Friday, August 31, 2018

◼️महर्षि ने क्या किया? क्या दिया?◼️✍🏻 लेखक - स्वामी सत्यानंद जी स्वामी दयानन्द महाराज समय...

◼️महर्षि ने क्या किया? क्या दिया?◼️

✍🏻 लेखक - स्वामी सत्यानंद जी

स्वामी दयानन्द महाराज समय की आवश्यकता की मूर्ति थे। इस कारण उनका कार्य अत्यन्त सच्चा तथा उत्तम था। उन्होंने अपने जीवन काल में जो कार्य बड़े बल से किया था उसके चार भाग हैं। उनके कार्य का प्रथम भाग एक अखण्ड निराकार ईश्वर का विश्वास जनता में उत्पन्न करना था। इस कार्य को उन्होंने अपनी समस्त शक्ति से किया था। ईश्वर विषयक जितनी भ्रान्तियाँ फैली हुई थीं उनको दूर करने में उन जैसा कोई विरला ही मनुष्य हुआ होगा जिसने भ्रम-भञ्जन के लिए इतना प्रयत्न, ऐसा उद्योग किया हो। जन साधारण की तथा सुपठित लोगों की यही धारणा था कि वेदों में अनेक देवी-देवताओं का पूजन पाया जाता है। वेद अनेक देवताओं की आराधना का वर्णन करते हैं।

◼️ वेद का ईश्वर एक है, एक है और एक ही हैः- परन्तु यह शोभा श्री स्वामी जी को ही प्राप्त हुई कि उन्होंने वेद के प्रमाणों से तथा वैदिक साहित्य के उदाहरणों से यह सिद्ध कर दिखाया कि वेद अनेक नामों से एक ही परमात्मा का गुणगान करते हैं। वेद में एक ही ईश्वर का वर्णन है। वेद एक ही परमदेव का आराधन बताते हैं तथा एक ही ब्रह्म की उपासना का उपदेश देते हैं।

◼️ वेद में एकेश्वरवाद सिद्ध करने में सफल रहेः- जो विद्वान् वेद में देवताओं के अनेक नामों को देखकर यह मानते हैं। कि वेद में अनेकेश्वरवाद है उनको चाहिए कि वे स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों का मनन करें। उनकी युक्तियों को जाँचे-परखें। उनकी शैली को समझें। मेरे विचार में स्वामी जी महाराज अपने कार्य के इस भाग में अपने जीवन काल में ही सफल हो गये थे।

◼️ जगत् मिथ्या को भ्रान्त मतः- स्वामी जी के कार्य का दूसरा भाग नाना आत्मवाद है। जीव असंख्य हैं, यह वैदिक मान्यता है। यह युग दार्शनिक युग है यह विज्ञान का युग है। यह कल्पना का युग है। इस युग में नाना आत्मवाद को (जीव की स्वतन्त्र सत्ता तथा जीव असंख्य हैं) सिद्ध करना श्री स्वामी जी

का ही कार्य था। शंकर आदि महामान्य आचार्यों के तथा पश्चिमी विद्वानों के विचारों को देखकर जनता मोहित हो रही थी। ऐसे समय में त्रैतवाद का मण्डन करना बड़ा कठिन कार्य है परन्तु श्री स्वामी जी ने कुछ ऐसी सहज युक्तियाँ सत्यार्थप्रकाश में दी हैं जिन्हें समझकर नवीन वेदान्त का (शांकर मत-जगत् मिथ्या) का सकल दुर्ग आप ही भ्रान्ति रूप में देखने लग

जाता है।

◼️ वैदिक सभ्यता का उद्धारः- स्वामी जी महाराज का तीसरा बड़ा कार्य वैदिक सभ्यता का उद्धार था। यह कार्य आपने अत्यन्त वीर भाव से किया। इस कार्य में उनको देशियों व विदेशियों (अपनों तथा परायों) दोनों के विरोध का सामना करना पड़ा। महाराज के जीवन काल में लोगों का अधिक निश्चय यही था कि वर्तमान काल ही स्वर्ण युग है। सब दृष्टियों से यह समय सुन्दर है। यह युग प्रत्येक प्रकार से उत्तम युग है। यह युग प्रत्येक प्रकार से आदर के योग्य है। महाराज ने ऐसे निश्चय के विरुद्ध एक सैनिक की भाँति संग्राम किया तथा एक विजेता की भाँति वे आदर से देखे गये। आर्य जाति के जीवन की जड़ को दृढ़ करने के लिए स्वामी जी का यह कार्य अमृत के समान सिद्ध हुआ।

स्वामी जी के कार्य का चौथा भाग सामाजिक सुधार था। इस कार्य को करते हुए महर्षि को घोर विरोध का सामना करना पड़ा। समाज सुधार के-कुरीति निवारण के लिए संग्राम करते हुए उनको घरेलू वाद-विवाद में बहुत ही समय बिताना पड़ा। ऐसा जान पड़ता है कि जाति ने उनके सुधार कार्य को अपना लिया है। आज सुधार की चर्चा सर्वत्र विराट् रूप धारण कर रही है।

[ विशेष टिप्पणीः- स्वामी जी का यह लेख ‘प्रकाश’ के ऋषि-निर्वाण अंक पृष्ठ 7 पर 8 नवम्बर सन् 1931 में प्रकाशित हुआ था। ‘जिज्ञासु’ ]

लेखक - स्वामी सत्यानंद जी (📖पुस्तक - सत्योपदेशमाला)

साभार - प्रो० राजेंद्र जिज्ञासु जी (अनुवादक)

॥ओ३म्॥

🔥वैचारिक क्रांति के लिए “सत्यार्थ प्रकाश” पढ़े🔥

🌻वेदों की ओर लौटें🌻

प्रस्तुति - 📚आर्य मिलन


from Tumblr https://ift.tt/2MEdnqN
via IFTTT

Thursday, August 30, 2018

नमस्ते जीकल के प्रश्न में जिज्ञासा थी कि निष्क्रमण और प्रवेशन का समवायिकारण आकाश नही है तो क्या...

नमस्ते जी

कल के प्रश्न में जिज्ञासा थी कि निष्क्रमण और प्रवेशन का समवायिकारण आकाश नही है तो क्या असमवायिकारण है ?

तो उक्त शंका का समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि कणाद ने सूत्र के माध्यम से बताया कि :- *कारणान्तरानुक्लृप्तिवैधर्म्याच्च।। २२ ।। ( २ - १ )*

अर्थात उक्त दोनों कर्मो का कारण नहीं, क्योंकि उसमें कारण का लक्षण नही पाया जाता।

*समवायिकारणादन्यत्कारणं कारणान्तरम्* अर्थात जिसमें समवाय सम्बन्ध से कारण उत्पन्न होता है उसका नाम *समवायिकारण* तथा उससे भिन्न कारण का नाम *कारणान्तर* है, और कारणान्तर के लक्षण को *कारणान्तरानुक्लृप्ति* कहते है। जैसे निष्क्रमण और प्रवेशनरूप कर्म का आकाश में समवाय न होने से वह उनका समवायिकारण नहीं वैसे ही आकाश में कारणसामान्य का लक्षण न होने से वह उन कर्मों का कारणान्तर भी नही हो सकता अर्थात असमवायिकारण कारण भी नही होता क्योंकि असमवायिकारण कारण कभी भी द्रव्य नही होता और आकाश द्रव्य है।

अतः उक्त दोनों कर्म उसकी सिद्धि में लिङ्ग नहीं अर्थात कारण का कार्य अथवा कार्य का कारण लिङ्ग होता है, जिनका परस्पर कार्य-कारणभाव नहीं उनका परस्पर *लिङ्ग लिङ्गीभाव* नहीं होसक्ता और कारण लक्षण से विरुद्ध धर्मवाला होने के कारण आकाश उक्त दोनों कर्मो का कारण नहीं, इसलिए वह कार्यरूप से उसकी सिद्धि में लिङ्ग भी नहीं।

यंहा कहने का भाव यह है कि अन्वय और व्यतिरेक द्वारा ही कार्य -कारणभाव का निश्चय होता है, अन्यथा नहीं, कारण के होने का नाम *अन्वय* तथा कारण के न होने से कार्य का न होने का नाम *व्यतिरेक* है अर्थात भाव और अभाव जो अपने कार्य की उत्पत्ति के अव्यवहित पूर्वक्षण में विद्यमान हो उसको *कारण* कहते है।

उक्त अन्वय व्यतिरेक का पदार्थो के कार्य-कारण भाव में अव्यभिचारी नियम है, परन्तु उक्त नियम के अनुसार निष्क्रमण तथा प्रवेशन रूप कार्य के प्रति आकाश का अन्वय व्यतिरेक नही पाया जाता, क्योंकि जैसे वह कार्य की उत्पत्ति क्षण से पूर्व विद्यमान है वैसे ही कार्योत्पत्ति के अनन्तर क्षण में भी विद्यमान है,इसलिए उसका कार्य के प्रति अन्वय नही होसक्ता और व्यतिरेक के न होने में कारण यह है कि जैसे *मृदभावेघटाभाव:* अर्थात मृतिका के न होने से घट का अभाव होता है इस प्रकार मृत्तिका के अभाव की घटाभाव के साथ व्याप्ति पाईजाती है वैसे *यत्राकाशाभावस्तत्र निष्क्रमणाद्यभाव:*

अर्थात जहां आकाशभाव है,वंहा निष्क्रमण तथा प्रवेशन कर्म का भी अभाव है, अर्थात उसप्रकार आकाशभाव की निष्क्रमणादि कर्मों के अभाव के साथ व्याप्ति नही पाईजाती, क्योंकि सर्वदा सर्वत्र समान बने रहने से आकाश का अभाव नहीं, इसप्रकार अन्वय व्यतिरेक रूप कारणधर्म से विरुद्ध धर्मवाला होने के कारण आकाश उक्त दोनों कर्मो का कारण नही होता।

अतः वह कार्यरूप से उसकी सिद्धि में लिङ्ग भी नही है।


from Tumblr https://ift.tt/2LIoZ6K
via IFTTT

**** आत्मीकोन्नति होने से खुशी, शांति और सुख मिलता है. यदि त्रिगुण को संयम करेगा तो त्रिकरण शुद्ध...

**** आत्मीकोन्नति होने से खुशी, शांति और सुख मिलता है.

यदि त्रिगुण को संयम करेगा तो त्रिकरण शुद्ध होते हैं, तो आत्मा का वुन्नति होती है।

त्रिगुण 1: सत्वगुण = जिन में सत्वगुण होता है वे सभी लोगोंसे मधुर भाषण करता है. सोच-समज के बात करता है. बूढी अच्छी काम करती है. ज्ञान से परमात्मा से जुड़े रहते है.

2 राजोगुण : कठिन से बात करते है. अनवसर बाते ज्यादा करते है. भुद्धि और ज्ञान कम। परमात्मा से जुड़े रहना आलस्य होता है.

3 रजोगुण : सब लोगोंकी गलतियों की गिनती रहती है। सब लोगोंकी गलतियों की लिस्ट बना के रख के हमेशा वो लिस्ट देखते सोचते रहते है.

दूसरोंके बात तीसरेको बोलते- तीसरे के बात दूसरे को बोलते रहते है. इसमें इनको राक्षस आनंद मिलता है.

अनवसर भाषण ज्यादा करते है. अभूत कल्पन, भ्रम के बात करते है. सबसे कठिन व्यवहार करते है. यिन को भुद्धि और ज्ञान नहीं रहता. इनको परमात्मा मिलना दुर्लभ है.

**त्रिकरण शुद्धि. मनमे क्या सोच रहे है वही बातों में रहना- बातों में क्या बोली वही काम करना.

**इस लिए महर्षि दयानन्द कहा…

हर दिन १ घंटा ध्यान करना.

हर दिन संध्या करना.

ध्यान और संध्या करने वालोंको द्वेष ही नहीं रहता.

**संध्या करने वाले के मुँह में प्रसन्नता और ब्रह्मत्व रहता।

**संध्या करने वाले सबसे प्रीतिपूर्वक व्यवहार करता है. हसमुख रहता.

**मधुर भाषा होती.

**संध्या करने वाले कभी कपट व्यवहार नहीं करता.

——हरिदास आर्य

वैदिक पुरोहित, योगाचार्य, नित्याग्निहोत्री,

आयुर्वेद और नीति विद्या बोधक.

