Sunday, January 31, 2016

🌷🌻🌷ओ३म्🌷🌻🌷 भूपेश आर्य 🌷ईश्वर का स्वरुप🌷 पुराणों में जहाँ मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद का निरुपण...

🌷🌻🌷ओ३म्🌷🌻🌷

भूपेश आर्य

🌷ईश्वर का स्वरुप🌷

पुराणों में जहाँ मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद का निरुपण है,वहाँ ऐसे स्थल भी हैं जहाँ ईश्वर को स्पष्ट शब्दों में निराकार,सर्वव्यापक और अजन्मा बताया है,जिससे मूर्तिपूजा एवं अवतारवाद की आधारशिला ही हिल जाती है और कहीं कहीं प्राचीन वेदिक सिद्धान्तों की झलक दिख पड़ती है।पुराणों के ऐसे ही कुछ श्लोक नीचे देते हैं:-

निर्गुणस्य मुने रुपं न भवेद् दृष्टिगोचरम् ।
दृश्यं च नश्वरं यस्मादरुपं दृश्यते कथम् ।।-(दे०भाग० ३/७)
(ब्रह्मा बोले) हे मुने ! निर्गुण का रुप दृष्टिगोचर नहीं होता।कारण यह है कि दृश्य तो नश्वर है।अरुप का दर्शन कैसे हो सकता है?

एको व्यापीसमः शुद्धो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
जन्म-वृद्ध्यादिरहित आत्मा सर्वगतोsव्ययः ।।
परंज्ञानमयोsसदि्भर्नामजात्यादिभिर्विभुः ।
न योगवान्न युक्तोsभून्नैव पार्थिव चोक्ष्यते ।।-(विष्णु पु० २/६४)
जन्म से रहित आत्मा एक,व्यापक,सम,शुद्ध,निर्गुण और प्रकृति से परे है।
जन्म-वृद्धि आदि से रहित,सर्वव्यापी और अव्यय है।।
हे राजन !वह परं ज्ञानमय है,असत् नाम और जाति से उस सर्वव्यापक का योग न कभी हुआ है,न है,और न होगा।।

विष्णु पुराण में विष्णु शब्द की व्याख्या भी ‘सर्वव्यापक’ के अर्थ में की गयी है-
यस्माद्विष्टमिदं विश्वं तस्य शक्त्या महात्मनः।
तस्मात्स प्रोच्यते विष्णुर्विशेर्धातोः प्रवेशनात् ।।-(वि०पु० ३/१)
यह सम्पूर्ण विश्व उस परमात्मा की ही शक्ति से व्याप्त है।अतः वह विष्णु कहलाता है,क्योंकि 'विश’ धातु का अर्थ प्रवेश करना है।

न ह्यादिमध्यान्तमजस्य यस्य विद्यो वयं सर्वमयस्यधातुः ।
न च स्वरुपं न परं स्वभावं न चैव सारं परमेश्वरस्य ।।
कलामुहूर्त्तादिमयश्च कालो न यद्विभूतेः परिणामहेतूः ।
अजन्मानाश्यस्य सदैकमूर्तेरनामरुपस्य सनातनस्य ।।-(वि०पु० अंश ४,अ० १)
जिस अजन्मा,सर्वमय,विधाता,परमेश्वर का आदि,मध्य,अंत,स्वरुप,स्वभाव और सार हम नहीं पाते।।
कलामुहूर्त्तादिमय काल भी जिसकी विभूति के परिणाम का कारण नहीं हो सकता,जिसका जन्म और मरण नहीं होता,जो सनातन और सर्वदा एकरुप है तथा जो नाम-रुप से रहित है।।

न तत्रात्मा स्वयंज्योतिर्यो व्यक्ताव्यक्तयोः परः ।
आकाश इव चाधारो ध्रुवोsनन्तोपमस्ततः ।।-(श्रीमद्भा०,स्कन्द १२,अ०५)
ज्योतिस्वरुप परमात्मा व्यक्ताव्यक्त पदार्थों से भी सूक्ष्म है।वह आकाश की भांति सर्वाधार ,निर्विकार,अन्तहीन और उपमारहित हैँ।


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🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷 भूपेश आर्यः 🌻जीवेम शरदः शतम्🌻 शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमसौ। एतौ यक्ष्मं वि...

🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷

भूपेश आर्यः

🌻जीवेम शरदः शतम्🌻

शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमसौ।
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुन्ञतो अंहसः ।।-(अथर्व० ८/२/१८)
चावल और जौ तेरे लिए कल्याणकारी हों,ये कफ न करने वाले व खाने में मधुर हैं।ये रोग को रोकते हैं और कष्टों से बचाते हैं,अर्थात् जौ और चावल के प्रयोग से रोग आते ही नहीं और मनुष्य रोग पीड़ा से बचा रहता है।

त्रयायषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम् ।
त्रेधामृतस्य चक्षणं त्रीण्यायूँषि तेs करम् ।।-(अथर्व० ५/२८/७)
जमदग्नि-जिसकी जठराग्नि मन्द नहीं होती,उस जमदग्नि की आयु तीन सौ साल होती है।
कश्यपस्य-वस्तुओं के स्वरुप व तत्त्व को समझने वाले के लिए भी तिहरी आयु है।इनमें शरीर,मन व बुद्धि तीनों प्रकार से अमरता सी दिखाई देती है,अर्थात् इनकी बुद्धि तीन सौ वर्ष तक उर्वरा रहती है,इनके मन मलिन नहीं होने पाते,शरीर रोगी नहीं होते।मैं भी तेरी आयु तीन सौ वर्ष की करता हूं।

अयं मे हस्तो भगवान् अयं में भगवत्तरः ।
अयं मे विश्वभेषजोsयं शिवाभिमर्शनः ।।-(अथर्व० ४/१३/६)
अर्थ:-वैद्य रोगी से अत्यन्त विश्वास के साथ कहता है कि –“यह मेरा हाथ बड़ा सौभाग्यवाला है।यह दूसरा उससे भी अधिक सौभाग्यशाली है।यह हाथ सब रोगों की ओषधि है,तथा छूते ही कल्याण करने वाला है।”

