Sunday, July 31, 2016

🔥 *ओ३म्* 🔥 *अपवर्ग किसे कहते हैं (What is ApaVarg)*? अपवर्ग (Salvation) मुक्ति को कहते हैं. इस...

🔥 *ओ३म्* 🔥

*अपवर्ग किसे कहते हैं (What is ApaVarg)*?
अपवर्ग (Salvation) मुक्ति को कहते हैं. इस अवस्था को मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण आदि नामों से भी जाना जाता है.

कवर्ग (Guttural-कण्ठ) = क ख ग घ ङ
चवर्ग (Palatal-तालु) = च छ ज झ ञ
टवर्ग (Cerebral-मूर्द्धा) = ट ठ ड ढ ण
तवर्ग (Dental-दन्त) = त थ द ध न
*पवर्ग (Labial-ओष्ठ) = प फ ब भ म*

_अपवर्ग = अ + पवर्ग = जो पवर्ग नहीं है_.

*पवर्ग शब्द में “प फ ब भ म” का क्या अर्थ है ???*
प = पाप
फ = फल
ब = बन्धन
भ = भय
म = मृत्यु

_अपवर्ग ऐसी अवस्था है, जिसमें पाप, फल, बन्धन, भय और मरण नहीं होता_.

*प्रश्न: मुक्ति कैसे मिलती है* ?
उत्तर: महर्षि पतंजलि के अनुसार, योग के आठ अङ्गो का अनुष्ठान करने से, शरीरस्थ मलदोष, चित्तस्थ विक्षेपदोष और बुद्धिगत आवरण दोष दूर होकर विवेकख्याति तक ज्ञान का विस्तार होकर जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है. (योगदर्शन 2.28, 4.31, 4.34)

*प्रश्न: क्या मुक्ति सदा (forever) के लिए मिलती है?*
उत्तर: नहीं, *limited efforts का result कभी भी unlimited नहीं हो सकता*.
*ऋग्वेद 1.24.2* के अनुसार, “मुक्ति के बाद पुनर्जन्म होता है”.
*सांख्यदर्शन 1.159* के अनुसार, “मुक्ति और बन्धन सदा नहीं रहते.”

*प्रश्न: मुक्ति की अवधि कितनी है?*
उत्तर: *मुण्डक-उपनिषद 3.2.6* के अनुसार, मुक्ति की अवधि *पराकाल* की होती है.
पराकाल = 31,10,40,000,000,000 वर्ष = 100 ब्राह्म-वर्ष
इतने समय में 36,000 बार सृष्टि और 36,000 बार प्रलय हो जाता है.

PaVarg stands for Pa, Pha, Ba, Bha, Ma.

Pa = Paap (Sin)
Pha = Phal (Outcome)
Ba = Bandhan (Bondage)
Bha = Bhaya (Fear)
Ma = Maran (Death)

Such condition where Soul is free from Sin, Outcome, Bondage, Fear and Death, that is called ApaVarg (Salvation).

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*पाँच महायज्ञ निम्नलिखित हैं*: १) *ब्रह्मयज्ञ (सन्ध्या)* २) *देवयज्ञ...

*पाँच महायज्ञ निम्नलिखित हैं*:
१) *ब्रह्मयज्ञ (सन्ध्या)*
२) *देवयज्ञ (हवन)*
३) *पितृयज्ञ*
४) *भूतयज्ञ (बलिवैश्वदेवयज्ञ)*
५) *नृयज्ञ (अतिथियज्ञ)*
*पञ्चमहायज्ञ का फल* यह है, की ज्ञान प्राप्ति से आत्मा की उन्नति और आरोग्यता होने से शरीर के सुख से व्यवहार और परमार्थ कार्यों की सिद्धि होना। उससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये सिद्ध होते हैं, इनको प्राप्त होकर मनुष्यों को सुखी होना उचित है। - (_पञ्चमहायज्ञविधि_)
न्यून से न्यून एक घण्टा ध्यान अवश्य करे। जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करें। - (_सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास_)
_सदा स्त्री-पुरुष १० दश बजे शयन और रात्रि के अन्तिम प्रहर अथवा ४ बजे उठके प्रथम ह्रदय में परमेश्वर का चिन्तन करके धर्म और अर्थ का विचार किया करें, और धर्म और अर्थ के अनुष्ठान वा उद्योग करने में यदि कभी पीडा भी हो, तथापि धर्मयुक्त पुरुषार्थ को कभी न छोडे, किन्तु सदा शरीर और आत्मा की रक्षा के लिए युक्त आहार-विहार, औषध-सेवन, सुपथ्य आदि से निरन्तर उद्योग करके व्यावहारिक और पारमार्थिक कर्त्तव्य कर्म की सिद्धि के लिए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना भी किया करें, की जिससे परमेश्वर की कृपादृष्टि और सहाय से महाकठिन कार्य भी सुगमता से सिद्ध हो सकें।_ इसके लिए निम्नलिखित मन्त्र हैं: - (*संस्कार-विधि*)
*प्रा॒तर॒ग्निं प्रा॒तरिन्द्रं॑ हवामहे प्रा॒तर्मि॒त्रावरु॑णा प्रा॒तर॒श्विना॑ । प्रा॒तर्भगं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॑ प्रा॒तः सोम॑मु॒त रु॒द्रं हु॑वेम ॥*
*प्रा॒त॒र्जितं॒ भग॑मु॒ग्रं हु॑वेम व॒यं पु॒त्रमदि॑ते॒र्यो वि॑ध॒र्ता । आ॒ध्रश्चि॒द्यं मन्य॑मानस्तु॒रश्चि॒द्राजा॑ चि॒द्यं भगं॑ भ॒क्षीत्याह॑ ॥*
*भग॒ प्रणे॑त॒र्भग॒ सत्य॑राधो॒ भगे॒मां धिय॒मुद॑वा॒ दद॑न्नः । भग॒ प्र णो॑ जनय॒ गोभि॒रश्वै॒र्भग॒ प्र नृभि॑र्नृ॒वन्त॑: स्याम ॥*
*उ॒तेदानीं॒ भग॑वन्तः स्यामो॒त प्र॑पि॒त्व उ॒त मध्ये॒ अह्ना॑म् । उ॒तोदि॑ता मघव॒न्त्सूर्य॑स्य व॒यं दे॒वानां॑ सुम॒तौ स्या॑म ॥*
*भग॑ ए॒व भग॑वाँ अस्तु देवा॒स्तेन॑ व॒यं भग॑वन्तः स्याम । तं त्वा॑ भग॒ सर्व॒ इज्जो॑हवीति॒ स नो॑ भग पुरए॒ता भ॑वे॒ह ॥*
- _ऋग्वेद मण्डल-७, सूक्त-४१, मन्त्र-१,२,३,४,५, यजुर्वेद अध्याय-३४, मन्त्र-३४, अथर्ववेद ३.१६.१_
*तत्पश्चात् शौच, दन्तधावन, मुखप्रक्षालन करके स्नान करें। पश्चात् एकान्त स्थान में जाकर योगाभ्यास की रीति से परमात्मा की उपासना कर सूर्योदय पर्यन्त घर आकर सन्ध्योपासना करें*।

प्रमाण:
*ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्। कायक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च ॥मनुस्मृति ४.९२॥*
रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात (सूर्योदय से ९६ मिनट पूर्व) से उठे। आवश्यक कार्य करके धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे। कभी अधर्म का आचरण न करे। क्योंकि—
*नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव। शनैरावर्त्तमानस्तु कर्त्तुर्मूलानि कृन्तति ॥मनुस्मृति ४.१७२॥*
किया हुआ अधर्म निष्फल कभी नहीं होता परन्तु जिस समय अधर्म करता है उसी समय फल भी नहीं होता। इसलिये अज्ञानी लोग अधर्म से नहीं डरते। तथापि निश्चय जानो कि वह अधर्माचरण धीरे-धीरे सुख के मूल को काटता चला जाता है।
*अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः*॥ - (मनुस्मृति २.१०४)
जङ्गल में अर्थात् एकान्त देश में जा सावधान हो के जल के समीप स्थित हो के नित्य कर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का उच्चारण अर्थज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल चलन को करे परन्तु यह जन्म से करना उत्तम है।


*सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ) के दो अर्थ होते हैं*:
१) (*सम + ध्या*) जिसमें सम्यक प्रकार से परमात्मा का ध्यान होता है।
२) (*सन्धि + आ*) जब रात से दिन की सन्धि होती है, और जब दिन से रात की सन्धि होती है, उस समय परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करना।
*सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ) इसके ३ अंग हैं*:
१) तप (वाह्यवृत्ति प्राणायाम)
२) स्वाध्याय (ध्यान, स्वयं के कार्यों का निरीक्षण)
३) ईश्वर-प्रणिधान (दृढनिष्ठापूर्वक परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना)
*सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ) के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकरण आते हैं*:
०) *मार्जन* – शिर और नेत्रादि पर जल प्रक्षेप (यदि आलस्य न हो तो न करना) – (पञ्चमहायज्ञविधि)
१) *न्यूनतम ३ वाह्यवृत्ति प्राणायाम “ओ३म्” के मानसिक जप सहित* – (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास)
०) गायत्री मन्त्र द्वारा शिखा बन्धन (यदि केश न गिरें तो न करना) – (पञ्चमहायज्ञविधि)
२) आचमन-मन्त्र
३) इन्द्रिय-स्पर्श
४) ईश्वरप्रार्थनापूर्वक मार्जन-मन्त्र
५) प्राणायाम-मन्त्र सहित न्यूनतम ३ वाह्यवृत्ति प्राणायाम (समन्त्रक प्राणायाम)
६) अघमर्षण-मन्त्र
७) मनसा-परिक्रमा मन्त्र
८) उपस्थान-मन्त्र
९) गुरुमन्त्र (गायत्री-मन्त्र)
१०) समर्पण और नमस्कार-मन्त्र
प्रथम वाह्य जलादि से स्थूल-शरीर की शुद्धि और राग-द्वेष आदि के त्याग से भीतर की शुद्धि करनी चाहिए, इस में प्रमाण—
*अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति*॥ - (मनुस्मृति ५.१०९)
अर्थात् जल से शरीर के बाहर के अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप अर्थात् सब प्रकार के कष्ट भी सह के धर्म ही के अनुष्ठान करने से जीवात्मा, ज्ञान अर्थात् पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि दृढ़ निश्चय पवित्र होता है। इस से स्नान भोजन के पूर्व अवश्य करना।
दूसरा प्राणायाम, इसमें प्रमाण—
*प्राणायामादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः*॥ — योगदर्शन २.२८
अर्थात् जब मनुष्य प्राणायाम करता है तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।
*दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां च यथा मलाः। तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्*॥ - (मनुस्मृति ६.७१)
अर्थात् जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं वैसे प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं।
*प्राणायाम की विधि*—
*प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य*। — योगदर्शन १.३४
अर्थात् “_जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न जल बाहर निकल जाता है वैसे प्राण को बल से बाहर फेंक के बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे_।“ जब बाहर निकालना चाहे तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच के वायु को बाहर फेंक दे। जब तक मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रक्खे तब तक प्राण बाहर रहता है। इसी प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है। जब घबराहट हो तब धीरे-धीरे भीतर वायु को ले के फिर भी वैसे ही करता जाय जितना सामर्थ्य और इच्छा हो और मन में (*ओ३म्*) इस का जप करता जाय इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है।
इस से मनुष्य शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर, बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा। स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे। भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने, चालने, बड़े छोटे से यथायोग्य व्यवहार करने का उपदेश करें।
‘*आचमन*’ उतने जल को हथेली में ले के उस के मूल और मध्यदेश में ओष्ठ लगा के करे कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदय तक पहुंचे, न उससे अधिक न न्यून। उसे कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृत्ति थोड़ी सी होती है। पश्चात् ‘*मार्जन*’ अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रादि अङ्गों पर जल छिड़के, उस से आलस्य दूर होता है जो आलस्य और जल प्राप्त न हो तो न करे।

*(प्रश्न) त्रिकाल सन्ध्या क्यों नहीं करना?*
(उत्तर) तीन समय में सन्धि नहीं होती। प्रकाश और अन्धकार की सन्धि भी सायं प्रातः दो ही वेला में होती है। जो इस को न मानकर मध्याह्नकाल में तीसरी सन्ध्या माने वह मध्यरात्रि में भी सन्ध्योपासन क्यों न करे? जो मध्यरात्रि में भी करना चाहै तो प्रहर-प्रहर घड़ी-घड़ी पल-पल और क्षण-क्षण की भी सन्धि होती है, उनमें भी सन्ध्योपासन किया करे। जो ऐसा भी करना चाहै तो हो ही नहीं सकता। और किसी शास्त्र का मध्याह्नसन्ध्या में प्रमाण भी नहीं। इसलिये दोनों कालों में सन्ध्या और अग्निहोत्र करना समुचित है, तीसरे काल में नहीं। और *जो तीन काल होते हैं वे भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान के भेद से हैं, सन्ध्योपासन के भेद से नहीं*। - (_सत्यार्थ प्रकाश_)


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*देवयज्ञ*—जो अग्निहोत्र और विद्वानों का संग सेवादिक से होता है। *सन्ध्या और अग्निहोत्र सायं प्रातः...

*देवयज्ञ*—जो अग्निहोत्र और विद्वानों का संग सेवादिक से होता है। *सन्ध्या और अग्निहोत्र सायं प्रातः दो ही काल में करे। दो ही रात दिन की सन्धिवेला हैं, अन्य नहीं*। यथा *सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त के पूर्व अग्निहोत्र करने का भी समय है*। उसके लिए एक किसी धातु वा मिट्टी की ऊपर 12 वा 16 अंगुल चौकोर उतनी ही गहिरी और नीचे 3 वा 4 अंगुल परिमाण से वेदी इस प्रकार बनावे अर्थात् ऊपर जितनी चौड़ी हो उसकी चतुर्थांश नीचे चौड़ी रहे।
उसमें चन्दन पलाश वा आम्रादि के श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े उसी वेदी के परिमाण से बड़े छोटे करके उस में रक्खे, उसके मध्य में अग्नि रखके पुनः उस पर समिधा अर्थात् पूर्वोक्त इन्धन रख दे। प्रोक्षणीपात्र, प्रणीतापात्र, आज्यस्थाली अर्थात् घृत रखने का पात्र और चमसा (स्रुवा) सोने, चांदी वा काष्ठ का बनवा के प्रणीता और प्रोक्षणी में जल तथा घृतपात्र में घृत रख के घृत को तपा लेवे। प्रणीता जल रखने और प्रोक्षणी इसलिये है कि उस से हाथ धोने को जल लेना सुगम है। पश्चात् उस घी को अच्छे प्रकार देख लेवे फिर मन्त्र से होम करें।
*अग्निहोत्र का वेदों में प्रमाण*:
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन॥1॥ -य॰ अ॰ 3। मं॰ 1॥
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ2॥ आ सादयादिह॥2॥ -य॰ अ॰ 22। मं॰ 17॥
सायं सायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधि वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम॥3॥

प्रातः प्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायं सायं सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतं हिमा ऋधेम॥4॥
-अथर्व॰ कां॰ 19। अनु॰ 7। मं॰ 3। 4॥
*अर्थात्* (समिधाग्निं॰) हे मनुष्यो! तुम लोग वायु, औषधी और वर्षाजल की शुद्धि से सब के उपकार के अर्थ घृतादि शुद्ध वस्तुओं और समिधा अर्थात् आम्र वा ढाक आदि काष्ठों से अतिथिरूप अग्नि को नित्य प्रकाशमान करो। फिर उस अग्नि में होम करने के योग्य पुष्ट, मधुर, सुगन्धित अर्थात् दुग्ध, घृत, शर्करा, गुड़, केशर, कस्तूरी आदि और रोगनाशक जो सोमलता आदि सब प्रकार से शुद्ध द्रव्य हैं, उन का अच्छी प्रकार नित्य अग्निहोत्र करके सब का उपकार करो॥1॥
(*अग्निं दूतं॰*) अग्निहोत्र करनेवाला मनुष्य ऐसी इच्छा करे, कि मैं प्राणियों के उपकार करने वाले पदार्थों को पवन और मेघमण्डल में पहुंचाने के लिए अग्नि को सेवक की नाईं अपने सामने स्थापना करता हूं। क्योंकि वह अग्नि हव्य अर्थात् होम करने के योग्य वस्तुओं को अन्य देश में पहुंचानेवाला है। इसी से उसका नाम ‘हव्यवाट्’ है। जो उस अग्निहोत्र को जानना चाहैं, उन को मैं उपदेश करता हूं कि वह अग्नि उस अग्निहोत्र कर्म से पवन और वर्षाजल की शुद्धि से (इह) इस संसार में (देवां) श्रेष्ठ गुणों को पहुंचाता है।

*दूसरा अर्थ* - हे सब प्राणियों को सत्य उपदेशकारक परमेश्वर! जो कि आप अग्नि नाम से प्रसिद्ध हैं, मैं इच्छापूर्वक आप को उपासना करने के योग्य मानता हूं। ऐसी कृपा करो कि आप को जानने की इच्छा करनेवालों के लिये भी मैं आप का शुभगुणयुक्त विशेषज्ञानदायक उपदेश करूं। तथा आप भी कृपा करके इस संसार में श्रेष्ठ गुणों को पहुंचावें॥2॥

(*सायंसायं॰*) प्रतिदिन प्रातःकाल श्रेष्ठ उपासना को प्राप्त यह गृहपति अर्थात् घर और आत्मा का रक्षक भौतिक अग्नि और परमेश्वर, (सौमनसस्य दाता) आरोग्य, आनन्द और वसु अर्थात् धन का देने वाला है। इसी से परमेश्वर (वसुदानः) अर्थात् धनदाता प्रसिद्ध है। हे परमेश्वर! आप मेरे राज्य आदि व्यवहार और चित्त में सदा प्रकाशित रहो। यहां भौतिक अग्नि भी ग्रहण करने के योग्य है। (वयं त्वे॰) हे परमेश्वर जैसे पूर्वोक्त प्रकार से हम आप को मान करते हुए अपने शरीर से (पुषेम) पुष्ट होते हैं, वैसे ही भौतिक अग्नि को भी प्रज्वलित करते हुए पुष्ट हों॥3॥

(*प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो॰*) इस मन्त्र का अर्थ पूर्व मन्त्र के तुल्य जानो। परन्तु इस में इतना विशेष भी है कि-अग्निहोत्र और ईश्वर की उपासना करते हुए हम लोग (शतहिमाः) सौ हेमन्त ऋतु व्यतीत हो जाने पर्य्यन्त, अर्थात् सौ वर्ष तक, धनादि पदार्थों से (ऋधेम) वृद्धि को प्राप्त हों॥4॥

अग्निहोत्र करने के लिये, ताम्र या मिट्टी की वेदी बना के काष्ठ, चांदी वा सोने का चमसा अर्थात् अग्नि में पदार्थ डालने का पात्र और आज्यस्थाली अर्थात् घृतादि पदार्थ रखने का पात्र लेके, उस वेदी में ढांक वा आम्र आदि वृक्षों की समिधा स्थापन करके, अग्नि को प्रज्वलित करके, पूर्वोक्त पदार्थों का प्रातःकाल और सायंकाल अथवा प्रातःकाल ही नित्य होम करें।

*अथाग्निहोत्रे होमकरणमन्त्राः* -
सूर्य्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्य्यः स्वाहा॥1॥ सूर्यो वर्च्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा॥2॥
ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योति: स्वाहा॥3॥ सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या। जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा॥4॥
-इति प्रातःकालमन्त्राः॥

अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा॥1॥ अग्निर्वर्च्चोज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा॥2॥
अग्निर्ज्योतिरिति मन्त्रं मनसोच्चार्य्य तृतीयाहुतिर्देया॥3॥
सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या। जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा॥4॥
- इति सायङ्कालमन्त्राः। य॰ अ॰ 3। मं॰ 9-10॥
*भाषार्थ* - (सूर्य्यो ज्यो॰) जो चराचर का आत्मा, प्रकाशस्वरूप और सूर्य्यादि प्रकाशक लोकों का भी प्रकाश करनेवाला है, उस की प्रसन्नता के लिये हम लोग होम करते हैं॥1॥
(सूर्यो वर्च्चो॰) सूर्य जो परमेश्वर है, वह हम लोगों को सब विद्याओं का देने वाला और हम से उन का प्रचार कराने वाला है, उसी के अनुग्रह से हम लोग अग्निहोत्र करते हैं॥2॥
(ज्योतिः सू॰) जो आप प्रकाशमान और जगत् का प्रकाश करनेवाला सूर्य अर्थात् संसार का ईश्वर है, उस की प्रसन्नता के अर्थ हम लोग होम करते हैं॥3॥
(सजूर्देवेन॰) जो परमेश्वर सूर्य्यादि लोकों में व्याप्त, वायु और दिन के साथ संसार का परमहितकारक है, वह हम लोगों को विदित होकर हमारे किये हुए होम को ग्रहण करे॥4॥
इन चार आहुतियों से प्रातःकाल अग्निहोत्री लोग होम करते हैं।

अब सायङ्काल की आहुति के मन्त्र कहते हैं-(अग्निर्ज्यो॰) अग्नि जो ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर है, उस की आज्ञा से हम लोग परोपकार के लिए होम करते हैं। और उस का रचा हुआ यह भौतिक अग्नि इसलिये है कि वह उन द्रव्यों को परमाणुरूप कर के वायु और वर्षाजल के साथ मिला के शुद्ध कर दे। जिस से सब संसार को सुख और आरोग्यता की वृद्धि हो॥1॥
(अग्निर्वर्च्चो॰) अग्नि परमेश्वर वर्च्च अर्थात् सब विद्याओं का देनेवाला, और भौतिक अग्नि आरोग्यता और बुद्धि का बढ़ानेवाला है। इसलिये हम लोग होम से परमेश्वर की प्रार्थना करते हैं।
यह दूसरी आहुति है॥
तीसरी मौन होके प्रथम मन्त्र से करनी।
और चौथी (सजूर्देवेन॰) जो अग्नि परमेश्वर सूर्यादि लोकों में व्याप्त, वायु और रात्रि के साथ संसार का परमहितकारक है, वह हम को विदित होकर हमारे किये हुए होम का ग्रहण करे।

*अथोभयोः कालयोरग्निहोत्रे होमकरणार्थाः समानमन्त्राः* -
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा॥1॥
ओं भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा॥2॥
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा॥3॥
ओं भूर्भुवःस्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा॥4॥
ओमापो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवःस्वरों स्वाहा॥5॥
ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा॥6॥
*भाषार्थ* - इन मन्त्रों में जो भूः इत्यादि नाम हैं, वे सब ईश्वर के ही जानो। गायत्री मन्त्र के अर्थ में इन के अर्थ कर दिये हैं।
इस प्रकार प्रातःकाल और सायङ्काल सन्ध्योपासना के पीछे उक्त मन्त्रों से होम करके अधिक होम करने की इच्छा हो तो, ’*स्वाहा*’ शब्द अन्त में पढ़ कर गायत्री मन्त्र से करे। जिस कर्म में अग्नि वा परमेश्वर के लिये, जल और पवन की शुद्धि वा ईश्वर की आज्ञापालन के अर्थ, होत्र = हवन अर्थात् दान करते हैं, उसे ’*अग्निहोत्र*’ कहते हैं। जो जो केशर, कस्तूरी आदि *सुगन्धि*, घृत दुग्ध आदि *पुष्ट*, गुड़ शर्करा आदि *मिष्ट*, बुद्धि बल तथा धैर्य्यवर्धक और *रोगनाशक* पदार्थ हैं, उन का होम करने से पवन और वर्षाजल की शुद्धि से पृथिवी के सब पदार्थों की जो अत्यन्त उत्तमता होती है, उसी से सब जीवों को परम सुख होता है। इस कारण अग्निहोत्र करनेवाले मनुष्यों को उस उपकार से अत्यन्त सुख का लाभ होता है, और ईश्वर उन पर अनुग्रह करता है। ऐसे ऐसे लाभों के अर्थ अग्निहोत्र का करना अवश्य उचित है।
*स्वाहा का अर्थ*
*स्वाहाकृतय: स्वाहा इति एतत् सु आहेति वा, स्वा वागाहेति वा, स्वं प्राहेति वा, स्वाहुतं हविर्जुहोतीति वा तासामेषा भवति* - _निरुक्त अध्याय-8, खण्ड-20_
*अर्थ*: _यास्काचार्य निरुक्त में_ *स्वाहा* का निम्नलिखित अर्थ बताते हैं:
१) *सु आहेति वा* : अच्छा, मीठा, कल्याणकारी, प्रिय वचन बोलना चाहिए
२) *स्वा वागाहेति वा*: जैसी बात ज्ञान में वर्त्तमान हो, वैसी सत्य बात ही बोलना चाहिए
३) *स्वं प्राहेति वा*: अपने पदार्थ को ही अपना कहना चाहिए
४) *स्वाहुतं हविर्जुहोतीति वा*: सुगन्धित, मीठे, पुष्टिकारक और औषधीय द्रव्यों का हवन करना चाहिए.

॥इत्यग्निहोत्रविधिः समाप्तः॥

जैसे परमेश्वर ने सब प्राणियों से सुख के अर्थ इस सब जगत् के पदार्थ रचे हैं वैसे मनुष्यों को भी परोपकार करना चाहिये।
*(प्रश्न) होम से क्या उपकार होता है?*
(उत्तर) सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।
*(प्रश्न) चन्दनादि घिस के किसी को लगावे वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो। अग्नि में डाल के व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं।*
(उत्तर) जो तुम पदार्थविद्या जानते तो कभी ऐसी बात न कहते। क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता। देखो! जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।
*(प्रश्न) जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और अतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा।*
(उत्तर) उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके क्योंकि उस में भेदक शक्ति नहीं है और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकाल कर पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।
*(प्रश्न) तो मन्त्र पढ़ के होम करने का क्या प्रयोजन है?*
(उत्तर) मन्त्रों में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने में लाभ विदित हो जायें और मन्त्रों की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहें। वेदपुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षा भी होवे।
*(प्रश्न) क्या इस होम करने के विना पाप होता है?*
(उत्तर) हां! क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध वा उससे अधिक वायु और जल में फैलाना चाहिये। और खिलाने पिलाने से उसी एक व्यक्ति को सुख विशेष होता है। जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है परन्तु जो मनुष्य लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खावें तो उन के शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके, इस से अच्छे पदार्थ खिलाना पिलाना भी चाहिये परन्तु उससे होम अधिक करना उचित है इसलिए होम का करना अत्यावश्यक है।
*(प्रश्न) प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है?*
(उत्तर) प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिये और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था,अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाय। ये दो यज्ञ अर्थात् ब्रह्मयज्ञ जो पढ़ना-पढ़ाना सन्ध्योपासन ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करना, दूसरा देवयज्ञ जो अग्निहोत्र से ले के अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ और विद्वानों की सेवा संग करना परन्तु ब्रह्मचर्य में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र का ही करना होता है।
*मनुस्मृति में देवयज्ञ का प्रमाण*:
*स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः*॥- मनुस्मृति २.२८॥
अर्थ— (स्वाध्याय) सकल विद्या पढ़ते-पढ़ाते (व्रत) ब्रह्मचर्य सत्यभाषणादि नियम पालने (होम) अग्निहोत्रादि होम, सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग और सत्य विद्याओं का दान देने (त्रैविद्येन) वेदस्थ कर्मोपासना ज्ञान विद्या के ग्रहण (इज्यया) पक्षेष्ट्यादि करने (सुतैः) सुसन्तानोत्पत्ति (*महायज्ञैः*) ब्रह्म, देव, पितृ, वैश्वदेव और अतिथियों के सेवनरूप पञ्चमहायज्ञ और (*यज्ञैः*) अग्निष्टोमादि तथा शिल्पविद्याविज्ञानादि यज्ञों के सेवन से इस शरीर को ब्राह्मी अर्थात् वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधाररूप ब्राह्मण का शरीर बनता है। इतने साधनों के विना ब्राह्मणशरीर नहीं बन सकता।
*वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च। न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्*॥मनु॰ २.९७॥
जो दुष्टाचारी-अजितेन्द्रिय पुरुष हैं उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को नहीं प्राप्त होते।


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तीसरा ‘पितृयज्ञ’ अर्थात् जिस में जो देव विद्वान्, ऋषि जो पढ़ने-पढ़ाने वाले, पितर माता पिता आदि वृद्ध...

तीसरा ‘पितृयज्ञ’ अर्थात् जिस में जो देव विद्वान्, ऋषि जो पढ़ने-पढ़ाने वाले, पितर माता पिता आदि वृद्ध ज्ञानी और परमयोगियों की सेवा करनी।
*पितृयज्ञ के दो भेद हैं*:
एक *श्राद्ध* और दूसरा *तर्पण*।
श्राद्ध अर्थात् ‘श्रत्’ सत्य का नाम है ‘श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धम्’ जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाय उस को श्रद्धा और जो श्रद्धा से कर्म किया जाय उसका नाम *श्राद्ध* है।
और ‘तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितॄन् तत्तर्पणम्’ जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जायें उस का नाम *तर्पण* है। परन्तु यह जीवितों के लिये है मृतकों के लिये नहीं।

*पितृयज्ञ का वेदों में प्रमाण*:
पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन् पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्॥20॥
पुनन्तु मा पितरः सोम्यासः पुनन्तु मा पितामहः पुनन्तु प्रपितामहाः पवित्रेण शतायुषा। पुनन्तु मा पितामहाः पुनन्तु प्रपितामहाः। पवित्रेण शतायुषा विश्वमायुर्व्यश्नवै॥21॥
-यजुर्वेद अध्याय-१९, मन्त्र-३६, ३७
(*पितृभ्यः स्वधा*॰) जो चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम से विद्या पढ़ के सब को पढ़ाते हैं, उन पितरों को हमारा नमस्कार है। (पितामहेभ्यः॰) जो चवालीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्याश्रम से वेदादि विद्याओं को पढ़ के सब के उपकारी और अमृतरूप ज्ञान के देने वाले होते हैं, (प्रपितामहेभ्यः॰) जो अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त जितेन्द्रियता के साथ सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ के, हस्तक्रियाओं से भी सब विद्या के दृष्टान्त साक्षात् देख के दिखलाते, और जो सब के सुखी होने के लिये सदा प्रयत्न करते रहते हैं, उन का मान भी सब लोगों को करना उचित है। पिताओं का नाम वसु है, क्योंकि वे सब विद्याओं में वास करने के लिये योग्य होते हैं। ऐसे ही पितामहों का नाम रुद्र है, क्योंकि वे वसुसंज्ञक पितरों से दूनी अथवा शतगुणी विद्या और बल वाले होते हैं तथा प्रपितामहों का नाम आदित्य है, क्योंकि वे सब विद्याओं और सब गुणों में सूर्य के समान प्रकाशमान होके, सब विद्या और लोगों को प्रकाशमान करते हैं। इन तीनों का नाम वसु, रुद्र और आदित्य इसलिये है कि वे किसी प्रकार की दुष्टता मनुष्यों में रहने नहीं देते। इस में पुरुषो वाव यज्ञः यह छान्दोग्य उपनिषत् का प्रमाण लिख दिया है, सो देख लेना।

(*पुनन्तु मा पितरः*॰) जो पितर लोग शान्तात्मा और दयालु हैं, वे मुझ को विद्यादान से पवित्र करें। (पुनन्तु मा पितामहाः॰) इसी प्रकार पितामह और प्रपितामह भी मुझ को अपनी उत्तम विद्या पढ़ा के पवित्र करें। इसलिये कि उन की शिक्षा को सुन के ब्रह्मचर्य्य धारण करने से सौ वर्ष पर्यन्त आनन्द युक्त उमर होती रहे। इस मन्त्र में दो बार पाठ केवल आदर के लिये है॥21॥

*तर्पण के ३ प्रकार होते हैं*:
१) *देव-तर्पण*
२) *ऋषि-तर्पण*
३) *पितृ-तर्पण*
ओं ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवपत्न्यस्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवसुतास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवगणास्तृप्यन्ताम्॥ — इति देवतर्पणम्॥ (पारस्कर एवं आश्वलायन गृह्यसूत्र)
‘विद्वांसो हि देवाः।’ —शतपथ-ब्राह्मण ३.५.६.१०
जो विद्वान् हैं उन्हीं को देव कहते हैं। जो साङ्गोपाङ्ग चार वेदों के जानने वाले हों उन का नाम ब्रह्मा और जो उन से न्यून पढ़े हों उन का भी नाम देव अर्थात् विद्वान् है। उनके सदृश विदुषी स्त्री, उनकी ब्रह्माणी और देवी, उनके तुल्य पुत्र और शिष्य तथा उनके सदृश उन के गण अर्थात् सेवक हों उन की सेवा करना है उस का नाम ‘श्राद्ध’ और ‘तर्पण’ है।
अथर्षितर्पणम्
ओं मरीच्यादय ऋषयस्तृप्यन्ताम्। मरीच्याद्यृषिपत्न्यस्तृप्यन्ताम्।
मरीच्याद्यृषिसुतास्तृप्यन्ताम्। मरीच्याद्यृषिगणास्तृप्यन्ताम्॥
—इति ऋषितर्पणम्॥
जो ब्रह्मा के प्रपौत्र मरीचिवत् विद्वान् होकर पढ़ावें और जो उनके सदृश विद्यायुक्त उनकी स्त्रियां कन्याओं को विद्यादान देवें उनके तुल्य पुत्र और शिष्य तथा उन के समान उनके सेवक हों, उन का सेवन सत्कार करना ऋषितर्पण है।
*अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्त आयुर्विद्या यशो बलम्॥*- मनुस्मृति अ॰२, श्लोकः१२१॥
जो सदा नम्र सुशील विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसका आयु, विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु आदि चार नहीं बढ़ते।

*अथ पितृतर्पणम्*
ओं सोमसदः पितरस्तृप्यन्ताम्। अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम्। बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम्। सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। हविर्भुजः पितरस्तृप्यन्ताम्। आज्यपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। यमादिभ्यो नमः यमादींस्तर्पयामि। पित्रे स्वधा नमः पितरं तर्पयामि। पितामहाय स्वधा नमः पितामहं तर्पयामि। मात्रे स्वधा नमो मातरं तर्पयामि। पितामह्यै स्वधा नमः पितामहीं तर्पयामि। स्वपत्न्यै स्वधा नमः स्वपत्नीं तर्पयामि। सम्बन्धिभ्यः स्वधा नमः सम्बन्धींस्तर्पयामि। सगोत्रेभ्यः स्वधा नमः सगोत्रांस्तर्पयामि॥
—इति पितृतर्पणम्॥
‘यः पाति स पिता’ जो सन्तानों का अन्न और सत्कार से रक्षक वा जनक हो वह पिता।
‘पितुः पिता पितामहः, पितामहस्य पिता प्रपितामहः’ जो पिता का पिता हो वह पितामह और जो पितामह का पिता हो वह प्रपितामह।
‘या मानयति सा माता’ जो अन्न और सत्कारों से सन्तानों का मान्य करे वह माता। ‘या पितुर्माता सा पितामही पितामहस्य माता प्रपितामही’ जो पिता की माता हो वह पितामही और पितामह की माता हो वह प्रपितामही।
अपनी स्त्री तथा भगिनी सम्बन्धी और एक गोत्र के तथा अन्य कोई भद्र पुरुष वा वृद्ध हों उन सब को अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यान आदि देकर अच्छे प्रकार जो तृप्त करना अर्थात् जिस-जिस कर्म से उनका आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहै उस-उस कर्म से प्रीतिपूर्वक उनकी सेवा करनी वह श्राद्ध और तर्पण कहाता है।
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति। सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्॥1॥
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि। यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि॥2॥
सदा सत्य बोल, धर्माचार कर, प्रमादरहित होके पढ़ पढ़ा, पूर्ण ब्रह्मचर्य से समस्त विद्याओं को ग्रहण कर और आचार्य के लिये प्रिय धन देकर विवाह करके सन्तानोत्पत्ति कर। प्रमाद से सत्य को कभी मत छोड़, प्रमाद से धर्म का त्याग मत कर, प्रमाद से आरोग्य और चतुराई को मत छोड़, प्रमाद से पढ़ने और पढ़ाने को कभी मत छोड़। देव विद्वान् और माता पितादि की सेवा में प्रमाद मत कर।


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*चौथा वैश्वदेव*—अर्थात् जब भोजन सिद्ध हो तब जो कुछ भोजनार्थ बने, उसमें से खट्टा लवणान्न और क्षार को...

