के लिये रहने दिया।उनकी संख्या पाकीस्तान की बस्ती के अनुपात में दलितों की जन संख्या 14% थी..(1947)आज वह कहां गयें??(कुल हिंदू जनसंख्या 29% थी)आज पाकीस्तान में केवल 1.5% हिंदू बचे है। वह भी डरे सहमें है और भारत में शरण चाहते है क्यूं ? वजह है उनकी मां बहन बेटीयों पे हो रहे अत्याचार..और उनकी धार्मीक आझादी पर हो रहे कुठाराघात ही है।
जय भीम - जय मीम वाला नारा एक बडा षड्यंत्र है।
ये देश जितना चाणक्य का है उतना ही चन्द्रगुप्त मौर्य का। जितना महाराणा उदयसिंह का है उतना ही पन्ना धाय का। जितना बाबू कुंवर सिंह का है उतना ही बिरसा मुंडा का।
नफरत पहले केवल एक समुदाय विशेष के अंदर ही उनके मदरसों में पढाई जाती थी लेकिन अब न्यूज़ चैनल बड़ी बड़ी कीमत के बदले बाहरी इशारों पर इसी तरह की नफरत दलित वर्ग में फैलाकर देश को बांटने का काम बखूबी कर रहे हैं ।
☯ आज का दिन सभी के लिए मंगलमय हो ।

।। 🐚 *शुभम भवतु* 🐚 ।।

🇮🇳🇮🇳 *भारत माता की जय* 🚩🚩


from Tumblr http://ift.tt/2cR78LV
via IFTTT

आज हास्य कवि सुरेश मिश्र कोप्रदान किया जाएगा विशिष्ट पत्रकारिता...

आज हास्य कवि सुरेश मिश्र कोप्रदान किया जाएगा विशिष्ट पत्रकारिता पुरस्कार
********************************************

मुंबई महानगर की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक संस्था “भारती प्रसार परिषद” की तरफ से प्रति वर्ष दिया जाने वाला प्रतिष्ठित “श्रीमती रामादेवी द्विवेदी विशिष्ट पत्रकारिता सम्मान” इ
आज शनिवार सत्रह सितंबर 2016 को प्राख्यात हास्य कवि एवं हिंदी पत्रिका सम्राट इंफार्मेशन के संपादक श्री सुरेश मिश्र को प्रदान किया जाएगा । संस्था के अध्यक्ष रमेश बहादुर सिंह, डाक्टर भालचंद तिवारी, रामनयन दूबे सहित तमाम विशिष्ट लोग इस अवसर पर उपस्थित रहेंगे ।
शनिवार सत्रह सितंबर2016 को बांद्रा पश्चिम स्थित ‘स्पास्टिक सोसायटी आफ इंडिया सभागार में शाम चार बजे से हास्य कवि सुरेश मिश्र के संचालन मे आयोजित होने वाले विराट कवि सम्मेलन एवं सम्मान समारोह में प्रदान किया जाएगा ।सुरेश मिश्र को अब तक

पं. दीन दयाल उपाध्याय पुरस्कार

डाक्टर राम मनोहर त्रिपाठी पुरस्कार

महाकवि तुलसीदास सम्मान

अग्नि शिखा सम्मान

मच सारथी सम्मान

जैसे अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं ।उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ।अब तक करीब डेढ दर्जन टीवी चैनलों के माध्यम से वह लोगों को हँसा चुके हैँ ।दैनिक यशोभूमि,हमारा महानगर, दोपहर का सामना,निर्भय पथिक,अखबार ए अवाम सहित देश के तमाम पत्र पत्रिकाओं उनकी कविताएं, लेख और कहानियां प्रकाशित होती रही हैँ ।लगातार चौबीस वर्षों से प्रतिदिन एक कविता प्रकाशित होने का रिकॉर्ड भी सुरेश मिश्र के नाम है ।
अब तक यह प्रतिष्ठित पुरस्कार नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ पत्रकार विमल मिश्र, यशोभूमि के संपादक आनंद शुक्ल(राज्यवर्धन), दोपहर का सामना के कार्यकारी संपादक रह चुके प्रेम शुक्ल, हमारा महानगर के कार्यकारी संपादक राघवेंद्र द्विवेदी, नवभारत के शहर संपादक ब्रज मोहन पांडेय जैसी विभूतियों को दिया जा चुका है ।

09869141831
09619872154
कवि सम्मेलन और सम्मान समारोह में आप भी आमंत्रित हैं ।
आइएगा,
मेरा उत्साह बढ जाएगा


from Tumblr http://ift.tt/2d81hE6
via IFTTT

આદુની વિશેષતા ! ****************** કેમોથેરપી કરતા આદુની અસર ૧૦,૦૦૦ ગણી વધુ ! કેન્‍સરના દર્દીઓ માટે...

આદુની વિશેષતા !
******************

કેમોથેરપી કરતા આદુની અસર ૧૦,૦૦૦ ગણી વધુ !
કેન્‍સરના દર્દીઓ માટે જ્‍યોર્જિયા યુનિવર્સિટીનું આશીર્વાદરૂપ સંશોધન………

રસોઇમાં આદુનો છૂટથી ઉપયોગ કરો. કેન્‍સર હોય તો આદુનું સેવન રોજ કરો. કેન્‍સરની દવા ‘ટેકસોલ’ કરતા આદુનાં ‘૬-શોગાઓલ’ નામનાં તત્‍વમાં કેન્‍સર સામે લડવાની દસ હજારગણી ક્ષમતા છે.

ખાસ વાત એ છે કે, આદુ માત્ર કેન્‍સરના કોષો પર પ્રહાર કરે છે, સ્‍વસ્‍થ કોષો પર નહી. કેમોથેરપી કરતા આદુની અસર ૧૦,૦૦૦ ગણી વધુ છે.

કેન્‍સર સામે લડવામાં હળદર બહુ ઉપયોગી છે એ તો બહુ જાણીતું તથ્‍ય છે. પણ હળદરના પિતરાઇભાઇ જેવા આદુના આ ગુણ વિશે હજુ તાજેતરમાં જ સંશોધન થયા છે. સંશોધનો દ્વારા પુરવાર થયું છેકે કેન્‍સરની કેટલીક પરંપરાગત દવાઓ કરતા પણ આદુ વધુ અસરકારક રીતે કેન્‍સરની સારવાર કરી શકે છે.