इस मन्त्र में सम्मोहन विद्या व चिकित्सा की चर्चा है।

अपामार्ग ओषधीनां सर्वासामेक इद्वशी।
तेन ते मृज्म आस्थितमथ त्वमगदश्चर ।।-(अथर्व० ४/१७/८)
अपामार्ग सब ओषधियों को वश में रखने वाली एक ओषध है।उससे तेरे शरीर में स्थित् रोग को हम दूर करते हैं,अतः तू अब निरोग होकर चल।

न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते ।
यं भेषजस्य गुल्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते ।।-(अथर्व० १९/३८/१)
अर्थ-जिसको इस ओषध गुल्गुल का सुगन्ध प्राप्त होता है उसे न रोग व्याप्ता है और न ही कोई शाप प्रभावित करता है।

अश्ववत्थो दर्भो वीरुधां सोमो राजामृतं हविः ।
व्रीहिर्यवश्च भेषजौ दिवस्पुत्रावमत्य्रौ ।।-(अथर्व० ८/७/२०)
वृक्षों में पीपल,घासों में कुशा,लताओं में सोमलता,पेय पदार्थों में जल तथा भक्ष्य पदार्थों में घृत प्रमुख है।वृष्टिजल से उत्पन्न व्रीहि और यव अमर्त्य औषध हैं।इनके होते हुए असमय के रोगों से मृत्यु का प्रश्न ही नहीं उठता।


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नमस्ते जी ऋग्वेद का पांचवाँ, छठा और सातवां मंडल का ऋषि दयानन्द कृत भाष्य को डॉउनलोड करने हेतु इस...

नमस्ते जी
ऋग्वेद का पांचवाँ, छठा और सातवां मंडल का ऋषि दयानन्द कृत भाष्य को डॉउनलोड करने हेतु इस लिंक पर क्लिक करें !
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नमस्ते जी ऋग्वेद का प्रथम मंडल आप डॉउनलोड कर सकते है . इस लिंक पर क्लिक करें ...

नमस्ते जी
ऋग्वेद का प्रथम मंडल आप डॉउनलोड कर सकते है .
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👍👍एक वकील साहब ने अपने बेटे का रिश्ता तय किया। कुछ दिनों बाद, वकील साहब होने वाले समधी के घर गए तो...

👍👍एक वकील साहब ने अपने बेटे का रिश्ता तय किया।

कुछ दिनों बाद, वकील साहब होने वाले समधी के घर गए तो देखा कि होने वाली समधन खाना बना रही थीं।
सभी बच्चे और होने वाली बहु टी वी देख रहे थे। वकील साहब ने चाय पी, कुशल जाना और चले आये।

एक माह बाद, वकील साहब समधी जी के घर, फिर गए। देखा, समधन जी झाड़ू लगा रहीं थी, बच्चे पढ़ रहे थे और होने वाली बहु सो रही थी। वकील साहब ने खाना खाया और चले आये।

कुछ दिन बाद, वकील साहब किसी काम से फिर होने वाले समधी जी के घर गए !! घर में जाकर देखा, होने वाली समधन बर्तन साफ़ कर रही थी, बच्चे टीवी देख रहे थे और होने वाली बहु खुद के हाथों में नेलपेंट लगा रही थी।

वकील साहब ने घर आकर, गहन सोच-विचार कर लड़की वालों के यहाँ खबर पहुचाई, कि हमें ये रिश्ता मंजूर नहीं है"

…कारण पूछने पर वकील साहब ने कहा कि, “मैं होने वाले समधी के घर तीन बार गया !!

तीनों बार, सिर्फ समधन जी ही घर के काम काज में व्यस्त दिखीं। एक भी बार भी मुझे होने वाली बहु घर का काम काज करते हुए नहीं दिखी। जो बेटी अपने सगी माँ को हर समय काम में व्यस्त पा कर भी उन की मदद करने का न सोचे, उम्र दराज माँ से कम उम्र की, जवान हो कर भी स्वयं की माँ का हाथ बटाने का जज्बा न रखे,,, वो किसी और की माँ और किसी अपरिचित परिवार के बारे में क्या सोचेगी।

"मुझे अपने बेटे के लिए एक बहु की आवश्यकता है, किसी गुलदस्ते की नहीं, जो किसी फ्लावर पाटॅ में सजाया जाये !!

👉इसलिये सभी माता-पिता को चाहिये, कि वे इन छोटी छोटी बातों पर अवश्य ध्यान देंवे।

🌹बेटी कितनी भी प्यारी क्यों न हो, उससे घर का काम काज अवश्य कराना चाहिए।

🌹समय-समय पर डांटना भी चाहिए, जिससे ससुराल में ज्यादा काम पड़ने या डांट पड़ने पर उसके द्वारा गलत करने की कोशिश ना की जाये।

🌹हमारे घर बेटी पैदा होती है, हमारी जिम्मेदारी, बेटी से "बहु”, बनाने की है।

🌹अगर हमने, अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से नहीं निभाई, बेटी में बहु के संस्कार नहीं डाले तो इसकी सज़ा, बेटी को तो मिलती है और माँ बाप को मिलती हैं, “जिन्दगी भर गालियाँ"।

🌹हर किसी को सुन्दर, सुशील बहु चाहिए। लेकिन भाइयो, जब हम अपनी बेटियों में, एक अच्छी बहु के संस्कार, डालेंगे तभी तो हमें संस्कारित बहु मिलेगी? ?

👉ये कड़वा सच, शायद कुछ लोग न बर्दाश्त कर पाएं ….लेकिन पढ़ें और समझें, बस इतनी इलतिजा..