*चौथा वैश्वदेव*—अर्थात् जब भोजन सिद्ध हो तब जो कुछ भोजनार्थ बने, उसमें से खट्टा लवणान्न और क्षार को छोड़ के घृत मिष्टयुक्त अन्न लेकर चूल्हे से अग्नि अलग धर वैश्वदेव के मन्त्रों से आहुति दें और भाग करे।
हवन करने का प्रयोजन यह है कि—पाकशालास्थ वायु का शुद्ध होना और जो अज्ञात अदृष्ट जीवों की हत्या होती है उस का प्रत्युपकार कर देना।

*बलिवैश्वदेवयज्ञ का मनुस्मृति एवं वेद में प्रमाण*:
वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम्। आभ्यः कुर्य्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥1॥
-मनुस्मृति अ॰ 3। श्लोकः 84॥

अहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमग्ने। रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्ने प्रतिवेशा रिषाम॥1॥ -अथर्व कां॰ 19। अनु॰ 7। मं॰ 7॥

*भाषार्थ* - (अग्ने॰) हे परमेश्वर! जैसे खाने योग्य पुष्कल पदार्थ घोड़े के आगे रखते हैं, वैसे ही आप की आज्ञापालन के लिये (अहरहः॰) प्रतिदिन भौतिक अग्नि में होम करते और अतिथियों को (बलिं॰) अर्थात् भोजन देते हुए हम लोग अच्छी प्रकार वाञ्छित चक्रवर्ति राज्य की लक्ष्मी से आनन्द को प्राप्त होके (अग्ने) हे परमात्मन्! (प्रतिवेशाः) आप की आज्ञा से उलटे होके आप के उत्पन्न किये हुए प्राणियों को (मा रिषाम) अन्याय से दुःख कभी न देवें। किन्तु आप की कृपा से सब जीव हमारे मित्र और हम सब जीवों के मित्र रहें। ऐसा जानकर परस्पर उपकार सदा करते रहें॥1॥
ओमग्नये स्वाहा॥ ओं सोमाय स्वाहा॥ ओमग्नीषोमाभ्यां स्वाहा॥ ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा॥ ओं धन्वन्तरये स्वाहा॥ ओं कुह्वै स्वाहा॥ ओमनुमत्यै स्वाहा॥ ओं प्रजापतये स्वाहा॥ ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा॥ ओं स्विष्टकृते स्वाहा॥ - मनुस्मृति अ॰ ३, श्लोकः ८५, ८६॥
*भाषार्थ* - (ओम॰) अग्नि शब्द का अर्थ पीछे कह आये हैं। (ओं सो॰) अर्थात् सब पदार्थों को उत्पन्न पुष्ट करने और सुख देनेवाला। (ओम॰) जो सब प्राणियों के जीवन का हेतु प्राण तथा जो दुःखनाश का हेतु अपान। (ओं वि॰) संसार का प्रकाश करनेवाले ईश्वर के गुण अथवा विद्वान् लोग। (ओं ध॰) जन्ममरणादि रोगों का नाश करनेवाला परमात्मा। (ओं कु॰) अमावास्येष्टि का करना। (ओम॰) पौर्णमास्येष्टि वा सर्वशास्त्रप्रतिपादित परमेश्वर की चितिशक्ति। (ओं प्र॰) सब जगत् का स्वामी जगदीश्वर। (ओं स॰) सत्यविद्या के प्रकाश के लिए पृथिवी का राज्य और अग्नि तथा भूमि से अनेक उपकारों का ग्रहण (ओं स्वि॰) इष्ट सुख का करनेवाला परमेश्वर।
इन दश मन्त्रों के अर्थों से ये 10 प्रयोजन जान लेना।
अब आगे बलिदान के मन्त्र लिखते हैं-
*ओं सानुगायेन्द्राय नमः॥1॥ ओं सानुगाय यमाय नमः॥2॥ ओं सानुगाय वरुणाय नमः॥3॥*
*ओं सानुगाय सोमाय नमः॥4॥ ओं मरुद्भ्यो नमः॥5॥ ओमद्भ्यो नमः॥6॥*
*ओं वनस्पतिभ्यो नमः॥7॥ ओं श्रियै नमः॥8॥ ओं भद्रकाल्यै नमः॥9॥ ओं ब्रह्मपतये नमः॥10॥*
*ओं वास्तुपतये नमः॥11॥ ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः॥12॥ ओं दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नमः॥13॥*
*ओं नक्तञ्चारिभ्यो नमः॥14॥ ओं सर्वात्मभूतये नमः॥15॥ ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः॥16॥*
- मनुस्मृति अ॰ ३, श्लोकः ८७ - ९१॥
*भाषार्थ* - (ओं सानु॰) सर्वैश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर और उसके गुण। (ओं सा॰) सत्य न्याय करनेवाला और उसकी सृष्टि में सत्य न्याय के करनेवाले सभासद्। (ओं सा॰) सब से उत्तम परमात्मा और उसके धार्मिक भक्तजन। (ओं सा॰) पुण्यात्माओं को आनन्द करानेवाला परमात्मा और वे लोग। (ओं मरुत्॰) अर्थात् प्राण, जिनके रहने से जीवन और निकलने से मरण होता है, उन की रक्षा करना। (ओमद्भ्यो॰) इस का अर्थ ‘शन्नोदेवी’ इस मन्त्र में लिख दिया है।
(*ओं वन*॰) ईश्वर के उत्पन्न किये हुए वायु और मेघ आदि सब के पालन के हेतु सब पदार्थ तथा जिन से अधिक वर्षा और जिन के फलों से जगत् का उपकार होता है, उन की रक्षा करनी। (ओं श्रि॰) जो सेवा करने के योग्य परमात्मा और पुरुषार्थ से राज्यश्री की प्राप्ति करने में सदा उद्योग करना (ओं भ॰) जो कल्याण करने वाली परमात्मा की शक्ति अर्थात् सामर्थ्य है, उस का सदा आश्रय करना। (ओं ब्र॰) जो वेद के स्वामी ईश्वर की प्रार्थना विद्या के लिये करना। (ओं वा॰) वास्तुपति अर्थात् जो गृह सम्बन्धी पदार्थों का पालन करनेवाला ईश्वर। (ओं ब्रह्म॰) वेद शास्त्र का रक्षक जगदीश्वर। (ओं वि॰) इसका अर्थ कह दिया है।
(*ओं दि*॰) जो दिन में और (ओं नक्तं॰) रात्रि में विचरनेवाले प्राणी हैं, उन से उपकार लेना और उन को सुख देना। (सर्वात्म॰) सब में व्याप्त परमेश्वर की सत्ता को सदा ध्यान में रखना। (ओं पि॰) माता पिता और आचार्य आदि को प्रथम भोजनादि से सेवा करके पश्चात् स्वयं भोजनादि करना। ’*स्वाहा*’ शब्द का अर्थ पूर्व कर दिया है और ’*नमः*’ शब्द का अर्थ यह है कि-आप अभिमान रहित होना और दूसरे का मान्य करना॥

_इसके पीछे ये छः भाग करना चाहिए_-
*शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्। वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि*॥ - मनुस्मृति अ॰ ३, श्लोकः९२
भाषार्थ - कुत्तों, कंगालों, कुष्ठी आदि रोगियों, काक आदि पक्षियों और चींटी आदि कृमियों के लिये भी छः भाग अलग-अलग बांट के दे देना और उन की प्रसन्नता करना। अर्थात् सब प्राणियों को मनुष्यों से सुख होना चाहिए।
इस प्रकार ‘श्वभ्यो नमः, पतितेभ्यो नमः, श्वपग्भ्यो नमः,पापरोगिभ्यो नमः, वायसेभ्यो नमः, कृमिभ्यो नमः।’ धर कर पश्चात् किसी दुःखी बुभुक्षित प्राणी अथवा कुत्ते, कौवे आदि को दे देवे।
यहां नमः शब्द का अर्थ अन्न अर्थात् कुत्ते, पापी, चाण्डाल, पापरोगी कौवे और कृमि अर्थात् चींटी आदि को अन्न देना यह मनुस्मृति आदि की विधि है।
यह वेद और मनुस्मृति की रीति से बलिवैश्वदेव पूरा हुआ।

*॥ इति बलिवैश्वदेवविधिः समाप्तः॥*


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*अब पांचवीं अतिथिसेवा*—अतिथि उस को कहते हैं कि जिस की कोई तिथि निश्चित न हो अर्थात् अकस्मात्...

*अब पांचवीं अतिथिसेवा*—अतिथि उस को कहते हैं कि जिस की कोई तिथि निश्चित न हो अर्थात् अकस्मात् धार्मिक, सत्योपदेशक, सब के उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला, पूर्ण विद्वान्, परमयोगी, संन्यासी गृहस्थ के यहां आवे तो उस को प्रथम पाद्य, अर्घ और आचमनीय तीन प्रकार का जल देकर, पश्चात् आसन पर सत्कारपूर्वक बिठाकर, खान, पान आदि उत्तमोत्तम पदार्थों से सेवा शुश्रूषा कर के, उन को प्रसन्न करे। पश्चात् सत्सङ्ग कर उन से ज्ञान विज्ञान आदि जिन से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होवे ऐसे-ऐसे उपदेशों का श्रवण करे और चाल चलन भी उनके सदुपदेशानुसार रक्खे। समय पाके गृहस्थ और राजादि भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य हैं। परन्तु—
*पाषण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालवृत्तिकान् शठान्। हैतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥* मनुस्मृति ४.३०॥
(पाषण्डी) अर्थात् वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करनेहारे (विकर्मस्थ) जो वेदविरुद्ध कर्म का कर्त्ता मिथ्याभाषणादि युक्त, वैडालवृत्तिक जैसे विड़ाला छिप और स्थिर होकर ताकता-ताकता झपट से मूषे आदि प्राणियों को मार अपना पेट भरता है वैसे जनों का नाम वैडालवृत्ति, (शठ) अर्थात् हठी, दुराग्रही, अभिमानी, आप जानें नहीं, औरों का कहा मानें नहीं, (हैतुक) कुतर्की व्यर्थ बकने वाले जैसे कि आजकल के वेदान्ती बकते हैं ‘हम ब्रह्म और जगत् मिथ्या है वेदादि शास्त्र और ईश्वर भी कल्पित हैं’ इत्यादि गपोड़ा हांकने वाले (वकवृत्ति) जैसे वक एक पैर उठा ध्यानावस्थित के समान होकर झट मच्छी के प्राण हरके अपना स्वार्थ सिद्ध करता है वैसे आजकल के वैरागी और खाखी आदि हठी दुराग्रही वेदविरोधी हैं, ऐसों का सत्कार वाणीमात्र से भी न करना चाहिये। क्योंकि इनका सत्कार करने से ये वृद्धि को पाकर संसार को अधर्मयुक्त करते हैं। आप तो अवनति के काम करते ही हैं परन्तु साथ में सेवक को भी अविद्यारूपी महासागर में डुबा देते हैं।

*अतिथियज्ञ का वेद में प्रमाण*:
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्॥1॥
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावात्सीर्व्रात्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथास्त्विति॥2॥
-अथ॰ कां॰ 15। अनु॰ 2। व॰ 11। मं॰ 1। 2॥
*भाषार्थ* - अब पांचवां अतिथियज्ञ अर्थात् जिस में अतिथियों की यथावत् सेवा करनी होती है, उस को लिखते हैं। जो मनुष्य पूर्ण विद्वान्, परोपकारी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, सत्यवादी, छल कपट रहित और नित्य भ्रमण करके विद्या धर्म का प्रचार और अविद्या अधर्म की निवृत्ति सदा करते रहते हैं, उन को ‘अतिथि’ कहते हैं। इस में वेदमन्त्रों के अनेक प्रमाण हैं। परन्तु उन में से दो मन्त्र यहां भी लिखते हैं-

(*तद्यस्यैवं विद्वान्*) जिस के घर में पूर्वोक्त विशेषणयुक्त (व्रात्य॰) उत्तमगुणसहित सेवा करने के योग्य विद्वान् आवे, तो उस की यथावत् सेवा करें और 'अतिथि’ वह कहाता है कि जिस के आने जाने की कोई तिथि दिन निश्चित न हो॥1॥

(*स्वयमेनम*॰) गृहस्थ लोग ऐसे पुरुष को आते देखकर बड़े प्रेम से उठके नमस्कार कर के, उत्तम आसन पर बैठावें। पश्चात् पूछें कि आप को जल अथवा किसी अन्य वस्तु की इच्छा हो सो कहिये। और जब वे स्वस्थचित्त हो जावें, तब पूछें कि (व्रात्य क्वावात्सीः) हे व्रात्य! अर्थात् उत्तम पुरुष, आपने कल के दिन कहां वास किया था? (व्रात्योदकं) हे अतिथे! यह जल लीजिये और (व्रात्य तर्पयन्तु) हम को अपने सत्य उपदेश से तृप्त कीजिये, कि जिस से हमारे इष्ट मित्र लोग सब प्रसन्न होके आप को भी सेवा से सन्तुष्ट रक्खें। (व्रात्य यथा॰) हे विद्वन्! जिस प्रकार आप की प्रसन्नता हो, हम लोग वैसा ही काम करें तथा जो पदार्थ आपको प्रिय हो, उस की आज्ञा कीजिये। और (व्रात्य यथा॰) जैसे आप की कामना पूर्ण हो, वैसी सेवा की जाय कि जिस से आप और हम लोग परस्पर प्रीति और सत्सङ्गपूर्वक विद्यावृद्धि करके सदा आनन्द में रहें॥2॥

इन *पांच महायज्ञों का फल* यह है कि :
*ब्रह्मयज्ञ के करने से विद्या, शिक्षा, धर्म, सभ्यता आदि शुभ गुणों की वृद्धि।
*अग्निहोत्र* से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि होकर वृष्टि द्वारा संसार को सुख प्राप्त होना अर्थात् शुद्ध वायु का श्वास, स्पर्श, खान पान से आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़ के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अनुष्ठान पूरा होना। इसीलिये इस को देवयज्ञ कहते हैं।
*पितृयज्ञ* से जब माता पिता और ज्ञानी महात्माओं की सेवा करेगा तब उस का ज्ञान बढ़ेगा। उस से सत्यासत्य का निर्णय कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करके सुखी रहेगा। दूसरा कृतज्ञता अर्थात् जैसी सेवा माता पिता और आचार्य ने सन्तान और शिष्यों की की है उसका बदला देना उचित ही है।
*बलिवैश्वदेव* का भी फल पाकशालास्थ वायु का शुद्ध होना और जो अज्ञात अदृष्ट जीवों की हत्या होती है उस का प्रत्युपकार कर देना है। जब तक उत्तम *अतिथि* जगत् में नहीं होते तब तक उन्नति भी नहीं होती। उनके सब देशों में घूमने और सत्योपदेश करने से पाखण्ड की वृद्धि नहीं होती और सर्वत्र गृहस्थों को सहज से सत्य विज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और मनुष्यमात्र में एक ही धर्म स्थिर रहता है। विना अतिथियों के सन्देहनिवृत्ति नहीं होती। सन्देहनिवृत्ति के विना दृढ़ निश्चय भी नहीं होता।
*अतः हम सभी मनुष्यों को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ अवश्य करना चाहिए।*


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🔥 *ओ३म्* 🔥 *अपवर्ग किसे कहते हैं (What is ApaVarg)*? अपवर्ग (Salvation) मुक्ति को कहते हैं. इस...

🔥 *ओ३म्* 🔥

*अपवर्ग किसे कहते हैं (What is ApaVarg)*?
अपवर्ग (Salvation) मुक्ति को कहते हैं. इस अवस्था को मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण आदि नामों से भी जाना जाता है.

कवर्ग (Guttural-कण्ठ) = क ख ग घ ङ
चवर्ग (Palatal-तालु) = च छ ज झ ञ
टवर्ग (Cerebral-मूर्द्धा) = ट ठ ड ढ ण
तवर्ग (Dental-दन्त) = त थ द ध न
*पवर्ग (Labial-ओष्ठ) = प फ ब भ म*

_अपवर्ग = अ + पवर्ग = जो पवर्ग नहीं है_.

*पवर्ग शब्द में “प फ ब भ म” का क्या अर्थ है ???*
प = पाप
फ = फल
ब = बन्धन
भ = भय
म = मृत्यु

_अपवर्ग ऐसी अवस्था है, जिसमें पाप, फल, बन्धन, भय और मरण नहीं होता_.

*प्रश्न: मुक्ति कैसे मिलती है* ?
उत्तर: महर्षि पतंजलि के अनुसार, योग के आठ अङ्गो का अनुष्ठान करने से, शरीरस्थ मलदोष, चित्तस्थ विक्षेपदोष और बुद्धिगत आवरण दोष दूर होकर विवेकख्याति तक ज्ञान का विस्तार होकर जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है. (योगदर्शन 2.28, 4.31, 4.34)

*प्रश्न: क्या मुक्ति सदा (forever) के लिए मिलती है?*
उत्तर: नहीं, *limited efforts का result कभी भी unlimited नहीं हो सकता*.
*ऋग्वेद 1.24.2* के अनुसार, “मुक्ति के बाद पुनर्जन्म होता है”.
*सांख्यदर्शन 1.159* के अनुसार, “मुक्ति और बन्धन सदा नहीं रहते.”

*प्रश्न: मुक्ति की अवधि कितनी है?*
उत्तर: *मुण्डक-उपनिषद 3.2.6* के अनुसार, मुक्ति की अवधि *पराकाल* की होती है.
पराकाल = 31,10,40,000,000,000 वर्ष = 100 ब्राह्म-वर्ष
इतने समय में 36,000 बार सृष्टि और 36,000 बार प्रलय हो जाता है.

PaVarg stands for Pa, Pha, Ba, Bha, Ma.

Pa = Paap (Sin)
Pha = Phal (Outcome)
Ba = Bandhan (Bondage)
Bha = Bhaya (Fear)
Ma = Maran (Death)

Such condition where Soul is free from Sin, Outcome, Bondage, Fear and Death, that is called ApaVarg (Salvation).

🙏🏼🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🙏🏼


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इस्लाम समझने के लिए दिमाग खाली होना चाहिए किसी तरह का कोई सवाल मन में नहीं होना चाहिए | उसके बाद...

इस्लाम समझने के लिए दिमाग खाली होना चाहिए किसी तरह का कोई सवाल मन में नहीं होना चाहिए | उसके बाद इस्लाम बिलकुल सही तरीके से समझ में आता है| यह बात हज़ारो की तादात में दुनिया भर के मौलवी कहते है| यकीं न आये तो किसी भी मुस्लमान से पूछ लेना वो भी इस बात पर मोहर लगा देगा!

किसी की गर्दन पर तलवार रख दो, उसको बोलो इस्लाम कबूल करेगा या नहीं? हाँ बोले तो कुरान पकड़ा कर इस्लाम कबूल करवा लिया जाता है, और अगर ना बोले तो अल्लाह हु अख़बार और उस व्यक्ति को मार दिया जाता और फिर अगले शिकार की ओर!


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Friday, July 29, 2016

मैली चादर ओढ के कैसे पास तुम्हारे आऊं हे पावन परमेश्वर मेरे मन ही मन शरमाऊं मैली चादर औट के कैसे द्वार तुमने मुझ को जग में भेजा , देकर निर्मल काया इस जीवन को पाकर मैंने , गहरा दाग लगाया जन्म जन्म की मैली चादर , कैसे दाग छुडाऊं ॥ मैली ... निर्मल वाणी पा कर तुझ से, भजन न तेरा गाया नैन मूंदकर हे परमेश्वर , कभी न तुझको ध्याया मन वाणी की तारें टूटीं , ...अब क्या गीत सुनाऊं॥ मैली ... इन पैरों से चलकर तेरे , मन्दिर कभी न आया जहां जहां हो पूजा तेरी , कभी न शीश झुकाया "हरिहर"मैं तो हार के आया, अब क्या हार चटाऊं ॥ मैली चादर ओढ के कैसे पास तुम्हारे आऊं हे पावन परमेश्वर मेरे मन ही मन शरमाऊं और आगे देखें


