Friday, July 15, 2016

————-स्वाध्याय ———— स्वाध्याय दैनिक सेवन करने...

————-स्वाध्याय ———— स्वाध्याय दैनिक सेवन करने योग्य योगव्यवहार है ।स्वाध्याय किसे कहते हैं, इस विषय में महर्षि व्यास जी लिखते हैं -“ स्वाध्याय: प्रणवादि पवित्राणां जपो मोक्षशास्त्राणामध्ययनं वा” अर्थात् ओम् आदि पवित्रकारक वचनों मन्त्रों का जप तथा मोक्ष शास्त्रों का पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है।महात्मा व्यास जी के इस कथन के अनुसार सन्ध्या के गायत्री आदि मन्त्रों का जप, अर्थविचार व तदनुसार आचरण करना स्वाध्याय है । इस स्वाध्याय में ओम् का जप करना भी आवश्यक होता है, इसलिये इसको जान लेना आवश्यक है । परमेश्वर के अनेक नामों में यह ओम् नाम ही परमेश्वर का वाचक अर्थात् यथार्थ रूप से बतलाने वाला है।यह ओम् पद जिस वस्तु का वाचक अर्थात् बतलाने वाला है वह वाच्य अर्थात् बतलायी जाने वाली वस्तु ईश्वर है।इस प्रकार ईश्वर अर्थ है और उसका वाचक अर्थात् बतलाने वाला शब्द ओम् है, इस वाच्यवाचक सम्बन्ध का ज्ञाता योगी ओम् का जप किस प्रकार करे, इस विषय में महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं - “तज्जपस्तदर्थभावनम्” अर्थात् ओम् नाम का जप, इस ओम् पद के अर्थभूत ईश्वर का आन्तरिक अनुभव करते हुए करना चाहिये। ओम् का जप करते हुए उसका आन्तरिक अनुभव कैसे करें जब कि अभी उसका साक्षात्कार ही नहीं हुआ है । इस विषय में शास्त्र कहते हैं कि अभी ईश्वर के गुणों की भावनारूप ईश्वर के स्वरूप का स्मरण करना चाहिये। यद्यपि ओम् का जप व ईश्वर - भावनारूप ध्यान दो वस्तुएं हैं, इसलिये दोनों का एक ही काल में होना नहीं हो सकता है, तथापि ओम् के जपरूप स्वाध्याय से योग अर्थात् अर्थानुभवरूप ध्यान को प्राप्त होकर पुनः अर्थानुभव रूप ध्यान से ओम् के जप का अभ्यास करे , यह भावना बारबार के अभ्यास से इतनी दृढ हो जानी चाहिये कि ओम् शब्दके साथ हीउसका अर्थ रूप ईश्वर का स्वरूप भीस्मरण हो जाये। जिस प्रकार निरन्तर अभ्यास से गौ शब्द के साथ उसका सारा स्वरूप स्मरण हो जाता है । इस प्रकार जपरूप स्वाध्याय और अर्थ रूप ध्यान से अन्तरात्मा में परमात्मा का प्रकाश होता है।इस बात को व्यास जी ने इस प्रकार लिखा है -“स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत्। स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते।। ओम् के जप के साथ मोक्षविधायक अर्थात् जिनके अध्ययन से मोक्ष का मार्ग खुलता है उनको सावधान होकर पढ़ना स्वाध्याय है।इसे हम स्वामी ब्रह्ममुनि जी के शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं -” चित्त का वह चिन्तन कार्य जिसका प्रवाह या फल बाहर हो वह अध्याय अध्ययन है ।परन्तु जिसका प्रवाह या फल अन्दर या आत्मा में हो वह स्वाध्याय अपना अध्ययन या अपने लिये अध्ययन स्वाध्याय है जो मोक्षशास्त्रों का पढ़ना - पढ़ाना सुनना सुनाना और चिन्तन करना।" यह संक्षेप से स्वाध्याय का वर्णन किया है। विष्णुमित्र वेदार्थी ९४१२११७९६५


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