🌹🍁वृद्धाआश्रम में माँ बाप को देखकर सब लोग बेटो को ही कोसते हैं, लेकिन ये कैसे भूल जाते हैं कि उन्हें वहां भेजने में किसी की बेटी का भी अहम रोल होता है। वरना बेटे अपने माँ बाप को शादी के पहले वृद्धाश्रम क्यों नही भेजते।
🌹👏🌹👏🌹👏🌹👏🌹


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नमस्ते जी यदि आपको ऋग्वेद का दूसरा , तीसरा और चौथा मंडल का पीडीएफ फाईल चाहिए तो आप इस 👇लिंक ...

नमस्ते जी
यदि आपको ऋग्वेद का दूसरा , तीसरा और चौथा मंडल का पीडीएफ फाईल चाहिए तो आप इस 👇लिंक
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पर जाकर डॉउनलोड करें !
यह महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत हिन्दी भाष्य है और अच्छि गुणवत्ता मे है !
अन्य मंडल भी स्कैन हो चुकी है , क्लाउड ड्राइव मे अपलोड होते ही लिंक शेयर कर दूंगा !!


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॥ ईशोपनिषद् ॥ ॥ ओ३म् ॥ तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य...

॥ ईशोपनिषद् ॥
॥ ओ३म् ॥ तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ मंत्रः ५ ॥
भावार्थ :- कोई कहता है वह ( ईश्वर ) चलता है , तो कोई कहता है की नहीं चलता ; कोई कहता है की वह ( ईश्वर ) दूर है तो कोई कहता है की एकदम पास में है । कोई कहता है वह ( ईश्वर ) सबके अंदर ही है तो कोई कहता है हम सबके बाहर है ।


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Saturday, January 30, 2016

शंका: यज्ञ से धुँआ होता है जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता है और ऑक्सीजन भी खर्च होती है।क्योकि कोई चीज तभी...

शंका: यज्ञ से धुँआ होता है जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता है और ऑक्सीजन भी खर्च होती है।क्योकि कोई चीज तभी जलती है जब उसे ऑक्सीजन मिले।
समाधान: यज्ञ से प्रदूषण कदापि नही होता।जितना ऑक्सीजन खर्च होता है उससे कहीं ज्यादा बढ़ता है। प्रदूषण दूर होता है।
यज्ञ पूर्णतः वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म।
यज्ञ से श्रेष्ठ कोई कार्य नही है।
यज्ञ को अग्निहोत्र भी कहते हैं।
अग्निहोत्र का अर्थ है जल, पृथ्वी, वायु आदि की शुद्धि के लिए डाली गयी आहुतियां।
यज्ञ केवल कर्मकाण्ड ही नही बल्कि चिकित्सा पद्धति भी है।
यज्ञ करते समय जो हम विभिन्न मंत्रोच्चार करते हैं उसका हमारे मन, मस्तिष्क,व आत्मा पर विशेष प्रभाव डालती है।साथ साथ वातावरण को भी शुद्ध करती है।
यज्ञ को हवि भी कहते हैं जिसका अर्थ है विष को हरने वाला।
विज्ञानं के सिद्धान्त के अनुसार कोई भी पदार्थ नष्ट नही होता ,हां उसका रूप बदला जा सकता है।
(By law of conservation of mass we know that mass cannot be created nor destroyed in a chemical reaction)
हवन सामग्री गाय का देशी घी आदि जो हम अग्नि पर डालते है हवन के लिए वे वास्तव में औषधियां हैं , जलने से नष्ट नही होतीं बल्कि दूसरे रूप में परिवर्तित होती हैं और सूक्ष्म रूप में हमे प्राप्त होती हैं।
जब एलोपैथ नही था तो प्राचीन काल में आयुर्वेद था।आयुर्वेद में इन्ही वनस्पतियों से ही चिकित्सा की जाती थी।
हवन सामग्री में जो औषधियां हैं उनमे
1.कीटाणुनाशक
2.सुगंधि वर्धक
3.स्वास्थ्यवर्धक (medicinal action property)
4.पौष्टिक
5. ऑक्सीजन वर्धक
गुण होते हैं।
जब ये औषधियां हवन कुण्ड में जलायी जाती हैं तो ये परमाणु रूप मे सांस के माध्यम से एक नही बल्कि अनेको जिव जंतुओं तक पहुचती हैं।जिससे परोपकार भी होता है।
यज्ञ में होने वाली रासायनिक क्रियाएँ निम्न हैं…
1.ज्वलन ( combustion)
2. ऊर्ध्वपातन ( sublimation)
3. धूनी (Fumigation)
Fumigation is a method of pest control that completely fills an area with smoke, vapor, or gas to especially for the purpose of disinfecting or of destroying pests.
4.औटना( Volatilization)
Volatilization is the process whereby a dissolved sample is vaporised.
ये सभी रासायनिक क्रियाएँ हमारे लिए लाभकारी ही हैं।
इनमे ज्वलन (combustion) अभिक्रिया के दौरान गाय का घी ( जिसमे लगभग 8% संतृप्त saturated fatty acids तथा triglycerides, diglycerides, monoglyceride)
ज्वलन को तेज करता है जिससे complete cumbustion हो सके।
fatty acid के combustion के दौरान CO2 और H2O निकलती है। complete combustion से CO2 भी बहुत कम हो जाता है।
Glycerol के combustion में pyruvic acid और Glyoxal (C2H2O2)बनता है। pyruvic acid हमारे metabolism को बढ़ाता है।और glyoxal बैक्टेरिया को ख़त्म करता है।
इनके आलावा combustion के दौरान जो हाइड्रोकार्बन बनते हैं वे पुनः स्लो combustion रिएक्शन होता है और methyle, ethyle alcohol ,फार्मिक एसिड और फार्मेल्डिहाइड आदि बनता है।जोकि वायु को सुगन्धित करता है और कीटाणुनाशक ही है। यही तक कि H1N1 वायरस को भी समाप्त करने की क्षमता भी यज्ञ में है।
अब आप सोच रहे होंगे की जब ज्वलन होता है तो ऑक्सीजन खर्च होती है ।एक तरह से हम पर्यावरण को नुक्सान पहुचाते हैं।तो आप गलत हैं
यज्ञ ही वह प्रक्रिया है जिसमे ऑक्सीजन खर्च तो होता है पर ऑक्सीजन बनती भी है।क्यों की इसमें CO2 के साथ -साथ वाष्प(H2O) भी बनती है। देखिये..
CO2 + H2O (g) +112000 cal = HCHO (farmaldehyde) +O2(ऑक्सीजन)
इस प्रकार यज्ञ करने से ऑक्सीजन खर्च नही बल्कि प्रोड्यूस होती है बनती है।
साथ ही साथ अन्य रासायनिक क्रियाओं से बने gaseous प्रोडक्ट्स से पर्यावरण शुद्ध होता है।एवं हमें स्वास्थ्य लाभ भी होता है।
साथ ही अग्निहोत्र का अवशेष राख हमारी मिटटी की उर्वरकता बढाती है।
अतः यज्ञ से कोई नुक्सान नही बल्कि लाभ ही लाभ है।
आज भी वैदिक पद्धति से रविवार को सुबह आर्य समाज मंदिर में यज्ञ होता है
यज्ञ में पधारे और पूण्य का भागी बने🙏