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नमस्कार देशवासियों, मैं जम्मू - कश्मीर में वैष्णो देवी माता मन्दिर का पुजारी हूँ मैं अपना नाम नहीं बता सकता इसलिए नाम नहीं लिख रहा हूं ।मैं यह पत्र इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि में बहुत थक गया हूं, इसलिए देशवासियों के नाम खुला पत्र लिख रहा हूं । बात ऐसी है कि कुछ समय से जम्मू -कश्मीर के हालात ठीक नही हैं । यहाँ हिन्दू ऐतिहासिक जगहों के नाम बदले जा रहे हैं । इस बारे में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और vhp नेता प्रवीण तोगड़िया, भाजपा प्रमुख अमित शाह को मेने खुद लेटर लिखा है लेकिन किसी का जवाब नहीं आया मैंने लेटर उनको इसलिए लिखा कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा की सरकार है। जम्मू-कश्मीर में हालात पहले ऐसे नहीं थे लेकिन पिछले कुछ महीनो से जो चल रहा है , मैं आपको बताता हूं। कश्मीर में क्या-क्या बदल गया और क्या बदलने वाला है... 1. श्री नगर में गोपाद्री पहाड़ी है। कश्मीर की यात्रा के समय आदिशंकराचार्य ने इस पहाड़ी पर वर्षोँ तक तपस्या की थी। अतः लोगों ने सैंकड़ो वर्ष ही इस पहाड़ी का नाम शंकराचार्य पहाड़ी रख दिया था जो सरकारी दस्तावेजो में भी मौजूद है। लेकिन अब इस पहाड़ी का नाम 'सुलेमान टापू 'रख दिया गया है। हैरानी की बात यह है कि भारत सरकार के ASI ने भी अब वहां बोर्ड बदल दिया है जिस पर लिखा हुआ है - सुलेमान टॉपू । 2. श्रीनगर में हरि पर्वत है। अब इसका नाम बदलकर "कोह महारन" रख दिया गया है। 3. कश्मीर घाटी में एक अनंतनाग जिला है। वहां के लोग अब अनंतनाग को इस्लामाबाद कहने लगे हैं।वे लोग अपने दुकानो के उपर इस्लामाबाद लिखने लगे हैं ।नाम बदलने के लिए वहां के लोग आंदोलन कर रहे हैं। सरकारी आश्वासन भी मिल चुका है। 4. अनंतनाग जिले में एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है- उमानगरी। इसका भी नाम बदलकर 'शेखपुरा' कर दिया गया है। 5. जम्मू-कश्मीर सरकार को अब श्रीनगर नाम भी हजम नहीं हो रहा है। राज्य सरकार श्रीनगर का नाम "शहर-ए खास" रखने पर कई बार विचार कर चुकी है। 6. श्रीनगर में जिस चौक पर जामा मस्जिद स्थित है उस चौक का हिंदू नाम बदलकर इस्लामिक नाम 'मदीना चौक' रख दिया गया है। 7. घाटी में बहने वाली किशनगंगा नदी को अब "दरिया-ए-नीलम कहा जाने लगा है। यहाँ हर दिन होने वाले हिन्दू विरोधी दंगे की तो चर्चा तक नहीं करता कोई..... ये सब बदल गया है । क्या भारत सरकार ने कोई सौदा किया।मैं सबको बोल कर थक गया हूं । मीडिया वाले दिखाते नहीं उनको भी बहुत बोला लेकिन वो दिखाने को तैयार नहीं है । बस यहाँ कश्मीरी पण्डित है , वो इसकी लड़ाई लड़ रहे है । मैं कोई हिन्दू-मुस्लिम की बात नही करता लेकिन जो सालों से है जहाँ पर हिन्दु संस्कृति है उसे नष्ट किया जा रहा है । पिछले एक साल में ऐसा क्या हो गया जो नाम बदले जा रहे हैं ।भारतवासी अभी नहीं जागे तो समझो जम्मू -काश्मीर गया हाथ से , जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुस्लिम भाई भाई की तरह रहते हैं लेकिन कुछ षड्यंत्रकारी उसमेंं दरार डालते हैं । मैं पत्र इसलिए लिख रहा हूँ ।अभी नहीं जागे तो फिर आना माता रानी के दर्शन करने पासपोर्ट और वीजा लेकर । क्या आप ऐसा करेंगे ? कल वैष्णोंदेवी का नाम बदल दिया जायेगा तब जागोगे। मुझे अब भारत और राज्य सरकार से कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि कुछ दिनों पहले भारतीय सेना के 22 साल पुराने बंकर हंदवाड़ा में तोड़ दिए गए । नगर निगम के द्वारा तो भी एक भी भाजपा नेता कुछ नहीं बोला इस बात से समझ जाइए कि कश्मीर के क्या हालात हैं । मुझे उम्मीद है कि भारतवासी जागेगें , इसी उम्मीद के साथ ये पत्र लिख रहा हूँ । एक भारतीय नागरिक वैष्णोदेवी मन्दिर का पुजारी http://ift.tt/2aR8Yuz हर हिन्दू का फर्ज है नकली हिंदुत्व की पोल खोलें । आगे फॉरवर्ड नहीं किया तो धिक्कार है हिन्दू होने पर ।


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रामायण में सभी राक्षसों का वध हुआ था लेकिन💥 सूर्पनखा का वध नहीं हुआ था उसकी नाक और कान काट कर छोड़ दिया गया था । वह कपडे से अपने चेहरे को छुपा कर रहती थी । रावन के मर जाने के बाद वह अपने पति के साथ शुक्राचार्य के पास गयी और जंगल में उनके आश्रम में रहने लगी । राक्षसों का वंश ख़त्म न हो इसलिए, शुक्राचार्य ने शिव जी की आराधना की । शिव जी ने अपना स्वरुप शिवलिंग शुक्राचार्य को दे कर कहा की जिस दिन कोई “वैष्णव” इस पर गंगा जल चढ़ा देगा उस दिन राक्षसों का नाश हो जायेगा । उस आत्म लिंग को शुक्राचार्य ने वैष्णव मतलब हिन्दुओं से दूर रेगिस्तान में स्थापित किया जो आज अरब में “मक्का मदीना” में है । सूर्पनखा जो उस समय चेहरा ढक कर रहती थी वो परंपरा को उसके बच्चो ने पूरा निभाया आज भी मुस्लिम औरतें चेहरा ढकी रहती हैं । सूर्पनखा के वंसज आज मुसलमान कहलाते हैं । क्युकी शुक्राचार्य ने इनको जीवन दान दिया इस लिए ये शुक्रवार को विशेष महत्त्व देते हैं । पूरी जानकारी तथ्यों पर आधारित सच है।⛳ जानिए इस्लाम केसे पैदा हुआ.. 👉असल में इस्लाम कोई धर्म नहीं है .एक मजहब है.. दिनचर्या है.. 👉मजहब का मतलब अपने कबीलों के गिरोह को बढ़ाना.. 👉यह बात सब जानते है कि मोहम्मदी मूलरूप से अरब वासी है । 👉अरब देशो में सिर्फ रेगिस्तान पाया जाता है. वहां जंगल नहीं है, पेड़ नहीं है. इसीलिए वहां मरने के बाद जलाने के लिए लकड़ी न होने के कारण ज़मीन में दफ़न कर दिया जाता था. 👉रेगिस्तान में हरीयाली नहीं होती.. एसे में रेगिस्तान में हरा चटक रंग देखकर इंसान चला आता जो की सूचक का काम करता था.. 👉अरब देशो में लोग रेगिस्तान में तेज़ धुप में सफ़र करते थे, इसीलिए वहां के लोग सिर को ढकने के लिए टोपी 💂पहनते थे. जिससे की लोग बीमार न पड़े. 👉अब रेगिस्तान में खेत तो नहीं थे, न फल, तो खाने के लिए वहा अनाज नहीं होता था. इसीलिए वहा के लोग 🐑🐃🐄🐐🐖जानवरों को काट कर खाते थे. और अपनी भूख मिटाने के लिए इसे क़ुर्बानी का नाम दिया गया. 👉रेगिस्तान में पानी की बहुत कमी रहती थी,💧 इसीलिए लिंग (मुत्रमार्ग) साफ़ करने में पानी बर्बाद न हो जाये इसीलिए लोग खतना (अगला हिस्सा काट देना ) कराते थे. 👉सब लोग एक ही कबिले के खानाबदोश होते थे इसलिए आपस में भाई बहन ही निकाह कर लेते थे| 👉रेगिस्तान में मिट्टी मिलती नहीं थी मुर्ती बनाने को इसलिए मुर्ती पुजा नहीं करते थे| खानाबदोश थे , 👉 एक जगह से दुसरी जगह जाना पड़ता था इसलिए कम बर्तन रखते थे और एक थाली नें पांच लोग खाते थे| 👉कबीले की अधिक से अधिक संख्या बढ़े इसलिए हर एक को चार बीवी रखने की इज़ाजत दि.. 🔥अब समझे इस्लाम कोई धर्म नहीं मात्र एक कबीला है.. और इसके नियम असल में इनकी दिनचर्या है| नोट : पोस्ट पढ़के इसके बारे में सोचो. #इस्लाम_की_सच्चाई अगर हर हिँदू माँ-बाप अपने बच्चों को बताए कि अजमेर दरगाह वाले ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने किस तरह इस्लाम कबूल ना करने पर पृथ्वीराज चौहान की पत्नी संयोगिता को मुस्लिम सैनिकों के बीच बलात्कार करने के लिए निर्वस्त्र करके फेँक दिया था और फिर किस तरह पृथ्वीराज चौहान की वीर पुत्रियों ने आत्मघाती बनकर मोइनुद्दीन चिश्ती को 72 हूरों के पास भेजा थातो शायद ही कोई हिँदू उस मुल्ले की कब्र पर माथा पटकने जाए “अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को ९० लाख हिंदुओं को इस्लाम में लाने का गौरव प्राप्त है. मोइनुद्दीन चिश्ती ने ही मोहम्मद गोरी को भारत लूटने के लिए उकसाया और आमंत्रित किया था… (सन्दर्भ – उर्दू अखबार “पाक एक्सप्रेस, न्यूयार्क १४ मई २०१२). अधिकांश मुर्दा हिन्दू तो शेयर भी नहीं करेंगे,,धिक्कार है ऐसे हिन्दुओ पर👌👌👌👌👌👌👌👌👌 सुशील चौधरी हिन्दू रक्षा दल मथुरा


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रामायण में सभी राक्षसों का वध हुआ था लेकिन💥 सूर्पनखा का वध नहीं हुआ था उसकी नाक और कान काट कर छोड़...

रामायण में सभी राक्षसों का वध हुआ था लेकिन💥
सूर्पनखा का वध नहीं हुआ था
उसकी नाक और कान काट कर छोड़ दिया गया था ।
वह कपडे से अपने चेहरे को छुपा कर
रहती थी ।
रावन के मर जाने के बाद वह
अपने पति के साथ शुक्राचार्य के पास
गयी और जंगल में उनके आश्रम में रहने लगी ।

राक्षसों का वंश ख़त्म न
हो
इसलिए, शुक्राचार्य ने शिव
जी की आराधना की ।
शिव जी ने
अपना स्वरुप शिवलिंग शुक्राचार्य को दे कर
कहा की जिस दिन कोई “वैष्णव” इस पर
गंगा जल चढ़ा देगा उस दिन
राक्षसों का नाश हो जायेगा ।
उस आत्म
लिंग को शुक्राचार्य ने वैष्णव मतलब
हिन्दुओं से दूर रेगिस्तान में स्थापित
किया जो आज अरब में “मक्का मदीना” में है ।
सूर्पनखा जो उस समय चेहरा ढक कर
रहती थी वो परंपरा को उसके बच्चो ने
पूरा निभाया आज भी मुस्लिम औरतें
चेहरा ढकी रहती हैं ।
सूर्पनखा के वंसज
आज मुसलमान कहलाते हैं ।
क्युकी शुक्राचार्य ने इनको जीवन दान
दिया इस लिए ये शुक्रवार को विशेष
महत्त्व देते हैं ।
पूरी जानकारी तथ्यों पर आधारित सच है।⛳

जानिए इस्लाम केसे पैदा हुआ..
👉असल में इस्लाम कोई धर्म नहीं है .एक मजहब है..
दिनचर्या है..
👉मजहब का मतलब अपने कबीलों के
गिरोह को बढ़ाना..
👉यह बात सब जानते है कि मोहम्मदी मूलरूप से
अरब वासी है ।
👉अरब देशो में सिर्फ रेगिस्तान पाया जाता है.
वहां जंगल
नहीं है, पेड़ नहीं है. इसीलिए वहां मरने के बाद जलाने
के
लिए लकड़ी न होने के कारण ज़मीन में दफ़न कर
दिया जाता था.
👉रेगिस्तान में हरीयाली नहीं होती.. एसे में रेगिस्तान
में
हरा चटक रंग देखकर इंसान चला आता जो की सूचक
का काम करता था..
👉अरब देशो में लोग रेगिस्तान में तेज़ धुप में सफ़र करते थे,
इसीलिए वहां के लोग सिर को ढकने के लिए
टोपी 💂पहनते थे.
जिससे की लोग बीमार न पड़े.
👉अब रेगिस्तान में खेत तो नहीं थे, न फल, तो खाने के
लिए वहा अनाज नहीं होता था. इसीलिए वहा के
लोग
🐑🐃🐄🐐🐖जानवरों को काट कर खाते थे. और अपनी भूख मिटाने के
लिए इसे क़ुर्बानी का नाम दिया गया.
👉रेगिस्तान में पानी की बहुत कमी रहती थी,💧 इसीलिए
लिंग (मुत्रमार्ग) साफ़ करने में पानी बर्बाद न
हो जाये
इसीलिए लोग खतना (अगला हिस्सा काट देना ) कराते
थे.
👉सब लोग एक ही कबिले के खानाबदोश होते थे इसलिए
आपस में भाई बहन ही निकाह कर लेते थे|
👉रेगिस्तान में मिट्टी मिलती नहीं थी मुर्ती बनाने
को इसलिए मुर्ती पुजा नहीं करते थे|
खानाबदोश थे ,
👉 एक जगह से दुसरी जगह
जाना पड़ता था इसलिए कम बर्तन रखते थे और एक
थाली नें पांच लोग खाते थे|

👉कबीले की अधिक से अधिक संख्या बढ़े इसलिए हर एक
को चार बीवी रखने की इज़ाजत दि..
🔥अब समझे इस्लाम कोई धर्म नहीं मात्र एक कबीला है..
और इसके नियम असल में इनकी दिनचर्या है|
नोट : पोस्ट पढ़के इसके बारे में सोचो.
#इस्लाम_की_सच्चाई
अगर हर हिँदू माँ-बाप अपने बच्चों को बताए कि अजमेर दरगाह वाले ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने किस तरह इस्लाम कबूल ना करने पर पृथ्वीराज चौहान की पत्नी संयोगिता को मुस्लिम सैनिकों के बीच बलात्कार करने के लिए निर्वस्त्र करके फेँक दिया था और फिर किस तरह पृथ्वीराज चौहान की वीर पुत्रियों ने आत्मघाती बनकर मोइनुद्दीन चिश्ती को 72 हूरों के पास भेजा थातो शायद ही कोई हिँदू उस मुल्ले की कब्र पर माथा पटकने जाए

“अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को ९० लाख हिंदुओं को इस्लाम में लाने का गौरव प्राप्त है. मोइनुद्दीन चिश्ती ने ही मोहम्मद गोरी को भारत लूटने के लिए उकसाया और आमंत्रित किया था… (सन्दर्भ – उर्दू अखबार “पाक एक्सप्रेस, न्यूयार्क १४ मई २०१२).

अधिकांश मुर्दा हिन्दू तो शेयर भी नहीं करेंगे,,धिक्कार है ऐसे हिन्दुओ पर👌👌👌👌👌👌👌👌👌
सुशील चौधरी
हिन्दू रक्षा दल मथुरा


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• लो ब्लड प्रेशर – लो ब्लड प्रेशर में शरीर का खून का दवाब अस्वाभाविक रूप से कम हो जाता है, जिससे इस...

• लो ब्लड प्रेशर –

लो ब्लड प्रेशर में शरीर का खून का दवाब अस्वाभाविक रूप से कम हो जाता है, जिससे इस रोग में आलस्य, कमजोरी, उत्साह में कमी, याददाश्त कम होना, चिडचिडापन, सर-दर्द आदि की परेशानी हो जाती है.
यह एक बहुत ही गंभीर बीमारी है. यह साइलेन्ट किलर कहलाती है. अगर थोड़ी भी बढ़ जाए, तो जानलेवा हो सकती है. अतः जब भी थोड़ी सी भी परेशानी ज्यादा लगे, तो ये दवा हर दस-दस मिनिट से ले और पास के डॉक्टर से भी संपर्क कर सकते हैं.
बच्चों को छोड़कर हर उम्र के लोगो के लिए ब्लड प्रेशर की सेफ लिमिट 120/80 रहती है. इसमें 10 कम या ज्यादा भी नार्मल कहलाता है.
यानी कि 130/90 से ज्यादा हो, तो हाई बीपी कहलाता है.
तथा 110/70 से ज्यादा कम हो, तो लो बीपी कहलाता है.
मेरे द्वारा दवाइयों के साथ ही बताया गया ओवरहौलिंग, योग, एक्सरसाइज और खानपान का परहेज आपके बीपी को 120/80 रखने में मदद करता है.
एलोपैथी के विपरीत होम्योपैथी में लो ब्लड प्रेशर या हाई ब्लड प्रेशर के लिए दवा आजीवन न लेकर मात्र एक से दो माह के लिए लेने से यह रोग हमेशा के लिए ठीक हो जाता है.
इस रोग के लिए निम्न उपचार करें -
1. सुबह 7 बजे कुल्ला करके सल्फर 200 को, फिर दोपहर को आर्निका 200 और रात्रि को खाने के एक से दो घंटे बाद या नौ बजे नक्स वोम 200 की पांच-पांच बूँद आधा कप पानी से एक हफ्ते तक ले,
2. एवेना सैटाइवा Q और अल्फाल्फा Q को मिलाकर 20 बूँद दिन में चार बार लें.
3. होम्योकाम्ब नं. 100 की 2 गोली दिन में 4 बार चूंस लेना चाहिये.
4. इसके साथ ही बायो काम्ब न. 27 की 6 गोली दिन में 4 बार चूंस लेना चाहिये.
अगर ह्रदय रोग के साथ लो ब्लड प्रेशर हो, तो -
1. होम्योकाम्ब नं. 100 की 2 गोली दिन में 4 बार चूंस लेना चाहिये.
2. इसके साथ विस्कम एल्बम Q की 20 बूँद दिन में चार बार लें.
3. बायो काम्ब न. 27 की 6 गोली दिन में 4 बार चूंस लेना चाहिये.
जो भी लोग ह्रदय और अन्य रोगों से पीड़ित हैं और अंग्रेजी दवाइयां ले रहे हैं, वे उन्हें एक दम से बंद न करें और उपरोक्त इन दवाइयों को तीन माह तक लेने के बाद अपने डॉक्टर की सलाह से उन्हें धीरे-धीरे कम कर सकते हैं.