પરિક્ષણોમાં સાબિત થયું છે કે કેમોથેરપી કરતા આદુ દ્વારા કેન્‍સરની સારવાર કરવામાં આવે તો એ કેમોથેરપી કરતા દસ હજારગણી વધુ અસરકારક નીવડે છે અને કેમોથેરપીની સરખામણીએ આદુનો ફાયદો એ છે કે આદુ માત્ર કેન્‍સરર્ના કોષોને ખતમ કર્્ે છે અને શરીરના ઉપયોગી કોષો પર આદુની કોઇ જ વિપરીત અસર થતી નથી.

અમેરિકાની ‘ધ જ્‍યોર્જિયા સ્‍ટેટ યુનિવર્સિટી’ એ ઉંદરો પર કરેલા રીસર્ચમાં એવું જાણવા મળ્‍યું હતું કે, આદુનો અર્ક આપવામાં આવે તો પ્રોસ્‍ટેટની ગાંઠના કદમાં પ૬ ટકા જેટલો ઘટાડો થાય છે. પ્રયોગ દ્વારા એવું પણ જાણવા મળ્‍યું કે આદુનો અર્ક માત્ર કેન્‍સરના કોષોને જ ખતમ નથી કરતો, તેનાંથી દાહ પણ ઓછો થાય છે. અને રોગ પ્રતિકારક શકિત પણ વધે છે.

એક અમેરિકન હેલ્‍થ જર્નલમાં પ્રકાશિત થયેલા અહેવાલ મુજબ આદુનું ૬-શોગાઓલ નામનું તત્‍વ કેન્‍સરની સારવારમાં પરંપરાગત કેમોથેરપી કરતા અનેકગણું વધુ સારૂં પરિણામ આપે છે. ૬-શોગાઓલની વિશિષ્‍ટતા એ છેકે તે માત્ર કેન્‍સરના કોષોના મૂળ પર જ ત્રાટકે છે.

મધર સેલ્‍સ (માતા કોષ) તરીકે ઓળખાતા આ કોષો સ્‍તન કેન્‍સર સહિત અનેક પ્રકારના કેન્‍સર માટે નિમિત્ત બને છે. માતા કોષમાંથી બીજા અનેક કોષો નિર્માણ પામે છે જે ધીમેધીમે શરીરને ખતમ કરી નાંખે છે.

આ બધા કોષો અજેય હોય છે, અમર જેવા હોય છે, તેનાં પર ભાગ્‍યે જ કોઇ દવા કારગત સાબિત થાય છે.

આ વાત સાબિત કરે છે કે, કેન્‍સરના કોષો તેની જાતે પુનઃનિર્માણ પામતા રહે છે. એ સતત વધતા ચાલે છે. કેમોથેરપી જેવી પરંપરાગત સારવાર સામે આવા કોષો પ્રતિકારકતા કેળવી લે છે. અને સતત વધતા રહેવાનાં કારણે તેના દ્વારા નવી ગાંઠો થવાની સંભાવના પણ રહે છે.

શરીરને કેન્‍સર મુકત ત્‍યારે જ કહી શકાય જયારે આ ગાંઠમાંથી પણ કેન્‍સરનાં આવા કોષો નાશ પામે.

વૈજ્ઞાનિકોના કહેવા મુજબ, નવા સંશોધનોમાં પુરવાર થયું છે કે, ૬-શોગાઓલ નામનું આદુમાંનુ આ તત્‍વ કેન્‍સરના આવા સ્‍ટેમ સેલનો નાશ કરે છે. બીજી રાજી થવા જેવી વાત એ છે કે, પ્રયોગોમાં એવું જાણવા મળ્‍યું છે કે, આદુનો જયારે રાંધવામાં ઉપયોગ કરવામાં આવે ત્‍યારે અને તેની સૂકવણી કરવામાં આવે ત્‍યારે ૬-શોગાઓલ નામનું આ અત્‍યંત હિતકારક તત્‍વ તેમાંથી મળી આવે છે.

તેનો અર્થ એ થયો કે ભોજનમાં આદુ નિયમિત લેવું જોઇએ અને કેન્‍સરના દર્દીઓ તેની સૂકવણી એટલે કે સુંઠનો ઉપયોગ પણ છુટથી કરી શકે જો કે, આદુની કેન્‍સરમાં ઉપયોગીતા એક વિશિષ્‍ટ કારણને લીધે પણ છે કારણ કે, આદુનો અર્ક સ્‍વસ્‍થ કોષોને હાની પહોંચાડતો નથી.

આ એક જબરદસ્‍ત કહેવાય તેવો ફાયદો છે.

કેમોથેરપી જેવી સારવારથી શરીરના સ્‍વસ્‍થ અને જરૂરી કોષોને પણ ખાસ્‍સુ નુકશાન પહોંચતું હોય છે.
જ્‍યોર્જિયા યુનિવર્સિટીના આ પ્રયોગ થકી એવું તારણ નીકળ્‍યું છે કે ટેકસોલ જેવી કેન્‍સર વિરોધી દવા પણ આદુ જેટલી અસરકારક નથી. એટલે સુધી કે જયારે ટેકસોલનાં ડોઝ અપાતા હોય ત્‍યારે પણ આદુનું ૬-શોગાઓલ નામનું તત્‍વ તેનાં કરતા વધુ અસરકારક સાબિત થાય છે. વૈજ્ઞાનીકોએ નોધ્‍યું છે કે ટેકસોલ કરતા ૬-શોગાઓલની અસર ૧૦ હજારગણી હોય છે.

તેનો સ્‍પષ્‍ટ અર્થએ થયો કે, આદુ દ્વારા કેન્‍સરની ગાંઠ બનતી અટકાવી શકાય છે અને તેનાં દ્વારા સ્‍વસ્‍થ કોષોની જાળવણી પણ થાય છે.

કેન્‍સરની સારવાર બાબતે હજુ આવા અનેક સંશોધનો જરૂરી છે. જે તેનાં થકી આપણને એ ખ્‍યાલ પણ આવશે કે અત્‍યાર સુધી આપણી એલોપથિક સારવાર કેટલી ખોટી દિશામાં હતી અને આવી સારવાર દ્વારા આપણે કેટકેટલી માનવજિંદગી બરબાદ કરી છે.