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ओ३म् तत्सत् अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीय परार्धे, श्वेत वराह प्रथम दिने, द्वितीय प्रहरार्धे, वैवस्वत...

ओ३म् तत्सत् अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीय परार्धे, श्वेत वराह प्रथम दिने, द्वितीय प्रहरार्धे, वैवस्वत मन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमेयुगे, कलियुगे, कलि प्रथम चरणे, पञ्चसहस्त्र पञ्चदशाधिकशतम् (5115) वर्षेषु गतेषु, जम्बूद्वीपे भरतखण्डे, पुण्यभूमौ आर्य्यावर्त्ते, “दिल्ली” प्रदेशे, द्विसहस्त्रद्वासप्तति (2072) वैक्रमाब्दे, “उत्तर” अयने, “हेमन्त” ऋतौ, “माघ” मासे, “कृष्ण” पक्षे, “सप्तमी” तिथौ, “रवि” वासरे, “चित्रा” नक्षत्रे, “तुला” लग्ने, “***” मुहूर्ते, “दिल्ली” जनपदे (district), “राजौरी गार्डन” स्थानवास्तव्य:, “$$$” गोत्रोत्पन्न, “@@@” नामाहम्, भगवत् कृपया लोकसिद्धयर्थ “देवयज्ञ” कृत्यम् करिष्ये।


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🌻🌻🌻ओ३म्🌻🌻🌻 भूपेश आर्य 🌷शराब छुड़ाना🌷 जब शराब पीने की इच्छा हो तब २-४ चम्मच शहद खाने से कुछ दिनों...

🌻🌻🌻ओ३म्🌻🌻🌻

भूपेश आर्य

🌷शराब छुड़ाना🌷

जब शराब पीने की इच्छा हो तब २-४ चम्मच शहद खाने से कुछ दिनों में यह लत छुट जाती है।

(2) “Spiritas Glandium Quercus 30” ४-४ गोली दिन में ३ बार दें।शराब छुड़ाने में अत्यन्त लाभकारी है।२-३ मास में आदत छुट जाती है।

इस दवा के साथ पेसी फ्लोरा इन्कारनेटा ३० भी दी जाए तो सोने पर सुहागे का काम होगा।दोनों दवाओं की दो-दो खुराक दिन भर में दें।

(3) “Acid Sulf 30” ५-५ गोलियाँ दिन में तीन बार खिलाने से शराब पीने की लत छूट जाती है।

नोट:-ये होम्योपैथिक दवाएँ हैं।

(4) Stercula-q यह शराबियों के लिए वरदान है।इसके सेवन से थकान भी नहीं होती।


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🐊 🐍 🐢 🐉 🐗 उपनिषदों में काल्पनिक कहानियाँ हैं जो वेदों की मान्यताओं को समझाती हैं । एक कहानी में एक...

🐊 🐍 🐢 🐉 🐗

उपनिषदों में काल्पनिक कहानियाँ हैं जो वेदों की मान्यताओं को समझाती हैं ।

एक कहानी में एक बड़ा सेठ मरकर अगला जन्म एक सर्प सूअर या कीड़े का पाता है ।

उसने भगवान से पूछा- हे प्रभु ! मैंने पूरा जीवन गरीबों की मदद की । खूब दान दिया । कोई पाप नहीं किया । तेरी वेद आज्ञा से मैंने पूरा जीवन जिया । फिर मुझे नर्क ऐसे कीड़े के रूप में अगला जन्म क्योंमिल रहा है जो सारा दिन गंदगी खाता है । ( कुछ कीड़े कार्बन लेकर आक्सीजन छोड़ते हैं )

तो उपनिषद का ऋषि इस काल्पनिक कहानी में समझाता है -

प्रभु बोले - वास्तव में ही हे सेठ तूँ एक पुण्य आत्मा है । तूने कोई पाप नहीं किया । तेरा जीवन अनुकरणीय है ।

मगर तूने मल मूत्र आदि से जो गंदगी फैलाई पूरे जीवन में , अपने हिस्से की उस गंदगी के लिए कभी तूने हवन नहीं किया ।

बस तेरा वो कर्ज रह गया है । अभी तुझे एक दो जन्म और मिलेंगे कीड़े-मकोड़ों के । तब तूँ स्वर्ग का अधिकारी बनेगा ।

हे सेठ ! तेरे जीवन कार्यों से मैं अति प्रसन्न हूँ । तूँ मुझे अति प्रिय है मगर न्यायिक विधान को मैं नहीं बदल सकता ।

____________✒ वैदिक


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🌻🌻🌻ओ३म्🌻🌻🌻 भूपेश आर्य 🌻आस्तिकता🌻 प्राणायाम,ब्रह्मचर्य और तप एवं वेदाभ्यास,सदाचार,आदि मृत्यु पर...

