Sunday, July 31, 2016

तीसरा ‘पितृयज्ञ’ अर्थात् जिस में जो देव विद्वान्, ऋषि जो पढ़ने-पढ़ाने वाले, पितर माता पिता आदि वृद्ध...

तीसरा ‘पितृयज्ञ’ अर्थात् जिस में जो देव विद्वान्, ऋषि जो पढ़ने-पढ़ाने वाले, पितर माता पिता आदि वृद्ध ज्ञानी और परमयोगियों की सेवा करनी।
*पितृयज्ञ के दो भेद हैं*:
एक *श्राद्ध* और दूसरा *तर्पण*।
श्राद्ध अर्थात् ‘श्रत्’ सत्य का नाम है ‘श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धम्’ जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाय उस को श्रद्धा और जो श्रद्धा से कर्म किया जाय उसका नाम *श्राद्ध* है।
और ‘तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितॄन् तत्तर्पणम्’ जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जायें उस का नाम *तर्पण* है। परन्तु यह जीवितों के लिये है मृतकों के लिये नहीं।

*पितृयज्ञ का वेदों में प्रमाण*:
पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन् पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्॥20॥
पुनन्तु मा पितरः सोम्यासः पुनन्तु मा पितामहः पुनन्तु प्रपितामहाः पवित्रेण शतायुषा। पुनन्तु मा पितामहाः पुनन्तु प्रपितामहाः। पवित्रेण शतायुषा विश्वमायुर्व्यश्नवै॥21॥
-यजुर्वेद अध्याय-१९, मन्त्र-३६, ३७
(*पितृभ्यः स्वधा*॰) जो चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम से विद्या पढ़ के सब को पढ़ाते हैं, उन पितरों को हमारा नमस्कार है। (पितामहेभ्यः॰) जो चवालीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्याश्रम से वेदादि विद्याओं को पढ़ के सब के उपकारी और अमृतरूप ज्ञान के देने वाले होते हैं, (प्रपितामहेभ्यः॰) जो अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त जितेन्द्रियता के साथ सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ के, हस्तक्रियाओं से भी सब विद्या के दृष्टान्त साक्षात् देख के दिखलाते, और जो सब के सुखी होने के लिये सदा प्रयत्न करते रहते हैं, उन का मान भी सब लोगों को करना उचित है। पिताओं का नाम वसु है, क्योंकि वे सब विद्याओं में वास करने के लिये योग्य होते हैं। ऐसे ही पितामहों का नाम रुद्र है, क्योंकि वे वसुसंज्ञक पितरों से दूनी अथवा शतगुणी विद्या और बल वाले होते हैं तथा प्रपितामहों का नाम आदित्य है, क्योंकि वे सब विद्याओं और सब गुणों में सूर्य के समान प्रकाशमान होके, सब विद्या और लोगों को प्रकाशमान करते हैं। इन तीनों का नाम वसु, रुद्र और आदित्य इसलिये है कि वे किसी प्रकार की दुष्टता मनुष्यों में रहने नहीं देते। इस में पुरुषो वाव यज्ञः यह छान्दोग्य उपनिषत् का प्रमाण लिख दिया है, सो देख लेना।

(*पुनन्तु मा पितरः*॰) जो पितर लोग शान्तात्मा और दयालु हैं, वे मुझ को विद्यादान से पवित्र करें। (पुनन्तु मा पितामहाः॰) इसी प्रकार पितामह और प्रपितामह भी मुझ को अपनी उत्तम विद्या पढ़ा के पवित्र करें। इसलिये कि उन की शिक्षा को सुन के ब्रह्मचर्य्य धारण करने से सौ वर्ष पर्यन्त आनन्द युक्त उमर होती रहे। इस मन्त्र में दो बार पाठ केवल आदर के लिये है॥21॥