આપના રોજીંદા ખોરાક માં આદુનો નિયમિત ઉપયોગ શરીર ને તંદુરસ્ત અને સક્ષમ રાખવા માટે ખુબ જ જરૂરી છે. આદુ એ વિશ્વ ઔષધી ગણાય છે. સંસ્કૃત ભાષામાં એને આદર્ક કહે છે. શરીરને તાજું-માજુ લીલું રાખનાર એટલે કે કોષ માંથી કચરો બહાર કાઢવાની ક્રિયા (કેટાબોલીઝમ) અને કોષને રસથી ભરપુર રાખી તાજો રાખનાર ક્રિયાનું અનાબોલીઝમ આ બન્નેક્રિયા આદુ કરે છે.

જમતા પહેલા આદુનો રસ પીવાથી ખુબ ફાયદા છે.

૧) મસાલામાં આદુ રાજા છે.
૨) જઠરાગ્ની પ્રબળ બનાવે છે. (દીપેન છે).
૩) ફેફસામાં કફ ના ઝાળા તોડી નાખે છે.
૪) જીભ અને ગળુ નિર્મળ બનાવે છે.
૫) વધુ પ્રમાણ માં પેશાબ લાવે છે.
૬) છાતી માંથી શરદી કાઢી નાખે છે.
૭) આમવાત ના સોજા મટાડે છે.
૮) જાડાપણું (મેદ) મટાડે છે.
૯) કફ તોડે છે - વાયુનો કટ્ટર દુશ્મન છે.
૧૦) સીળસ મટાડનાર છે.
૧૧) દમના દર્દીને ફાયદો કરે છે
૧૨) હૃદય રોગ મટાડનાર છે.
૧૩) તેના નિયમિત સેવન થી કેન્શર થતું નથી
૧૪) પીત્તનું શમન કરે છે.

આદુમાં ઉડીયન તેલ - ૩%
તીખાશ - ૮%
સ્ટાર્ચ - ૫૬%

આદુ ગરમ છે તે વાત ખોટી છે.

दरेक ग्रुप मा मोकलो जन हीताय जय अंबे👏


from Tumblr http://ift.tt/2cR5QAA
via IFTTT

🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻 આજુગમા છે દેહ અભીમાન ઘણુ દેણે કરીને ભોગવે એજી આતમ જીવપણુ આ જુગમાછે દેહ અભીમાન...

🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
આજુગમા છે દેહ અભીમાન ઘણુ
દેણે કરીને ભોગવે એજી આતમ જીવપણુ આ જુગમાછે દેહ અભીમાન ઘણુ

🌺
સાચે મનથી સદગુરુ સાથે તે હૈયે ન. આણ્યુ હેત સંતને ન નમ્યો ને હરી ને નગમ્યો અંતે થયો ફજેત સુખ દુખંમા વ્યાપે હરે આનંદ ના આવે અણુ આ જુગમા છે દેહ અભામાન ઘણુ

💐
તારુ મારૂ કરતો પ્રાણી જાજુ જતન કરે આ સંસાર સપ્ન સરીખો અર્થન એક સરે કાય નથી લેતા એ કારણ કબુધ તણુ આજુગમા છે દેહ અભીમાન ઘણુ


🌻
જય વીજય અહંકારે ચડીયા પડીયા દ્રોને દ્વાર તુતો પરગટ પાવન પ્રાણી કોણ માત્ર વીચાર જશે એ ઉડીને રે તુરગ જેમ આક તણુ આજુગમા છે દેહ અભીમાન ઘણુ


🌷
તન અભીમાની મન અભી માની વચન અભીમાન કહે જુઠુ બોલો જુઠુ રે ચાલે લખ ચોરા સી વહે ભજન હરીનુ બેસીને ન કીધુ એક્ષ્ણુ આજુગમા છે દેહ અભીમાન ઘણુ


🌼
સત શાસ્રી ને સત ગુરુજી સમજે સુજે ઊપદેશ સુધવીચાર આપ ટળે અભીમાન ટળે કહે છે રવી દાસ ક્રુપા થઈ સ્વરુપે રતી એક રહે ન અણુ
અરવિંદ જીડીયા 8128140089🙏🏻


from Tumblr http://ift.tt/2d81wiG
via IFTTT

भगवान….. आज की बात है जब हम अपनी छ वर्षीय पोती को छुट्टी के बाद गाड़ी में बिठा कर घर की तरफ...

भगवान…..

आज की बात है जब हम अपनी छ वर्षीय पोती को छुट्टी के बाद गाड़ी में बिठा कर घर की तरफ चले तो वह मुझे बोली. बाबा जी आज हमको मैडम बस में बिठा कर मंदिर ले गई थी.
मैने पूछा वो क्या होता है बेटी?
उसका जवाब था.. वहां भगवान रहता है व हमारी मैडम बता रही थी कि सब जगह सारे काम वो ही करता है.
मैने पूछा जैसे कोई काम बताओ..?
वो बोली जैसै सूरज से दिन निकालना , बारिश करना, और हमारे भी सारे काम.
मैने कहा ठीक बताया होगा आपकी मैम ने.
पर फिर वो बोली पर बाबा जी… पर वो तो एक ही जगह बैठा है. जब हम सब आऐ तो एक व्यक्ति ने भगवान के घर पर बाहर से ताला लगा दिया. वो तो अपना घर का दरवाजा भी अपने आप नही बंद कर सकता. और उसके घर पर तो बाहर से ताला लगा कर बंद कर दिया. तो मुझे तो लगा कि वो नकली भगवान है. तब वो बाकी सभी काम कैसे करता होगा?
बाल मन… का प्रश्न..
तब मैने उसको बहुत ही प्यार से बोला हां बेटी आप ने सही कहा.
वो असली भगवान नही है.
भगवान तो हर जगह है.
आप में भी हम में भी हर वस्तु वस्तु में.
तब फिर उसका प्रश्न था.. अगर वो हर जगह है तो
वो दिखता तो है नही कहीं.
तब तक हम जहां वो वापिसी में मेरे साथ जूस पीती है वो दुकान आ गई.
हम कुर्सी पर बैठ गए. व दुकानदार ने दो गिलास जूस दे दिया. मेरे गिलास में हल्का नमक व पोती के गिलास में मीठा डाल कर.
मैने पोती से पूछा बेटा जूस कैसा लगता है आपको.
वो बोली मीठा. तब मैने कहा कि आज मेरे गिलास में से भी एक घूंट जूस पियो.
उसने पिया तो वो बोली अरे यह तो नमकीन है बाबा जी.
मैनें कहा बेटा देखने से तो पता नही लगा. एक गिलास में मीठा जूस एक में नमकीन..
वो बोली हां पी कर पता लगा.
तब मैने उसको समझाया सच बेटा भगवान जैसे जूस को देखने से नही पीने से ही महसूस किया कि मीठा है ठीक वैसे ही भगवान को भी देखा नही महसूस किया जा सकता है.
हां बेटा जिसको ताले में बंद कर दिया है वो सच ही नकली का भगवान है. भगवान को किसी मंदिर मस्जिद में बंद नही किया जा सकता वो हर जगह है.
हां बाल मन को सही ठंग से समझाने के लिए हमें ऐसे ही प्यार से सही जानकारी देनी चाहिए.
हां अगर हम उसके प्रश्नो को टाल देते या कठिन शब्दावली में अपना ज्ञान देने की कोशिश करते तो शायद उसके साथ अन्याय
होता. …… जयदेव आर्य