इन्दुर (निज़ामाबाद, ), तेलंगाना.

सेल : ९८४९२ ५९०११

*****आर्यों से विनती है… की हमारा घर में वेद, शास्त्र, वउपनिषद आदि पुस्तक है. आप सबको सादर आह्वान.


from Tumblr https://ift.tt/2NvfhX3
via IFTTT

Wednesday, August 29, 2018

◙ *दुनिया में इतनी अशांति / धांधली क्यों है?* _____________________________ईसाई जगत की मान्यता रही...

◙ *दुनिया में इतनी अशांति / धांधली क्यों है?*

_____________________________

ईसाई जगत की मान्यता रही है कि बाईबल “ईश्वरीय वचन” है, और वे इसे परमेश्वर के शुभ समाचार के रूप में ही प्रचारित करते रहे है. बाईबल स्वयं भी कहती है कि, “All scripture is inspired by God…” अर्थात् “समस्त धर्मशास्त्र (बाईबल) की रचना परमेश्वर की प्रेरणा से हुई है…” (2 Timothy 3:16) जैसे मुसलमान लोग “इस्लाम शांति का मजहब है”, “मजहब के मामले में कोई जबरदस्ती नहीं” आदि टाईप के “अल-तकिया” का इस्तेमाल कर इस्लाम के वास्तविक चरित को छुपाकर गैर-मुस्लिमों में भ्रम फैला रहे है, उसी तरह “पर्वत पर उपदेश” (Sermon on the Mount) वाले यीशु के कुछ वचनों की आड में ईसाई लोग ठिक वही करते रहे है. “But I say to you, ‘Do not resist an evildoer. But if anyone strikes you on the right cheek, turn the other also…’” अर्थात् “किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि दुष्ट का विरोध मत करो, वरन् जो तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड मारे तो उसके आगे दूसरा गाल भी फेर दो…” (Matthew 5:39) और “If anyone strikes you on the cheek, offer the other also; and from anyone who takes away your coat do not withhold even your shirt.” अर्थात् “यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड मारे तो उसके आगे दूसरा गाल भी धर दो, और यदि कोई तुम्हारा कोट छिन ले तो उसे तुम्हारा शर्ट भी दे दो”. (Luke 6:29)

ये उपदेश अव्यवहारू (impractical) होने के बावजूद, निस्सन्देह एक सीमा तक अहिंसा के लिए यह अच्छा उपदेश है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि ये वचन यीशु के अपने मौलिक है क्योंकि यीशु से सदीयों पूर्व लाओ-त्से और महात्मा बुद्ध द्वारा भी यही कहा गया था. और वैसे भी यीशु के इन वचनो का उनके ईसाई / मसीही अनुयायीयों ने कितना पालन किया इसका साक्षी पिछले 2000 सालों का ईसाईयत का काला व् क्रूर इतिहास है!! सवाल यह भी है कि क्या स्वयं यीशु ने भी इन उपदेशों का पालन किया था? यदि यीशु वास्तव में अहिंसा, प्रेम, सद्भाव और शांति की प्रतिमूर्ति था, जैसा कि प्रचारित किया जाता है, तो निम्नलिखित वचन किसके है?

▪ “I came to bring fire to the earth, and how I wish it were already kindled! Do you think that I have come to bring peace to the earth? No, I tell you, but rather division! From now on five in one household will be divided, three against two and two against three; they will be divided: father against son and son against father, mother against daughter and daughter against mother, mother-in-law against her daughter-in-law and daughter-in-law against mother-in-law.” अर्थात् “मैं पृथ्वी पर आग लगाने आया हूँ, और मैं चाहता हूँ कि यह अभी सुलग जाए. क्या तुम समझते हो कि मैं पृथ्वी पर शांति स्थापित करने आया हूँ? मैं कहता हूँ ‘नहीं’, वरन् विभाजन करने आया हूँ. क्योंकि अब से एक ही परिवार के पांच सदस्य एक-दूसरे के विरुद्ध हो जाएगे – दो के विरुद्ध तीन और तीन के विरुद्ध दो. वे एक-दूसरे का विरोध करेंगे - पिता पुत्र का और पुत्र पिता का, माता पुत्री का और पुत्री माता का, सास बहू का और बहू सास का (विरोध करेंगे). (Luke 12:49,51-53)

▪ “Do not think that I have come to bring peace to the earth; I have not come to bring peace, but a sword. For I have come to set a man against his father, and a daughter against her mother, and a daughter-in-law against her mother-in-law; अर्थात् “यह न समझो कि मैं पृथ्वी पर शांति स्थापित करने आया हूँ; मैं शांति स्थापित करने नहीं आया हूँ, वरन् मैं विभाजन करने वाली तलवार के साथ आया हूँ. मैं पुत्र को अपने पिता के विरुद्ध, पुत्री को अपनी माता के विरुद्ध, और बहू को अपनी सास के विरुद्ध खडा करने आया हूँ. (Matthew 10:34-35)

और सम्भवतः लोगों कि बीच यह फुट डालने के और एक-दूसरे दुश्मन बनाने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही आगे और उपदेश दिए है…

▪ “And the one who has no sword must sell his cloak and buy one” अर्थात् “और जिसके पास तलवार नहीं है उसे अपना वस्त्र (अंगरखा) बेचकर भी तलवार मोल लेनी चाहिए”. (Luke 22:36)

▪ “Whoever is not with me is against me” अर्थात् “जो मेरे साथ नहीं वह मेरे विरोध में है”. (Luke 11:23)

“वस्त्र (अंगरखा) बेचकर भी तलवार मोल लेनी चाहिए!!” – पर क्यों? सब्जी काटने के लिए?, और “जो मेरे साथ नहीं वह मेरे विरोध में है!!” – कैसे? क्या “किसी के साथ न होना / किसी का साथ न देना” और “उनके विरोध में होना” एक ही बात है?

ईसाई जगत में यीशु विषयक और यीशु की भविष्यवाणीयों के बारे में बडे बडे दावे किये जाते रहे है, लेकिन इस विषय के विद्वानों ने, विशेषकर पिछले 200-250 वर्षों में, उन तथाकथित भविष्यवाणीयों की असलियत दुनिया के सामने रख दी है, लेकिन ईसाई लोग इस तथ्य पर बिना किसी विरोध का सामना किए अपना दावा कर सकते है कि उपर दिए गए Luke 12:49, 51-53 और Matthew 10:34-35 वाले उद्धरणों में यीशु द्वारा कहे गए शब्द शत प्रतिशत सच साबित हुए है!! प्रारम्भ से लेकर आधुनिक काल तक ईसाईयत का पूरा इतिहास इस तथ्य का ठोस गवाह है।


from Tumblr https://ift.tt/2ojcOEn
via IFTTT

Tuesday, August 28, 2018

सूर्य पर जीवन का सिद्धांत =================1. “एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्र, अनेक भूमियो...

सूर्य पर जीवन का सिद्धांत

=================

1. “एक भूमि के पास एक चन्द्र और

अनेक चन्द्र, अनेक भूमियो के मध्य में एक सूर्य रहता है।“

देखिये यहाँ पर महर्षि दयानंद ने स्पष्ट रूप से सौर मंडल का चित्रण किया है।

और एक नहीं अनेक सौर मंडलों का वर्णन किया है।

जबकि अन्य किसी भी धर्म/ सम्प्रदाय की पुस्तक में अन्य सौर मंडलों की तो छोड़िये

सूर्य के अतिरिक्त अन्य किसी सूर्य की कल्पना भी नहीं की गयी है।

2. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इनका नाम वसु इसलिए है क्योंकि इन्ही में सब पदार्थ और प्रजा वसती है और ये ही सबको वसाते हैं।

इन वसुओ में ही सब पदार्थ और प्रजा वसती है। इनके अतिरिक्त किसी स्थान पर नहीं।

इन्ही सब पदार्थो से प्रजा (प्रकृति और जीव का सम्मिलन) उत्पन्न होते हैं।

3. जब पृथ्वी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र हैं, पश्चात् उनमे इसी प्रकार (मनुष्य आदि) प्रजा के होने में क्या सन्देह ?

इस बात को समझने के लिए एक उदहारण लेते हैं।

एशिया आदि महाद्वीपों में हाथी आदि जंगली जीव बसते हैं

इसका अभिप्राय यह नहीं कि पुरे एशिया में हाथी बसते हैं। इसका अभिप्राय यह भी नहीं कि सभी महाद्वीपों में हाथी बसते हैं।

ईरान, अफगानिस्तान, रूस आदि में हाथी नहीं पाए जाते। अमरीका, यूरोप आदि में भी नहीं पाए जाते। परन्तु अन्य जंगली जीव बसते हैं।

उसी प्रकार विभिन्न वसुओं पर विभिन्न योनि के जीव बसते हैं।

4. यहाँ पर यह प्रश्न उठता है

कि सूर्य पर 5500 डिग्री से अधिक तापमान है तो वहां प्रजा कैसे हो सकती है।

उत्तर : यह कोई आवश्यक नहीं कि सूर्य, मंगल, बृहस्पति, टाइटन आदि वसुओ पर पृथ्वी के स्वरूप में ही प्रजा हो।

बहुत संभव है कि विभिन्न पाप-पुण्य कर्मो स्तर वाले जीवो को वहां पर भोगने हेतु जन्म मिलता हो।

जैसे महासागरो में हाथी तो जन्म नहीं मिलता और वन में व्हेल मछली को नहीं ।

5. पृथ्वी के महासागरो में कई किलोमीटर नीचे रंगहीन जंतु पाए गए हैं।

उनको देखे जाने से पहले कोई सोच भी नहीं सकता था

कि बिना हाइड्रोकार्बन की उपलब्धता के भी जीवन संभव है।

जब मनुष्य सूर्य आदि पर पहुँचने का सामर्थ्य हासिल कर लेगा तो अवश्य ही उन जन्तुओ को देख पायेगा।

अभी तक तो पृथ्वी के ही 97% महासागरो का ही अन्वेषण बाकि है।

हाल ही में विश्व की सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक संस्था नासा के वैज्ञानिकों ने सूर्य पर जीवन होने के सिद्धांत को स्वीकार किया है और अरबों डालर खर्च करके इस सिद्धांत पर शोध हो रहा है।

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

http://science.nasa.gov/science-news/science-at-nasa/2008/07nov_signsoflife/

जबकि महर्षि दयानंद ने लगभग 150 वर्ष पहले इस सिद्धांत को प्रस्तुत कर दिया था।

Scientists Theorize Sun Could Support Fire-Based Life

theonion.com


from Tumblr https://ift.tt/2NrTYFP
via IFTTT

*🔥 ओ३म् 🔥**चाणक्यनीतिदर्पण**_सप्तदशोऽध्यायः, श्लोक सं.-20_**व्यालाश्रयाऽपि विफलापि सकण्टकाऽपि...

*🔥 ओ३म् 🔥*

*चाणक्यनीतिदर्पण*

*_सप्तदशोऽध्यायः, श्लोक सं.-20_*

*व्यालाश्रयाऽपि विफलापि सकण्टकाऽपि ।*

*वक्राऽपि पङ्किल-भवाऽपि दुरासदाऽपि ।*

*गन्धेन बन्धुरसि केतकि सर्वजन्तोर्*

*एको गुण: खलु निहन्ति समस्तदोषान् ।।२०।।*

*भावार्थ*―हे केतकि! यद्यपि तू साँपों का घर है, फल से रहित है, काँटों से युक्त है, टेढ़ी भी है, उत्पन्न भी कीचड़ में होती है, प्राप्त भी कठिनता से होती है―इतना सब कुछ होने पर भी तू केवल अपने गन्ध के गुण के कारण सब प्राणियों के मन को मोह रही है। इससे निश्चय होता है कि एक भी गुण सारे दोषों को दूर कर देता है।

*विमर्श*―मनुष्य को अपने जीवन में गुणों का विकास करना चाहिए। एक भी गुण मनुष्य को पूज्य बना देता है।

★★★★★★★★★★★★★★★★★

*यह चाणक्यनीतिदर्पण का आर्यभाषानुवाद में सत्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।।१७।।*

[ *अनुवादक: _स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती_* ]

*एक प्रकार का सुगन्धित पुष्प है–केतकी।*


from Tumblr https://ift.tt/2MAuppZ
via IFTTT

*◙ बाईबल में यीशु की एक भविष्यवाणी की समीक्षा* *बेकग्राउन्ड / भूमिका:* बाईबल के पुराने करार (Old...