*तर्पण के ३ प्रकार होते हैं*:
१) *देव-तर्पण*
२) *ऋषि-तर्पण*
३) *पितृ-तर्पण*
ओं ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवपत्न्यस्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवसुतास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवगणास्तृप्यन्ताम्॥ — इति देवतर्पणम्॥ (पारस्कर एवं आश्वलायन गृह्यसूत्र)
‘विद्वांसो हि देवाः।’ —शतपथ-ब्राह्मण ३.५.६.१०
जो विद्वान् हैं उन्हीं को देव कहते हैं। जो साङ्गोपाङ्ग चार वेदों के जानने वाले हों उन का नाम ब्रह्मा और जो उन से न्यून पढ़े हों उन का भी नाम देव अर्थात् विद्वान् है। उनके सदृश विदुषी स्त्री, उनकी ब्रह्माणी और देवी, उनके तुल्य पुत्र और शिष्य तथा उनके सदृश उन के गण अर्थात् सेवक हों उन की सेवा करना है उस का नाम ‘श्राद्ध’ और ‘तर्पण’ है।
अथर्षितर्पणम्
ओं मरीच्यादय ऋषयस्तृप्यन्ताम्। मरीच्याद्यृषिपत्न्यस्तृप्यन्ताम्।
मरीच्याद्यृषिसुतास्तृप्यन्ताम्। मरीच्याद्यृषिगणास्तृप्यन्ताम्॥
—इति ऋषितर्पणम्॥
जो ब्रह्मा के प्रपौत्र मरीचिवत् विद्वान् होकर पढ़ावें और जो उनके सदृश विद्यायुक्त उनकी स्त्रियां कन्याओं को विद्यादान देवें उनके तुल्य पुत्र और शिष्य तथा उन के समान उनके सेवक हों, उन का सेवन सत्कार करना ऋषितर्पण है।
*अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्त आयुर्विद्या यशो बलम्॥*- मनुस्मृति अ॰२, श्लोकः१२१॥
जो सदा नम्र सुशील विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसका आयु, विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु आदि चार नहीं बढ़ते।

*अथ पितृतर्पणम्*
ओं सोमसदः पितरस्तृप्यन्ताम्। अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम्। बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम्। सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। हविर्भुजः पितरस्तृप्यन्ताम्। आज्यपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। यमादिभ्यो नमः यमादींस्तर्पयामि। पित्रे स्वधा नमः पितरं तर्पयामि। पितामहाय स्वधा नमः पितामहं तर्पयामि। मात्रे स्वधा नमो मातरं तर्पयामि। पितामह्यै स्वधा नमः पितामहीं तर्पयामि। स्वपत्न्यै स्वधा नमः स्वपत्नीं तर्पयामि। सम्बन्धिभ्यः स्वधा नमः सम्बन्धींस्तर्पयामि। सगोत्रेभ्यः स्वधा नमः सगोत्रांस्तर्पयामि॥
—इति पितृतर्पणम्॥
‘यः पाति स पिता’ जो सन्तानों का अन्न और सत्कार से रक्षक वा जनक हो वह पिता।
‘पितुः पिता पितामहः, पितामहस्य पिता प्रपितामहः’ जो पिता का पिता हो वह पितामह और जो पितामह का पिता हो वह प्रपितामह।
‘या मानयति सा माता’ जो अन्न और सत्कारों से सन्तानों का मान्य करे वह माता। ‘या पितुर्माता सा पितामही पितामहस्य माता प्रपितामही’ जो पिता की माता हो वह पितामही और पितामह की माता हो वह प्रपितामही।
अपनी स्त्री तथा भगिनी सम्बन्धी और एक गोत्र के तथा अन्य कोई भद्र पुरुष वा वृद्ध हों उन सब को अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यान आदि देकर अच्छे प्रकार जो तृप्त करना अर्थात् जिस-जिस कर्म से उनका आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहै उस-उस कर्म से प्रीतिपूर्वक उनकी सेवा करनी वह श्राद्ध और तर्पण कहाता है।
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति। सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्॥1॥
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि। यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि॥2॥
सदा सत्य बोल, धर्माचार कर, प्रमादरहित होके पढ़ पढ़ा, पूर्ण ब्रह्मचर्य से समस्त विद्याओं को ग्रहण कर और आचार्य के लिये प्रिय धन देकर विवाह करके सन्तानोत्पत्ति कर। प्रमाद से सत्य को कभी मत छोड़, प्रमाद से धर्म का त्याग मत कर, प्रमाद से आरोग्य और चतुराई को मत छोड़, प्रमाद से पढ़ने और पढ़ाने को कभी मत छोड़। देव विद्वान् और माता पितादि की सेवा में प्रमाद मत कर।


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