Sunday, July 31, 2016

*चौथा वैश्वदेव*—अर्थात् जब भोजन सिद्ध हो तब जो कुछ भोजनार्थ बने, उसमें से खट्टा लवणान्न और क्षार को...

*चौथा वैश्वदेव*—अर्थात् जब भोजन सिद्ध हो तब जो कुछ भोजनार्थ बने, उसमें से खट्टा लवणान्न और क्षार को छोड़ के घृत मिष्टयुक्त अन्न लेकर चूल्हे से अग्नि अलग धर वैश्वदेव के मन्त्रों से आहुति दें और भाग करे।
हवन करने का प्रयोजन यह है कि—पाकशालास्थ वायु का शुद्ध होना और जो अज्ञात अदृष्ट जीवों की हत्या होती है उस का प्रत्युपकार कर देना।

*बलिवैश्वदेवयज्ञ का मनुस्मृति एवं वेद में प्रमाण*:
वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम्। आभ्यः कुर्य्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥1॥
-मनुस्मृति अ॰ 3। श्लोकः 84॥

अहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमग्ने। रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्ने प्रतिवेशा रिषाम॥1॥ -अथर्व कां॰ 19। अनु॰ 7। मं॰ 7॥

*भाषार्थ* - (अग्ने॰) हे परमेश्वर! जैसे खाने योग्य पुष्कल पदार्थ घोड़े के आगे रखते हैं, वैसे ही आप की आज्ञापालन के लिये (अहरहः॰) प्रतिदिन भौतिक अग्नि में होम करते और अतिथियों को (बलिं॰) अर्थात् भोजन देते हुए हम लोग अच्छी प्रकार वाञ्छित चक्रवर्ति राज्य की लक्ष्मी से आनन्द को प्राप्त होके (अग्ने) हे परमात्मन्! (प्रतिवेशाः) आप की आज्ञा से उलटे होके आप के उत्पन्न किये हुए प्राणियों को (मा रिषाम) अन्याय से दुःख कभी न देवें। किन्तु आप की कृपा से सब जीव हमारे मित्र और हम सब जीवों के मित्र रहें। ऐसा जानकर परस्पर उपकार सदा करते रहें॥1॥
ओमग्नये स्वाहा॥ ओं सोमाय स्वाहा॥ ओमग्नीषोमाभ्यां स्वाहा॥ ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा॥ ओं धन्वन्तरये स्वाहा॥ ओं कुह्वै स्वाहा॥ ओमनुमत्यै स्वाहा॥ ओं प्रजापतये स्वाहा॥ ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा॥ ओं स्विष्टकृते स्वाहा॥ - मनुस्मृति अ॰ ३, श्लोकः ८५, ८६॥
*भाषार्थ* - (ओम॰) अग्नि शब्द का अर्थ पीछे कह आये हैं। (ओं सो॰) अर्थात् सब पदार्थों को उत्पन्न पुष्ट करने और सुख देनेवाला। (ओम॰) जो सब प्राणियों के जीवन का हेतु प्राण तथा जो दुःखनाश का हेतु अपान। (ओं वि॰) संसार का प्रकाश करनेवाले ईश्वर के गुण अथवा विद्वान् लोग। (ओं ध॰) जन्ममरणादि रोगों का नाश करनेवाला परमात्मा। (ओं कु॰) अमावास्येष्टि का करना। (ओम॰) पौर्णमास्येष्टि वा सर्वशास्त्रप्रतिपादित परमेश्वर की चितिशक्ति। (ओं प्र॰) सब जगत् का स्वामी जगदीश्वर। (ओं स॰) सत्यविद्या के प्रकाश के लिए पृथिवी का राज्य और अग्नि तथा भूमि से अनेक उपकारों का ग्रहण (ओं स्वि॰) इष्ट सुख का करनेवाला परमेश्वर।
इन दश मन्त्रों के अर्थों से ये 10 प्रयोजन जान लेना।
अब आगे बलिदान के मन्त्र लिखते हैं-
*ओं सानुगायेन्द्राय नमः॥1॥ ओं सानुगाय यमाय नमः॥2॥ ओं सानुगाय वरुणाय नमः॥3॥*
*ओं सानुगाय सोमाय नमः॥4॥ ओं मरुद्भ्यो नमः॥5॥ ओमद्भ्यो नमः॥6॥*
*ओं वनस्पतिभ्यो नमः॥7॥ ओं श्रियै नमः॥8॥ ओं भद्रकाल्यै नमः॥9॥ ओं ब्रह्मपतये नमः॥10॥*
*ओं वास्तुपतये नमः॥11॥ ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः॥12॥ ओं दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नमः॥13॥*
*ओं नक्तञ्चारिभ्यो नमः॥14॥ ओं सर्वात्मभूतये नमः॥15॥ ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः॥16॥*
- मनुस्मृति अ॰ ३, श्लोकः ८७ - ९१॥
*भाषार्थ* - (ओं सानु॰) सर्वैश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर और उसके गुण। (ओं सा॰) सत्य न्याय करनेवाला और उसकी सृष्टि में सत्य न्याय के करनेवाले सभासद्। (ओं सा॰) सब से उत्तम परमात्मा और उसके धार्मिक भक्तजन। (ओं सा॰) पुण्यात्माओं को आनन्द करानेवाला परमात्मा और वे लोग। (ओं मरुत्॰) अर्थात् प्राण, जिनके रहने से जीवन और निकलने से मरण होता है, उन की रक्षा करना। (ओमद्भ्यो॰) इस का अर्थ ‘शन्नोदेवी’ इस मन्त्र में लिख दिया है।
(*ओं वन*॰) ईश्वर के उत्पन्न किये हुए वायु और मेघ आदि सब के पालन के हेतु सब पदार्थ तथा जिन से अधिक वर्षा और जिन के फलों से जगत् का उपकार होता है, उन की रक्षा करनी। (ओं श्रि॰) जो सेवा करने के योग्य परमात्मा और पुरुषार्थ से राज्यश्री की प्राप्ति करने में सदा उद्योग करना (ओं भ॰) जो कल्याण करने वाली परमात्मा की शक्ति अर्थात् सामर्थ्य है, उस का सदा आश्रय करना। (ओं ब्र॰) जो वेद के स्वामी ईश्वर की प्रार्थना विद्या के लिये करना। (ओं वा॰) वास्तुपति अर्थात् जो गृह सम्बन्धी पदार्थों का पालन करनेवाला ईश्वर। (ओं ब्रह्म॰) वेद शास्त्र का रक्षक जगदीश्वर। (ओं वि॰) इसका अर्थ कह दिया है।
(*ओं दि*॰) जो दिन में और (ओं नक्तं॰) रात्रि में विचरनेवाले प्राणी हैं, उन से उपकार लेना और उन को सुख देना। (सर्वात्म॰) सब में व्याप्त परमेश्वर की सत्ता को सदा ध्यान में रखना। (ओं पि॰) माता पिता और आचार्य आदि को प्रथम भोजनादि से सेवा करके पश्चात् स्वयं भोजनादि करना। ’*स्वाहा*’ शब्द का अर्थ पूर्व कर दिया है और ’*नमः*’ शब्द का अर्थ यह है कि-आप अभिमान रहित होना और दूसरे का मान्य करना॥