*◙ बाईबल में यीशु की एक भविष्यवाणी की समीक्षा*

*बेकग्राउन्ड / भूमिका:*

बाईबल के पुराने करार (Old Testament) में Jonah नामक एक पुस्तक सम्मिलित है, जिसमें *योना (Jonah)* नामक एक पयगम्बर / नबी / प्रोफेट की कहानी है. उसमें लिखा है कि एक दिन योना एक जलयान में यात्रा कर रहे थे. मार्ग में तूफान आने पर नाविकों ने योना को समुद्र में फेंक दिया. तब प्रभु के आदेश पर एक बडा मच्छ योना को निगल जाता है. योना *तीन दिन और तीन रात तक* उस मच्छ के पेट में पडा रहता है. योना मच्छ के पेट में अपने प्रभु परमेश्वर से प्रार्थना करता है और अन्त में प्रभु परमेश्वर के आदेश पर वह मच्छ पयगम्बर योना को समुद्र के तट पर उगल देता है. (Jonah 1:1-17)

*यीशु की एक भविष्यवाणी:*

कहा जाता है कि यीशु की मृत्यु के पश्चात उनके शव को एक कब्र में रखा गया था, जहाँ से वे कुछ समय पश्चात पुनर्जीवित होकर गायब हो गए थे. इस सम्बन्ध में स्वयं यीशु के वचनों (Mathew 12:39-40) को ईसाईयों द्वारा एक भविष्यवाणी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यीशु कहते है कि “यह पीढी दुष्ट है; अपने प्रभु के प्रति निष्ठावान नहीं है. यह पीढी चिन्ह (sign) मांग रही है, परंतु इसे नबी योना के चिन्ह के अतिरिक्त अन्य कोई चिन्ह नहीं दिया जाएगा. यीशु आगे कहता है, “For just as Jonah was three days and three nights in the belly of the sea monster, so for *three days and three nights* the Son of Man will be in the heart of the earth” अर्थात् “जैसे योना *तीन दिन और तीन रात* तक उस समुद्री जीव के पेट में रहा था, उसी प्रकार मानव-पुत्र भी *तीन दिन और तीन रात* तक भूमि के भीतर रहेगा”. (Mathew 12:40)

इस सम्बन्ध में बाईबल के इन वचनों और घटनाक्रम पर ध्यान देना अत्यन्त जरूरी है:

* …सुबह में नौ बजे यीशु को क्रूस पर चढाया गया. (Mark 15:25)

* …दोपहर होने पर समस्त देश में अन्धकार छा गया, और यह अन्धकार तीन बजे तक रहा. (Mark 15:33)

* …लगभग तीन बजे यीशु ने उच्च स्वर में कहा, “Eloi, Eloi, lema sabachthani?” अर्थात् “My God, my God, why have you forsaken me?” अर्थात् “मेरे प्रभु, मेरे प्रभु, तुने मुझे क्यों छोड दिया?” (Mark 15:34) और अंत में यीशु ने प्राण त्याग दिया. (Mark 15:37)

* …अब संध्या हो गई थी, यह “विश्राम दिन” (Sabbath/शनिवार) के “पूर्वतैयारी का दिन” (शुक्रवार) था. (Mark 15:42)

* …पिलात (Pilate) ने यूसुफ को यीशु का शव दे दिया. यूसुफ ने मलमल के कपडे में यीशु के शव को लपेटकर चट्टान में खुदी हुई कबर में उसको रख दिया और कबर के द्वार पर एक भारी पत्थर लुढका कर लगा दिया. (Mark 15:45-46)

* …विश्राम दिन समाप्त होने पर मरियम मगदलीनी, जेम्स की माता मरियम, और सलोमी ने सुगन्धित द्रव्य मोल लिए ताकि वे जाकर यीशु के शरीर पर लगा सके. (Mark 16:1)

* …सप्ताह के पहले दिन (अर्थात् रविवार को) सवेरे सवेरे जब सूर्य उदय ही हुआ था तब वे कबर के पास गई. (Mark 16:2)

* …पर कबर पर पहुंचकर देखा कि कबर के द्वार से पत्थर हटा हुआ था (Mark 16:4)

* …कबर के भीतर प्रवेश करने पर पाया कि सफेद वस्त्र पहने हुए एक युवक दाहिनी ओर बैठा था. (Mark 16:5)

* …पर उस युवक ने उन स्त्रीयों से कहा, आश्चर्यचकित मत हो, तुम यीशु को ढूंढ रही हो. वह जीवित हो उठे है; वह यहाँ नहीं है… (Mark 16:6)

* …सप्ताह के पहले दिन (अर्थात् रविवार को) प्रातःकाल जी उठने पर यीशु ने सर्वप्रथम मरियम मगदलीनी को दर्शन दिया… (Mark 16:9)

यीशु स्वयं यहूदी थे, और यहूदी परम्परा के अनुसार “विश्राम दिन” (Sabbath) कहते है शनिवार को. विश्राम दिन से पूर्व तैयारी का दिन अर्थात् शुक्रवार, और सप्ताह का पहला दिन अर्थात् रविवार. यहूदी और ईसाई परम्परा के अनुसार परमेश्वर यहोवा ने रविवार से शुक्रवार तक छ: दिनों में सृष्टि की रचना की और सप्ताह के सातवें / अन्तिम दिन (शनिवार को) थक कर विश्राम किया. प्रारम्भ में ईसाई लोग भी शनिवार को “विश्राम दिन” (Sabbath) मनाकर पूजा-अर्चना करते थे, पर कालान्तर में यहूदीयों से अलग अस्तित्व के रूप में, और विशेषकर यीशु के कबर में से जी उठने (resurrection) के कारण सप्ताह का पहला दिन रविवार प्रार्थना-आराधना के लिए विशेष महत्वपूर्ण हो गया. (देखें Acts 20:7, 1 Corinthians 16:2, आदि)

अब इस पूरे घटनाक्रम पर पुन: दृष्टिपात कर विचार कीजीए…

(1) विश्राम दिन के पूर्वतैयारी के दिन (अर्थात् शुक्रवार के दिन) दोपहर तीन बजे के पश्चात यीशु ने प्राण त्याग दिए और उसी दिन सन्ध्या के पश्चात शव को कब्र में रखा गया.

(2) दुसरा दिन (अर्थात् शनिवार) “विश्राम दिन” होने से कुछ नहीं हुआ.

(3) अगले दिन अर्थात् रविवार को जब सूर्य अभी उदय ही हुआ था और महिलायें कबर पर पहुंची उससे पहले यीशु कबर में नहीं थे, अर्थात् पुनर्जीवित हो उठे थे !!

संक्षेप में कहा जाए तो यीशु शुक्रवार की रात्री से लेकर अधिकतम रविवार की प्रातःकाल तक कब्र में रहे. “अधिकतम” शब्द इस लिए कि शनिवार के दिन तो कबर पर पहरा लगा दिया गया था. विश्राम/ शनिवार के दिन महापुरोहितों और फरीसियों ने पिलात के पास जाते है और कहते है, “Sir, we remember what that impostor said while he was still alive, ‘After three days I will rise again’.” अर्थात् “हमें याद है कि जब वह ढोंगी (यीशु) जीवित था तब उसने कहा था, ‘तीन दिन के पश्चात में मैं पुन:जीवित हो उठुंगा’.” अत: आज्ञा दिजिए कि तीन दिन तक कबर पर पहरा दिया जाए, कहीं ऐसा न हो कि उसके चेलें उसके सव को चुरा ले जाए और लोगों से कहने लगें, ‘वह मृतकों में से जीवित हो उठा है’. यदि ऐसा हुआ तो यह अन्तिम धोखा पहले धोखे से भी बुरा होगा. और इस तरह उन लोगों ने कबर के मुंह पर मुहर (seal) लगाकर वहाँ पहरेदारों को बिठा दिया और कबर को सुरक्षित कर दि गई थी. (देखें Mathew 27:62-65).

इस तरह शुक्रवार की रात्री से लेकर रविवार की सुबह तक कुल मिलाकर होते है – दो रात्री और एक दिन. (1) शुक्रवार की रात्री (2) शनिवार का दिन, और (3) शनिवार की रात्री, जिनका योग होगा लगभग छ्त्तीस घण्टे !!

अब कहाँ गई योना (Jonah) की तरह *तीन दिन और तीन रात* (अर्थात् बहत्तर घण्टे, छ्त्तीस का दो गुना) तक भूमि के भीतर रहने की भविष्यवाणी? अब कोई ईसाई / मसीही भाई/बहन कुछ मेथेमेटिकल कसरत करके इस पहेली को सुलझा देंगे तब हमारी जिज्ञासा शांत होगी. यदि योना के तीन दिन और तीन रात तक मच्छ के पेट में रहने की Mathew 12:40 वाली अविश्वसनीय और अन्धविश्वासपूर्ण बकवास वास्तव में स्वयं यीशु ने कही थी (अर्थात यीशु की मृत्यु के सालों बाद सुसमाचार/Gospel लिखने वाले लेखक ने ये शब्द बलात् यीशु के मुख में नहीं डाले थे) तो इससे हास्यास्पद और दुर्भाग्यपूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती!! और यदि योना वाली घटना वास्तव में घटी थी और यीशु ने भी उसे सत्य मानकर “तीन दिन और तीन रात तक” भूमि के भीतर रहने की भविष्यवाणी की थी तो स्पष्ट है कि वह भविष्यवाणी सही सिद्ध नहीं हुई थी!!


from Tumblr https://ift.tt/2ohknvh
via IFTTT

Monday, August 27, 2018

नमस्ते जी*वायुसन्निकर्षेप्रत्यक्षाभावाद् दृष्टंलिङ्ग न विद्यते।। १५ ।। ( २ -१ )अर्थात त्वक् इन्द्रिय...

नमस्ते जी

*वायुसन्निकर्षेप्रत्यक्षाभावाद् दृष्टंलिङ्ग न विद्यते।। १५ ।। ( २ -१ )

अर्थात त्वक् इन्द्रिय के साथ वायु का सन्निकर्ष होने पर भी उसका प्रत्यक्ष नही होता, इसलिए उक्त स्पर्श दृष्टलिङ्ग नही है, किन्तु अदृष्टलिङ्ग है अर्थात लिङ्ग तथा लिङ्गी दोनों का प्रत्यक्ष लिङ्ग के दृष्ट होने में प्रयोजक है, जैसे गोव्यक्ति में गोत्त्व लिङ्गी तथा विषाणादि लिङ्ग के प्रत्यक्ष होने से विषाणादि दृष्टलिङ्ग तथा महानसादि ( पाकशाला व रसोईघर ) में धूम और वन्हि ( अग्नि ) के प्रत्यक्ष होने से धूम दृष्टलिङ्ग होता है वैसे स्पर्श नही होता, क्योंकि त्वक् इन्द्रिय से उसका प्रत्यक्ष होने पर भी लिङ्गी वायु का प्रत्यक्ष नही होता, अतः वह अदृष्टलिङ्ग है दृष्टलिङ्ग नही है।

भाव यह है कि *विषयतासम्बन्धेन वर्हिद्रव्यप्रत्यक्ष त्वावच्छिन्नम्प्रति समवायसम्बन्धेन महत्वविशिष्टोद्भूतरूपस्य कारणत्वं* अर्थात विषय के साथ इन्द्रिय के सम्बन्ध का नाम *विषयतासम्बन्ध* है, महत्परिमाण के साथ एक अधिकरण में रहनेवाले उद्भुत को *महत्त्वविशिष्टोउद्भुतरूप* कहते है, विषयतासम्बन्ध द्वारा घट-पटादि बाह्य द्रव्यों के प्रत्यक्ष में समवाय सम्बन्ध से महत्त्व विशिष्टो उद्भूतरूप कारण है अर्थात *यत्र यत्र समवायसम्बन्धेन वहिर्द्रव्यप्रत्यक्षत्वम्* अर्थात जंहा जंहा समवाय सम्बन्ध से महत्त्वविशिष्टोउद्भूतरूप होता है वंहा विषयता सम्बन्ध द्वारा बाह्यद्रव्य का प्रत्यक्ष होता है यह नियम है, जैसा कि *अयं घट:* यह घट है, इस प्रकार घट का प्रत्यक्षज्ञान आत्मा में समवायसम्बन्ध से और घट में विषयतासम्बन्ध से है, क्योंकि उक्त ज्ञान का समवायिकारण आत्मा तथा घट विषय है और घट में *महत्त्वविशिष्टोउद्भुतरूप* समवाय सम्बन्ध से रहता है, इसलिए वह घटरूप बाह्यद्रव्य के प्रत्यक्ष में कारण है परन्तु वायु में उक्त रूप के न होने से उसका प्रत्यक्ष नही होता और उसके प्रत्यक्ष न होने से वायुवृत्ति स्पर्श के प्रत्यक्ष होने पर भी दृष्टलिङ्ग नही होता।