from Tumblr http://ift.tt/2cu5iyM
via IFTTT

Friday, September 16, 2016

क्या इस्लाम में कुछ ऐसा है जो मुसलमानों को अराष्ट्रीय बनाता है ? बल्कान, तुर्की, अफगानिस्तान, चीन के...

क्या इस्लाम में कुछ ऐसा है जो मुसलमानों को अराष्ट्रीय बनाता है ? बल्कान, तुर्की, अफगानिस्तान, चीन के प्रान्त सिंक्यांग, ईराक, सीरिया, कश्मीर की लड़ाई में विश्व के अनेकों देशों के मुसलमानों की भागीदारी से स्पष्ट हो ही जाता है कि इस्लाम में वाकई कुछ ऐसा है जो मुसलमानों को अराष्ट्रीय बनाता है।
यहाँ कुछ सामायिक प्रश्न मेरे मन में उठ रहे हैं। मैं उन्हें आप तक पहुँचाना चाहता हूँ। लौकिक संस्कृत का शब्दशः परफैक्ट व्याकरण लिखने वाले पाणिनि का गांधार तालिबान का अफगानिस्तान किस कारण बना ? पाकिस्तान का रावलपिंडी { ये नाम स्वयं कहानी कह रहा है } जनपद, जहाँ का तक्षशिला विश्वविद्यालय संसार का पहला विश्वविद्यालय था। जहाँ आचार्य कौटिल्य, आचार्य जीवक जैसे लोग बेबीलोन, ग्रीस, सीरिया,चीन इत्यादि देशों से आये 10,500 छात्रों को वेद, भाषा, व्याकरण, दर्शन शास्त्र, औषध विज्ञान, शल्य चिकित्सा, धनुर्विद्या, राजनीति, युद्ध शास्त्र, खगोल विद्या, अंक गणित, संगीत, नृत्य इत्यादि विषयों की शिक्षा देते थे, रूप बदल कर जमातुद्दावा, हरकतुल अंसार का पाकिस्तान कैसे बन गया ?
बंगाल { बांग्ला देश } के नाम से विहित और सबको अपनी शीतल छांव देने वाली ढाकेश्वरी माँ का धाम ढाका उसके उपासकों के शत्रुओं का घर कैसे बन गया ? ईराक और सीरिया में फैले गरुण की उपासना करने वाले, यज्ञ करने वाले मूर्ति-पूजक यजदी नमाज़ भी पढ़ने वाले यजीदी बनने पर क्यों विवश हो गए ? क्यों आई.एस.आई.एस. के लोग उनका समूल-संहार कर रहे हैं ? बल्कि सदियों से क्यों उनका संहार किया जाता रहा है ?
सऊदी अरब, ईरान, ईराक, कज्जाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, आइजरबैजान जैसे अनेकों देशों में भग्न मंदिर, यज्ञशालाएं किसकी हैं और उन्हें किसने बनाया था ? वो भग्न कैसे हो गयीं ? उन्हें बनाने वाले, वहां उपासना करने वाले लोग कहाँ गए ? कश्मीर जो तंत्र के आचार्यों का क्षेत्र था, जहाँ तंत्र-कुल के लोग आज भी अपने नाम के आगे कौल लगाते हैं तंत्र-विहीन, कुल-विहीन कैसे हो गया ? क्यों इन सारे क्षेत्र के लोगों में अपनी परंपरा, अपने कुल के प्रति द्वेष पैदा हो गया ?
अपने पूर्वजों, परम्पराओं, इतिहास के प्रति घृणा अर्थात आत्मघाती प्रवृत्ति कोई सामान्य बात नहीं है तो एक दो लोगों में नहीं बल्कि पूरे समाज में जन्मी कैसे ? कैसे इन क्षेत्रों के लोगों में एक ऐसे उत्स जिसकी भाषा भी वो नहीं जानते के प्रति लगाव कैसे जाग गया ? इन भिन्न-भिन्न देशों, भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के लोगों ने एक ऐसी विदेशी आस्था, जिसने उनके पूर्वजों को भयानक पीड़ा दी, को स्वीकार क्यों किया ? इन देशों, समाजों के लोग अपने पूर्वजों की जगह अरब मूल से स्वयं को क्यों जोड़ने लगे ?
इन सारे प्रश्नों का केवल एक ही उत्तर है कि वहां के हिंदू धर्मान्तरित हो कर मुसलमान हो गए। इन ऐतिहासिक घटनाओं की तार्किक निष्पत्ति है कि “हिन्दुओं का धर्मान्तरण राष्ट्रांतरण है"। हिन्दुओं से किसी अन्य मत में स्थानांतरण राष्ट्रांतरण होता है और अन्य मतों से प्रति-धर्मान्तरण अर्थात शुद्धि राष्ट्र और देश को मजबूत करती है। हिन्दुओं का सबल होना भारत का सबल होना है। हिंदुओं की स्थिति का दुर्बल होना भारत को दुर्बल करता है।
तो साहब देशभक्त इसे कैसे स्वीकार करें ? देश के शरीर पर निकलते जा रहे फोड़ों का इलाज क्यों नहीं करें ? इनका इलाज प्रति-धर्मान्तरण अर्थात शुद्धि नहीं है तो क्या है ? ऐसे किसी भी कार्य का विरोध तो होगा ही होगा। हमें करोड़ों की संख्या का मानस बदलना है। अनेकों देशों में भूले-बिसरे, छूट गए बंधुओं की सुधि लेनी है अतः विरोधियों की हू-हू की सियार-ध्वनि तो तब तक होती ही रहेगी जब तक इस समस्या की सर्वतोभावेन चिकित्सा नहीं हो जाती। आख़िर जिस प्रक्रिया के कारण अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश भारत से अलग हुए थे, उसी प्रक्रिया के उलटने से वापस आएंगे। और इस बार पूरे समाज को बाहें फैला कर बिछड़े बंधुओं को गले लगाना है और भारत को तोड़ने वालों से निबटना, को निबटाना है।
तुफ़ैल चतुर्वेदी


from Tumblr http://ift.tt/2cQGful
via IFTTT

ओइम् परमात्मने नम:. *******************हम हिन्दूओं मे अधिकतर यह पृथा है,कि जब काेई मरने वाला हाेता...