🌻🌻🌻ओ३म्🌻🌻🌻

भूपेश आर्य

🌻आस्तिकता🌻

प्राणायाम,ब्रह्मचर्य और तप एवं वेदाभ्यास,सदाचार,आदि मृत्यु पर विजय दिलाने वाले ‘अमृत’ प्राप्ति के अमोल साधन अवश्य है,किन्तु मृत्यु पर पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिए एक अन्य अचूक उपाय का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है।वह है-आस्तिकता-उस दिव्य सत्ता पर परम विश्वास तथा दृढ़ आस्था और अनुराग।

मृत्यु के कष्टों से पीड़ित जीव की पुकार सदा इस मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की रही है।भक्त की कामना है–
मृत्योर्माsमृतं गमय ।
मृत्यु बन्धन को हटा अमरत्व हे भगवान दो।

प्रभो! यह मृत्यु मुझे बहुत परेशान कर रही है।मैं उससे ड़र गया हूं,यह मुझे बहुत पीड़ित कर रही है।प्रभू! जीवन में कार्यों को सुचारु-रुप में करने की अभी मैं योजना भी न बना पाता कि यह मार्ग में बाधक बनकर आ खड़ी होती है।अन्त में इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि तुम्हीं हो जो इससे सदा सर्वदा के लिए मुक्ति दिला सकते हो।मैं जानता हूं कि मेरे आराध्य केवल एक तुम हो,कोई दूसरा नहीं है।

जो तुम्हारे अनन्यभाव को प्राप्त नहीं होता वह-
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति यो नानेव पश्यति ।
वह मृत्युग्रस्त ही है जिसमें तुम्हारे प्रति अनन्यभाव नहीं है।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाsति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेsयनाय ।।-(यजुर्वेद ३१/१८)
अर्थ:-अन्धकार से विहीन,आदित्यरुप उस महान प्रभु को मैंने जान लिया है,उसके दर्शनों से कृतार्थ हो गया हूं मैं।उसे जानकर मृत्यु को मैंने लांघ लिया है।हे अमृतस्वरुप ! तुमसे मुझे अमरता प्राप्त हुई है।मृत्यु से बचने का 'अमृत’ प्राप्ति का इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है।

समाधियोग से चित्त के अविद्यादि मल नष्ट होने पर आत्मस्थ होने से परमात्मा के योग का जो आनन्द उपलब्ध हुआ है वह वाणी द्वारा वर्णन नह़ी किया जा सकता।वह तो अन्तःकरण द्वारा अनुभव किया जा सकता है।

यजुर्वेद में कहा है:-
यस्य छायाsमृतं यस्य मृत्युः कस्मैदेवायहविषा विधेम ।
ऋषि दयानन्द इसका अभिप्राय सपष्ट करते हुए कहते हैं-
“जिस (ब्रह्म) का आश्रय ही अमृत अर्थात् मोक्ष-सुखदायक है और जिसका न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है,हम लोग उस सुखस्वरुप,सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसकी आज्ञापालन करने में तत्पर रहें।”

अथर्ववेद की एक ऋचा में इस रहस्य को बड़े स्पष्ट और सुन्दर रुप में कहा गया है:-
सर्वौ व तत्र जीवति गौरश्वः पुरुषः पशुः।
यत्रैदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम् ।।-(अथर्ववेद ८/२/२५)
जहां जीवन की परिधि ब्रह्म को बना लिया जाता है अर्थात् जीवन में चारों और-
ब्रह्मापरं युज्यतां ब्रह्म पूर्वं ब्रह्मान्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वतः।
ब्रह्म ऊपर है,नीचे है,आगे है,पीछे है,मध्य में है,सब और है-जहां ऐसी अनुभूति होने लगती है उन घरों में गौ,घोड़ा,पशु और मनुष्य किसी को भी मृत्यु अपने वश में नहीं करती।

कितना बड़ा आश्वासन है यह !कितने विश्वास से ये बात कही गयी है उनके लिए जो वेदवचन पर अमित श्रद्धा रखकर मृत्यु के इस दुःख को उस ब्रह्म-सरोवर में डुबकी लगाकर दूर कर सकें।

योगवासिष्ठ में कहा है-
एकस्मिन्निर्मले येन पदे परमपायने।
संश्रिता चितविश्रान्तिस्तं मृत्युर्न जिघांसति ।।-(योगवासिष्ठ ६/१/२३/११)
अर्थ:-जिसका मन निर्मल ,परमपावन एक ब्रह्म में स्थिर होकर शान्त हो गया है उसे मृत्यु कभी नहीं मार सकती।

उस परमपिता परमात्मा की गोद ही ऐसी है जहाँ बैठकर मृत्यु क्या,अन्य सभी प्रकार के भय भी शान्त हो जाते हैं।

तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।
तेषां शान्तिः शाश्वतं नेतरेषाम्।।
उन्हें शाश्वत सुख मिलता है,परम शान्ति होती है जो उसकी गोद में बैठते हैं,अन्य को नहीं।

श्वेताश्वतर उपनिषद में कहा है-
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवाभियन्ति।-(श्वेताश्व० ३/१०)
जो उस ब्रह्म को जान लेते हैं वे अमृत हो जाते हैं किन्तु जो ऐसा नहीं करते वें बार बार जन्म-मरण के दुःख को प्राप्त करते हैं।