तात्पर्य यह है कि चक्षु:, त्वक् तथा मन इन तीन इंद्रियों से द्रव्य का प्रत्यक्ष होता अन्य से नही अर्थात घ्राण,रसना तथा श्रोत्र से केवल गुण का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नही और बाह्यद्रव्य का प्रत्यक्ष चक्षु: वा त्वक् दोनों से होता है अर्थात जिस द्रव्य में “महत्त्वविशिष्टउद्भूतरूप” है उसका उक्त दोनों इंद्रियों से प्रत्यक्ष होता है अन्य का नही और वायु में उक्त दोनों के न पाये जाने से उसका चक्षु: वा त्वक् से प्रत्यक्ष नही होसक्ता किन्तु वह स्पर्शरूप अदृष्टलिङ्गद्वारा अनुमेय है, इसप्रकार वायु के प्रत्यक्ष न होने से उक्त स्पर्श के प्रत्यक्ष होने पर भी वह अदृष्टलिङ्ग है।


from Tumblr https://ift.tt/2Lx4lXg
via IFTTT

नमस्ते जीकोई भी पदार्थ को लक्षित करके जब उनके लक्षणों को जानना हो तब सर्वदा स्मरण हो, कि उस लक्षण...

नमस्ते जी

कोई भी पदार्थ को लक्षित करके जब उनके लक्षणों को जानना हो तब सर्वदा स्मरण हो, कि उस लक्षण में अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोष तो नही है न ?

अव्याप्ति = जिस किसी पदार्थ में लक्षण किया हो और उसी जाति में अन्य व्याप्त न हो।

जैसे सुवर्ण वर्ण की हो उसे गौ कहते है। तो काली और सफेद गौ में अव्याप्ति होगी।

अतिव्याप्ति= जिस पदार्थ का लक्षण दिया वह अन्य जाति में न हो।

जैसे जिसके श्रृङ्ग हो उसको गौ कहते है।

श्रृङ्ग तो भैस बकरी के भी होते है।

असम्भव= जिस लक्षण का कोई अस्तित्व ही न हो।

जैसे जिसका एक खुर हो अर्थात बीच से फटा हुआ न हो उसको गौ कहते है।


from Tumblr https://ift.tt/2MVT5Z8
via IFTTT

नमस्ते जीकल के सूत्र से हमने जानने -समझने का प्रयास किया कि, वायु अदृष्ट लिङ्गी है और उनका गुण...

नमस्ते जी

कल के सूत्र से हमने जानने -समझने का प्रयास किया कि, वायु अदृष्ट लिङ्गी है और उनका गुण स्पर्श लिङ्ग भी अदृष्ट है। तो यंहा प्रश्न यह होता है कि यदि वायु का ज्ञान होने में दृष्ट-लिङ्ग नही है,तो उसका अनुमान कैसे होता है ?

उपरोक्त आशंका का समाधान करते हुए महर्षि ने सूत्र के माध्यम से समाधान किया कि :-

*सामान्योतो दृष्टाच्चाविशेष:।। १६ ।। ( २ - १ )*

अर्थात सामान्योतोदृष्ट अनुमान द्वारा अविशेष: अर्थात सामान्यरूप से वायु की सिद्धि होती है।

अनुमिति के साधन को अनुमान कहते है अर्थात किसी वस्तु के व्याप्त गुणों के कारण गुणी द्रव्य का अनुमान करना।

अनुमान और लिङ्ग यह दोनों पर्याय शब्द है, *दृष्ट* तथा *सामान्योतोदृष्ट* से अनुमान का प्रकार जानना चाहिए, जिस अनुमान से लिङ्ग - लिङ्गी के प्रत्यक्षपूर्वक व्याप्तिरूप सम्बन्ध का प्रत्यक्ष होता है उसका नाम *दृष्ट* और तथा जिस में लिङ्ग के प्रत्यक्ष होने पर भी लिङ्गी के प्रत्यक्ष न होने से, उक्त सम्बन्ध का सामान्यरूप से ज्ञान होता है, उसका नाम *सामान्योतोदृष्ट* है।

जैसे पाकशाला में धूम-अग्नि की व्याप्ति का प्रत्यक्ष होने से अग्नि के अनुमान में धूम *दृष्ट* है और ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने पर भी उनके लिङ्गी आत्मा का प्रत्यक्ष नही होता, इसलिए यह सामान्य नियम देखाजाता है,कि प्रत्येक गुण, गुणी के आश्रित रहता है; गुणी को छोड़कर नही।

जब हम चलते फिरते, उठते बैठते हम त्वगिन्द्रिय से स्पर्श का अनुभव करते है तब उस स्पर्श गुण के साथ उसका आश्रयद्रव्य अवश्य होना चाहिए। उसके आश्रय द्रव्य के रूप में पृथिवी,जल, अग्नि द्रव्य उपस्थित नहीं, तब उस स्पर्शगुण के आश्रयभूत जिस गुणी अर्थात द्रव्य का अनुमान होता है, वह *वायु* है।

इसी प्रकार जब वस्त्र,पत्ते शाखा आदि में स्पन्दन आदि क्रियाओं में कोई आघातकारी निर्मित्त पार्थिव आदि नही दिखता, तो भी स्पन्दन आदि क्रियाएं होती है; तो उन कम्पन आदि क्रियाओं का प्रवर्तक अर्थात निर्मित होना ही चाहिए, और वह निर्मित्त वायु ही है। इसलिए सामान्योतोदृष्ट भी वायु की सिद्धि में सामान्य हेतु है।


from Tumblr https://ift.tt/2Lx4dae
via IFTTT

नमस्ते जी*तस्मादागमिकम्।। १७ ।। ( २ -१ )* तस्मात् । आगमिकम् ।।अर्थात ( तस्मात् ) उक्त अनुमान से...

नमस्ते जी

*तस्मादागमिकम्।। १७ ।। ( २ -१ )*

तस्मात् । आगमिकम् ।।

अर्थात ( तस्मात् ) उक्त अनुमान से स्पर्श के आश्रयभूत जिस द्रव्य की सिद्धि होती है ( आगमिकम् ) वह द्रव्य वायुसंज्ञा वेद प्रमाण सिद्ध है।।

यद्यपि बताए गए अनुमान से केवल स्पर्श के आश्रयभूत द्रव्य की सिद्धि होती है वायु संज्ञा की नहीं तथापि उसकी वायुसंज्ञा में वेद प्रमाण है जिसे ऋग्वेद, यजुर्वेद, तैत्तिरीय सहिंता आदि में अनेक प्रमाण उपस्थित है जैसा कि *प्राणाद्वायुराजायत*…. यजु० में प्रतिपादिन किया हुआ है की परमात्मा की प्राणशक्ति से वायु की उत्पत्ति होती है। *वायवायाहि …* ऋग्. *इषे त्वोर्जेत्वा वायवस्थ.. यजु०*

वायु बहुत शीघ्र गति वाली देवता है। वायुश्च सर्ववर्णो अयं सर्वगन्धवह: शुचि:

अर्थात यह वायु सभी वर्णों वाला, सम्पूर्ण गन्धों को बहाने वाला और पवित्र है। और *वायु* यह अन्वर्थक अर्थात भाव के अनुकूल व सार्थक अर्थात जो उपयुक्त नाम जो अपना अर्थ स्वयं प्रकट करता है।

*वाति गच्छतिति इति वायु:* अर्थात जो गति करती है, वह वायु कहाती है।


from Tumblr https://ift.tt/2ofGphU
via IFTTT

नमस्ते जीउक्त आशंका का समाधान करते हुए महर्षि कणाद बताते है कि:- *संज्ञाकर्म त्वस्मद्विशिष्टानां...

नमस्ते जी

उक्त आशंका का समाधान करते हुए महर्षि कणाद बताते है कि:- *संज्ञाकर्म त्वस्मद्विशिष्टानां लिङ्गम्।। १८।। ( २ - १ )*

नामकरण अर्थात किसी वस्तु का नाम रखना तो हमसे विशिष्टों का साधक है।

जिन पदार्थो को हम प्रत्यक्ष नहीं देखते, ऐसे पदार्थो का नाम रखना उन्ही का कार्य है, जो उन पदार्थों की विशेषताओं के अनुसार जिन्होंने उन पदार्थों को प्रत्यक्ष से जाना है। ईश्वर सभी पदार्थों के गुणधर्मों को जानता है; क्योंकि उसने इन पदार्थों की रचना की है। उसी ने सर्गादिकाल में वेदरूप से इनके नामों का संकेत किया। आगे साक्षात् - कृतधर्मा ऋषियों एवं आचार्यों ने बहुत से नाम संकेतो की कल्पना की है। उन ऋषियोने भी जानकर दूसरों को जनाया।

यह उक्त सूत्र से संकेत मिल रहा है, की अस्मद् अर्थात ‘हमसे’ विशिष्टानां अर्थात विशिष्ट

वि+ शिष्ट = जो अच्छी तरह धर्म का पालन करता हो, आचार व्यवहार में निपृण हो ,शांत,धीर शिक्षित,बुद्धिमान हो वह विशिष्ट होता है।

अस्मदादिकों सदृश व्यक्तियों के वाक्यों में भ्रम,प्रमाद विप्रलिप्सा आदि दोषों के कारण अप्रामाणिकता की आशंका हो सकती है। अर्थात हमलोगों के समान मनुष्यो में किसी में कम तो किसी में अधिक मात्रा में उक्त दोष पाए जातें है; किन्तु सर्वज्ञ, सर्वव्यापक,सर्वान्तर्यामी परमेश्वर तथा साक्षात् - कृतधर्मा, रजोगुण- तमोगुण के प्रभाव रहित, निर्मलबुद्धि वाले ऋषियों के वाक्यों में अप्रामाणिकता की आशंका नही रहती। अतः अप्रत्यक्ष पदार्थों का भी नामकरण होना हमसे विशिष्टों परमेश्वर और योगियों का ज्ञापक अर्थात साधक ( लिङ्ग ) है।

क्रमशः


from Tumblr https://ift.tt/2BO7geH
via IFTTT

नमस्ते जीहमने वायु की सिद्धि के पश्चात यह जानने का प्रयास किया कि, वायु को वायु संज्ञा से जाना जाता...