ओइम् परमात्मने नम:. *******************हम हिन्दूओं मे अधिकतर यह पृथा है,कि जब काेई मरने वाला हाेता है, अथवा मर चुका हाेता है, तो उस मृत व्यक्ति के लिये गीता , अथवा गरूण पुराण का पाठ कराते है । अक्सर यह भी देखा जाता है,कि मरने वाले का अंतिम दीवा वट करते समय, अर्थात अंतिम चिराग जलाते समय इसकी पीठ के नीचे, गेहूं अथवा जाै की ढेरी रख देते है? कहेगे कि यह स्वर्ग लाेक की नाैका का भाडा है? इस पर वेदाें एंवम उपनिषदाें की क्या मंत्रणा है ? *******************मरते समय मनुष्य, के मन , ओर बुद्धि दाेनाे अपने सही हैसियत मे आकर अर्थात नाैकर की स्थति मे, प्राण निकलने पहले प्राणी के जीवन भर का कर्माे का , उसकी आत्मा काे ब्याैरा देते है । वैसे मन ओर बुद्धि दाेनाे ने जीवन भर आत्मा काे गुलाम बना कर रखा था ? अंत समय मे , ये दाेनाे ने साफ बात कह कर बता दिया ? हे महाराज हम तो नाैकर थे आप के ? इस रथ का हिसाब-किताब अभी लाे ? सारे काम पाप ही पाप है ? सारी जुम्मेदारी तो महाराज आप ( आत्मा) की थी ? आत्मा राेता है? उस समय भाेतिक शरीर की सुध किसे रहती है ? जी का जंजाल बना रहता है ? पाप कर्म करने वाले मनुष्य की आत्मा जब शरीर त्यागती है, तब एक लाख बिछ्छू मानाें डंक मार रहे हाेते है । अब बताओ भाईयो? गीता , गरूण पुराण सुध किसे रहती है? मृत्यु का भय तो बडे बडे याेद्धाओं ओर बलवानाे काे भी कम्पायमान कर देता है । फिर साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या करना ? मरना काेई नही चाहता ? जहां इतना बडा संकट हाे? भगवद भजन की रूची कैसे हाे सकती है? हां अच्छी कर्म करने वाले के साथ ऐसा नही हाेता । मनुष्य की जन्म –जन्मान्तरों की सत्संग वृति , निष्काम भाव से सेवा आदि ही काम आती है ।


from Tumblr http://ift.tt/2cBLr21
via IFTTT

Thursday, September 15, 2016

ओ३म् सूर्यो ज्योतिः ज्योतिः सूर्यः स्वाहा~~~~~~~~~~जगमग सूरज चमक रहा है, जिसमें ज्योति तुम्हारी है|...

ओ३म् सूर्यो ज्योतिः ज्योतिः सूर्यः स्वाहा~~~~~~~~~~जगमग सूरज चमक रहा है, जिसमें ज्योति तुम्हारी है| कर प्रकाश सबके अंतरमें , स्वप्रकाश भंडारी है|| प्रातःकाल की पावन वेला, तुझसे ऊर्जा पाते हैं| तेरा वेद विमल गायन कर , तुझको शीश नवाते हैं||👏 शुभ प्रभातम् 🌞सबको सादर सप्रेम नमस्ते🙏🙏🌺🌺🙏🙏


from Tumblr http://ift.tt/2cSTmaE
via IFTTT

ओ३म् *🌷वैदिक धर्म की विशेषताएँ🌷* संसार के सभी मत-मतान्तरों में वैदिक धर्म का बहुत ऊँचा स्थान है।...

ओ३म्

*🌷वैदिक धर्म की विशेषताएँ🌷*

संसार के सभी मत-मतान्तरों में वैदिक धर्म का बहुत ऊँचा स्थान है। यद्यपि राजसत्ता के अभाव के कारण वैदिक धर्म का प्रचार एवं प्रसार बौद्धमत, ईसाईमत और इस्लाम की अपेक्षा कम हो गया है, तथापि जहाँ तक सैद्धान्तिक और वैचारिक उत्कृष्टता का सम्बन्ध है, कोई भी मत-मतान्तर वैदिक धर्म की समानता नहीं कर सकता।

वैदिक धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह विश्व का प्राचीनतम धर्म है। संसार के जितने मत-मतान्तर हैं, वे सब वैदिक धर्म के पश्चात् ही संसार में प्रादुर्भूत हुए हैं। पारसी मत, यहूदी मत, जैन मत, बौद्ध मत, कंफ्यूशियस मत, ताओ मत, ईसाई मत, इस्लाम और सिख सम्प्रदाय―ये सभी वैदिक धर्म के पश्चात् ही आविर्भूत हुए हैं। पारसी मत ४५०० वर्ष पुराना है। यहूदी मत ३५०० वर्ष पुराना है। बौद्ध मत, जैन मत, कंफ्यूशियस मत और ताओ मत लगभग २५०० वर्ष पुराने हैं। सिख मत ५०० वर्ष की देन है। इस प्रकार ये सब मत-मतान्तर नवीन हैं। केवल वैदिक धर्म ही प्रचीन है।

वैदिक धर्म सब मत-मतान्तरों का आदिस्रोत है। जो भी अच्छाई सब मत-मतान्तरों में पाई जाती हैं, वे सब वैदिक धर्म से ही गृहीत हैं। पारसी मत में अग्नि-पूजन, गौभक्ति और पवित्र सूत्र-धारण की प्रथा तो स्पष्ट ही वैदिक धर्म की देन है। जैनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप और स्वाध्याय―ये नौ सिद्धान्त वैदिक धर्म से ही लिये हुए हैं। ईश्वर को न मानने के कारण उन्होंने ईश्वर-प्रणिधान को छोड़ दिया। बौद्धों का पंचशील सिद्धान्त वैदिक धर्म की ही देन है। ईसाई मत के बहुत-से सिद्धान्त बौद्ध मत से लिये हुए हैं और बौद्ध मत के बहुत-से सिद्धान्त वैदिक धर्म की देन हैं। इस्लाम का एकेश्वरवाद तो वैदिक धर्म की ही देन है।