_इसके पीछे ये छः भाग करना चाहिए_-
*शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्। वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि*॥ - मनुस्मृति अ॰ ३, श्लोकः९२
भाषार्थ - कुत्तों, कंगालों, कुष्ठी आदि रोगियों, काक आदि पक्षियों और चींटी आदि कृमियों के लिये भी छः भाग अलग-अलग बांट के दे देना और उन की प्रसन्नता करना। अर्थात् सब प्राणियों को मनुष्यों से सुख होना चाहिए।
इस प्रकार ‘श्वभ्यो नमः, पतितेभ्यो नमः, श्वपग्भ्यो नमः,पापरोगिभ्यो नमः, वायसेभ्यो नमः, कृमिभ्यो नमः।’ धर कर पश्चात् किसी दुःखी बुभुक्षित प्राणी अथवा कुत्ते, कौवे आदि को दे देवे।
यहां नमः शब्द का अर्थ अन्न अर्थात् कुत्ते, पापी, चाण्डाल, पापरोगी कौवे और कृमि अर्थात् चींटी आदि को अन्न देना यह मनुस्मृति आदि की विधि है।
यह वेद और मनुस्मृति की रीति से बलिवैश्वदेव पूरा हुआ।

*॥ इति बलिवैश्वदेवविधिः समाप्तः॥*


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