नमस्ते जी

हमने वायु की सिद्धि के पश्चात यह जानने का प्रयास किया कि, वायु को वायु संज्ञा से जाना जाता है उनमें क्या प्रमाण है, तो यंहा वेद् स्वतः प्रमाण के स्वरूप में ऋषि कणाद ने कहा कि वेद् ईश्वर की वाणी है और ईश्वर ने ही सृष्टि की उत्पत्ति काल में ही पदार्थो के नाम का तथा उनके गुण, कर्म स्वभाव का संकेत वेद रूपी ज्ञान से हम सब मनुष्यों के लिए दिया है।

जैसा कि *स दाधार पृथिवी द्यामुतेमाम्…ऋग्वेद ८। ४ । १७* परमेश्वर पृथिवी आदि सब लोगों पालन करता है इत्यादीं मंत्रों से जो भूमि आदि की पृथिवी आदि संज्ञा, *सुसमीद्धाय सोचिषेधृतं तीव्रं जूहोतन…यजुर्वेद ३। २* प्रज्वलित अग्नि में हवि प्रदान करें, इत्यादि मंत्रों से अग्निहोत्रादि इष्टकर्मो का विधान तथा *गांमाहि ँ सी: यजुर्वेद १३। ४३* गौ आदि पशुओं की हिंसा न करें इत्यादि गौ आदि पशु हिंसारूप अनिष्ट कर्मों का निषेध वेदों में किया है वह उनके ईश्वरोक्त होने में प्रमाण है।

भाव यह है कि *नहिदृशस्यग् र्वेदादि लक्षण शास्त्रस्य सर्वज्ञ गुणान्वितस्य सर्वज्ञादयन्त: सम्भवोअस्ति*

अतीत, अनागत तथा वर्तमान अर्थों के प्रतिपादक ऋग्वेदादि चारों वेदों की उत्पत्ति किसी सर्वज्ञ के बिना नही होसक्ति इसलिए भूतादि अर्थों के प्रतिपादनपूर्वक संज्ञा कर्मादि का विधान वेदों के ईश्वरोक्त होने में प्रमाण है।

लोक में यह देखा जाता है,कि व्यक्ति जिस पदार्थ का प्रत्यक्ष अथवा प्रत्यक्षसदृश निश्चयात्मक अनुभव करता है, उसीका नामकरण करता है। वायु आदि हमारे दृष्टिगोचर नही है, जिनका हम नामकरण करते। अतः वेद में हमसे विशेष अर्थात ईश्वर ने ऐसे पदार्थो का नामकरण किया है। इसी प्रकार वैदिक ग्रन्थों में साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने नामकरण किया है।

*ऋग्वेद १०। ८२। ३ में …यो देवानां नामधा…* अर्थात जो समस्त ब्रह्मांड का रचयिता और सबको जाननेवाला ईश्वर दिव्यगुणों वाले वायु आदि का नाम रखनेवाला है….

मनुसमृत्ति, प्रत्येक आस्तिक दर्शनों के ऋषियों ने पूर्ण विश्वास के साथ एक स्वर में वेद को परम प्रमाण स्वीकार किया है।

सृष्टि की रचना और वेदों के प्रतिपादन में भी पुर्णतः औचित्य प्रतीत होता है।

यदि किसी मनुष्य द्वारा वेद की रचना होती तो सृष्टि में स्थित प्रकृति और वेद ज्ञान का पुर्णतः सामंज्जस्य नही होता।

क्योंकि कोई भी मनुष्य अपने जीवन में बनी बनाई विद्या में भी एक दो अधिक तो चार से पांच विषय मे ज्ञाता हो सकता है, किन्तु उन विषयों में भी पुर्णतः ज्ञाता हो उनका कोई निश्चिन्त नही होता।

हम जो भी आविष्कार को देखतें है तो उन आविष्कारों के नियत और सीमित विषय ही हुए है, किन्तु ब्रह्माण्ड में तो अनगिनत विषय है, जिसका पुर्णतः ज्ञान को जानना मनुष्य की बुद्धि से परे है।

अतः हमें यही जानना चाहिए की वेदों के द्वारा दिया गया ज्ञान परमपिता परमेश्वर ने हम मनुष्यो के कल्याण हेतु ही दिया है।

जिसका हम सब आज्ञाकारी बने।


from Tumblr https://ift.tt/2MVTlY0
via IFTTT

नमस्ते जी*द्रव्यगुणयो: सजातीयारम्भकत्वं साधर्म्यम्**द्रव्याणि द्रव्यान्तरभारभन्ते गुणाश्च...

नमस्ते जी

*द्रव्यगुणयो: सजातीयारम्भकत्वं साधर्म्यम्*

*द्रव्याणि द्रव्यान्तरभारभन्ते गुणाश्च गुणान्तरम्*

*द्रव्यणांम् द्रव्यं कार्य समान्यम्*

उपरोक्त सूत्रों से सिद्ध होता है, की ब्रह्माकुमारी वाले वाक छल का केवल प्रयोग करतें है।

सिद्धान्त के अनुरूप तो कार्य होगा ही।

अर्थात रज - वीर्य किसी भी जाति को उत्पन्न करने में समवायिकारण है, अर्थात द्रव्य से द्रव्य उत्पन्न होगा और जो द्रव्य का समवायिकारण अन्य द्रव्य के समवायिकारण के *संयोग* से अर्थात असमवायिकारण से अपने सजातीय को उतपन्न करेंगे जिस में निमित्तकारणस्त्रीलिङ्ग और पुंलिङ्ग रहेंगे।

कोई भी एक समवायिकारण द्रव्य से कार्यद्रव्य की उत्पत्ति नही होगी। अर्थात अनेक ( दो व दो से अधिक ) कारणद्रव्यों से एक कार्यद्रव्य कि उत्पत्ति होगी।

और अन्त्यावयवी कार्यद्रव्य से भी अन्य कोई कार्यद्रव्य की उत्पत्ति नही होती यह सार्वभौमिक सिद्धान्त है।

अतः किसी भी कार्यद्रव्य की उत्पत्ति में समवायिकारण के आधार पर ही होता है।


from Tumblr https://ift.tt/2Lwpu3E
via IFTTT

नमस्ते जीपृथिवी,जल,अग्नि और वायु के लक्षणों को महर्षि कणाद के द्वारा संलग्न सूत्रों के माध्यम से...

नमस्ते जी

पृथिवी,जल,अग्नि और वायु के लक्षणों को महर्षि कणाद के द्वारा संलग्न सूत्रों के माध्यम से जानकर अब हम क्रमानुसार आकाश द्रव्य को जानने समझने का प्रयास करेंगे।

*निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिङ्गम् ।। २० ।। ( २ - १ )*

अर्थात निष्क्रमण और प्रवेशन यह दोनों आकाशसिद्धि में लिङ्ग है।

स्पर्शवाले द्रव्यका भीतर बाहर निकलने का नाम *निष्क्रमण* तथा बाहर से भीतर जाने का नाम *प्रवेशन* है, अर्थात जो जो द्रव्य स्पर्श गुण से युक्त हो उनका निष्क्रमण तथा वहिर्गमन यह दोनों और प्रवेशन तथा अन्तर्गमन यह दोनों पर्याय्य शब्द है, जिस में हो वह आकाशसिद्धि में लिङ्ग है।

*यत्रधुमस्त्त्र वन्हि:* अर्थात जंहा धूम है वंहा अग्नि है, अर्थात जिस प्रकार अग्निसिद्धि में धूम लिङ्ग है इसीप्रकार *यत्र स्पर्शवतो द्रव्यस्यनिष्क्रमणंप्रवेशनञ्चतत्राकाश*

अर्थात जंहा स्पर्शवाले द्रव्य का निष्क्रमण तथा प्रवेशन है,वंहा आकाश है, इसी प्रकार आकाशसिद्धि में स्पर्शवाले द्रव्य का निष्क्रमण और प्रवेशन भी लिङ्ग है।

तात्पर्य यह है कि जैसे अग्नि के विना धूम नही होसक्ता वैसे ही आकाश के बिना निष्क्रमण तथा प्रवेशन नही होसक्ता वह उसकी सिद्धि में लिङ्ग होना उचित है; अतः अग्निसिद्धि में धूम की भांति निष्क्रमण तथा प्रवेशन यह दोनों भी *आकाशसिद्धि* में लिङ्ग है।


from Tumblr https://ift.tt/2oaTRng
via IFTTT

*बेरोजगारी से आतंकवादी नहीं बनते*कोंग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जी ने हाल ही में एक विचार दिया कि...

*बेरोजगारी से आतंकवादी नहीं बनते*

कोंग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जी ने हाल ही में एक विचार दिया कि बेरोजगारी से आतंकवादी बनते हैं। यह विचार पूर्णतया गलत व निराधार है। क्योंकि आतंकवादियों का इतिहास खंगालें तो पता चलेगा कि सभी आतंकवादी पढ़े लिखे व अमीर थे –

ओसामा बिन लादेन~ सिविल इंजीनियर

अबू-बकर-अल-बगदादी~ पी.एच.डी.

अल जवाहिरी~ सर्जन

हाफिज सईद~ प्रोफेसर

मसूद अजहर~ सॉफ्टवेर इंजिनीयर

रियाज भटकल~ इंजिनियर

अफजल गुरु~ प्रोफेसर

याकूब मेमन~ चार्टर्ड अकॉउंटेन्ट

भारत मे तो करोड़ों लोग गरीब हैं पर उन्होंने कभी isis का दामन नहीं थामा।

व्यक्ति अज्ञानता, गलत शिक्षा व बुरी संगत के कारण ही अपराध की राह पकड़ता है ,गरीबी के कारण नही।

सही धर्म का सही ज्ञान होगा तो व्यक्ति आतंकवादी कभी नहीं बनेगा क्योंकि धर्म में लिखा हुआ है “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः ” अर्थात समस्त संसार के लोग सुखी रहे । सच्चा धर्म प्रेम व भाईचारे का सन्देश देता है, वैमनस्य व हिंसा का नहीं। धार्मिक व्यक्ति कभी भी आतंकवादी नहीं हो सकता और आतंकवादी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता।

सन्दीप आर्य


from Tumblr https://ift.tt/2Lwp1hU
via IFTTT

आयुर्वेद को *अथर्वेद का उपवेद* माना जाता...

आयुर्वेद को *अथर्वेद का उपवेद* माना जाता है।

https://drive.google.com/file/d/1UUFT0yHIKzCcz08EsfX4u–Hglaix4Fl/view?usp=drivesdk

सुश्रुत संहिता (Sushrut sanhita)

217 MB - आयुर्वेदिक पुस्तक


from Tumblr https://ift.tt/2MRAZrk
via IFTTT

आयुर्वेदिक ग्रन्थ _*चरक संहिता*_ 🚩🚩🚩आयुर्वेद हमारे वेदों का उपवेद है जिसे *अथर्वेद* का *उपवेद* कहा...

आयुर्वेदिक ग्रन्थ _*चरक संहिता*_ 🚩🚩🚩

आयुर्वेद हमारे वेदों का उपवेद है जिसे *अथर्वेद* का *उपवेद* कहा जाता है।

चरक संहिता - भाग -1

https://drive.google.com/file/d/1wvUURdo1ERf-BC4wtA10cR5-8O7hhWJK/view?usp=drivesdk

चरक संहिता - भाग -2

https://drive.google.com/file/d/1H205PbA4zHUj7-1xFIOOGwxgLl6hLx1n/view?usp=drivesdk

👆🏼👆🏼 लिंक पर click करके डाउनलोड करें। 🙏🏻


from Tumblr https://ift.tt/2Lwpelc
via IFTTT

Monday, August 13, 2018

Sunday, August 12, 2018

Photo




from Tumblr https://ift.tt/2OvN1Ui
via IFTTT

ઓઉમ

ઓઉમ
from Tumblr https://ift.tt/2vDc6Wj
via IFTTT

*वृक्षादि में जीवात्मा ??- भाग तीन*- डा मुमुक्षु आर्य १. पेड पौधों में जीवात्मा नहीं होती। इनमें...