वैदिक धर्म सृष्टिक्रम के अनुकूल है। वैदि धर्म चमत्कारों, आश्चर्य-कर्मों में विश्वास नहीं करता। ये आश्चर्य-कर्म अपने-अपने गुरुओं के महत्त्व को बढ़ाने के लिए गढ़े हुए हैं।
शिवजी के सिर में से गंगा का निकलना, श्रीराम की चरणधूलि के स्पर्श से पत्थर की मूर्ति का अहल्या के रुप में बदल जाना, सीता जी का धरती से उत्पन्न होना, हनुमान जी का सूरज को निगल जाना, श्री कृष्ण का गोवर्धन पर्वत को अँगुली पर उठा लेना, कर्ण का कान से उत्पन्न होना, ध्रुव भक्त का अग्नि में न जलना, मूसा का नील नदी में डंडा मारना और नील नदी का बीच में सूख जाना, मूसा का पत्थर पर डंडा मारना और पत्थर पत्थर से झरनों का निकलना, महावीर स्वामी का अँगूठे से पृथिवी को दबाना और शेषनाग का हिल जाना, ईसा का बिना बाप के उत्पन्न होना, ईसा का मृतकों को जीवित करना, मुहम्मद साहब के चाँद के दो टुकड़े करना, गुरु नानकदेव का हाथ के संकेत से पर्वत को रोक देना, मक्के की मस्जिद को घुमा देना इत्यादि सभी बातें सृष्टिक्रम के विपरित हैं। वैदिक धर्म इन सब बातों में विश्वास नहीं करता। वैदिक धर्म की मान्यता यह है कि महापुरुषों की महानता उनके आचरण की श्रेष्ठता में है, न कि सृष्टि के नियमों को तोड़ने में है।

वैदिक धर्म की एक विशेषता है कि यह धर्म व्यक्ति-विशेष पर आधारित न होकर ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित है। पारसी मत के आधार जरदुश्त, यहूदी मत के आधार मूसा, जैन मत के आधार महावीर स्वामी, बौद्ध मत के आधार महात्मा बुद्ध, कंफ्यूशस मत के आधार कंफ्यूशस, ताओ मत के आधार ताओ, ईसाई मत के आधार ईसा, इस्लाम मत के आधार मुहम्मद और सिख सम्प्रदाय के आधार गुरु नानक हैं। यदि इन महानुभावों को इन मत-मतान्तरों से निकाल दिया जाए तो ये सब मत-मतान्तर धड़ाम-कड़ाम नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि यही इनके संस्थापक थे। परन्तु वैदिक धर्म किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा संचालित न होकर ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित है। वेद सारे मानव-मात्र के लिए हैं। जैसे आकाश, वायु, सूर्य, चन्द्र, जल और पृथिवी सब जीवों के लिए हैं, वैसे वेदज्ञान भी मनुष्य-मात्र के लिए है।वेद में जो शिक्षा दी गई है, वह सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सार्वत्रिक है। वह देश और काल के बन्धन से परे है। उस शिक्षा में उदारता और विशालह्रदयता पाई जाती है। किसी प्रकार की संकुचितता और संकीर्णता नहीं पाई जाती। वेद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अपने-पराए, भृत्य और महिला-वर्ग सभी के लिए है।

वेद ने इस तथ्य की स्वयं पुष्टि की है―
*यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ।*
*ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ।।*―(यजु० २६/२)

*अर्थात्―*जैसे मैं इस कल्याणकारी वाणी का लोगों के लिए उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। यह वेदज्ञान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अपने भृत्य व स्त्री और अतिशूद्र के लिए है।


from Tumblr http://ift.tt/2csqqLe
via IFTTT

*वैदिक सूक्तिया* वेद की ओर लोटो वेद ही सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है | *पशून् पाहि |* पशुओं का रक्षा...

*वैदिक सूक्तिया*
वेद की ओर लोटो वेद ही सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है |
*पशून् पाहि |*
पशुओं का रक्षा कर ||
*गां मा हिंसी: |*
गौ को मत मार ||
*अविं मा हिंसी: |*
भेड़ व बकरी को मत मार ||
*मांसं नाश्नीयात् |*
कोई मांस न खाए ||
*कृण्वन्तो विश्वमार्यम् |*
सारे संसार को आर्य बना ||
*संश्रुतेन गमेमहि |*
हम वेदानुसार चलें ||
*मा तेन विराधिषि |*
वेद का विरोध मत कर ||
*अंम् भूया समुत्तम: |*
मैं सबसे उत्तम बनूं ||
*वंय स्याम पतयो रयीणाम् |*
हम धन के स्वामी बने ||
*सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु |*
दिशाए और आशाएं मेरी मित्र हों ||


from Tumblr http://ift.tt/2cZcPLh
via IFTTT

ओ३म् *🌷वैदिक धर्म की विशेषताएँ🌷* संसार के सभी मत-मतान्तरों में वैदिक धर्म का बहुत ऊँचा स्थान है।...

ओ३म्

*🌷वैदिक धर्म की विशेषताएँ🌷*

संसार के सभी मत-मतान्तरों में वैदिक धर्म का बहुत ऊँचा स्थान है। यद्यपि राजसत्ता के अभाव के कारण वैदिक धर्म का प्रचार एवं प्रसार बौद्धमत, ईसाईमत और इस्लाम की अपेक्षा कम हो गया है, तथापि जहाँ तक सैद्धान्तिक और वैचारिक उत्कृष्टता का सम्बन्ध है, कोई भी मत-मतान्तर वैदिक धर्म की समानता नहीं कर सकता।

वैदिक धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह विश्व का प्राचीनतम धर्म है। संसार के जितने मत-मतान्तर हैं, वे सब वैदिक धर्म के पश्चात् ही संसार में प्रादुर्भूत हुए हैं। पारसी मत, यहूदी मत, जैन मत, बौद्ध मत, कंफ्यूशियस मत, ताओ मत, ईसाई मत, इस्लाम और सिख सम्प्रदाय―ये सभी वैदिक धर्म के पश्चात् ही आविर्भूत हुए हैं। पारसी मत ४५०० वर्ष पुराना है। यहूदी मत ३५०० वर्ष पुराना है। बौद्ध मत, जैन मत, कंफ्यूशियस मत और ताओ मत लगभग २५०० वर्ष पुराने हैं। सिख मत ५०० वर्ष की देन है। इस प्रकार ये सब मत-मतान्तर नवीन हैं। केवल वैदिक धर्म ही प्रचीन है।