बृहदारण्यकोपनिषद् (३/१) में एक कथा आती है।विदेह देश के राजा वैदेह जनक ने एक बार 'बहुदक्षिणा यज्ञ’ रचाया,जिसमें देश देश के अनेक विद्वानों और ऋषि महर्षियों को आमत्रित किया गया।राजा जनक की यह इच्छा हुई कि यह जाने कि एकत्र हुए इन सब विद्वानों में सर्वातिशय 'अनूचान’ (प्रवचनकर्त्ता) विद्वान कौन है?उसने सोने के मढ़े हुए सींगों वाली एक हजार सुन्दर गौएँ मँगवाई और घोषणा की कि 'आप सब विद्वानों में जो सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मनिष्ठ विद्वान हो वह इन एक सहस्र गौवों को हांक ले जाए।’ राजा जनक की इस घोषणा को सुनकर भी किसी का साहस उन गौवों को ले जानें का नहीं हुआ।सबको मौन देखकर और इस घोषणा को विद्वान् ब्राह्मणों का अपमान मानकर ब्रह्मज्ञानी ऋषि याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्य ब्रह्मचारी सामश्रवा को उन गौवों को अपने आश्रम में हाँक ले जाने की आज्ञा दी।
ऋषि याज्ञवल्क्य की इस धृष्टता से क्रुद्ध होकर वहाँ उपस्थित अनेक ऋषियों ने याज्ञवल्क्य पर प्रश्नों की बौछार लगा दी।उन्हीं में सर्वप्रथम राजा जनक के होता अश्वल पूछते हैं-

याज्ञवल्क्येति होवाच-यदिदं सर्वं मृत्युनाssप्तं, सर्वं मृत्युनाभिपन्नं,केन यजमानो मृत्योराप्तिमतिमुच्यत इति।।-(बृहदारण्यक० ३/१/३)
हे याज्ञवल्क्य ! यह बताओ कि यदि यह समस्त संसार मृत्यु से व्याप्त है-मृत्यु के वश में है,तो वह साधन क्या है जिससे यजमान इस मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है?

याज्ञवल्क्येति होवाच-यदिदं सर्वं मृत्योरन्नं,का स्वित् सा देवता यस्या मृत्युरन्नमिति?-(बृहदारण्यक० ३/२/१०)
हे याज्ञवल्क्य ! संसार में हमें दिखायी देता है कि जो कुछ भी है वह सब मृत्यु का अन्न है अर्थात् मृत्यु उन्हें एक -एक कर खाये जा रही है।क्या ऐसा भी कोई देवता है जिसका मृत्यु अन्न बन सके?

ऋषि याज्ञवल्क्य इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि-
अग्निर्वै मृत्युः सोsपामन्नमप पुनर्मृत्युं जयति।-(बृहदा० ३/२/१०)
हे मुनियो ! मृत्यु अग्निरुप है(सर्वभक्षक है),किन्तु उस अग्निरुप मृत्यु की भी मृत्यु शीतल जलों से हो जाती है।जो इस रहस्य को जान लेता है वह मृत्यु को भी जीत लेता है।

मृत्यु के वास्तविक स्वरुप की यदि हम तुलना करना चाहें तो कह सकते हैं कि मृत्यु अग्निरुप है।दोनों के स्वरुप और विषेशताओं में बहुत समानता है।मृत्यु भी अग्नि की भाँति सर्वभक्षक,दाहक,भस्मक,ज्वालक और विनाशक है,किन्तु इस अग्नि की भी मृत्यु का उपाय लोकसिद्ध है।वह है-शीतल जल।
ठीक इसी प्रकार मृत्युरुपी अग्नि को यदि हम शान्त करना चाहते हैं-यदि हम मृत्यु की मृत्यु के अभिलाषी हैं तो शान्त,शीतल,आह्लादक ब्रह्मानन्द-जल में डुबकी लगानी पड़ेगी।तब यह मृत्यु या मृत्यु-जन्य दुःख की आग वैसे ही शान्त हो जाती है जैसे जलों से आग शान्त हो जाती है।
इसलिए संसार में ईश्वर के सच्चे भक्तों को मौत नहीं जीत सकी है,अपितु मौत को उन्होंने जीत लिया है।

यजुर्वेद में कहा है-
यस्य छायाsमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।-(यजुर्वेद २५/१३)


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Friday, January 29, 2016

🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷 भूपेश आर्य 🌻दिव्य ओषधियाँ🌻 (1) अनेक रोगों की एक दवा:-हींग १० ग्राम,नौशादर १०...

🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷

भूपेश आर्य

🌻दिव्य ओषधियाँ🌻

(1) अनेक रोगों की एक दवा:-हींग १० ग्राम,नौशादर १० ग्राम,सेंधा नमक १० ग्राम-सबको ६०० ग्राम पानी में खरल करें।जब सब दवाएं पानी में मिलकर एक हो जाएँ तब बोतल में भर लें।२५-२५ ग्राम दवा प्रातः सांय पिलायें।
यह योग दर्द-गुर्दा,तिल्ली,जिगर का वरम,वायुगोला,बदहज्मी,भूख न लगना आदि रोगों की शर्तिया दवा है।

(2) अर्श (बवासीर )के मस्से:-जब भी पेशाब करने जाएँ,अपना मूत्र अन्जलि में भरकर मस्सों को धो लिया करें।दो मास तक ऐसा करने से बवासीर के रोग से सदा के लिए छुट्टी हो जाएगी।

(3) आँख का दर्द:-सूर्योदय के पूर्व आँखों में बरगद(बड़) का दूध डालें।दर्द तुरन्त मिट जायेगा।
नोट-बड़ का दूध सूर्योदय से पूर्व ही अच्छा निकलता है।एक पत्ते से २-३ बूंद प्राप्त हो जाता है।

(4) सुबह उठते ही अपना बासी थूक आँखों में लगाने से आँखों की रोशनी बढ़ती है,और जाला,धून्धलापन मिटता है।बशर्ते कि दांतों में पायरिया आदि रोग न हों।तभी कारगर है।

(5) आँख के अनेक रोगों पर:-यदि आँखों में दर्द,खुजली,जाला,लाली हो,मोतिया उतरना आरम्भ हो गया हो तो प्रतिदिन प्रातः गाय का ताजा मूत्र २-३ बूंद चालिस दिन तक आँख में डालें।मोतियाबिन्द बिना आपरेशन के कट जाता है।शर्तिया दवा है।