*वृक्षादि में जीवात्मा ??- भाग तीन*

- डा मुमुक्षु आर्य


१. पेड पौधों में जीवात्मा नहीं होती। इनमें जीवन होता है। ऋषि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के १३ वे समुल्लास में ८१ वी समीक्षा में लिखा है- ‘वृक्ष जो जड पदार्थ है उसका क्या अपराध था कि उसको शाप दिया और वह सूख गया ।’ जहां स्पष्ट रुप से स्वामी दयानंद जी ने वृक्ष को एक जड पदार्थ कहा है ।स्ववमन्तव्मयाप्रकाश में भी उन्होंने कहीं नहीं लिखा कि पेड पौधों में जीवात्मा होती है ।


२. ब्राह्मण्ड में खरबों खरबों जीव जन्तु, पशु पक्षी व नर नारी हैं । प्रत्येक का शरीर खरबों खरबों कोशिकाओं का बना हुआ है । हर कोशिका को जीने के लिये खुराक व प्राण वायु आक्सीजन चाहिये । किसी कारण इसमें अवरोध उत्पन्न हो जाये तो ये कोशिकाएं मर जाती हैं । जब तक इन कोशिकाओं को रक्त के माध्यम से खुराक व आक्सीजन मिलती रहती है ये जीवन्त हैं living है। शरीर के भीतर प्रत्येक अंग प्रत्यंग व नस नाड़ी भी भिन्न भिन्न प्रकार की कोशिकाओं की बनी हुई है । इन कोशिकाओं को जिन्दा रहने के लिये आक्सीजन चाहिये खुराक चाहिये परन्तु किसी जीवात्मा की आवश्यकता नहीं । जिगर गुर्दा हृदय वा दिमाग के किसी भाग को रक्त मिलना बन्द हो जाये तो वह भाग मर जाता है । हृदयघात (heart attack ) वा लकवा हो जाने का भी यही कारण होता है ।


३.अण्डकोषों में अरबों खरबों शुक्राणु बनते रहते हैं उनके सिर धड पूंछ होती है और वह गर्भ में मादा अण्डे को मिलने के लिये एक ही दिशा में गति करते हैं। ये शुक्राणु भी जीवन्त कोशिकाओं के बने हुये होते हैं । अब कोई कहे कि इन सब कोशिकाओं में जीवन जीवात्माओं के कारण है तो यह बडा हास्यास्पद होगा । वास्तव में जहाँ जीवन है वहाँ हर जगह आत्मा का होना आवश्यक नहीं । जहाँ आत्मा है वहाँ तो जीवन है ही। इसी प्रकार पेड पौधों में व घास के तिनकों आदि में जीवन है परन्तु जीवात्मा नहीं । जैसे अन्य प्राणियों के शरीरों की कोशिकाओं को जीने के लिये खुराक व आक्सीजन चाहिये वैसे ही इन पेड पौधों को भी जीने के लिये हवा पानी रोशनी व खुराक चाहिये ।


४. यदि किसी शास्त्र का कोई श्लोक वा मंत्र का भाष्य यह कहता है कि जीव अपने दुष्कर्मों का फल भोगने के लिये पेड पौधों में जाकर गहन निद्रा में सोया रहता है तो समझ लेना वहां अर्थ करने में वा समझने में अवश्य कुछ भूल हो रही है । शास्त्रीय प्रमाणों में कहीं तो वृक्षों में केवल जीवन कहा है कहीं जीव तो कहीं विरोधाभास है। परन्तु हमारा अन्त:करण तो वृक्षों में जीवन ही मानता है जीव नहीं । इस मत को विभिन्न तर्कों से प्रमाणित भी किया है। पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय जी वेदादि शास्त्रों के अच्छे विद्वान व प्रखर बुद्धि के धनी थे । उन्होंने एक पुस्तक लिखी है- हम क्या खायें घास या मांस। इसमें इस विषय पर प्रश्नोत्तर शैली मे वहुत लम्बी चर्चा है और सिद्ध किया है कि पेड पौधों में जीवात्मा नहीं होती ।


५. पाणिनि व्याकरण अनुसार जीवात्मा में जीव शब्द है, वह जीव् प्राण धारणे धातु से बना है प्राण धारण करने से वृक्षादि में जीवात्मा है, यदि इस आधार पर वृक्षों में जीवात्मा है तो रक्त के लाल कणों (RBC) में भी जीवात्मा होनी चाहिये क्योंकि वह भी प्राणवायु आक्सीजन को धारण करते हैं ।इन लाल कणों की संख्या खरबों में है और इनकी आयु लगभग चार माह होती है।


from Tumblr https://ift.tt/2MDgYRL
via IFTTT

Saturday, August 11, 2018

हिंसा और अहिंसा क्या है ?योगदर्शन के भाष्य मे महार्स्शी वेदव्यास ने अहिंसा शब्द का अर्थ किया है...

हिंसा और अहिंसा क्या है ?

योगदर्शन के भाष्य मे महार्स्शी वेदव्यास ने अहिंसा शब्द का अर्थ किया है सर्वथा-सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह: अहिंसा ज्ञेया | अर्थात सब प्रकार से सदा सब प्राणियों से वैर भाव का त्याग अहिंसा कहलाता है | इसलिए किसी भी प्राणी-पशु पक्षी या मनुष्य को पीड़ा देना या न देना हि हिंसा या अहिंसा नहीं होती अपितु उसके पीछे कारण और भावना हि उस कर्म को हिंसा या अहिंसा बनाते है, वैर भाव से या बिना कारण हि किसी प्राणी को कष्ट देना या जान से मार देना हिंसा है | युद्ध मे शत्रु के प्राण लेना हिंसा नहीं | जंगली दुष्ट पशु जो खेती को खराब करे या जंगली जानवर शेर, चीता आदि जो मनुष्य को हानि पहुचाये उन्हें भी मारना हिंसा नहीं | भोजन के लिए पशुओ को मारना हिंसा और पाप है |

श्री राम ने ताड़का, बाली, रावन आदि दुष्टों का संहार किया | श्री कृष्ण ने कंस, जरासंध, शिशुपाल आदि को मारा | ऐसा करके इन्होने लाखो और करोडो लोगो को उनके अत्याचार से छुटकारा दिलाया | यही सच्ची वैदिक अहिंसा है | राजा का धर्म आतातायी पापी दुराचारी को दंड दे करके सज्जनो की रक्षा करना है | इसी धर्म का श्री राम तथा श्री कृष्ण ने पालन किया था |

निसंदेह वेदों का अनर्थ करके यज्ञ के लिए मूक पशूओं का वध करना रूप क्रूर कर्म देखकर गौतम बुद्ध ने अहिंसा का सन्देश दिया था, परन्तु उनकी अहिंसा भी गलत थी | गौतम बुद्ध तथा वर्धमान महावीर का गलत अहिंसा का दुष्परिणाम यह हुआ की करोडों बहादुर नौजवान केवल अहिंसा का आश्रय लेकर बौद्ध भिक्षुक और जैन श्रावक बनकर कायर, डरपोक, और नपुंसक बन गये | दोनों महानुभावो ने युद्ध का घोर विरोध किया | उनका कहना था कि अपनी हि अंतरात्मा के साथ युद्ध करो, बाहर का युद्ध नहीं | इसी कारण से देश लंबे समय तक गुलाम रहा |

शांति के नाम पर आततायियों के पाव टेल अपने राष्ट्र को रौन्दवा देना कायरता, पाप, हिंसा, और अधर्म है | आततायी के दांत खट्टे करना हि अहिंसा तथा वेदोक्त धर्म है | हमेशा शक्ति से हि शांति खरीदी जा सकती है, अशक्त और गलत अहिंसावादी बनकर नहीं | संसार मे शक्ति कि हि पूजा होती है | महाराणा प्रताप, शिवाजी, बन्दा वैरागी, झाँसी की रानी की पूजा इसीलिए होती है की उन्होंने आततायियों का वीरता से दमन किया था | उन भिक्षुओ और श्रावको की पूजा नहीं होती | जिन्होंने अहिंसा के नाम पर विदेशियों को भरत भू को रौंदने से नहीं रोका | उन पंडो की भी नहीं होती जो हमलावर महमूद गजनवी से न स्वयं लड़े और न हि सैनिको को लड़ने दिया और मान बैठे कि सोमनाथ जी (पत्थर) स्वयं म्लेछो को मार भागएंगा |

ये है वैदिक हिंसा और अहिंसा का भेद | परन्तु आज मूर्खो ने वैदिक अहिंसा को भी हिंसा का रूप दे दिया है | जो मुर्ख हि मानते है | मूर्खो ने कहा और मूर्खो ने सुना |


from Tumblr https://ift.tt/2P04yVO
via IFTTT

Wednesday, August 8, 2018

*ओ३म्**स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(१०)**ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।**ततो रात्र्यजायत ततः...

*ओ३म्*


*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(१०)*




*ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।*

*ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥*

*समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत ।*

*अहो रात्राणि विदधद् विश्वस्य मिषतो वशी॥*

*सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।*

*दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥*

-ऋ० अ० ८। अ० ८। व० ४८ । मं० १-३



*भाषार्थ-* … *(ऋतं च सत्यमित्यादि)* ।इनका अर्थ यह है कि- *(धाता)* सब जगत् का धारण और पोषण करने वाला और *(वशी)* सबको

वश करने वाला परमेश्वर, *(यथापूर्वं)* जैसा कि इसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत को रचने का ज्ञान था, और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत् की रचना थी, और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्य प्राणियों के देह बनाये हैं। *(सूर्याचन्द्रमसौ)* जैसे पूर्व कल्प में सूर्य-चन्द्र लोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं *(दिवम्)* जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में भी रचा है तथा *(पृथिवीम्)* जैसी [भूमि जो] प्रत्यक्ष दीखती है, *(अन्तरिक्षम्)* जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, *(स्व:)* जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उनको *(अकल्पयत्)* ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब भी बनाये हैं, और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी

कारण से *‘यथापूर्वमकल्पयत्’* इस पद का ग्रहण किया है।


*(विश्वस्य मिषतः)* उसी ईश्वर ने सहजस्वभाव से जगत के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्व थे वैसे ही *(विदधत्)* रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि *(अभीद्धात् तपसः)* ईश्वर ने अपने अनन्त सामर्थ्य से सब जगत् को रचा है, क्योंकि ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण प्रकाशित और सब जगत् के बनाने की सामग्री ईश्वर के अधीन है। *(ऋतम्)* उसी अनन्त ज्ञानमय सामर्थ्य से सब विद्या के खजाने वेदशास्त्र को प्रकाशित किया, जैसाकि पूर्वसृष्टि में प्रकाशित था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा। *(सत्यम्)* जो त्रिगुणात्मक, अर्थात् सत्त्व, रज और तमोगुण से युक्त है, जिसके नाम अव्यक्त, अव्याकृत, सत्, प्रधान [और] प्रकृति हैं, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो भी *(अध्यजायत)* कार्यरूप होके पूर्वकल्प के समान उत्पन्न हुआ है। *(ततो रात्र्यजायत)* उसी ईश्वर के सामर्थ्य से जो प्रलय के पीछे हजार चतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि 'जब-जब विद्यमान सृष्टि होती है उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है, और उसी अन्धकार में सब जगत् के पदार्थ और सब जीव ढके हुए रहते हैं, उसी का नाम महारात्रि है।’ *(ततः समुद्रो अर्णवः)* तदनन्तर उसी सामर्थ्य से पृथिवी और मेघमण्डल में जो महासमुद्र है, सो पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है।


*(समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत)* उसी समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर अर्थात् क्षण, मुहूर्त्त, प्रहर आदि काल भी पूर्वसृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवीपर्यन्त जो यह जगत् है, सो सब ईश्वर के नित्य सामर्थ्य से ही प्रकाशित हुआ है और ईश्वर सबको उत्पन्न करके, सबमें व्यापक होके अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़के सत्य न्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है ।। १-३।।


ऐसा निश्चित जानके ईश्वर से भय करके सब मनुष्यों को उचित है कि मन, कर्म और वचन से पापकर्मों को कभी न करें। इसी का नाम *अघमर्षण* है, अर्थात् ईश्वर सबके अन्त:करण के कर्मों को देख रहा है, इससे पाप-कर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें।


*ध्यातव्य-*

*सृस्ट्युत्पत्ति विषयक ऋग्वेद के उपर्युक्त तीनों मंत्रो को महर्षि दयानंदसरस्वती जी ने वैदिक संन्ध्या मे “अघमर्षणमन्त्र” शीर्षक के अन्तर्गत विनियुक्त किया है और सन्ध्या के सभी मंत्रों की विस्तृत व्याख्या उन्होंने अपने लघुग्रन्थ “पञ्चमहायज्ञविधि” मे की है, वहीं से हमने भाषार्थ (हिन्दी अर्थ) मात्र को आपके स्वाध्याय हेतु यहाँ पर (सम्पादित करके) दिया है, लेख अधिक लम्बा न हो अतः हमने संस्कृतभाष्य को छोड़ दिया है, जिन स्वाध्यायप्रेमी जिज्ञासुजनों को विशेष जानना हो वे वहीं देख लें क्यों कि संस्कृतभाष्य मे मंत्रों के शब्दार्थों, प्रमाणों वा वैदिक सिद्धान्तों की अपेक्षाकृत अधिक सामग्री प्राप्त हो सकती है ।*



*प्रस्तुति-*

*आचार्य राजीव*


from Tumblr https://ift.tt/2nkEjwz
via IFTTT

Sunday, August 5, 2018

◆ *सम्राट अशोक के जीवन-चरित और अशोककालीन भारतीय इतिहास…*______________________________●...