वैदिक धर्म सब मत-मतान्तरों का आदिस्रोत है। जो भी अच्छाई सब मत-मतान्तरों में पाई जाती हैं, वे सब वैदिक धर्म से ही गृहीत हैं। पारसी मत में अग्नि-पूजन, गौभक्ति और पवित्र सूत्र-धारण की प्रथा तो स्पष्ट ही वैदिक धर्म की देन है। जैनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप और स्वाध्याय―ये नौ सिद्धान्त वैदिक धर्म से ही लिये हुए हैं। ईश्वर को न मानने के कारण उन्होंने ईश्वर-प्रणिधान को छोड़ दिया। बौद्धों का पंचशील सिद्धान्त वैदिक धर्म की ही देन है। ईसाई मत के बहुत-से सिद्धान्त बौद्ध मत से लिये हुए हैं और बौद्ध मत के बहुत-से सिद्धान्त वैदिक धर्म की देन हैं। इस्लाम का एकेश्वरवाद तो वैदिक धर्म की ही देन है।

वैदिक धर्म सृष्टिक्रम के अनुकूल है। वैदि धर्म चमत्कारों, आश्चर्य-कर्मों में विश्वास नहीं करता। ये आश्चर्य-कर्म अपने-अपने गुरुओं के महत्त्व को बढ़ाने के लिए गढ़े हुए हैं।
शिवजी के सिर में से गंगा का निकलना, श्रीराम की चरणधूलि के स्पर्श से पत्थर की मूर्ति का अहल्या के रुप में बदल जाना, सीता जी का धरती से उत्पन्न होना, हनुमान जी का सूरज को निगल जाना, श्री कृष्ण का गोवर्धन पर्वत को अँगुली पर उठा लेना, कर्ण का कान से उत्पन्न होना, ध्रुव भक्त का अग्नि में न जलना, मूसा का नील नदी में डंडा मारना और नील नदी का बीच में सूख जाना, मूसा का पत्थर पर डंडा मारना और पत्थर पत्थर से झरनों का निकलना, महावीर स्वामी का अँगूठे से पृथिवी को दबाना और शेषनाग का हिल जाना, ईसा का बिना बाप के उत्पन्न होना, ईसा का मृतकों को जीवित करना, मुहम्मद साहब के चाँद के दो टुकड़े करना, गुरु नानकदेव का हाथ के संकेत से पर्वत को रोक देना, मक्के की मस्जिद को घुमा देना इत्यादि सभी बातें सृष्टिक्रम के विपरित हैं। वैदिक धर्म इन सब बातों में विश्वास नहीं करता। वैदिक धर्म की मान्यता यह है कि महापुरुषों की महानता उनके आचरण की श्रेष्ठता में है, न कि सृष्टि के नियमों को तोड़ने में है।

वैदिक धर्म की एक विशेषता है कि यह धर्म व्यक्ति-विशेष पर आधारित न होकर ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित है। पारसी मत के आधार जरदुश्त, यहूदी मत के आधार मूसा, जैन मत के आधार महावीर स्वामी, बौद्ध मत के आधार महात्मा बुद्ध, कंफ्यूशस मत के आधार कंफ्यूशस, ताओ मत के आधार ताओ, ईसाई मत के आधार ईसा, इस्लाम मत के आधार मुहम्मद और सिख सम्प्रदाय के आधार गुरु नानक हैं। यदि इन महानुभावों को इन मत-मतान्तरों से निकाल दिया जाए तो ये सब मत-मतान्तर धड़ाम-कड़ाम नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि यही इनके संस्थापक थे। परन्तु वैदिक धर्म किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा संचालित न होकर ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित है। वेद सारे मानव-मात्र के लिए हैं। जैसे आकाश, वायु, सूर्य, चन्द्र, जल और पृथिवी सब जीवों के लिए हैं, वैसे वेदज्ञान भी मनुष्य-मात्र के लिए है।वेद में जो शिक्षा दी गई है, वह सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सार्वत्रिक है। वह देश और काल के बन्धन से परे है। उस शिक्षा में उदारता और विशालह्रदयता पाई जाती है। किसी प्रकार की संकुचितता और संकीर्णता नहीं पाई जाती। वेद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अपने-पराए, भृत्य और महिला-वर्ग सभी के लिए है।

वेद ने इस तथ्य की स्वयं पुष्टि की है―
*यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ।*
*ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ।।*―(यजु० २६/२)

*अर्थात्―*जैसे मैं इस कल्याणकारी वाणी का लोगों के लिए उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। यह वेदज्ञान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अपने भृत्य व स्त्री और अतिशूद्र के लिए है।


from Tumblr http://ift.tt/2criKn7
via IFTTT

☀ 🐚ओ३म् 🐚☀ 🙏 सभी मित्रों को नमस्ते जी🙏 प्रश्न :- - अभागा कौन है ? उत्तर :- - जो मनुष्य इस लोक...

☀ 🐚ओ३म् 🐚☀
🙏 सभी मित्रों को नमस्ते जी🙏


प्रश्न :- - अभागा कौन है ?
उत्तर :- - जो मनुष्य इस लोक में आकर परोपकार नहीं करता है , आत्मज्ञान नहीं लेता है अर्थात स्वयं को जानने का प्रयास नहीं करता है , समस्त संसार के निर्माता , धारण कर्ता , पालन कर्ता , सर्वान्तर्यामी परमात्मा को नहीं जानता है , शुद्ध अंतःकरण से परमात्मा की भक्ति नहीं करता है , - - वो ही सबसे बड़ा अभागा है ।


from Tumblr http://ift.tt/2cdPSTe
via IFTTT

ओ३म् *🌷मारा हुआ धर्म कहीं तुम्हें न मार दें !🌷* जिस प्रकार प्राणों के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह...

