Wednesday, August 8, 2018

*ओ३म्**स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(१०)**ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।**ततो रात्र्यजायत ततः...

*ओ३म्*


*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(१०)*




*ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।*

*ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥*

*समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत ।*

*अहो रात्राणि विदधद् विश्वस्य मिषतो वशी॥*

*सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।*

*दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥*

-ऋ० अ० ८। अ० ८। व० ४८ । मं० १-३



*भाषार्थ-* … *(ऋतं च सत्यमित्यादि)* ।इनका अर्थ यह है कि- *(धाता)* सब जगत् का धारण और पोषण करने वाला और *(वशी)* सबको

वश करने वाला परमेश्वर, *(यथापूर्वं)* जैसा कि इसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत को रचने का ज्ञान था, और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत् की रचना थी, और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्य प्राणियों के देह बनाये हैं। *(सूर्याचन्द्रमसौ)* जैसे पूर्व कल्प में सूर्य-चन्द्र लोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं *(दिवम्)* जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में भी रचा है तथा *(पृथिवीम्)* जैसी [भूमि जो] प्रत्यक्ष दीखती है, *(अन्तरिक्षम्)* जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, *(स्व:)* जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उनको *(अकल्पयत्)* ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब भी बनाये हैं, और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी

कारण से *‘यथापूर्वमकल्पयत्’* इस पद का ग्रहण किया है।


*(विश्वस्य मिषतः)* उसी ईश्वर ने सहजस्वभाव से जगत के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्व थे वैसे ही *(विदधत्)* रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि *(अभीद्धात् तपसः)* ईश्वर ने अपने अनन्त सामर्थ्य से सब जगत् को रचा है, क्योंकि ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण प्रकाशित और सब जगत् के बनाने की सामग्री ईश्वर के अधीन है। *(ऋतम्)* उसी अनन्त ज्ञानमय सामर्थ्य से सब विद्या के खजाने वेदशास्त्र को प्रकाशित किया, जैसाकि पूर्वसृष्टि में प्रकाशित था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा। *(सत्यम्)* जो त्रिगुणात्मक, अर्थात् सत्त्व, रज और तमोगुण से युक्त है, जिसके नाम अव्यक्त, अव्याकृत, सत्, प्रधान [और] प्रकृति हैं, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो भी *(अध्यजायत)* कार्यरूप होके पूर्वकल्प के समान उत्पन्न हुआ है। *(ततो रात्र्यजायत)* उसी ईश्वर के सामर्थ्य से जो प्रलय के पीछे हजार चतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि 'जब-जब विद्यमान सृष्टि होती है उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है, और उसी अन्धकार में सब जगत् के पदार्थ और सब जीव ढके हुए रहते हैं, उसी का नाम महारात्रि है।’ *(ततः समुद्रो अर्णवः)* तदनन्तर उसी सामर्थ्य से पृथिवी और मेघमण्डल में जो महासमुद्र है, सो पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है।


*(समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत)* उसी समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर अर्थात् क्षण, मुहूर्त्त, प्रहर आदि काल भी पूर्वसृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवीपर्यन्त जो यह जगत् है, सो सब ईश्वर के नित्य सामर्थ्य से ही प्रकाशित हुआ है और ईश्वर सबको उत्पन्न करके, सबमें व्यापक होके अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़के सत्य न्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है ।। १-३।।


ऐसा निश्चित जानके ईश्वर से भय करके सब मनुष्यों को उचित है कि मन, कर्म और वचन से पापकर्मों को कभी न करें। इसी का नाम *अघमर्षण* है, अर्थात् ईश्वर सबके अन्त:करण के कर्मों को देख रहा है, इससे पाप-कर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें।


*ध्यातव्य-*

*सृस्ट्युत्पत्ति विषयक ऋग्वेद के उपर्युक्त तीनों मंत्रो को महर्षि दयानंदसरस्वती जी ने वैदिक संन्ध्या मे “अघमर्षणमन्त्र” शीर्षक के अन्तर्गत विनियुक्त किया है और सन्ध्या के सभी मंत्रों की विस्तृत व्याख्या उन्होंने अपने लघुग्रन्थ “पञ्चमहायज्ञविधि” मे की है, वहीं से हमने भाषार्थ (हिन्दी अर्थ) मात्र को आपके स्वाध्याय हेतु यहाँ पर (सम्पादित करके) दिया है, लेख अधिक लम्बा न हो अतः हमने संस्कृतभाष्य को छोड़ दिया है, जिन स्वाध्यायप्रेमी जिज्ञासुजनों को विशेष जानना हो वे वहीं देख लें क्यों कि संस्कृतभाष्य मे मंत्रों के शब्दार्थों, प्रमाणों वा वैदिक सिद्धान्तों की अपेक्षाकृत अधिक सामग्री प्राप्त हो सकती है ।*



*प्रस्तुति-*

*आचार्य राजीव*


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