◆ *सम्राट अशोक के जीवन-चरित और अशोककालीन भारतीय इतिहास…*

______________________________


● *सम्राट अशोक* (लाला लाजपतराय)


https://drive.google.com/file/d/1hI47L9ExtIpthGFr-E1oHl8JzmLYt1zO/view?usp=drivesdk

______________________________


● *अशोक* (हरिश्चन्द्र शेठ)


https://drive.google.com/file/d/114HUtkZbOI2ipKvzW3Zwn7-gZ9GdsREf/view?usp=drivesdk

______________________________


● *अशोक* (भगवतीप्रसाद पंथारी)


https://drive.google.com/file/d/12O-2cVoL2mIqQzturj0dJaAThIVBCGSG/view?usp=drivesdk

______________________________


● *अशोक* (यदुनन्दन कपूर)


https://drive.google.com/file/d/1FLfDCVrcjhOzIQyZCVXCRZphlwE26UrA/view?usp=drivesdk

______________________________


● *Ashok* (Prof. D.R. Bhandarkar)


https://drive.google.com/file/d/1t-SDEPdz5uYNt7t5mwY-27_Ji3snaC_h/view?usp=drivesdk

______________________________


● *Ashok* (Radhakumud Mukherji)


https://drive.google.com/file/d/1ga-5hC1ZcnPSelrOojQJ98o_zr5H9zFH/view?usp=drivesdk

______________________________


● *Ashok* (Vincent A. Smith)


https://drive.google.com/file/d/1xoj7ON_xxJ8JZiU5CSem0R9CG-eqU_3y/view?usp=drivesdk

______________________________


● *मौर्य साम्राज्य का इतिहास* (सत्यकेतु विद्यालंकार)


https://drive.google.com/file/d/1R9W-y5P5nQkjNf8QEaElM3MKXfr_xZuT/view?usp=drivesdk


from Tumblr https://ift.tt/2APHGpc
via IFTTT

🔥ઓ३મ🔥#વિષ્ણુ_નામ📕પૂર્વ કાલ માં #સૂર્ય નું નામ જ #વિષ્ણુ હતું. આ બાબતમાં સર્વ પ્રથમ #વિષ્ણુપુરાણ નું...

🔥ઓ३મ🔥


#વિષ્ણુ_નામ

📕પૂર્વ કાલ માં #સૂર્ય નું નામ જ #વિષ્ણુ હતું. આ બાબતમાં સર્વ પ્રથમ #વિષ્ણુપુરાણ નું પ્રમાણ ➖

⚛️तत्र विष्णुश्च शक्रश्च जज्ञाते पुनरेव च।

अर्यमा चैव धाता च त्वष्टा पूषा तथैव च।(131)

⚛️विवस्वान् सविता चैव मित्रो वरूण एव च।

अंशो भगश्चादितिजा आदित्या द्वादश स्मृताः। (132)

📕વિષ્ણુ, શક્ર, અર્યમા, ધાતા, ત્વષ્ટા, પૂષા, વિવસ્વાન, સવિતા, મિત્ર, વરુણ, અંશ અને ભગ, આ બાર નામ સૂર્ય ના છે.


હવે #મહાભારત નું પ્રમાણ ➖

⚛️धाताऽ र्यमा च मित्रश्च वरुर्णोंऽ शो भगस्तथा।

इन्द्रो विविस्वान् पुषा च त्वष्टा च सविता तथा।

पर्जन्यश्चैव विष्णुश्च आदित्या द्वादश स्मृताः।

📓 મહા. આદિપર્વ અધ્યાય 122/65-66

📕ઉપરોક્ત બન્ને પ્રમાણો થી સિધ્ધ થાય છે, કે પૂર્વ કાલ માં સૂર્ય નું નામ જ વિષ્ણુ હતું. અનેક નામોમાં અંતરિક્ષ નું પણ એક નામ #વિષ્ણુપદ છે.

⚛️वियद् विष्णुपदं वापि पुंस्याकाशविहायसी।।

📓અમરકોંશ, પ્રથમ કાંડ, વ્યોમ વર્ગ 2

જે હેતુ થી આકાશ મા સૂર્યનું સ્થાન છે, અતઃ વિષ્ણુ પદ પણ આકાશ નું જ નામ છે.

त्वष्टा ।सविता। भगः। सुर्यः। पूषा। विष्णुः। वैश्वानरः। वरुणः।

📓નિઘંટુ, અધ્યાય 5,ખંડ 6

ઉપરના શબ્દો ના ભાષ્યકાર મહર્ષિ યાસ્કાચાર્ય પણ સૂર્ય નો અર્થ વિષ્ણુ કર્યો છે વેદો માં તો અનેકો પ્રમાણ મોજુદ છે, જેના વડે સૂર્ય શબ્દ નો અર્થ યથાર્થ માં વિષ્ણુ થાય છે.

⚛️इरावती धेनुमती हि भूतं सूर्यवसिनी मनुष्ये दशस्या।

व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः।

📓ઋગ્વેદ 7/99/3

🔥હે સૂર્ય! આ દ્યુલોક અને ભૂલોકને આપે ધારણ કરી રાખ્યું છે. આપના અનંત કિરણોથી અર્થાત આકર્ષણશક્તિ થી પૃથ્વિને ચારે તરફથી ધારણ કરી રહ્યા છો. 🔥

આ મંત્ર માં મયૂખ શબ્દ કિરણ વાચક છે. અહીં પણ વિષ્ણુ શબ્દ નો અર્થ સૂર્ય થાય છે.

આજ હેતુ ને લક્ષ્ય માં રાખિને કલ્પના કરવાવાળા ઓએ સૂર્ય નામથી જ પોતાના એક દેવ ને કલ્પિત કર્યો જેથી એ દેવતા નું નિરુપણ કરવામાં વેદોમાંથી પુષ્કળ સાધન સામગ્રી મળે.

#ત્રિદેવ_નિર્ણય


from Tumblr https://ift.tt/2OIsvAR
via IFTTT

*।। ओ३म् ।।**स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात् (६)**भग प्रणेतुर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः।**भग...

*।। ओ३म् ।।*

*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात् (६)*




*भग प्रणेतुर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः।*

*भग प्र नो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्निवन्तः स्याम।।*

-यजु:०३४। ३६



*व्याख्यान-* हे भगवन्! परमैश्वर्यवन्! *“भग”* ऐश्वर्य के दाता संसार वा परमार्थ में आप ही हो तथा *“भग प्रणेतः”* आपके ही स्वाधीन सकल ऐश्वर्य है, अन्य किसी के अधीन नहीं, आप जिसको चाहो उसको ऐश्वर्य देओ सो आप कृपा से हम लोगों का दारिद्र्य छेदन करके हमको परमैश्वर्यवाला करें, क्योंकि ऐश्वर्य के प्रेरक आप ही हो । हे *“सत्यराधः”* भगवन् सत्यैश्वर्य की सिद्धि करनेवाले आप ही हो, सो आप *“इमाम् भगम् नः ददत्”* नित्य ऐश्वर्य हमको दीजिए- *जो मोक्ष कहाता है* उस सत्य

ऐश्वर्य का दाता आपसे भिन्न कोई भी नहीं है। हे सत्यभग! पूर्ण ऐश्वर्य, सर्वोत्तम बुद्धि हमको आप दीजिए, जिससे हम लोग आपके गुणों का ग्रहण, आपकी आज्ञा का अनुष्ठान और ज्ञान-इनको यथावत् प्राप्त हों। हमको सत्यबुद्धि, सत्यकर्म और सत्यगुणों को *“उदव”* (उद्गमय प्रापय) प्राप्त कर, जिससे हम लोग सूक्ष्म से भी सूक्ष्म पदार्थों को यथावत् जानें *“भग प्र नो जनय”* हे सर्वैश्वर्योत्पादक! हमारे लिए ऐश्वर्य को अच्छे प्रकार से उत्पन्न कर। *“गोभिः अश्वैः”* सर्वोत्तम गाय, घोड़े और मनुष्य-इनसे सहित अनुत्तम ( जिससे उत्तम और कुछ नहीं,सर्वोत्तम) ऐश्वर्य हमको सदा के लिए दीजिए। हे सर्वशक्तिमन् ! आपके कृपाकटाक्ष से हम लोग सब दिन *“नृभिः नृवन्तः प्र स्याम”* उत्तम-उत्तम पुरुष, स्त्री, सन्तान और भृत्यवाले हों। आपसे हमारी अधिक (विशेष) यही प्रार्थना है कि कोई मनुष्य हममें दुष्ट और मूर्ख न रहे तथा न उत्पन्न हो, जिससे हम लोगों की सर्वत्र सत्कीर्ति हो और निन्दा कभी न हो।


*ध्यातव्य-* मन्त्रार्थ को अधिक स्पष्ट करने के लिए कोष्ठक मे जो शब्द दिए गए हैं वे महर्षि दयानंद जी के नहीं हैं ।


(श्रावण सप्तमी कृ. २०७५)



महर्षि दयानंद सरस्वतीकृत

*आर्याभिविनय* से


*राजीव*


from Tumblr https://ift.tt/2APHDd0
via IFTTT

*ओ३म्**स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(५)**वि जानीह्यार्यान् ये च दस्यवो**बर्हिष्मते रन्धया...

*ओ३म्*

*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(५)*






*वि जानीह्यार्यान् ये च दस्यवो*

*बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान् ।*

*शाकी भव यजमानस्य चोदिता*

*विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन ॥*

-ऋ० १।४।१०।८



*व्याख्यान-* सबको यथायोग्य जाननेवाले हे ईश्वर आप *“आर्यान्”* विद्या, धर्मादि उत्कृष्ट स्वभावाचरणयुक्त आर्यों को जानो, *“ये च दस्यवः”* और जो नास्तिक, डाकू, चोर, विश्वासघाती, मूर्ख, विषयलम्पट, हिंसादिदोषयुक्त, उत्तम कर्म में विघ्न करनेवाले स्वार्थी, स्वार्थसाधन में तत्पर, वेदविद्याविरोधी, अनार्य (अनाडी) मनुष्य *“बर्हिष्मते”* सर्वोपकारक यज्ञ का विध्वंस करनेवाले हैं , इन सब दुष्टों को आप *“रन्धय”* (समूलान् विनाशय) मूलसहित नष्ट कर दीजिए और *“शासदव्रतान्”* ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ

संन्यासादि धर्मानुष्ठानव्रतरहित, वेदमार्गोच्छेदक अनाचारियों का यथायोग्य शासन करो (शीघ्र उनपर दण्ड निपातन करो), जिससे वे भी शिक्षायुक्त होके शिष्ट हों अथवा उनका प्राणान्त हो जाए, किंवा हमारे वश में ही रहें, *“शाकी”* तथा जीव को परम शक्तियुक्त शक्ति देने और *“यजमानस्य चोदिता”* यजमान को उत्तम कामों में प्रेरणा करने वाले हो, आप हमें दुष्ट कामों से निरोधक हो। मैं भी *“सधमादेषु”* उत्कृष्ट स्थानों में निवास करता हुआ *“विश्वेत्ता ते”* तुम्हारी आज्ञा अनुकूल सब उत्तम कर्मों की *“चाकन”* कामना करता हूं, सो आप पूरी करें ।



महर्षि दयानंद सरस्वतीकृत-

*आर्याभिविनय* से



*विशेष-* मंत्र से विदित होता है कि मानवीसृष्टि के आदि में आर्य और दस्यु भेद से दो प्रकार के लोग ही थे, जो वेदानुसार अपने गुण कर्म स्वभाव के कारण इन दो नामों से जाने जाते थे, तथा महाभारतकाल अर्थात आज से लगभग६००० वर्ष पूर्व तक इससे भिन्न किसी प्रकार का कोई अन्य मत पंथ सम्प्रदायादि था ही नहीं जैसे कि आज संसार भर मे हो गए हैं । साथ ही यह भी विचारणीय है कि वे सज्जन जो आज भी वेदों में प्रगाढ़श्रद्धा रखते हुए स्वयं को ‘सनातन हिन्दू धर्मी’ कहते हैं उन्हें भी स्वयं को *सनातन वैदिक धर्मी* कहना योग्य है क्योंकि हिन्दू शब्द ही अति अर्वाचीन प्रयोग है जो सनातन कदापि नही वरन् मुस्लिमों के आक्रमण के बाद प्रचलित हुआ, अस्तु….। इसी लिए महर्षि दयानंद जी ने वैदिक मत के पुनरुत्थान हेतु अपने प्रयास के विषय में *स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश* के आरम्भ में ही स्पष्ट किया कि-


*‘सर्वतन्त्र सिद्धांत’ अर्थात् साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिसको सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी, इसलिए उसको सनातन नित्यधर्म कहते हैं कि जिसका विरोधी कोई भी न हो सके। यदि अविद्यायुक्त जन अथवा किसी मत वाले के भ्रमाये हुए जन जिसको अन्यथा जाने वा माने उसका स्वीकार कोई भी बुद्धिमान् नहीं करते, किन्तु जिसको आप्त अर्थात सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारक, पक्षपातरहित विद्वान् मानते हैं वही सब को मन्तव्य और जिसको नहीं मानते वह अमन्तव्य होने से प्रमाण के योग्य नहीं होता। अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनीमुनि पर्यन्तों के माने हुए ईश्वरादि पदार्थ हैं जिनको कि मैं भी मानता हूँ; सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ।*




*आचार्य राजीव*


from Tumblr https://ift.tt/2vjEpcf
via IFTTT

*।। ओ३म् ।।**स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(४)**अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।**स देवाँ एह...