• शरीर की ओवरहालिंग और रिचार्जिंग –

हमेशा स्वस्थ रहने के लिए कोई भी व्यक्ति या परिवार अगर निम्न उपचार द्वारा अपने शरीर की ओवरहालिंग और रिचार्जिंग करता है और खान-पान तथा एक्सरसाइज भी निम्न अनुसार लेता है, तो उसे कभी भी कैंसर, डायबटीज, ह्रदय रोग, लिवर रोग, किडनी फेल्यर, टी.बी., फेफड़े के रोग, चर्म रोग आदि कोई भी गंभीर बीमारी नहीं होगी और वह आजीवन सपरिवार स्वस्थ, प्रसन्न और खुशहाल रह सकेगा -
1. सबसे पहले आप सुबह 7 बजे कुल्ला करके सल्फर 200 को, फिर दोपहर को आर्निका 200 और रात्रि को खाने के एक से दो घंटे बाद या नौ बजे नक्स वोम 200 की पांच-पांच बूँद आधा कप पानी से एक हफ्ते तक ले, फिर हर तीन से छह माह में तीन दिन तक लें.
2. इन दवाइयों को लेने के एक हफ्ते बाद हर 15-15 दिन में सोरिनम 200 का मात्र एक-एक पांच बूँद का डोज चार बार तक ले, ताकि आपके शरीर के अंदर जमा दवाई और दूसरे अन्य केमिकल और पेस्टीसाइड के विकार दूर हो सकें और आपके शरीर के सभी ह्रदय, फेफड़े, लीवर, किडनी आदि मुख्य अंग सुचारू रूप से कार्य कर सकेंगे. बच्चों और ज्यादा वृद्धों में ये सभी दवा 30 की पावर में दें.
3. अगर कब्ज रहता हो, तो होम्योलेक्स या HSL कम्पनी की होम्योकाम्ब नं. 67 की एक या आधी गोली रोज रात एक सफ्ताह तक 9.30 बजे लें. इसके बाद हर व्यक्ति को चाहिए कि वह इसे हर हफ्ते एक या आधी गोली रात्रि 9.30 बजे ले.
4. आप सुबह दो से चार गिलास कुनकुना पानी पीकर 5 मिनिट तक कौआ चाल (योग क्रिया) करें.
5. साथ ही पांच या अधिक से अधिक दस बार तक सूर्य नमस्कार करें. फिर 200 से 500 बार तक कपाल-भांति करें. इसके बाद प्राणायाम करें.
6. रोज सुबह और रात को 15-15 मिनिट का शवासन भी करें.
7. फिर एक घंटे बाद अगर सूट करे, तो कम से कम एक माह तक नारियल पानी लें.
8. सुबह और शाम को अगर संभव हो, तो एक घंटा अवश्य घूमें.
9. रात को सोते समय अष्टावक्र गीता में बताये अनुसार दो मिनिट के लिए “मैं स्वयं ही तीन लोक का चैतन्य सम्राट हूँ” ऐसा जाप करें.
10. उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के चार्ज किये और मिलाकर बने चुम्बकित जल को लगभग 50 मिलीलीटर की मात्रा में रोज दिन में 3 बार उपयोग करें.
11. रोज सुबह उच्च शक्ति चुम्बकों को हथेलियों पर 15 मिनिट से आधे घंटे के लिए लगायें और रात्रि को खाने के दो घंटे बाद पैर के तलुवों पर 15 मिनिट से आधे घंटे के लिए दक्षिणी चुम्बक को बायीं ओर और उत्तरी चुम्बक को दाहिनी ओर लगाये.
12. गेंहू, जौ, देसी चना और सोयाबीन को सम भाग मिलाकर पिसवा ले और उसकी रोटी सादे मसाले की रेशेदार सब्जी से खाएं. दाल का प्रयोग कम कर दें. बारीक आटे व मैदे से बनी वस्तुएं, तली वस्तुएं एव गरिष्ठ भोजन का त्याग करे।
13. सुबह-शाम चाय के स्थान पर नीबू का रस गरम पानी में मिला कर पिएं।
14. खाने में सिर्फ सेंधे नमक का प्रयोग करें.
15. रात को सोने से पहले पेट को ठण्डक पहुँचायें। इसके लिए खाने के चार घंटे बाद एक नेपकिन को सामान्य ठन्डे पानी से गीली करके पेट पर रखें और हर दो मिनिट में पलटते रहें. 15 मिनिट से 20 मिनिट तक इसे करें.
16. मैथी दाना 250 ग्राम, अजबाइन 100 ग्राम और काली जीरी 50 ग्राम को पीस कर इस चूर्ण को कुनकुने पानी से रात्रि 9.30 बजे एक चम्मच लें.
17. रात्रि को खाना और जमीकंद खाना, शराब पीना व धूम्रपान अगर करते हों या तम्बाखू खाते हों, तो इन्हें बंद करें. शाकाहारी भोजन ही लें.
18. अपने शरीर की सालाना ओवरहालिंग के लिए साल में एक बार अपने आसपास के किसी भी प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र में जाकर वहां का दस दिन का कोर्स करें.
19. अपने घर के बुजुर्ग लोगों की रोज एक घंटे के लिये सेवा और मदद करें.
20. अपने आसपास की झोपड़पट्टी में रहने वाले किसी गरीब व्यक्ति की हर हफ्ते जाकर मदद करें.
21. अध्यात्मिक कैप्सूल के रूप में मेरी पुस्तक मुक्तियाँ की एक-एक मुक्ति तीन माह तक रोज पढ़ें. इससे आपकी नेगेटिव एनर्जी कम होगी और पॉजिटिव एनर्जी बहुत तेजी से बढेगी.
22. मेरी स्वस्थ रहे, स्वस्थ करें, मुक्तियाँ और अन्य कई पुस्तकों को मेरे समाधान ग्रुप से निशुल्क डाउन लोड करें. आप चाहे तो अपना email address मेरे मेसेज बाक्स में दे दे, तो मैं आपको डायरेक्ट मेल कर दूंगा.
23. होम्योकाम्ब और बायोकाम्ब नम्बर से मिलती हैं. इनके नम्बर ध्यान से लिखें. साथ ही होम्योकाम्ब और बायोकाम्ब में कन्फ्यूज न हों. इन्हें साफ़-साफ़ लिखें.
24. किसी भी गंभीर मरीज को किसी विशेषज्ञ डॉक्टर को तत्काल दिखायें.
25. होम्योपैथी की दवाइयों को मुंह साफ़ करके कुल्ला करके लेना चाहिए. इनको लेते समय किसी भी तरह की सुगन्धित चीजों और प्याज, लहसुन, काफी, हींग और मांसाहार आदि से बचे और दवा लेने के आधा घंटा पहले और बाद में कुछ न लें.
26. हर दिन नई एलोपथिक दवाइयां बन रही हैं और अधिकांश पुरानी दवाइयों के घातक और खतरनाक परिणामों के कारण इन्हें कुछ ही वर्षों में भारत को छोड़ कर विश्व के कई देशों में बेन भी किया जा रहा है.
27. हमें भी चाहिये कि हम मात्र एलोपथिक दवाइयों पर ही निर्भर न रहकर योगासन, सूर्य किरण भोजन, अमृत-जल या सूर्य किरण जल चिकित्सा, एक्यूप्रेशर, बायोकेमिक दवाइयाँ आदि निर्दोष प्रणालियों को अपना कर खुद और अपने परिवार को सुरक्षित करें.
28. इस तरह दवा मुक्त विश्व का निर्माण करना ही हमारा एकमात्र उद्देश्य है और इसके लिए आप सभी का सहयोग चाहिये, जो आप मेरे इन सन्देशों को दूर-दूर तक फैला कर मुझे दे सकते हैं.
29. मेरी सभी स्वास्थ्य सम्बन्धी, लोक कल्याण, मानवाधिकार और आध्यात्मिक पोस्ट और पुस्तकों को देखने और उन्हें डाउनलोड करने के लिए आप मेरे ग्रुप “HEALTH CARE स्वस्थ रहो, स्वस्थ करो” और “Samadhan समाधान” से जुड़ सकते हैं और अपने दोस्तों को भी जोड़ सकते हैं.
*
यदि आप चाहे तो मेरे हजारों आध्यात्मिक लेखों को पढ़ने के लिए मेरी लिखी मुक्तियाँ, मुक्ति शिखर, मुक्ति धारा, मुक्ति पथ और मुक्ति कुञ्ज आदि चौदह आध्यात्मिक पुस्तको को मेरे ग्रुप “डॉ. स्वतंत्र जैन सा. के आध्यात्मिक सूत्र”
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इन को रोज पढने से आपकी नकारात्मक उर्जा निश्चित ही कम होगी और सकारात्मक उर्जा बहुत तेजी से बढेगी.
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तुलसी के लगातार सेवन से कैंसर और पथरी जैसी गंभीर बीमारियों को भी ठीक किया जा सकता है। यह घर में...

तुलसी के लगातार सेवन से कैंसर और पथरी जैसी गंभीर बीमारियों को भी ठीक किया जा सकता है। यह घर में आसानी से उपलब्ध हो जाती है, इसलिए यह सबसे किफायती औषधि है। तुलसी में एंटी-ऑक्सीडेंट्स होते हैं, जो इंफेक्शन जैसे सर्दी-जुकाम से राहत देते हैं। इस पौधे के क्या फायदे हैं, आइए जानते हैं।

1- पथरी निकालने में मददगार

तुलसी की पत्तियां किडनी के स्वास्थ्य के लिए काफी अच्छी होती हैं। तुलसी रक्त से यूरिक एसिड लेवल को कम करती है, जो किडनी में पथरी बनने का मुख्य कारण होती है। इसके साथ ही किडनी को साथ भी करती है। तुलसी में मौजूद एसेटिक एसिड और दूसरे तत्व किडनी की पथरी को गलाने का काम करते हैं। साथ ही इसका पेनकिलर प्रभाव पथरी के दर्द को दूर करता है। किडनी की पथरी को निकालने के लिए तुलसी की पत्तियों के जूस को शहद के साथ मिलाकर 6 महीने तक रोज पिएं।

2- डायबिटीज़ को कम कता है

तुलसी की पवित्र पत्तियां एंटी-ऑक्सीडेंट्स और एसेंशियल ऑयल से भरपूर होती हैं, जो युगेनॉल, मेथाइल युगेनॉल और कार्योफेलिन का निर्माण करती हैं। ये पदार्थ पैनक्रियाटिक बेटा सेल्स (सेल्स जो इंसुलिन को स्टोर करते हैं और उसे बाहर निकालते हैं) को ठीक तरह से काम करने में मदद करते हैं। यह इंसुलिन की सेंसिविटी को बढ़ाते हैं। यह ब्लड से शुगर लेवल भी कम करते हैं और डाइबिटीज़ का ठीक तरह से ईलाज करते हैं।

3- बुखार उतारने में मदद करती है

तुलसी में किटाणुनाशक और एंटी-बैक्टीरियल गुण होते हैं। एंटी-बायोटिक बुखार कम करने के लिए भी ज़रूरी होता है। यह इंफेक्शन की वजह से होने वाली बीमारियों और मलेरिया से भी राहत देती है। आयुर्वेद के अनुसार, जो इंसान बुखार से पीड़ित हो उसे तुलसी का काढ़ा बहुत ही फायदा करता है। इसे बनाने के लिए तुलसी की कुछ पत्तियों को आधे लीटर पानी में इलायची पाउडर के साथ मिलाकर तब तक के लिए जब तक यह मिक्सचर आधा न रह जाए। तुलसी की पत्तियों और इलायची पाउडर का अनुपात (1:0:3) होना चाहिए। इस काढ़े को चीनी और दू

4- दिल का रखती है ख्याल

तुलसी में शक्तिशाली एंटी-ऑक्सीडेंट तत्व- युगेनॉल होता है। यह तत्व ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करके दिल का देखभाल करता है और कोलेस्ट्रॉल लेवल को कम करता है। हार्ट को हेल्दी बनाने के लिए रोज खाली पेट सूखी तुलसी की पत्तियां चबाएं। इससे किसी भी तरह के हृदय संबंधी रोग दूर रहते हैं।

5- थकान दूर करती है

रिसर्च के अनुसार, तुलसी स्ट्रेस हार्मोन- कोर्टिसोल के लेवल को संतुलित रखती है। इसकी पत्तियों में शक्तिशाली एटॉप्टोजन गुण होते हैं, जिन्हें एंटी-स्ट्रेस एजेंट भी कहते हैं। यह नर्वस सिस्टम और ब्लड सर्कुलेशन को नियमित रखता हैं। साथ ही थकान के दौरान बनने वाले फ्री रेडिकल्स को कम करता है। जिन लोगों की नौकरी बहुत थकाऊ हैं उन्हें रोज दो बार तुलसी की लगभग 12 पत्तियां खानी चाहिए।

6- कैंसररोधी होती है तुलसी

शक्तिशाली एंटी-ऑक्सीडेंट और एंटी-कार्सिनोजेनिक गुण होने के कारण तुलसी की पत्तियां ब्रेस्ट कैंसर और मुंह के कैंसर (तंबाकू के सेवन से होने वाला कैंसर) को बढ़ने को रोकती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि तुलसी के घटक ट्यूमर तक रक्त के प्रवाह को नहीं पहुंचने देते। कैंसर से बचने के लिए व इसके प्रभाव को कम करने के लिए रोज तुलसी का सत्व पिएं।

7- स्मोकिंग छोड़ने में करती है मदद

तुलसी में शक्तिशाली एंटी-स्ट्रेस तत्व होने के कारण यह स्मोकिंग छोड़ने में मददगार हो सकती है। जिस स्ट्रेस की वजह से लोग धूम्रपान के आदी हो जाते हैं, तुलसी की पत्तियां उस स्ट्रेस लेवल को कम कर देती हैं। इसको चबाने पर यह गले को कूलिंग इफेक्ट देती है। मुंह में कुछ न कुछ चबाने से सिगरेट पीने की आदत अपने आप छूट जाती है। इसलिए जब भी आपका मन सिगरेट पीने का हो तो इसके बजाय तुलसी की कुछ पत्तियां चबा लें। इससे आपकी सिगरेट पीने की आदत तो छूटेगी ही साथ ही इसकी वजह से जो शरीर में नुकसान हुआ है उसे भी यह कम कर देती है।


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*स्त्री क्या है ?* *जब भगवान स्त्री की रचना कर रहे थे तब उन्हें काफी समय लग गया । आज छठा दिन था और...

*स्त्री क्या है ?*
*जब भगवान स्त्री की रचना कर रहे थे तब उन्हें काफी समय लग गया । आज छठा दिन था और स्त्री की रचना अभी भी अधूरी थी।*
*इसिलए देवदूत ने पूछा भगवन्, आप इसमें इतना समय क्यों ले रहे हो…?*
*भगवान ने जवाब दिया, “क्या तूने इसके सारे गुणधर्म (specifications) देखे हैं, जो इसकी रचना के लिए जरूरी है ?*
*१. यह हर प्रकार की परिस्थितियों को संभाल सकती है।*
*२. यह एक साथ अपने सभी बच्चों को संभाल सकती है एवं खुश रख सकती है ।*
*३. यह अपने प्यार से घुटनों की खरोंच से लेकर टूटे हुये दिल के घाव भी भर सकती है ।*
*४. यह सब सिर्फ अपने दो हाथों से कर सकती है।*
*५. इस में सबसे बड़ा "गुणधर्म” यह है कि बीमार होने पर भी अपना ख्याल खुद रख सकती है एवं 18 घंटे काम भी कर सकती है।*
*देवदूत चकित रह गया और आश्चर्य से पूछा-*
*“भगवान ! क्या यह सब दो हाथों से कर पाना संभव है ?”*
*भगवान ने कहा यह स्टैंडर्ड रचना है।*
*(यह गुणधर्म सभी में है )*
*देवदूत ने नजदीक जाकर स्त्री को हाथ लगाया और कहा, “भगवान यह तो बहुत नाज़ुक है”*
*भगवान ने कहा हाँ यह बहुत ही नाज़ुक है, मगर इसे बहुत Strong बनाया है ।*
*इसमें हर परिस्थितियों को संभालने की ताकत है।*
*देवदूत ने पूछा क्या यह सोच भी सकती है ??*
*भगवान ने कहा यह सोच भी सकती है और मजबूत हो कर मुकाबला भी कर सकती है।*
*देवदूत ने नजदीक जाकर स्त्री के गालों को हाथ लगाया और बोला, “भगवान ये तो गीले हैं। लगता है इसमें से लिकेज हो रहा है।”*
*भगवान बोले, “यह लीकेज नहीं है, यह इसके आँसू हैं।”*
*देवदूत: आँसू किस लिए ??*
*भगवान बोले : यह भी इसकी ताकत हैं । आँसू इसको फरीयाद करने एवं प्यार जताने एवं अपना अकेलापन दूर करने का तरीका है।*
*देवदूत: भगवान आपकी रचना अदभुत है । आपने सब कुछ सोच कर बनाया है, आप महान है।*
*भगवान बोले-*
*यह स्त्री रूपी रचना अदभुत है । यही हर पुरुष की ताकत है जो उसे प्रोत्साहित करती है। वह सभी को खुश देखकर खुश रहतीँ है। हर परिस्थिति में हंसती रहती है । उसे जो चाहिए वह लड़ कर भी ले सकती है। उसके प्यार में कोइ शर्त नहीं है (Her love is unconditional) उसका दिल टूट जाता है जब अपने ही उसे धोखा दे देते है । मगर हर परिस्थितियों से समझौता करना भी जानती है।*
*देवदूत: भगवान आपकी रचना संपूर्ण है।*
*भगवान बोले ना, अभी इसमें एक त्रुटि है।*
*“यह अपनी "महत्वत्ता” भूल जाती है"*
*(“ She often forgets what she is worth”.)*
*सभी आदरणीय स्त्रीयों को समर्पित।*
*(To all respectful women)*


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“टाइम ही नहीं मिलता…” कहना छोडें ! समय का सदुपयोग आपके हाथ में है ! दोस्तों हममें से हर कोई अपनी...

“टाइम ही नहीं मिलता…” कहना छोडें !

समय का सदुपयोग आपके हाथ में है !

दोस्तों हममें से हर कोई अपनी life में कुछ न कुछ जरुर करना चाहता है, लेकिन हमें उसके लिए time ही नहीं मिलता । For example- हम ये सोचते हैं कि हम ये सीखेंगे, ऐसा करेंगे-वैसा करेंगे…अपने main goal की तरफ थोडा आगे बढ़ेंगे लेकिन हकीकत में हम आगे बढ़ते नहीं। और ऐसा न कर पाने का एक common excuse है कि “हमें वक़्त ही नहीं मिलता !”


इसलिए आज मैं आपके लिए कुछ ऐसे रियल लाइफ examples लाया हूँ जिनके बारे में जानकर आप सच में inspire होंगे। ये हमें समय के पाबंद होने के लिए प्रेरित तो करते ही हैं साथ में ये भी बताते हैं कि कोई इंसान कितना भी busy होकर भी अपने मनपसंद काम में कैसे आगे बढ़ सकता है:

USA के famous Mathematician Charles F ने रोज केवल एक घंटा Maths सीखने का नियम बनाया था और उस नियम पर अंत तक डटे रहकर ही Maths में महारथ हासिल की।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जब कॉलेज जाते थे तो रास्ते के दुकानदार अपनी घड़ियाँ उन्हें देखकर ठीक करते थे। वे जानते थे कि विद्यासागर कभी एक मिनट भी आगे-पीछे नहीं चलते।
मोजार्ट ने हर घडी उपयोगी कार्य में लगे रहना अपना जीवन का आदर्श बना लिया था। उन्होंने रैक्युम नामक famous ग्रन्थ मौत से लड़ते-लड़ते पूरा किया।
ब्रिटिश कामनवेल्थ के मंत्री का अत्याधिक व्यस्त उत्तरदायित्व निभाते हुए मिल्टन ने ‘पैराडाइस लॉस्ट‘ कि रचना की। राजकाज से उन्हें बहुत कम समय मिल पाता था तो भी जितने कुछ मिनट वह बचा पाते उसी में उस काव्य पर काम कर लेते।
Gallileo की medical shop थी फिर भी उसने थोडा-थोडा समय बचाकर विज्ञानं के महत्वपूर्ण आविष्कार कर डाले।
Henry Kirak ने घर से office तक पैदल आने-जाने के समय का सदुपयोग करके Greek सीख ली। फौजी डॉक्टर बनने पर उनका अधिकांश समय घोड़े की पीठ पर बीतता था। उन्होंने उस समय भी Italian और French भाषा सीख ली।
Edward Vatlar ने राजनीति और parliament के कार्यक्रमों में busy रहते हुए भी 60 ग्रंथों की रचना कर ली। वह कहते हैं कि उन्होंने रोज तीन घंटे का समय पढने और लिखने के लिए fix किया था।
रोज चाय बनाने के लिए पानी उबालने में जितना समय लगता है , उसमे व्यर्थ न बैठकर लान्गफैले ने इन्फरल ग्रन्थ का अनुवाद कर लिया।
Napolean ने ऑस्ट्रिया को इसलिए हरा दिया क्योंकि वहां के सैनिक उसका सामना करने के लिए पाँच मिनट देरी से आये।
Waterloo के युद्ध में Napolean इसलिए बंदी बना लिया गया क्योंकि उसका सेनापति पाँच मिनट देरी से आया।
महात्मा गाँधी दातुन करने से पहले शीशे पर गीता का श्लोक चिपका लिया करते थे और दातुन करते समय याद कर लिया करते थे, इस तरह से उन्होंने गीता के 13 अध्याय याद कर लिए।
It is very surprising that कोई केवल रोज एक घंटे पढ़कर expert बन गया तो किसी ने पैदल चलने का time का भी use किया तो किसी ने पानी उबलने का time भी use किया। कोई पाँच मिनट की देरी से हार जाता है तो कोई ऐसा ही कि लोग अपनी घडी से ज्यादा उसके समय की पाबंदी पर भरोसा है और कोई ऐसा भी है जो मौत से लड़ते लड़ते भी किताब लिखता है।

जब लोग उसी २४ घंटे में इतना कुछ कर सकते हैं तो प्रश्न उठता है कि आखिर हमारा समय कहाँ बर्बाद हो रहा है ?

Really, हमे हमारा goal achieve करने के लिए जितना time चाहिए उससे कहीं ज्यादा time हमारे पास होता है। बस जरुरत है उस अमूल्य समय को बर्बाद होने से बचाने की।

ओ३म्


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👇👇👇👇👇👇👇👇 *यह हमेशा ध्यान रखे* 1) 🤑🌶🍒 *निम्बू-मिर्च* खाने के लिये है.. कही *टाँगने* के लिए नहीं...

👇👇👇👇👇👇👇👇
*यह हमेशा ध्यान रखे*

1) 🤑🌶🍒 *निम्बू-मिर्च* खाने के लिये है.. कही *टाँगने* के लिए नहीं है….