(6) आग से जलना:-यदि कोई अंग आग से जल जाये तो उसी समय जले स्थान पर ग्लिसरीन लगा दें।जले के लिए अचूक एवं अद्भूत दवा है।न दर्द होगा,न छाले पड़ेगे और न चमड़ी ही लाल होगी।

(7) आधासीसी:- १.जिस और दर्द हो उस और के कान में कागजी नींबू का रस की ३-४ बूंदे डाल दो।दर्द तुरन्त मिट जाता है।
२.कालीमिर्च पानी में घिसकर जिस और दर्द हो,उससे उल्टी आँख में लगा दें।यह दवा लगेगी तो बहुत,परन्तु आधासीसी का दर्द एक ही बार में भाग जायेगा और फिर कभी नहीं होगा।

(8) एक वर्ष के लिए तन्दुरुस्ती का बीमा:-कालीमिर्च,नीम के पत्ते और बीजरहित लालमिर्च,सबको बराबर लेकर घोट-पीसकर ६-६ ग्राम की गोलियाँ बना लें।शौच,स्नान और दैनिक कृत्यों से निवृत्त होकर प्रतिदिन प्रातः निराहार १-१ गोली पानी के साथ चैत्र सुदी १ से १५ दिन तक खाएँ।एक वर्ष तक कोई रोग नहीं होगा।

(9) हरड़ अमृत समान:-प्रतिदिन २-३ छोटी हरड़ चूसने से पेट के सब विकार दूर हो जाते हैं,कब्ज दूर होती है,भूख खूब बढ़ती है,पाचनशक्ति बढ़ जाती है,रक्त शुद्ध हो जाता है,आँखों के लिए भी लाभप्रद है।निरन्तर सेवन से चश्में का नम्बर भी घट जाता है।
इसकी प्रशंसा में ठीक ही कहा है-
माता यस्य गृहे नास्ति तस्य माता हरीतकी ।
कदाचित्कुप्यते माता नोदरस्था हरीतकी ।।

जिसके घर में माता नहीं है उसकी माता हरड़ है।माता कभी क्रुद्ध भी हो जाती है,परन्तु पेट में गयी हुई हरड़ कभी कुपित नहीं होती।

और भी–
हरि हरीतकीं चैव गायत्रीं च दिनेदिने ।
मोक्षारोग्यतपः कामश्चिन्तयेद् भक्षयेज्जपेत् ।।

अर्थ:-मोक्ष,आरोग्य और तप की इच्छा करने वाले को प्रतिदिन परमात्मा,हरड़ और गायत्री का क्रम से चिन्तन,सेवन और जप करना चाहिये.

(10) क्षय(टी.वी.) नाशक:-स्वस्थ एवं दुधारु काली गाय का मूत्र दिन में २०-२० ग्राम पिलाएँ।यह प्रयोग २१ दिन तक करें।

(11) खाँसी:-
१.दिन में तीन चार बार २०-२० ग्राम बढ़िया बूरा फाँकने से खाँसी ठीक हो जाती है।
नोट–बूरा फाँकने से २ घण्टा पूर्व और एक घण्टा पश्चात् जल न पीएँ।रात्रि में भोजन न करें।जल भी न पीएँ।यदि प्यास लगे तो गर्म दूध या तुलसी के पत्तों की चाय लें।
२.तुलसी के पत्ते १५,कालीमिर्च ९,इन दोनों की चाय बनाकर पीने से खाँसी,जुकाम,बुखार,कफ-विकार,मन्दाग्नि आदि रोग दूर हो जाते हैं।
३.फिटकरी भुनी हुई १० ग्राम,खाँड देशी १० ग्राम दोनों को बारीक पीसकर १४ पुड़िया बना लें।सूखी खाँसीवाले को दूध से और आर्द्र (गीली)खाँसी वाले को जल से खिलाएँ।इससे पुरानी से पुरानी खाँसी और साधारण दमा भी दूर हो जाता है।
४.बार-बार शीशा देखने से भी खाँसी में बहुत लाभ होता है।

(12) गर्भरक्षा:-जिस स्त्री को बार-बार गर्भपात हो जाता हो उसकी कमर में धतूरे की जड़ बाँध दें।इससे गर्भपात नहीं होगा।जब नौ मास पूरे हो जाएँ तब जड़ खोल दें।

(13) गर्भस्थापक:-
१.अपामार्ग की जड़ का चूर्ण ३० ग्राम,कालीमिर्च २१ दोनों को बारीक पीस लें।मासिकधर्म के एक सप्ताह पूर्व से ऋतु के तीसरे दिन तक दें।भोजन में केवल दूध और चावल का प्रयोग करें।तीन मास तक ब्रह्मचर्य का पालन करें।इससे गर्भाशय के सारे रोग दूर हो जाते हैं,मासिक नियमित हो जाता है।प्रदर एवं बन्धयत्व को दूर करने वाली महौषधि है।
२.ऋतुकाल में चारों दिन २५ ग्राम अजवायन और २५ ग्राम मिश्री को २५ ग्राम पानी में रात्रि में मिट्टी के बर्तन में भिगो दें।प्रातः ठण्डाई की भाँति खूब पीसकर पी जाएँ।
पथ्य में मूँग की दाल और रोटी (बिना नमक की) लें।आठ दिन दवा का सेवन करें।अवश्य गर्भ रहेगा।

(14) दन्तमंजन:-दालचीनी,कालीमिर्च,धनिया भूना हुआ,नीलाथोथा भूना हुआ,कपूरकचरी,सेंधानमक,मस्तगी और चोबचीनी–प्रत्येक १० ग्राम।पपड़ियाकत्था २० ग्राम,माजूफल ५ नग।सबको कूट-पीसकर मंजन बना लें।
इस मंजन का प्रयोग करने से दन्तरोग तो दूर होंगे ही,बाल जीवनभर सफेद नहीं होंगे।

