Thursday, August 30, 2018

नमस्ते जीकल के प्रश्न में जिज्ञासा थी कि निष्क्रमण और प्रवेशन का समवायिकारण आकाश नही है तो क्या...

नमस्ते जी

कल के प्रश्न में जिज्ञासा थी कि निष्क्रमण और प्रवेशन का समवायिकारण आकाश नही है तो क्या असमवायिकारण है ?

तो उक्त शंका का समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि कणाद ने सूत्र के माध्यम से बताया कि :- *कारणान्तरानुक्लृप्तिवैधर्म्याच्च।। २२ ।। ( २ - १ )*

अर्थात उक्त दोनों कर्मो का कारण नहीं, क्योंकि उसमें कारण का लक्षण नही पाया जाता।

*समवायिकारणादन्यत्कारणं कारणान्तरम्* अर्थात जिसमें समवाय सम्बन्ध से कारण उत्पन्न होता है उसका नाम *समवायिकारण* तथा उससे भिन्न कारण का नाम *कारणान्तर* है, और कारणान्तर के लक्षण को *कारणान्तरानुक्लृप्ति* कहते है। जैसे निष्क्रमण और प्रवेशनरूप कर्म का आकाश में समवाय न होने से वह उनका समवायिकारण नहीं वैसे ही आकाश में कारणसामान्य का लक्षण न होने से वह उन कर्मों का कारणान्तर भी नही हो सकता अर्थात असमवायिकारण कारण भी नही होता क्योंकि असमवायिकारण कारण कभी भी द्रव्य नही होता और आकाश द्रव्य है।

अतः उक्त दोनों कर्म उसकी सिद्धि में लिङ्ग नहीं अर्थात कारण का कार्य अथवा कार्य का कारण लिङ्ग होता है, जिनका परस्पर कार्य-कारणभाव नहीं उनका परस्पर *लिङ्ग लिङ्गीभाव* नहीं होसक्ता और कारण लक्षण से विरुद्ध धर्मवाला होने के कारण आकाश उक्त दोनों कर्मो का कारण नहीं, इसलिए वह कार्यरूप से उसकी सिद्धि में लिङ्ग भी नहीं।

यंहा कहने का भाव यह है कि अन्वय और व्यतिरेक द्वारा ही कार्य -कारणभाव का निश्चय होता है, अन्यथा नहीं, कारण के होने का नाम *अन्वय* तथा कारण के न होने से कार्य का न होने का नाम *व्यतिरेक* है अर्थात भाव और अभाव जो अपने कार्य की उत्पत्ति के अव्यवहित पूर्वक्षण में विद्यमान हो उसको *कारण* कहते है।

उक्त अन्वय व्यतिरेक का पदार्थो के कार्य-कारण भाव में अव्यभिचारी नियम है, परन्तु उक्त नियम के अनुसार निष्क्रमण तथा प्रवेशन रूप कार्य के प्रति आकाश का अन्वय व्यतिरेक नही पाया जाता, क्योंकि जैसे वह कार्य की उत्पत्ति क्षण से पूर्व विद्यमान है वैसे ही कार्योत्पत्ति के अनन्तर क्षण में भी विद्यमान है,इसलिए उसका कार्य के प्रति अन्वय नही होसक्ता और व्यतिरेक के न होने में कारण यह है कि जैसे *मृदभावेघटाभाव:* अर्थात मृतिका के न होने से घट का अभाव होता है इस प्रकार मृत्तिका के अभाव की घटाभाव के साथ व्याप्ति पाईजाती है वैसे *यत्राकाशाभावस्तत्र निष्क्रमणाद्यभाव:*

अर्थात जहां आकाशभाव है,वंहा निष्क्रमण तथा प्रवेशन कर्म का भी अभाव है, अर्थात उसप्रकार आकाशभाव की निष्क्रमणादि कर्मों के अभाव के साथ व्याप्ति नही पाईजाती, क्योंकि सर्वदा सर्वत्र समान बने रहने से आकाश का अभाव नहीं, इसप्रकार अन्वय व्यतिरेक रूप कारणधर्म से विरुद्ध धर्मवाला होने के कारण आकाश उक्त दोनों कर्मो का कारण नही होता।

अतः वह कार्यरूप से उसकी सिद्धि में लिङ्ग भी नही है।


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