2) 😱🐈 *बिल्लियाँ* पालतू जानवर है, बिल्ली के *रास्ता काटने* से कुछ गलत नहीं होता.. बल्कि चूहों से होनेवाले नुक्सान को बचाया जा सकता है…..
.
3) 🗣💨 *छिंकना* एक नैसर्गिक क्रिया है , छींकने से कुछ *अनहोनी* नहीं होती ना हि किसी काम में बाधा आती है- छींकने से शरीर की *सुप्त पेशियां* सक्रीय हो जाती है…

4) 💀🌳 *भुत* पेड़ों पर नहीं रहते - पेड़ों पर *पक्षी*रहते है…..

5) 🔬🔭 *चमत्कार* जैसी कोई चीज नहीं होती - हर घटना के पिछे *वैज्ञानिक* कारण होता है…..

6) ⛄☃ *भोपा, बाबा* जैसे लोग *झुठे* होते है- जिन्हें *शारारिक मेहनत* नहीं करनी ये वही लोग है…..

7) ⛈🌪👺🔥 *जादू टोणा*, या *किसीने कराया* ऐसा कुछ नहीं होता, ये दुर्बल लोगोंके *मानसिक वीकार* है….
जादू-टोणा करके आपके ग्रहो की दिशा बदलने वाले बाबा, हवा और मेघोंकी दिशा बदलकर बारिश नहीं ला सकते…?⛈☁🌒💫

8 ) 🌏🐠 *वास्तुशास्त्र* भ्रामक है. सिर्फ दिशाओ का *डर* दिखाकर लूट…
वास्तविक तो पृथ्वी ही खुद हर क्षण *अपनी दिशा* बदलती है…. अगर *कुबेरजी* उत्तर दिशा में है तो एक ही स्थान या दिशा में *आमिर* और *गरीब* दोनों क्यों पाये जाते है?….. .

9) 👼🐓🐐🍇🍎 *मन्नत,पूजा, बलि, टिप* या *चढ़ावे* से भगवान प्रसन्न होकर *फल* देते है, तो क्या भगवान् *रिश्वतखोर* है?….. आध्यात्म *मोक्ष* के लिए है, *धन* कमाने के लिए नहीं…..

10) 👆🏼 ये जो *पढ़* रहे हो इसका अनुकरण करे, और अपने *मित्रों* को भी send करे…

यह मेसैज दूसरे ग्रुप पर भेजने से कोई *खुश खबर* नहीं मिलेगी… पर अपने मित्र *महेनत*और *कर्म* का महत्त्व जरूर जान सकेंगे… 🙏🏽

*कर्मण्ये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचनं* 👈🏼 “श्रीमद् भगवद् गीता”


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सोमनाथ मन्दिर की लूट पर स्वामी दयानंद की प्रेरक शिक्षा👉👉👉👉सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने...

सोमनाथ मन्दिर की लूट पर स्वामी दयानंद की प्रेरक शिक्षा👉👉👉👉सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने प्रश्नोत्तर शैली में सोमनाथ मन्दिर के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। प्रश्न करते हुए वह लिखते हैं कि देखो ! मसोमनाथ जी (भगवान) पृथिवी के ऊपर रहता था और उनका बड़ा चमत्कार था, क्या यह भी मिथ्या बात है? इसका उत्तर देते हुए वह बताते हैं कि हां यह बात मिथ्या है। सुनो ! मूर्ति के ऊपर नीचे चुम्बक पाषाण लगा रक्खे थे। इसके आकर्षण से वह मूर्ति अधर में खड़ी थी। जब ‘महमूद गजनवी’ आकर लड़ा तब यह चमत्कार हुआ कि उस का मन्दिर
तोड़ा गया और पुजारी भक्तों की
दुर्दशा हो गई और लाखों फौज दश
सहस्र फौज से भाग गई। जो पोप पुजारी पूजा, पुरश्चरण, स्तुति, प्रार्थना करते थे कि ‘हे महादेव ! इस म्लेच्छ को तू मार डाल, हमारी रक्षा कर, और वे अपने चेले राजाओं को समझाते थे ‘कि आप निश्चिन्त
रहिये। महादेव जी, भैरव अथवा वीरभद्र
को भेज देंगे। ये सब म्लेच्छों को मार
डालेंगे या अन्धा कर देंगे। अभी हमारा
देवता प्रसिद्ध होता है। हनुमान, दुर्गा
और भैरव ने स्वप्न दिया है कि हम सब
काम कर देंगे।’ वे विचारे भोले राजा और क्षत्रिय पोपों के बहकाने से विश्वास में रहे। कितने ही ज्योतिषी पोपों ने कहा
कि अभी तुम्हारी चढ़ाई का मुहूर्त नहीं
है। एक ने आठवां चन्द्रमा बतलाया, दूसरे
ने योगिनी सामने दिखलाई। इत्यादि
बहकावट में रहे।
जब म्लेच्छों की फौज ने आकर मन्दिर को घेर लिया तब दुर्दशा से भागे, कितने ही पोप पुजारी और उन के चेले पकड़े गये। पुजारियों ने यह भी हाथ जोड़ कर कहा कि तीन क्रोड़ रूपया ले लो मन्दिर और
मूर्ति मत तोड़ो। मुसलमानों ने कहा कि
हम ‘बुत्परस्त’ नहीं किन्तु ‘बुतशिकन्’
अर्थात् मूर्तिपूजक नहीं किन्तु
मूर्तिभंजक हैं और उन्होंने जा के झट
मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत
टूटी तब चुम्बक पाषाण पृथक् होने से
मूर्ति गिर पड़ी। जब मूर्ति तोड़ी तब
सुनते हैं कि अठारह करोड़ के रत्न निकले।
जब पुजारी और पोपों पर कोड़ा
अर्थात कोड़े पड़े तो रोने लगे। मुस्लिम
सैनिकों ने पुजारियों को कहा कि
कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला
दिया। तब सब कोष लूट मार कूट कर पोप
और उन के चेलों को ‘गुलाम’ बिगारी
बना, पिसना पिसवाया, घास
खुदवाया, मल मूत्रादि उठवाया और
चना खाने को दिये। हाय ! क्यों पत्थर
की पूजा कर (हिन्दू) सत्यानाश को
प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की (सत्य वेद
रीति से) भक्ति न की? जो म्लेच्छों के
दांत तोड़ डालते और अपना विजय करते। देखो ! जितनी मूर्तियां हैं उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती? पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की किन्तु मूर्ति एक भी उन (अत्याचारियों) के शिर पर उड़ के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की मूर्ति के सदृश सेवा करते तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।
उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि दयानन्द जी ने जो कहा है वह एक सत्य ऐतिहासिक दस्तावेज है। इससे सिद्ध है कि पुजारियों सहित सैनिको व देशवासियों के अपमान व पराजय का कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वास, पाखण्ड, ढ़ोग, वेदों को विस्मृत कर वेदाचरण से दूर जाना आदि थे। यह कहावत प्रसिद्ध है कि जो व्यक्ति व जाति इतिहास से सबक नहीं सीखती वह पुनः उन्हीं मुसीबतों मे फंस जाती व फंस सकती है अर्थात् इतिहास अपने आप को दोहराता है। महर्षि दयानन्द ने हमें हमारी भूलों का ज्ञान कराकर असत्य व अज्ञान पर आधारित मिथ्या विश्वासों को छोड़ने के लिये चेताया था। हमने अपनी मूर्खता, आलस्य, प्रमाद व कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण उसकी उपेक्षा की। आज भी हम वेद मत को मानने वाली हिन्दू जनता को सुसंगठित नहीं कर पाये जिसका परिणाम देश, समाज व जाति के लिए अहितकर हो सकता है। महर्षि दयानन्द ने वेदों का जो ज्ञान प्रस्तुत किया है वह संसार के समस्त मनुष्यों के लिए समान रूप से कल्याणकारी है। लेख की समाप्ति पर उनके शब्दों को एक बार पुनः दोहराते हैं- ‘जब तक इस मनुष्य जाति
में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरूद्ध
वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को
आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और
विशेष विद्वज्जन ईष्र्या द्वेष छोड़
सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का
ग्रहण और असत्य का त्याग करना
कराना चाहैं तो हमारे लिये यह बात
असाध्य नहीं है। … यदि ये (मत–मतान्तर
वाले) लोग अपने प्रयोजन (स्वार्थ) में न
फंस कर सब के प्रयोजन (हित व कल्याण)
को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत
हो जायें।’ आईये, सत्य को ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने का व्रत लें। इसके लिये वेदों का स्वाध्याय करें और वेदानुसार ही जीवन व्यतीत करें जिससे देश, समाज व विश्व को लाभ प्राप्त हो।


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शिव मंदिरो को मुसलमानो ने तोड़कर मस्जिद बना डाली बेचारे शिव के मूर्ख भक्त तीसरी नेत्र के खुलने की...

शिव मंदिरो को मुसलमानो ने तोड़कर मस्जिद बना डाली
बेचारे शिव के मूर्ख भक्त तीसरी नेत्र के खुलने की प्रतीक्षा में गाजर, मूली की तरह काटे गए
औरतों,लड़कियों को ईज्जत सरेआम लूटकर जान से मार डाला मुल्लों ने
आजतक अत्याचार करते है

फिर भी तीसरा नेत्र वन्द है
कभी नहीं खुलेगा

कयों कि ये कहानियों में है
सत्य में कुछ नहीं है
सभी पुराणों में धरती चपटी है

सिर्फ वेद में धरती का आकार गोल बताया है

जागो मूर्तिपूजकों सत्यज्ञान प्राप्त करो
सत्यार्थ प्रकाश पढ़ो
**************************************
हमें नफरत किसीसे नहीं है परन्तु …
इस मूर्तिपूजा को अपने स्वार्थ बस जिसने चलाई
जिसके कारण आर्यावर्त के भारतीयों को 800+ बर्षों तक मुसलमानों की गुलामी के गर्त में भेज दी…..

ऐसे निच पापी को गर्भ में ही मर जाना था

इतना ही नहीं गुलामी ने हमें आर्य से गुलामी नाम हिन्दू दे दी,किसीने ईण्डियन कहना आरम्भ करदी और हम मूर्ख, अज्ञानी इन गुलामी नाम पर गर्व करते हुवे गुलामी को ओर पहुंचाने वाले मूर्तिपूजा के लिए झगड़ते रहते है

जागो भारतीय आर्यों मूर्तिपूजा त्याग कर
सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय कर
वेद की ओर लौटें


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ओ३म् *🌷वैदिक धर्म-एक संक्षिप्त परिचय🌷* एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक...

ओ३म्

*🌷वैदिक धर्म-एक संक्षिप्त परिचय🌷*

एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक धर्म।एक ही धर्मग्रन्थ था वेद।एक ही गुरु मंत्र था-गायत्री।सभी का एक ही अभिवादन था-नमस्ते।एक ही विश्वभाषा थी-संस्कृत।और एक ही उपास्य देव था-सृष्टि का रचयिता परमपिता परमेश्वर,जिसका मुख्य नाम ओ३म् है।तब संसार के सभी मनुष्यों की एक ही संज्ञा थी-आर्य।सारा विश्व एकता के इस सप्त सूत्रों में बँधा,प्रभु का प्यार प्राप्त कर सुख शान्ति से रहता था।दुनिया भर के लोग आर्यावर्त कहलाने वाले इस देश भारत में विद्या ग्रहण करने आते थे।अध्यात्म और योग में इसका कोई सानी नहीं था।

किन्तु महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्राह्मण वर्णीय जनों के ‘अनभ्यासेन वेदानां’ अर्थात् वेदों के अनभ्यास तथा आलस्य और स्वार्थ बुद्धि के कारण स्थिति बदली और क्षत्रियों में “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली एकतांत्रिक सामन्तवादी प्रणाली चल पड़ी।धर्म के नाम पर पाखंडियों अर्थात् वेदनिन्दक ,वेदविरुद्ध आचरण करने वालों की बीन बजने लगी,यह विश्वसम्राट् एवं जगतगुरु भारत विदेशियों का क्रीतदास बनकर रह गया।जो जगतगुरु सबका सरताज कहलाने वाला था उसे मोहताज बना दिया गया।

दासता की इन्हीं बेड़ियों को काटने और धर्म का वास्तविक स्वरुप बताने के लिए युगों-युगों के पश्चात् इस भारत भूमि गुजरात प्रान्त के टंकारा ग्राम की मिट्टी से एक रत्न पैदा हुआ जिसका नाम मूलशंकर रखा गया।जो बाद में'महर्षि दयानन्द सरस्वती’ के नाम से विश्वविख्यात् हुआ।जब उसने धर्म के नाम पर पल रहे घोर अधर्म,अन्धविश्वास,रुढ़िवाद,गुरुड़मवाद,जन्मगत मिथ्या जात्याभिमान,बहुदेववाद,अवतारवाद,फलित ज्योतिष,मृतक श्राद्ध और मूर्ति पूजा आदि बुराइयों के विरुद्ध पाखण्ड-खण्डिनी पताका को फहराते हुए निर्भय नाद किया तो सारा भूमंडल टंकारा वाले ऋषि की जय जयकार कर उठा।

उसकी इस विजय के पीछे सबसे बड़ा कारण चिरकाल से सोई हुई मानव जाति को उसके वास्तविक धर्म से परिचित कराना था।महर्षि ने धर्म के नाम पर लुटती मानवता को अज्ञान अन्धकार से बाहर निकालकर सत्य सनातन वैदिक धर्म में पुनः स्थापित किया।आज यदि हम निष्पक्ष होकर तुलना करें कि वैदिक सम्पत्ति को हमारे समक्ष किसने प्रस्तुत किया तो वह मुक्तात्मा देव दयानन्द है,जिसके ऋण से उऋण हम तभी हो सकते हैं  जब वैदिक धर्म को भली-भाँति समझकर अपने जीवन को उसके प्रकाश से आलोकित करें।

वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की समस्त भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अभी तक अस्तित्व में है।संसार भर के अन्य मत ,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर,मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं,किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है,किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है।

वैदिक धर्म में एक निराकार,सर्वज्ञ,सर्वव्यापक,न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य माना जाता है,उसी की उपासना की जाती है,उसके स्थान पर अन्य देवी-देवताओं की नहीं।

*धर्म की परिभाषा:*-जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है,जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए मानने योग्य है ,उसे धर्म कहते हैं।
उत्तम मानवीय गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करना ही धर्म की सार्थकता को सिद्ध करता है।

*🌷कुछ शंकाएं:-*

*प्रश्न :-*ईश्वर को सातवें आसमान,चौथे आसमान,परमधाम,बैकुण्ठ आदि एक स्थान पर मानने से क्या हानि है?

*उत्तर:-*जो किसी एक स्थान पर रहता है,वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता,और जो सर्वज्ञ नहीं है वह सब जीवों के कर्मों को जानकर उनका उचित फल नहीं दे सकता,और जो उचित फल नहीं दे सकता वह न्यायकारी नहीं हो सकता।ईश्वर सातवें आसमानादि स्थानों में रहता है,यह बात प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी सिद्ध नहीं है।अतः अमान्य है।

*प्रश्न:-*जैसे जीव शरीर के एक स्थान में रहते हुए सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता है,वैसे ही परमेश्वर भी परमधामादि में एक स्थान पर रहते हुए भी सब कुछ जान सकता है और कर्मो का फल दे सकता है।

*उत्तर :-*यह दृष्टान्त सत्य नहीं है क्योंकि शरीर में एक स्थान में रहने वाला जीव सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता होता तो कोई भी व्यक्ति कभी रोगी नहीं होता।बड़े-बड़े वैद्य डाक्टर भी शरीर के विषय में पूर्ण रुप से नहीं जानते ,और वे रोगी भी हो जाते हैं।इसलिए यह मान्यता असत्य है कि जीव शरीर में एक स्थान पर रहता हुआ सम्पूर्ण शरीर के विषय में जानता है।सर्वज्ञ केवल वही हो सकता है जो सर्वव्यापक हो,एक स्थान में रहने वाला नहीं।

*प्रश्न:-* जब ईश्वर सर्वव्यापक है तो जीव और प्रकृति के रहने के लिए कोई स्थान नहीं रहना चाहिए ?

*उत्तर :-*ईश्वर पत्थर की भाँति स्थान को नहीं घेरता और न जीव स्थान को घेरता है।इसलिए ईश्वर के सर्वव्यापक होने पर भी जीव और प्रकृति के रहने में कोई बाधा नहीं है।

*प्रश्न :-*ईश्वर के अतिरिक्त जीव और प्रकृति को स्वतंत्र अनादि पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है?ईश्वर स्वयं जीव और संसार के भूमि आदि सब पदार्थों को अपने स्वरुप से ही उत्पन्न कर लेवेगा ?

*उत्तर :-*ईश्वर निर्विकार और निराकार है,अतः जीव,प्रकृति आदि को स्वरुप से उत्पन्न नहीं कर सकता और चेतन से जड़ की उत्पत्ति भी कभी नहीं हो सकती


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सनातन धर्म का आधार और ज्ञान का भंडार… वेद ~~~~~~~~~~~~~ वेद क्या हैं ? ”वेदो अखिलो धर्म मूलम ” …...

सनातन धर्म का आधार और ज्ञान का भंडार… वेद
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वेद क्या हैं ?