*।। ओ३म् ।।*

*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(४)*



*अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।*

*स देवाँ एह वक्षति ॥*

ऋ० १।१।१।२



*व्याख्यान–* *“अग्निः”* हे सब मनुष्यों के स्तुति करने योग्य ईश्वराग्ने ! *‘‘पूर्वेभिः’’* विद्या पढ़े हुए प्राचीन *“ऋषिभिः”* मन्त्रार्थ देखने वाले विद्वान् और *“नूतनैः”* वेदार्थ पढ़ने वाले नवीन ब्रह्मचारियों से *“ईड्यः”* स्तुति के योग्य *“उत”* और जो हम लोग मनुष्य, विद्वान व मूर्ख हैं, उनसे भी अवश्य आप ही स्तुति के योग्य हो, सो स्तुति को प्राप्त हुए *‘‘सः’’* आप हमारे और सब संसार के सुख के लिए *‘‘देवान्’’* दिव्य गुण, अर्थात् विद्यादि को कृपा से *‘‘एह वक्षति"* प्राप्त करो (कराओ), आप ही सबके इष्टदेव हो ।




महर्षि दयानंद सरस्वतीकृत-

आर्याभिविनय से,

प्रस्तुति- *राजीव*



😊


from Tumblr https://ift.tt/2AGut1D
via IFTTT

*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात् (२)**अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरा गमत्...

*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात् (२)*


*अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरा गमत् ॥*

-ऋ० १ । १ । १।५




*व्याख्यान-* हे सर्वदृक् ! सबको देखने वाले *‘‘होताकवि’’* सब शुभ गुणों और चक्रवर्ती राज्यादि को देने वाले और सर्वज्ञ *“क्रतुः”* सब जगत के जनक *“सत्यः”* अविनाशी, अर्थात् जिसका नाश कभी नहीं होता, *“चित्र श्रवस्तमः”* आश्चर्यश्रवणादि, आश्चर्यगुण, आश्चर्यशक्ति , आश्चर्यरूपवान् और अत्यन्त उत्तम आप हो, जिन आपके तुल्य वा आपसे बड़ा कोई नहीं है। *‘‘देवः"* हे जगदीश ! *“देवेभिः’’* दिव्य गुणों के सह वर्तमान *‘‘आगमत्’’* हमारे हृदय में आप प्रकट हों, सब जगत में भी प्रकाशित हों, जिससे हम और हमारा राज्य दिव्य गुणयुक्त हो । वह राज्य आपका ही है, हम तो केवल आपके पुत्र तथा भृत्यवत् हैं ।




महर्षि दयानंद सरस्वती, आर्याभिविनय से

प्रस्तुति- *राजीव*


from Tumblr https://ift.tt/2OO0NTs
via IFTTT

*।।ओ३म्।।**स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(७)*श्रावणमास अष्टमी कृ.प. २०७५ वि.सं.*यो विश्वस्य जगतः...

*।।ओ३म्।।*

*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(७)*


श्रावणमास अष्टमी कृ.प. २०७५ वि.सं.



*यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् ।*

*इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥*

ऋ० १।७।१२।५



*व्याख्यान-* हे मनुष्यो! *“यः”* जो सब *“विश्वस्य जगतः”* जगत् (स्थावर), जड़, अप्राणी का और *“प्राणत:”* चेतनावाले जगत् का *“पतिः”* अधिष्ठाता और पालक है तथा *“प्रथमः”* जो सब जगत् के प्रथम सदा से है और *“ब्रह्मणे, गाः, अविन्दत्”* जिसने यही नियम किया है कि ब्रह्म, अर्थात् विद्वान् के लिए पृथिवी का लाभ और उसका राज्य है और जो *“इन्द्रः”* परमैश्वर्यवान् परमात्मा *“दस्यून्”* डाकुओं को *“अधरान् ”* नीचे गिराता है तथा उनको *“अवातिरत्”* मार ही डालता है। *“मरुत्वन्तं,सख्याय, हवामहे”* आओ मित्रों ! भाई लोगों ! अपन सब सम्प्रीति से मिलके मरुत्वान्, अर्थात् परमानन्त बलवाले इन्द्र-परमात्मा को सखा होने के लिए प्रार्थना से अत्यन्त गद्गद होके बुलावें। वह शीघ्र ही कृपा करके अपन से सखित्व (परम मित्रता) करेगा,

इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ।




महर्षि दयानंद सरस्वतीविरचित-

*आर्याभिविनय* से

प्रस्तुति- *राजीव*


💐💐💐💐💐


from Tumblr https://ift.tt/2APHuGu
via IFTTT

*।। ओ३म् ।।**स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(३)**अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।**होतारं...

*।। ओ३म् ।।*

*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(३)*




*अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।*

*होतारं रत्नधातमम्॥*

-ऋ० १ । १।१।



*व्याख्यान-* हे वन्द्येश्वराग्ने ! आप ज्ञानस्वरूप हो, आपकी मैं स्तुति करता हूँ ।

सब मनुष्यों के प्रति परमात्मा का यह उपदेश है- हे मनष्यो ! तुम लोग इस प्रकार से मेरी स्तुति-प्रार्थना और उपासनादि करो । जैसे पिता वा गुरु अपने पुत्र वा शिष्य को शिक्षा करता है कि तुम पिता वा गुरु के विषय में इस प्रकार से स्तुति आदि का वर्तमान करना, वैसे सबके पिता और परम गुरु ईश्वर ने हमको अपनी कृपा से सब व्यवहार और विद्यादि पदार्थों का उपदेश किया है, जिससे हमको व्यवहार-ज्ञान और परमार्थ-ज्ञान होने से अत्यन्त सुख हो। जैसे सबका आदि कारण ईश्वर है, वैसे परमविद्या वेद का भी आदिकारण ईश्वर है ।


हे सर्वहितोपकारक! आप *‘‘पुरोहितम्"* सब जगत् के हितसाधक हो । हे यज्ञदेव! *“यज्ञस्य देवम्”* सब मनुष्यों के पूज्यतम और ज्ञान-यज्ञादि के लिए कमनीयतम हो । *“ऋत्विजम”*

सब ऋतु–वसन्त आदि के रचक, अर्थात् जिस समय जैसा सुख चाहिए, उस सुख के सम्पादक आप ही हो। *“होतारम्”* सब जगत् को समस्त योग और क्षेम के देनेवाले हो और प्रलय समय में कारण में सब जगत् का होम करनेवाले हो। *“रत्नधातमम्”* रत्न अर्थात् रमणीय पृथिव्यादिकों के धारण, रचन करनेवाले तथा अपने सेवकों के लिए रत्नों के धारण करनेवाले एक आप ही हो। हे सर्वशक्तिमन्! परमात्मन्! इसलिए मैं बारम्बार आपकी स्तुति करता हूँ, इसको आप स्वीकार कीजिए, जिससे हम लोग

आपके कृपापात्र होके सदैव आनन्द में रहें ।



महर्षि दयानंद सरस्वतीकृत-

आर्याभिविनय से

प्रस्तुति- *राजीव*


from Tumblr https://ift.tt/2OKSMyy
via IFTTT

*स्वाध्याये नित्य युक्तः स्यात्**ओ३म्**शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा।**शं न इन्द्रो...

*स्वाध्याये नित्य युक्तः स्यात्*



*ओ३म्*

*शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा।*

*शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ॥*

–ऋ० अ० १। अ० ६ । व० १८ । मं० ९॥


*व्याख्यान-*

हे सच्चिदानन्दान्तस्वरूप! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव! हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण ! हे अज, निराकार, सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन्! हे जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार! हे

सनातन, सर्वमङ्गलमय, सर्वस्वामिन् ! हे करुणाकरास्मत्पितः,

परमसहायक! हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक! हे अविद्या

अन्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक! हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रसारक! हे अधमोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद! हे विश्वविनोदक,विनयविधिप्रद ! हे विश्वासविलासक! हे निरञ्जन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार ! हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद ! हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर,परमसुखदायक! हे दारिद्र्यविनाशक, निर्वैरिविधायक, सुनीतिवर्धक! हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक! हे सर्वबलदायक,निर्बलपालक! हे धर्मसुप्रापक! हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद!

हे सन्ततिपालक, धर्मसुशिक्षक, रोगविनाशक! हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धिप्रद ! हे सज्जनसुखद, दुष्टसुताड़न, गर्वकुक्रोधकुलोभविदारक! हे परमेश, परेश, परमात्मन्, परब्रह्मन् ! हे जगदानन्दक, परमेश्वर, व्यापक, सूक्ष्माच्छेद्य ! हे अजरामृताभयनिर्बन्धानादे! हे अप्रतिमप्रभाव, निर्गुणातुल, विश्वाद्य, विश्ववन्द्य,विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य! हे मङ्गलप्रदेश्वर! *“शं नो मित्रः"* आप सर्वथा सबके निश्चित मित्र हो, हमको सर्वदा सत्यसुखदायक हो। हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय, वरेश्वर! *“शं वरुणः”* आप वरुण, अर्थात् सबसे परमोत्तम हो, सो आप हमको परमसुखदायक हो। *“शन्नो भवत्वर्यमा”* हे पक्षपातरहित, धर्मन्यायकारिन् ! आप अर्यमा (यमराज) हो, इससे हमारे लिए न्याययुक्त सुख देने वाले आप ही हो।*‘‘शन्नः इन्द्रः’’* हे परमैश्वर्यवन्, इन्द्रेश्वर! आप हमको परमैश्वर्य युक्त स्थिर सुख शीघ्र दीजिए । हे महाविद्यवाचोऽधिपते ! *“बृहस्पतिः"* बृहस्पते, परमात्मन्! हम लोगों को (बृहत्) सबसे बड़े सुख को देनेवाले आप ही हो। *“शन्नो विष्णुः उरुक्रमः”* हे सर्वव्यापक, अनन्तपराक्रमेश्वर, विष्णो ! आप हमको अनन्त सुख देओ, जो कुछ माँगेंगे तो आपसे ही हम लोग माँगेंगे, सब सुखों को देने वाला आपके बिना कोई नहीं है। हम लोगों को सर्वथा आपका ही आश्रय है, अन्य किसीका नहीं, क्योंकि सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयामय सबसे बड़े पिता को छोड़ के नीच का आश्रय हम लोग कभी न करेंगे। आपका तो स्वभाव ही है कि अङ्गीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप हमको सदैव सुख देंगे, यह हम लोगों को दृढ़ निश्चय है ।



*विशेष-* व्याख्याकार ने उपर्युक्त व्याख्या मे ईश्वर के लिए अस्सी से अधिक सम्बोधन का प्रयोग किया है जिस पर विचार करने से स्वाध्यायकर्ता के हृदय मे ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव का प्रकाश होता है ।


महर्षि दयानंद सरस्वतीकृत आर्याभिविनय से

प्रस्तुति- *आचार्य राजीव*


from Tumblr https://ift.tt/2APHqXg
via IFTTT