Sunday, August 5, 2018

*ओ३म्**स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(५)**वि जानीह्यार्यान् ये च दस्यवो**बर्हिष्मते रन्धया...

*ओ३म्*

*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(५)*






*वि जानीह्यार्यान् ये च दस्यवो*

*बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान् ।*

*शाकी भव यजमानस्य चोदिता*

*विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन ॥*

-ऋ० १।४।१०।८



*व्याख्यान-* सबको यथायोग्य जाननेवाले हे ईश्वर आप *“आर्यान्”* विद्या, धर्मादि उत्कृष्ट स्वभावाचरणयुक्त आर्यों को जानो, *“ये च दस्यवः”* और जो नास्तिक, डाकू, चोर, विश्वासघाती, मूर्ख, विषयलम्पट, हिंसादिदोषयुक्त, उत्तम कर्म में विघ्न करनेवाले स्वार्थी, स्वार्थसाधन में तत्पर, वेदविद्याविरोधी, अनार्य (अनाडी) मनुष्य *“बर्हिष्मते”* सर्वोपकारक यज्ञ का विध्वंस करनेवाले हैं , इन सब दुष्टों को आप *“रन्धय”* (समूलान् विनाशय) मूलसहित नष्ट कर दीजिए और *“शासदव्रतान्”* ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ

संन्यासादि धर्मानुष्ठानव्रतरहित, वेदमार्गोच्छेदक अनाचारियों का यथायोग्य शासन करो (शीघ्र उनपर दण्ड निपातन करो), जिससे वे भी शिक्षायुक्त होके शिष्ट हों अथवा उनका प्राणान्त हो जाए, किंवा हमारे वश में ही रहें, *“शाकी”* तथा जीव को परम शक्तियुक्त शक्ति देने और *“यजमानस्य चोदिता”* यजमान को उत्तम कामों में प्रेरणा करने वाले हो, आप हमें दुष्ट कामों से निरोधक हो। मैं भी *“सधमादेषु”* उत्कृष्ट स्थानों में निवास करता हुआ *“विश्वेत्ता ते”* तुम्हारी आज्ञा अनुकूल सब उत्तम कर्मों की *“चाकन”* कामना करता हूं, सो आप पूरी करें ।



महर्षि दयानंद सरस्वतीकृत-

*आर्याभिविनय* से



*विशेष-* मंत्र से विदित होता है कि मानवीसृष्टि के आदि में आर्य और दस्यु भेद से दो प्रकार के लोग ही थे, जो वेदानुसार अपने गुण कर्म स्वभाव के कारण इन दो नामों से जाने जाते थे, तथा महाभारतकाल अर्थात आज से लगभग६००० वर्ष पूर्व तक इससे भिन्न किसी प्रकार का कोई अन्य मत पंथ सम्प्रदायादि था ही नहीं जैसे कि आज संसार भर मे हो गए हैं । साथ ही यह भी विचारणीय है कि वे सज्जन जो आज भी वेदों में प्रगाढ़श्रद्धा रखते हुए स्वयं को ‘सनातन हिन्दू धर्मी’ कहते हैं उन्हें भी स्वयं को *सनातन वैदिक धर्मी* कहना योग्य है क्योंकि हिन्दू शब्द ही अति अर्वाचीन प्रयोग है जो सनातन कदापि नही वरन् मुस्लिमों के आक्रमण के बाद प्रचलित हुआ, अस्तु….। इसी लिए महर्षि दयानंद जी ने वैदिक मत के पुनरुत्थान हेतु अपने प्रयास के विषय में *स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश* के आरम्भ में ही स्पष्ट किया कि-


*‘सर्वतन्त्र सिद्धांत’ अर्थात् साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिसको सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी, इसलिए उसको सनातन नित्यधर्म कहते हैं कि जिसका विरोधी कोई भी न हो सके। यदि अविद्यायुक्त जन अथवा किसी मत वाले के भ्रमाये हुए जन जिसको अन्यथा जाने वा माने उसका स्वीकार कोई भी बुद्धिमान् नहीं करते, किन्तु जिसको आप्त अर्थात सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारक, पक्षपातरहित विद्वान् मानते हैं वही सब को मन्तव्य और जिसको नहीं मानते वह अमन्तव्य होने से प्रमाण के योग्य नहीं होता। अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनीमुनि पर्यन्तों के माने हुए ईश्वरादि पदार्थ हैं जिनको कि मैं भी मानता हूँ; सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ।*




*आचार्य राजीव*


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