”वेदो अखिलो धर्म मूलम ” … ”वेद धर्म का मूल हैं” … राजऋषि मनु के अनुसार ‘वेद’ शब्द ‘विद’ मूल शब्द से बना है… ‘विद’ का अर्थ है… “ज्ञान”…

वेद 1.97 बिल्लियन वर्ष पुराने हैं | वेदों के अनुसार यह वर्तमान सृष्टि 1 अरब, 96 करोड़, 8 लाख और लगभग 53000 वर्ष पुरानी है और इतने ही पुराने हैं “वेद” | जैसा की ऋग्वेद मन्त्र 10/191/3 में कहा गया है की यह सृष्टि , इससे पिछली सृष्टि के

समान है और सृष्टि के चलने का क्रम शाश्वत है , इसलिए “वेद” भी शाश्वत हैं |” वेदों का वास्तव में सृजन या विनाश नहीं होता , वे तो केवल प्रकाशित और अप्रकाशित होते हैं , परन्तु , ईश्वर में सदैव रहते हैं”-आदि जगद्गुरु शंकराचार्य…”वेद अपौरुषेय हैं”-

कुमारीलभट्ट…
वेद वास्तव में पुस्तकें नही हैं… बल्कि यह वो ज्ञान है जो ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित हुआ | ईश्वर वेदों के ज्ञान को सृष्टि के प्रारम्भ के समय चार ऋषियों को देते हैं… जो जैविक सृष्टि के द्वारा पैदा नही होते हैं | इन ऋषियों के नाम हैं… अग्नि, वायु, आदित्य और अंगीरा |


1.ऋषि अग्नि ने “ऋग्वेद” को प्राप्त किया
2.ऋषि वायु ने “यजुर्वेद” को प्राप्त किया
3.ऋषि आदित्य ने “सामवेद” को प्राप्त किया और
4.ऋषि अंगीरा ने “अथर्ववेद” को प्राप्त किया…

इसके बाद इन चार ऋषियों ने दुसरे लोगों को इस दिव्य ज्ञान को प्रदान किया…

इन्हीं ऋषियों से ऋषि ब्रह्मा जी को ज्ञान प्राप्त हुआ। ब्रह्मा जी चरों वेदों के ज्ञाता थे। पहले शिक्षा/ ज्ञान को श्रवण कर कंठस्थ कर लिया जाता था।
इसी परम्परा से वेदों की शिक्षा करोड़ों अरबों वर्षो तक चलती रही।

वेदों का लिखित संकलन रूप महर्षि कृष्णद्वैपायन ने दिया ।जिन्हें सम्मान से महर्षि वेदव्यास भी कहा जाता है।


ऋग्वेद दिव्य मन्त्रों की संहिता है | इसमें १०१७ (1017) ऋचाएं अथवा सूक्त हैं जो कि १०६०० (10600) छंदों में पंक्तिबद्ध हैं | ये आठ “अष्टको” में विभाजित हैं एवं प्रत्येक अष्टक के क्रमानुसार आठ अध्याय एवं उप- अध्याय हैं | ऋग्वेद का ज्ञान मूलतः अत्रि, कन्व, वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदाग्नि, गौतम एवं भरद्वाज ऋषियों को प्राप्त हुआ | ऋग वेद की ऋचाएं एक सर्वशक्तिमान पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर की उपासना अलग अलग विशेषणों से करती हैं…

सामवेद संगीतमय ऋचाओं का संग्रह हैं | विश्व का समस्त संगीत सामवेद की ऋचाओं से ही उत्पन्न हुआ है | ऋग्वेद के मूल तत्व का सामवेद संगीतात्मक सार है, प्रतिपादन हैं…

यजुर्वेद मानव सभ्यता के लिए नीयत कर्म एवं अनुष्ठानों का दैवी प्रतिपादन करते हैं | यजुर वेद का ज्ञान मद्यान्दीन, कान्व, तैत्तरीय, कथक, मैत्रायणी एवं कपिस्थ्ला ऋषियों को प्राप्त हुआ…

अथर्ववेद ऋग्वेद में निहित ज्ञान का व्यावहारिक कार्यान्वन प्रदान करता है ताकि मानव जाति उस परम ज्ञान से पूर्णतयः लाभान्वित हो सके | लोकप्रिय मत के विपरीत अथर्ववेद जादू और आकर्षण मन्त्रों एवं विद्या की पुस्तक नहीं है…

वेद- संरचना…

प्रत्येक वेद चार भागों में विभाजित हैं, क्रमशः : संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् | ऋचाओं एवं मन्त्रों के संग्रहण से संहिता, नीयत कर्मों और कर्तव्यों से ब्राह्मण , दार्शनिक पहलु से आरण्यक एवं ज्ञातव्य पक्ष से उपनिषदों का निर्माण हुआ है | आरण्यक समस्त योग का आधार हैं | उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है एवं ये वैदिक शिक्षाओं का सार हैं…

वेद: समस्त ज्ञान के आधार हैं…

अनंता वै वेदा: … वेद अनंत हैं

वेद धर्म का विश्वकोश है।इसमे मनुष्य के सभी कर्तव्यों का समावेश है।
वेद में जो कुछ कहा वही धर्म है, जो वेद के विरुद्ध है वो अधर्म है।

वेद कहता है:
1. सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।।।
ऋ.10।191।2
अर्थात मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम सब के मन प्रेम से पूरित और एक जैसे हों।

2. मनुर्भव जनया देव्यं जनम् ।।
ऋ. 10।53।6
अर्थात् मनुष्य बनो।मननशील बनो सोच विचार कर काम करने वाले बनो।और दिव्य संतानों को जन्म दो।

3. अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शांतिवन।।

अर्थात पुत्र पिता का अनुवर्तन करने वाला ,पिता के शुभ गुणों को जीवन में धारण करने वाला हो।माता के साथ सौहार्द्रपूर्ण ,उत्तम बरताव करने वाला हो। पत्नी पति से मीठी वाणी बोले और और शांतिशील पति भी अपनी पत्नी के साथ मधुर वाणी बोले।

इससे श्रेष्ठ धर्म और क्या हो सकता है?

विश्व में केवल एक ही धर्म है , सनातन या वैदिक धर्म ।
संसार में और जितने भी तथाकथित धर्म हैं वो वास्तव में धर्म है ही नहीं।वे मत या सम्प्रदाय हैं। संसार में जितने भी सम्प्रदाय हैं उन सबका मूल वैदिक धर्म है।इन मतों और पंथो में जो अच्छी बातें हैं वे सब वेद की हैं और जो गप्पें हैं वे सब उनकी अपनी हैं।


सारे मत -पंथ और सम्प्रदाय वेद का उच्चिष्ठ अर्थात जूठन है।


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Thursday, July 28, 2016

"*सात चीजें हमारा जीवन बर्बाद कर देती है:-* बिना मेहनत के *धन*, बिना विवेक के *सुख,*  बिना..."

*सात चीजें हमारा जीवन बर्बाद कर देती है:-*

बिना मेहनत के *धन*,
बिना विवेक के *सुख,* 
बिना सिध्दांतों के *राजनीति,*
बिना चरित्र के *ज्ञान,* 
बिना नैतिकता के *व्यापार, *
बिना मानवता के *विज्ञान, *
बिना त्याग के *पूजा*|

*शुभ प्रभात*  🌹🌴🌻

*आपका दिन मंगलमय हाे* 🐾🌻🌷💐🌹🍁🌻🐾


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ओ३म् *🌷वैदिक धर्म-एक संक्षिप्त परिचय🌷* एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक...

ओ३म्

*🌷वैदिक धर्म-एक संक्षिप्त परिचय🌷*

एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक धर्म।एक ही धर्मग्रन्थ था वेद।एक ही गुरु मंत्र था-गायत्री।सभी का एक ही अभिवादन था-नमस्ते।एक ही विश्वभाषा थी-संस्कृत।और एक ही उपास्य देव था-सृष्टि का रचयिता परमपिता परमेश्वर,जिसका मुख्य नाम ओ३म् है।तब संसार के सभी मनुष्यों की एक ही संज्ञा थी-आर्य।सारा विश्व एकता के इस सप्त सूत्रों में बँधा,प्रभु का प्यार प्राप्त कर सुख शान्ति से रहता था।दुनिया भर के लोग आर्यावर्त कहलाने वाले इस देश भारत में विद्या ग्रहण करने आते थे।अध्यात्म और योग में इसका कोई सानी नहीं था।

किन्तु महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्राह्मण वर्णीय जनों के ‘अनभ्यासेन वेदानां’ अर्थात् वेदों के अनभ्यास तथा आलस्य और स्वार्थ बुद्धि के कारण स्थिति बदली और क्षत्रियों में “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली एकतांत्रिक सामन्तवादी प्रणाली चल पड़ी।धर्म के नाम पर पाखंडियों अर्थात् वेदनिन्दक ,वेदविरुद्ध आचरण करने वालों की बीन बजने लगी,यह विश्वसम्राट् एवं जगतगुरु भारत विदेशियों का क्रीतदास बनकर रह गया।जो जगतगुरु सबका सरताज कहलाने वाला था उसे मोहताज बना दिया गया।

दासता की इन्हीं बेड़ियों को काटने और धर्म का वास्तविक स्वरुप बताने के लिए युगों-युगों के पश्चात् इस भारत भूमि गुजरात प्रान्त के टंकारा ग्राम की मिट्टी से एक रत्न पैदा हुआ जिसका नाम मूलशंकर रखा गया।जो बाद में'महर्षि दयानन्द सरस्वती’ के नाम से विश्वविख्यात् हुआ।जब उसने धर्म के नाम पर पल रहे घोर अधर्म,अन्धविश्वास,रुढ़िवाद,गुरुड़मवाद,जन्मगत मिथ्या जात्याभिमान,बहुदेववाद,अवतारवाद,फलित ज्योतिष,मृतक श्राद्ध और मूर्ति पूजा आदि बुराइयों के विरुद्ध पाखण्ड-खण्डिनी पताका को फहराते हुए निर्भय नाद किया तो सारा भूमंडल टंकारा वाले ऋषि की जय जयकार कर उठा।

उसकी इस विजय के पीछे सबसे बड़ा कारण चिरकाल से सोई हुई मानव जाति को उसके वास्तविक धर्म से परिचित कराना था।महर्षि ने धर्म के नाम पर लुटती मानवता को अज्ञान अन्धकार से बाहर निकालकर सत्य सनातन वैदिक धर्म में पुनः स्थापित किया।आज यदि हम निष्पक्ष होकर तुलना करें कि वैदिक सम्पत्ति को हमारे समक्ष किसने प्रस्तुत किया तो वह मुक्तात्मा देव दयानन्द है,जिसके ऋण से उऋण हम तभी हो सकते हैं  जब वैदिक धर्म को भली-भाँति समझकर अपने जीवन को उसके प्रकाश से आलोकित करें।

वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की समस्त भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अभी तक अस्तित्व में है।संसार भर के अन्य मत ,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर,मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं,किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है,किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है।

वैदिक धर्म में एक निराकार,सर्वज्ञ,सर्वव्यापक,न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य माना जाता है,उसी की उपासना की जाती है,उसके स्थान पर अन्य देवी-देवताओं की नहीं।

*धर्म की परिभाषा:*-जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है,जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए मानने योग्य है ,उसे धर्म कहते हैं।
उत्तम मानवीय गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करना ही धर्म की सार्थकता को सिद्ध करता है।

*🌷कुछ शंकाएं:-*

*प्रश्न :-*ईश्वर को सातवें आसमान,चौथे आसमान,परमधाम,बैकुण्ठ आदि एक स्थान पर मानने से क्या हानि है?

*उत्तर:-*जो किसी एक स्थान पर रहता है,वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता,और जो सर्वज्ञ नहीं है वह सब जीवों के कर्मों को जानकर उनका उचित फल नहीं दे सकता,और जो उचित फल नहीं दे सकता वह न्यायकारी नहीं हो सकता।ईश्वर सातवें आसमानादि स्थानों में रहता है,यह बात प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी सिद्ध नहीं है।अतः अमान्य है।

*प्रश्न:-*जैसे जीव शरीर के एक स्थान में रहते हुए सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता है,वैसे ही परमेश्वर भी परमधामादि में एक स्थान पर रहते हुए भी सब कुछ जान सकता है और कर्मो का फल दे सकता है।

*उत्तर :-*यह दृष्टान्त सत्य नहीं है क्योंकि शरीर में एक स्थान में रहने वाला जीव सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता होता तो कोई भी व्यक्ति कभी रोगी नहीं होता।बड़े-बड़े वैद्य डाक्टर भी शरीर के विषय में पूर्ण रुप से नहीं जानते ,और वे रोगी भी हो जाते हैं।इसलिए यह मान्यता असत्य है कि जीव शरीर में एक स्थान पर रहता हुआ सम्पूर्ण शरीर के विषय में जानता है।सर्वज्ञ केवल वही हो सकता है जो सर्वव्यापक हो,एक स्थान में रहने वाला नहीं।

*प्रश्न:-* जब ईश्वर सर्वव्यापक है तो जीव और प्रकृति के रहने के लिए कोई स्थान नहीं रहना चाहिए ?

*उत्तर :-*ईश्वर पत्थर की भाँति स्थान को नहीं घेरता और न जीव स्थान को घेरता है।इसलिए ईश्वर के सर्वव्यापक होने पर भी जीव और प्रकृति के रहने में कोई बाधा नहीं है।

*प्रश्न :-*ईश्वर के अतिरिक्त जीव और प्रकृति को स्वतंत्र अनादि पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है?ईश्वर स्वयं जीव और संसार के भूमि आदि सब पदार्थों को अपने स्वरुप से ही उत्पन्न कर लेवेगा ?

*उत्तर :-*ईश्वर निर्विकार और निराकार है,अतः जीव,प्रकृति आदि को स्वरुप से उत्पन्न नहीं कर सकता और चेतन से जड़ की उत्पत्ति भी कभी नहीं हो सकती


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[7/29, 08:27] ‪+91 97131 25428‬: भारत की आज़ादी का असली इतिहास By Rajiv Dixit Ji 2734 आखिर इतना बड़ा...

[7/29, 08:27] ‪+91 97131 25428‬: भारत की आज़ादी का असली इतिहास By Rajiv Dixit Ji
2734

आखिर इतना बड़ा भारत मूठी भर अंग्रेज़ो का गुलाम कैसे हुआ ??
किसी इतिहास की किताब आपको ये जवाब नहीं मिलेगा !
एक बार पढ़ें ! राजीव भाई की भाषा मे (1998 )
_______
दो तीन गंभीर बाते कहने आपसे आया हूँ . और चाहता हु कि कुछ आपसे कह सकुं और अगर आप चाहें तो मुझसे कुछ पूछ सके. मेरे व्याख्यान के बाद अगर आपको लगे तो आप सवाल जरुर पूछिएगा. जिस विषय पर मै व्याख्यान देने वाला हूँ वो विषय आज हमारे देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण है, इसलिए अगर आप उसमे कुछ सवाल करेंगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी. !

आज़ादी के 50 साल हो गए है, ऐसा भारत सरकार कहती है. 1947 में हम आजाद हुए थे, अंग्रेजो की गुलामी से. और 1947 में जब आज़ादी मिली, तो अब 1998 आ गया है, ऐसा माना जाता है कि 50 साल पुरे हो गए, देश को आज़ाद हुए. मै मानता हु कि ये आज़ादी के ५० साल नही है बल्कि हिंदुस्तान की गुलामी के 500 साल पुरे हुए है. ये, कभी कभी आपको आश्चर्य लगेगा कि ये राजीव भाई ऐसा क्यों बोलते है गुलामी के 500 साल ?? भारत सरकार तो कहती है कि आज़ादी को 50 साल हो गए है. और मै बहुत गंभीरता से ये मानता हु कि आज़ादी के 50 साल नहीं बल्कि गुलामी के 400 साल पुरे हुए है. वो कैसे? उसको समझिए, !!

आज से लगभग 400 साल पहले, वास्कोडीगामा आया था हिंदुस्तान. इतिहास की चोपड़ी में, इतिहास की किताब में हमसब ने पढ़ा होगा कि सन. 1498 में मई की 20 तारीख को वास्कोडीगामा हिंदुस्तान आया था. इतिहास की चोपड़ी में हमको ये बताया गया कि वास्कोडीगामा ने हिंदुस्तान की खोज की, पर ऐसा लगता है कि जैसे वास्कोडीगामा ने जब हिंदुस्तान की खोज की, तो शायद उसके पहले हिंदुस्तान था ही नहीं. हज़ारो साल का ये देश है, जो वास्कोडीगामा के बाप दादाओं के पहले से मौजूद है इस दुनिया में. तो इतिहास कि चोपड़ी में ऐसा क्यों कहा जाता है कि वास्कोडीगामा ने हिंदुस्तान की खोज की, भारत की खोज की. और मै मानता हु कि वो एकदम गलत है. वास्कोडीगामा ने भारत की कोई खोज नहीं की, हिंदुस्तान की भी कोई खोज नहीं की, हिंदुस्तान पहले से था, भारत पहले से था,

वास्कोडीगामा यहाँ आया था भारतवर्ष को लुटने के लिए, एक बात और जो इतिहास में, मेरे अनुसार बहुत गलत बताई जाती है कि वास्कोडीगामा एक बहूत बहादुर नाविक था, बहादुर सेनापति था, बहादुर सैनिक था, और हिंदुस्तान की खोज के अभियान पर निकला था, ऐसा कुछ नहीं था, सच्चाई ये है कि पुर्तगाल का वो उस ज़माने का डॉन था, माफ़िया था. जैसे आज के ज़माने में हिंदुस्तान में बहूत सारे माफ़िया किंग रहे है, उनका नाम लेने की जरुरत नहीं है, क्योकि मंदिर की पवित्रता ख़तम हो जाएगी, ऐसे ही बहूत सारे डॉन और माफ़िया किंग 15 वी सताब्दी में होते थे यूरोप में. और 15 वी. सताब्दी का जो यूरोप था, वहां दो देश बहूत ताकतवर थें उस ज़माने में, एक था स्पेन और दूसरा था पुर्तगाल. तो वास्कोडीगामा जो था वो पुर्तगाल का माफ़िया किंग था. 1490 के आस पास से वास्को डी गामा पुर्तगाल में चोरी का काम, लुटेरे का काम, डकैती डालने का काम ये सब किया करता था. और अगर सच्चा इतिहास उसका आप खोजिए तो एक चोर और लुटेरे को हमारे इतिहास में गलत तरीके से हीरो बना कर पेश किया गया. और ऐसा जो डॉन और माफ़िया था उस ज़माने का पुर्तगाल का ऐसा ही एक दुसरा लुटेरा और डॉन था, माफ़िया था उसका नाम था कोलंबस, वो स्पेन का था.
[7/29, 08:29] ‪+91 97131 25428‬: तो हुआ क्या था, कोलंबस गया था अमेरिका को लुटने के लिए और वास्कोडीगामा आया था भारतवर्ष को लुटने के लिए. लेकिन इन दोनों के दिमाग में ऐसी बात आई कहाँ से, कोलंबस के दिमाग में ये किसने डाला की चलो अमेरिका को लुटा जाए, और वास्कोडीगामा के दिमाग में किसने डाला कि चलो भारतवर्ष को लुटा जाए. तो इन दोनों को ये कहने वाले लोग कौन थे? अतुल भाई जो बता रहे थे, वही बात मै आपसे दोहरा रहा हु.
हुआ क्या था कि 14 वी. और 15 वी. सताब्दी के बीच का जो समय था, यूरोप में दो ही देश थें जो ताकतवर माने जाते थे, एक देश था स्पेन, दूसरा था पुर्तगाल, तो इन दोनों देशो के बीच में अक्सर लड़ाई झगडे होते थे, लड़ाई झगड़े किस बात के होते थे कि स्पेन के जो लुटेरे थे, वो कुछ जहांजो को लुटते थें तो उसकी संपत्ति उनके पास आती थी, ऐसे ही पुर्तगाल के कुछ लुटेरे हुआ करते थे वो जहांज को लुटते थें तो उनके पास संपत्ति आती थी, तो संपत्ति का झगड़ा होता था कि कौन-कौन संपत्ति ज्यादा रखेगा. स्पेन के पास ज्यादा संपत्ति जाएगी या पुर्तगाल के पास ज्यादा संपत्ति जाएगी. तो उस संपत्ति का बटवारा करने के लिए कई बार जो झगड़े होते थे वो वहां की धर्मसत्ता के पास ले जाए जाते थे. और उस ज़माने की वहां की जो धर्मसत्ता थी, वो क्रिस्चियनिटी की सत्ता थी, और क्रिस्चियनिटी की सत्ता 1492 में के आसपास पोप होता था जो सिक्स्थ कहलाता था, छठवा पोप.!

तो एक बार ऐसे ही झगड़ा हुआ, पुर्तगाल और स्पेन की सत्ताओ के बीच में, और झगड़ा किस बात को ले कर था? झगड़ा इस बात को ले कर था कि लूट का माल जो मिले वो किसके हिस्से में ज्यादा जाए. तो उस ज़माने के पोप ने एक अध्यादेश जारी किया. आदेश जारी किया, एक नोटिफिकेशन जारी किया. सन 1492 में, और वो नोटिफिकेशन क्या था? वो नोटिफिकेशन ये था कि 1492 के बाद, सारी दुनिया की संपत्ति को उन्होंने दो हिस्सों में बाँटा, और दो हिस्सों में ऐसा बाँटा कि दुनिया का एक हिस्सा पूर्वी हिस्सा, और दुनिया का दूसरा हिस्सा पश्चिमी हिस्सा. तो पूर्वी हिस्से की संपत्ति को लुटने का काम पुर्तगाल करेगा और पश्चिमी हिस्से की संपत्ति को लुटने का काम स्पेन करेगा. ये आदेश 1492 में पोप ने जारी किया. ये आदेश जारी करते समय, जो मूल सवाल है वो ये है कि क्या किसी पोप को ये अधिकार है कि वो दुनिया को दो हिस्सों में बांटे, और उन दोनों हिस्सों को लुटने के लिए दो अलग अलग देशो की नियुक्ति कर दे? स्पैन को कहा की दुनिया के पश्चिमी हिस्से को तुम लूटो, पुर्तगाल को कहा की दुनिया के पूर्वी हिस्से को तुम लूटो और 1492 में जारी किया हुआ वो आदेश और बुल आज भी एग्जिस्ट करता है.