ओ३म्

*🌷मारा हुआ धर्म कहीं तुम्हें न मार दें !🌷*

जिस प्रकार प्राणों के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार धर्म (नैतिक आचरण) के बिना मनुष्य का भी कोई महत्त्व नहीं।

धर्म आचरण की वस्तु है।धर्म केवल प्रवचन और वाद-विवाद का विषय नहीं।केवल तर्क-वितर्क में उलझे रहना धार्मिक होने का लक्षण नहीं है।धार्मिक होने का प्रमाण यही है कि व्यक्ति का धर्म पर कितना आचरण है। व्यक्ति जितना-जितना धर्म पर आचरण करता है उतना-उतना ही वह धार्मिक बनता है।'धृ धारणे’ से धर्म शब्द बनता है, जिसका अर्थ है धारण करना।

तैत्तिरीयोपनिषद् के ऋषि के अनुसार ―
*धर्मं चर !*―(तै० प्रथमा वल्ली, ११ अनुवाक)

अर्थात् तू धर्म का आचरण कर !
इसमें धर्म का आचरण करने की बात कही गई है, धर्म पर तर्क-वितर्क और वाद-विवाद करने की बात नहीं कही गई ।

निर्व्यसनता नैतिकता को चमकाती है।आध्यात्मिकता सोने पर सुहागे का काम करती है।नैतिकता+निर्व्यसनता+आध्यात्मिकता का समन्वय ही वास्तव में मनुष्य को मनुष्य बनाता है।

धर्म मनुष्य में शिवत्व की स्थापना करना चाहता है।वह मनुष्य को पशुता के धरातल से ऊपर उठाकर मानवता की और ले जाता है और मानवता के ऊपर उठाकर उसे देवत्व की और ले-जाता है।यदि कोई व्यक्ति धार्मिक होने का दावा करता है और मनुष्यता और देवत्व उसके जीवन में नहीं आ पाते, तो समझिए कि वह धर्म का आचरण न करके धर्म का आडम्बर कर रहा है।

*मनु महाराज के अनुसार धर्म की महिमा*

वैदिक साहित्य में धर्म की बहुत महिमा बताई गई है।मनु महाराज ने लिखा है―

*नामुत्र हि सहायार्थं पितामाता च तिष्ठतः ।*
*न पुत्रदारं न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः ।।*
―(मनु० ४/२३९)
*अर्थात्―*परलोक में माता, पिता, पुत्र, पत्नि और गोती (एक ही वंश का) मनुष्य की कोई सहायता नहीं करते।वहाँ पर केवल धर्म ही मनुष्य की सहायता करता है।


*एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते ।*
*एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम् ।।*
―(मनु० ४/२४०)
*अर्थ―*जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है।अकेला ही पुण्य भोगता है और अकेला ही पाप भोगता है।


*एक एव सुह्रद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः ।*
*शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति ।।*
―(मनु० ८/१७)
*अर्थ―*धर्म ही एक मित्र है जो मरने पर भी आत्मा के साथ जाता है; अन्य सब पदार्थ शरीर के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाते हैं।


*मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।*
*विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ।।*
―(मनु० ४/२४१)
*अर्थ―*सम्बन्धी मृतक के शरीर को लकड़ी और ढेले के समान भूमि पर फेंककर विमुख होकर चले जाते हैं, केवल धर्म ही आत्मा के साथ जाता है।


*धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम् ।*
*परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम् ।।*
―(मनु० ४/२४३)
*अर्थ―*जो पुरुष धर्म ही को प्रधान समझता है, जिसका धर्म के अनुष्ठान से पाप दूर हो गया है, उसे प्रकाशस्वरुप और आकाश जिसका शरीरवत् है, उस परमदर्शनीय परमात्मा को धर्म ही शीघ्र प्राप्त कराता है।


धर्म के आचरण पर मनु महाराज ने बहुत बल दिया है―
*अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम् ।*
*हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते ।।*
―(मनु० ४/१७०)
*अर्थ―*जो अधर्मी, अनृतभाषी, अपवित्र व अनुचित रीत्योपार्जक तथा हिंसक है, वह इस लोक में सुख नहीं पाता।


*न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् ।*
*अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम् ।।*
―(मनु० ४/१७१)
*अर्थ―*धर्माचरण में कष्ट झेलकर भी अधर्म की इच्छा न करे, क्योंकि अधार्मिकों की धन-सम्पत्ति शीघ्र ही नष्ट होती देखी जाती है।


*नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव ।*
*शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ।।*
―(मनु० ४/१७२)
*अर्थ―*संसार में अधर्म शीघ्र ही फल नहीं देता, जैसे पृथिवी बीज बोने पर तुरन्त फल नहीं देती।वह अधर्म धीरे-धीरे कर्त्ता की जड़ों तक को काट देता है।


*अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।*
*ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति ।।*
―(मनु० ४/१७४)
*अर्थ―*अधर्मी प्रथम तो अधर्म के कारण उन्नत होता है और कल्याण-ही-कल्याण पाता है, तदन्नतर शत्रु-विजयी होता है और समूल नष्ट हो जाता है।


*धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।*
*तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।*
―(मनु० ८/१५)
*अर्थ―*मारा हुआ धर्म मनुष्य का नाश करता है और रक्षा किया हुआ धर्म मनुष्य की रक्षा करता है।इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए, ऐसा न हो कि कहीं मारा हुआ धर्म हमें ही मार दे !


*वृषो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् ।*
*वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत् ।।*
―(मनु० ८/१६)
*अर्थ―*ऐश्वर्यवान् धर्म सुखों की वर्षा करने वाला होता है।जो कोई उसका लोप करता है, देव उसे नीच कहते हैं, इसलिए मनुष्य को धर्म का लोप नहीं करना चाहिए।


*चला लक्ष्मीश्चला प्राणाश्चलं जीवितयौवनम् ।*
*चलाचले हि संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।*

*अर्थ―*धन, प्राण, जीवन और यौवन―ये सब चलायमान हैं। इस चलायमान संसार में केवल एक धर्म ही निश्चल है।


प्रश्न उठता है कि जिस धर्म की इतनी महिमा कही गई है, वह धर्म क्या है ? इस सन्दर्भ में मनु महाराज का श्लोक ध्यान देने योग्य है―

*धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।*
*धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।*
―(मनु० ६/९२)
*अर्थ―*धीरज, हानि पहुँचाने वाले से प्रतिकार न लेना, मन को विषयों से रोकना, चोरी न करना, मन को राग-द्वेष से परे रखना, इन्द्रियों को बुरे कामों से बचाना, मादक द्रव्य का सेवन न करके बुद्धि को पवित्र रखना, ज्ञान की प्राप्ति, सत्य बोलना और क्रोध न करना―ये धर्म के दस लक्षण हैं।


from Tumblr http://ift.tt/2cho5jl
via IFTTT