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१. ईश्वर – जिसके गुण ,कर्म, स्वाभाव और स्वरुप सत्य ही हैं जो केवल चेतनमात्र वस्तु है तथा जो एक...

१. ईश्वर –

जिसके गुण ,कर्म, स्वाभाव और स्वरुप सत्य ही हैं जो केवल चेतनमात्र वस्तु है
तथा जो एक अद्वितीय सर्वशक्तिमान ,निराकार , सर्वत्र व्यापक , अनादि और अनन्त आदि सत्यगुण वाला है और
जिसका स्वभाव अविनाशी , ज्ञानी , आनन्दी , शुद्ध
न्यायकारी , दयालु और अजन्मादि है ।

जिसका कर्म जगत की उत्पत्ति , पालन और विनाश करना तथा सर्वजीवों को पाप , पुण्य के फल ठीक ठीक पहुचाना है;
उसको ईश्वर कहते हैं ।

२. धर्म –
जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपात रहित न्याय सर्वहित करना है ।
जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से
सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिये यही एक धर्म मानना योग्य है; उसको धर्म कहते हैं ।

३.
अधर्म – जिसका स्वरुप ईश्वर
की आज्ञा को छोङकर और पक्षपात सहित अन्यायी
हो के बिना परीक्षा करके अपना ही हि करना है । जिसमें अविद्या , हठ , अभिमान , क्रूरतादि दोषयुक्त होने के कारण वेदविद्या से विरुद्ध है, इसलिये यह अधर्म सब मनुष्यों को छोङने के योग्य है , इससे यह
अधर्म कहाता है ॥


४.

पुण्य – जिसका स्वरुप विद्धयादि शुभ गुणों का दान और सत्यभाषणादि सत्याचार
का करना है , उसको पुण्य कहते हैं ।

५.
पाप — जो पुण्य से उलटा और
मिथ्या भाषण अर्थात झूठ बोलना आदि कर्म है,
उसको पाप कहते हैं ॥

६.
सत्यभाषण —- जैसा कुछ अपने मन में हो और असम्भव आदि दोषों से रहित करके
सदा वैसा सत्य ही बोले ; उसको सत्य भाषण कहते हैं ।

७.

मिथ्याभाषण — जो कि सत्यभाषण अर्थात सत्य बोलने से विरुद्ध है ; उसको असत्यभाषण कहते हैं ।

८.
विश्वास – जिसका मूल अर्थ और फल निश्चय करके सत्य ही हो ; उसका नाम विश्वास है ।

९.
अविश्वास – जो विश्वास का उल्टा है। जिसका तत्व अर्थ न हो वह अविश्वास है ।

१०.
परलोक – जिसमें सत्य विद्या करके परमेश्वर की प्राप्ति पूर्वक इस जन्म वा पुनर्जन्म
और मोक्ष में परम सुख प्राप्त होना है ; उसको परलोक कहते हैं ।

११.
अपरलोक – जो परलोक से उल्टा है जिसमें दुःखविशेष भोगना होता है ; वह अपरलोक कहाता है ।

१२.
जन्म – जिसमे किसी शरीर के साथ संयुक्त होके जीव कर्म में समर्थ होता है ; उसको जन्म कहते हैं ।

१३.
मरण — जिस शरीर को प्राप्त होकर जीव क्रिया करता है , उस शरीर और जीव का किसी काल में जो वियोग हो जाना है उसको मरण कहते हैं ।

१४.
स्वर्ग — जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है ; वह स्वर्ग कहाता है ।

१५.
नरक — जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है ; उसको
नरक कहते हैं ।

१६.
विद्या – जिससे ईश्वर से लेके
पृथिवी पर्यन्त पदार्थों का सत्य विज्ञान होकर उनसे
यथायोग्य उपकार लेना होता है
इसका नाम विद्या है ।

१७.
अविद्या — जो विद्या से विपरीत है भ्रम , अन्धकार और अज्ञानरुप है ; इसलिए
इसको अविद्या कहते हैं ।

१८.
सत्पुरुष — जो सत्यप्रिय ,
धर्मात्मा , विद्वान सबके हितकारी और महाशय होते हैं ;
वे सत्पुरुष कहाते हैं ।

१९.
सत्संग — जिस करके झूठ से छूटके सत्य की ही प्राप्ति होती है उसको सत्संग और जिस करके पापों में जीव फंसे उसको “कुसंग ” कहते हैं ।

२०.
तीर्थ — जितने विद्याभ्यास ,
सुविचार , ईश्वरोपासना , धर्मानुष्ठान , सत्य का संग ,
ब्रह्मचर्य , जितेन्द्रियता , उत्तम कर्म हैं , वे सब “ तीर्थ “ कहाते हैं क्योंकि जिन करके जीव
दुःखसागर से तर जा सकते हैं ।

२१.
स्तुति — जो ईश्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुणज्ञान , कथन , श्रवण और सत्यभाषण करना है ; वह स्तुति कहाती है ॥

२२.
स्तुति का फल — जो गुण ज्ञान
आदि के करने से गुण वाले पदार्थों में प्रीति होती है ; यह “ स्तुति का फल “ कहाता है ॥

२३.
निन्दा — जो मिथ्याज्ञान ,
मिथ्याभाषण , झूठ में
आग्रहादि क्रिया का नाम निन्दा
है कि जिससे गुण छोङकर उनके स्थान में अवगुण लगाना होता है ॥

२४.
प्रार्थना — अपने पूर्ण पुरषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मो की सिद्धि के लिये परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य का सहाय लेने को “ प्रार्थना “ कहते हैं ॥


२५.
प्रार्थना का फल — अभिमान
नाश , आत्मा में आर्द्रता , गुण ग्रहण में पुरुषार्थ और
अत्यंत प्रीति का होना “
प्रार्थना का फल “ है ।

२६.
उपासना — जिस करके ईश्वर ही के आनन्द स्वरुप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है ; उसको “ उपासना “ कहते हैं ।

२७.
निर्गुणोपासना — शब्द , स्पर्श और रुप , रस , गंध , संयोग – वियोग , हल्का , भारी अविद्या , जन्म ,मरण और दुख आदि गुणों से रहित परमात्मा को जानकर जो उसकी उपासना
करनी है , उसको “.निर्गुणोपासना “ कहते
हैं ।

२८. सगुणोपासना — जिसको सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान , शुद्ध, नित्य , आनन्द , सर्वव्यापक ,
सनातन , सर्वकर्ता , सर्वाधार ,
सर्वस्वामी , सर्वनियन्ता ,
सर्वान्तर्यामी , मगंल मय , सर्वानन्दप्रद सर्वपिता , सब जगत का रचने वाला , न्यायकारी , दयालु और सत्य गुणों से युक्त जानके जो ईश्वर की उपासना करनी है ; सो
“सगुणोपासना “ कहाती है ।

२९.
मुक्ति — अर्थात जिससे सब बुरे कामों और जन्म मरण आदि दुःख सागर से.छूटकर
सुखस्वरुप परमेश्वर को प्राप्त होके सुख ही में रहना “ मुक्ति “ कहती है ।

३०
मुक्ति के साधन — अर्थात
जो पूर्वोक्त ईश्वर की कृपा , स्तुति , प्रार्थना और उपासना
का करना तथा धर्म का आचरण , पुण्य का करना , सत्संग , विश्वास , तीर्थसेवन सत्पुरुषों
का संग , परोपकार आदि सब अच्छे कामो का करना और सब दुष्ट कर्मो से अलग रहना
है , ये सब “ मुक्ति के साधन “ कहाते हैं ॥

३१.
कर्ता — जो स्वतन्त्रता से
कर्मो का करने वाला है अर्थात जिसके स्वाधीन सब साधन
होते हैं , वह कर्ता कहाता है ।

३२.
कारण — जिसको ग्रहण करके ही करने वाला किसी कार्य या चीज को बना सकता है
अर्थात जिसके बिना कोई चीज बन ही नहीं सकती , वह
“ कारण “ कहाता है , सो तीन
प्रकार का होता है ।

३३.
उपादान कारण — जिसको ग्रहण करके ही उत्पन्न होवे वा कुछ बनाया जाय जैसे
कि मट्टी से घङा बनता है ; उसको “ उपादान कारण “ कहते हैं । ( इसमें मिट्टी उपादान
कारण है ।)

३४.
निमित्त कारण — जो बनाने
वाला है जैसा कि कुंभार घङे
को बनाता है इस प्रकार के पदार्थों को “ निमित्त कारण “ कहते हैं । ( इसमें कुंभार निमित्त कारण है )

३५.
साधारण कारण — जैसे चाक , दण्ड आदि और दिशा , आकाश तथा प्रकाश हैं इनको “ साधारण कारण “ कहते हैं ।

३६.
कार्य — जो किसी पदार्थ के
संयोग विशेष से स्थूल होके काम में आता है अर्थात जो करने के योग्य है ; वह उस कारण का “कार्य “ कहाता है । ( जैसे कुम्हार ने मिट्टी आदि
के संयोग से घङा बनाया )

३७.
सृष्टि — जो कर्ता की रचना करके, कारण द्रव्य, किसी संयोग से विशेष अनेक प्रकार कार्यरुप होकर वर्तमान में व्यवहार करने के योग्य हैं ; वह “ सृष्टि “ कहाती है ।

३८.
जाति — जो जन्म से लेके मरण पर्यन्त बनी रहे । जो अनेक व्यक्तियों मे एक रुप से प्राप्त हो । जो ईश्वरकृत अर्थात
मनुष्य , गाय , अश्व और वृक्षादि समूह हैं ; वे “ जाति “ शब्दार्थ से लिये जाते हैं ॥

३९.
मनुष्य — अर्थात जो विचार के
बिना किसी काम को न करें ; उसका नाम “ मनुष्य “ है ।।

४०.
आर्य — जो श्रेष्ठ स्वभाव ,
धर्मात्मा , परोपकारी , सत्य
विद्या आदि गुणयुक्त और आर्यावर्त्त देश में सब दिन से रहने वाले हैं , उनको “ आर्य “ कहते हैं ।


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ओ३म् *🌷वैदिक धर्म-एक संक्षिप्त परिचय🌷* एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक...

ओ३म्

*🌷वैदिक धर्म-एक संक्षिप्त परिचय🌷*

एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक धर्म।एक ही धर्मग्रन्थ था वेद।एक ही गुरु मंत्र था-गायत्री।सभी का एक ही अभिवादन था-नमस्ते।एक ही विश्वभाषा थी-संस्कृत।और एक ही उपास्य देव था-सृष्टि का रचयिता परमपिता परमेश्वर,जिसका मुख्य नाम ओ३म् है।तब संसार के सभी मनुष्यों की एक ही संज्ञा थी-आर्य।सारा विश्व एकता के इस सप्त सूत्रों में बँधा,प्रभु का प्यार प्राप्त कर सुख शान्ति से रहता था।दुनिया भर के लोग आर्यावर्त कहलाने वाले इस देश भारत में विद्या ग्रहण करने आते थे।अध्यात्म और योग में इसका कोई सानी नहीं था।

किन्तु महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्राह्मण वर्णीय जनों के ‘अनभ्यासेन वेदानां’ अर्थात् वेदों के अनभ्यास तथा आलस्य और स्वार्थ बुद्धि के कारण स्थिति बदली और क्षत्रियों में “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली एकतांत्रिक सामन्तवादी प्रणाली चल पड़ी।धर्म के नाम पर पाखंडियों अर्थात् वेदनिन्दक ,वेदविरुद्ध आचरण करने वालों की बीन बजने लगी,यह विश्वसम्राट् एवं जगतगुरु भारत विदेशियों का क्रीतदास बनकर रह गया।जो जगतगुरु सबका सरताज कहलाने वाला था उसे मोहताज बना दिया गया।

दासता की इन्हीं बेड़ियों को काटने और धर्म का वास्तविक स्वरुप बताने के लिए युगों-युगों के पश्चात् इस भारत भूमि गुजरात प्रान्त के टंकारा ग्राम की मिट्टी से एक रत्न पैदा हुआ जिसका नाम मूलशंकर रखा गया।जो बाद में'महर्षि दयानन्द सरस्वती’ के नाम से विश्वविख्यात् हुआ।जब उसने धर्म के नाम पर पल रहे घोर अधर्म,अन्धविश्वास,रुढ़िवाद,गुरुड़मवाद,जन्मगत मिथ्या जात्याभिमान,बहुदेववाद,अवतारवाद,फलित ज्योतिष,मृतक श्राद्ध और मूर्ति पूजा आदि बुराइयों के विरुद्ध पाखण्ड-खण्डिनी पताका को फहराते हुए निर्भय नाद किया तो सारा भूमंडल टंकारा वाले ऋषि की जय जयकार कर उठा।

उसकी इस विजय के पीछे सबसे बड़ा कारण चिरकाल से सोई हुई मानव जाति को उसके वास्तविक धर्म से परिचित कराना था।महर्षि ने धर्म के नाम पर लुटती मानवता को अज्ञान अन्धकार से बाहर निकालकर सत्य सनातन वैदिक धर्म में पुनः स्थापित किया।आज यदि हम निष्पक्ष होकर तुलना करें कि वैदिक सम्पत्ति को हमारे समक्ष किसने प्रस्तुत किया तो वह मुक्तात्मा देव दयानन्द है,जिसके ऋण से उऋण हम तभी हो सकते हैं  जब वैदिक धर्म को भली-भाँति समझकर अपने जीवन को उसके प्रकाश से आलोकित करें।

वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की समस्त भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अभी तक अस्तित्व में है।संसार भर के अन्य मत ,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर,मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं,किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है,किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है।

वैदिक धर्म में एक निराकार,सर्वज्ञ,सर्वव्यापक,न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य माना जाता है,उसी की उपासना की जाती है,उसके स्थान पर अन्य देवी-देवताओं की नहीं।

*धर्म की परिभाषा:*-जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है,जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए मानने योग्य है ,उसे धर्म कहते हैं।
उत्तम मानवीय गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करना ही धर्म की सार्थकता को सिद्ध करता है।

*🌷कुछ शंकाएं:-*

*प्रश्न :-*ईश्वर को सातवें आसमान,चौथे आसमान,परमधाम,बैकुण्ठ आदि एक स्थान पर मानने से क्या हानि है?

*उत्तर:-*जो किसी एक स्थान पर रहता है,वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता,और जो सर्वज्ञ नहीं है वह सब जीवों के कर्मों को जानकर उनका उचित फल नहीं दे सकता,और जो उचित फल नहीं दे सकता वह न्यायकारी नहीं हो सकता।ईश्वर सातवें आसमानादि स्थानों में रहता है,यह बात प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी सिद्ध नहीं है।अतः अमान्य है।

*प्रश्न:-*जैसे जीव शरीर के एक स्थान में रहते हुए सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता है,वैसे ही परमेश्वर भी परमधामादि में एक स्थान पर रहते हुए भी सब कुछ जान सकता है और कर्मो का फल दे सकता है।

*उत्तर :-*यह दृष्टान्त सत्य नहीं है क्योंकि शरीर में एक स्थान में रहने वाला जीव सम्पूर्ण शरीर के व्यापार को जानता होता तो कोई भी व्यक्ति कभी रोगी नहीं होता।बड़े-बड़े वैद्य डाक्टर भी शरीर के विषय में पूर्ण रुप से नहीं जानते ,और वे रोगी भी हो जाते हैं।इसलिए यह मान्यता असत्य है कि जीव शरीर में एक स्थान पर रहता हुआ सम्पूर्ण शरीर के विषय में जानता है।सर्वज्ञ केवल वही हो सकता है जो सर्वव्यापक हो,एक स्थान में रहने वाला नहीं।

*प्रश्न:-* जब ईश्वर सर्वव्यापक है तो जीव और प्रकृति के रहने के लिए कोई स्थान नहीं रहना चाहिए ?

*उत्तर :-*ईश्वर पत्थर की भाँति स्थान को नहीं घेरता और न जीव स्थान को घेरता है।इसलिए ईश्वर के सर्वव्यापक होने पर भी जीव और प्रकृति के रहने में कोई बाधा नहीं है।

*प्रश्न :-*ईश्वर के अतिरिक्त जीव और प्रकृति को स्वतंत्र अनादि पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है?ईश्वर स्वयं जीव और संसार के भूमि आदि सब पदार्थों को अपने स्वरुप से ही उत्पन्न कर लेवेगा ?

*उत्तर :-*ईश्वर निर्विकार और निराकार है,अतः जीव,प्रकृति आदि को स्वरुप से उत्पन्न नहीं कर सकता और चेतन से जड़ की उत्पत्ति भी कभी नहीं हो सकती


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👇👇👇👇👇👇👇👇 *यह हमेशा ध्यान रखे* 1) 🤑🌶🍒 *निम्बू-मिर्च* खाने के लिये है.. कही *टाँगने* के लिए नहीं...

👇👇👇👇👇👇👇👇
*यह हमेशा ध्यान रखे*

1) 🤑🌶🍒 *निम्बू-मिर्च* खाने के लिये है.. कही *टाँगने* के लिए नहीं है….

2) 😱🐈 *बिल्लियाँ* पालतू जानवर है, बिल्ली के *रास्ता काटने* से कुछ गलत नहीं होता.. बल्कि चूहों से होनेवाले नुक्सान को बचाया जा सकता है…..
.
3) 🗣💨 *छिंकना* एक नैसर्गिक क्रिया है , छींकने से कुछ *अनहोनी* नहीं होती ना हि किसी काम में बाधा आती है- छींकने से शरीर की *सुप्त पेशियां* सक्रीय हो जाती है…

4) 💀🌳 *भुत* पेड़ों पर नहीं रहते - पेड़ों पर *पक्षी*रहते है…..

5) 🔬🔭 *चमत्कार* जैसी कोई चीज नहीं होती - हर घटना के पिछे *वैज्ञानिक* कारण होता है…..

6) ⛄☃ *भोपा, बाबा* जैसे लोग *झुठे* होते है- जिन्हें *शारारिक मेहनत* नहीं करनी ये वही लोग है…..

7) ⛈🌪👺🔥 *जादू टोणा*, या *किसीने कराया* ऐसा कुछ नहीं होता, ये दुर्बल लोगोंके *मानसिक वीकार* है….
जादू-टोणा करके आपके ग्रहो की दिशा बदलने वाले बाबा, हवा और मेघोंकी दिशा बदलकर बारिश नहीं ला सकते…?⛈☁🌒💫

8 ) 🌏🐠 *वास्तुशास्त्र* भ्रामक है. सिर्फ दिशाओ का *डर* दिखाकर लूट…
वास्तविक तो पृथ्वी ही खुद हर क्षण *अपनी दिशा* बदलती है…. अगर *कुबेरजी* उत्तर दिशा में है तो एक ही स्थान या दिशा में *आमिर* और *गरीब* दोनों क्यों पाये जाते है?….. .

9) 👼🐓🐐🍇🍎 *मन्नत,पूजा, बलि, टिप* या *चढ़ावे* से भगवान प्रसन्न होकर *फल* देते है, तो क्या भगवान् *रिश्वतखोर* है?….. आध्यात्म *मोक्ष* के लिए है, *धन* कमाने के लिए नहीं…..

10) 👆🏼 ये जो *पढ़* रहे हो इसका अनुकरण करे, और अपने *मित्रों* को भी send करे…

यह मेसैज दूसरे ग्रुप पर भेजने से कोई *खुश खबर* नहीं मिलेगी… पर अपने मित्र *महेनत*और *कर्म* का महत्त्व जरूर जान सकेंगे… 🙏🏽

*कर्मण्ये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचनं* 👈🏼 “श्रीमद् भगवद् गीता”


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