(15) दन्त-रोग:-
१.लौंग १० ग्राम,कपूर १ ग्राम।-दोनों को बारीक पीसकर दांतों पर मलने से दाँतों के सब रोग और दर्द आदि नष्ट हो जाते हैं।
२.मौलश्री की दातुन करने से हिलते हुए दाँत दृढ़ हो जाते हैं,पायोरिया दूर होता है।मौलश्री में दन्तरोगों को दूर करने की अदभूत शक्ति है।
आयुर्वेद के ग्रन्थों में लिखा है-‘दन्ता भवन्ति चपलापि च वज्रतुल्या।'दाँत मोती जैसे श्वेत और व्रज के समान दृढ़ हो जाते हैं।

(16) दमा की अद्भूत दवा:-धतूरे का १-१ बीज ८ दिन तक प्रातः पानी से निगल लें।दूसरे सप्ताह २-२ बीज लें।इसी प्रकार प्रति सप्ताह एक -एक बीज बढ़ाते हुए पाँचवें सप्ताह ५-५ बीज प्रतिदिन लें।दमा कितना भी पुराना हो मिट जायेगा।

(17) दर्दमात्र की दवा:-सोडाबाईकार्ब ३ ग्राम,फिटकरी सफेद कच्ची ३ ग्राम।
दोनों को बारीक पीस लें।यह एक मात्रा है।दवा फाँककर ऊपर से गर्म पानी पी लें।एक ही मात्रा से सब प्रकार के दर्द भाग जाते हैं।

(18) दांतों का हिलना:-बड़ की दातुन करें।वटवृक्ष की दातुन हिलते हुए दाँतों को जमाने की सर्वश्रेष्ठ ओषधि है।इसके प्रयोग से दाँतों का आगे के लिए विकृत होना बन्द हो जाता है।
२.शौच करते समय दाँतों को भींचकर रखने से (दबाकर रखने से) दांत जिन्दगी भर नहीं हिलेंगे।

(19) निर्मली के बीज १४० दानें मिट्टी के बर्तन में भिगो दें।पाँचवें दिन से दो दानें प्रातः व २ दानें सांय मिश्री मिले हुए ठण्ड़े दूध से लें।
ये बीज कब्ज को दूर करते हैं,बल बढ़ाते हैं।वात,पित्त और कफ के तमाम रोगों को जीतते हैं।परखने पर स्वर्ण भस्म के तुल्य प्रतीत होंगे।
प्रमेह और प्रदर की अचूक दवा है।
नोट-पानी को प्रतिदिन बदलते रहें।
गुड़,तेल,मिर्च,खटाई,छाछ,खीर एवं उडद की दाल का परहेज करें।

(20) पथरी:-
१.नीम के पत्तों की राख ६ ग्राम फाँककर ऊपर से पानी पीएँ।कुछ दिन के प्रयोग से पथरी गल जाती है।
२.प्रतिदिन प्रातः गोमूत्र ५० ग्राम पीएँ और सांय तीन ग्राम फिटकरी एक गिलास पानी में घोलकर पीएं।४० दिन सेवन करें।पथरी गलकर निकल जायेगी।परीक्षित है।

(21) शक्ति का खजाना:-
१.असगन्ध का चूर्ण ६ ग्राम फाँककर ऊपर से दूध पीने से शरीर पुष्ट व बल की वृद्धि होती है।

२.भाँगरे का चूर्ण १०० ग्राम,काले तिल का चूर्ण २०० ग्राम,आँवला चूर्ण २०० ग्राम-तीनों को कूट-पीसकर कपड़छन कर लें,फिर उसमें ५०० ग्राम मिश्री मिला लें और घी के चिकने बर्तन में सुरक्षित रक्खें।
१०-१० ग्राम दवा प्रातः-साँय गोदुग्ध के साथ सेवन करें।
इसके सेवन से रोग नहीं सताते।बाल काले होते हैं,बल और शक्ति की अपूर्व वृद्धि होती है।अकालमृत्यु और वृद्धावस्था का विषेश भय नहीं रहता।

३.रात्रि में छोटी पीपल ,पानी में भिगो दें।प्रातः घोट-पीसकर मधु से चाटें,ऊपर से गोदुग्ध पीएँ।इससे ज्वर,खाँसी,अशक्ति नष्ट होकर बल और शक्ति बढ़ेगी।कम से कम ४० दिन सेवन करें।

(22) आरोग्याम्बु:-एक लीटर पानी को ओटाने से २५० ग्रिम रह जाए तो इसे आरोग्याम्बु कहते हैं।इसे पीने से खाँसी,दमा और कफ के रोग दूर होते हैं।बुखार शीघ्र उतर जाता है।भूख बढ़ती है।खाई वस्तु तुरन्त पच जाती है।बवासीर,पाण्डुरोग,वायुगोला और हाथ पाँव की शोथ (सूजन) को दूर करता है।इस प्रकार के जल का सदा प्रयोग किया जाए तो रोग उत्पन्न ही नहीं होते।

(23) दीर्घजीवन:-जिस दिन बालक का जन्म हो,उसी दिन से शुद्ध-सोने को चौथाई चावल की मात्रा में घिसकर और जरा सा पानी मिलाकर १० दिन तक चटाते रहें।
इसके प्रयोग से आयु दीर्घ होती है,बच्चा सब प्रकार के रोगों से सुरक्षित रहता है।

(24) नजला:-सफेद मिर्च २१ दानें पानी के साथ सात दिन तक प्रतिदिन निगलवा दें।प्रभु कृपा से सदा के लिए नजला-जुकाम से छुट्टी मिल जायेगी।

(25) पीलिया:-६० ग्राम मूली के पत्तों का रस निकालकर इसमें १० ग्राम चीनी मिला लें।प्रातः बिना कुछ खाये-पिये इस रस को पिलायें।पीलिया को नष्ट करने के लिए रामबाण दवा है।

(26) बाल काले करना:-मालकांगनी के बीज (छिलका उतार दें) २५० ग्राम लेकर बोतल में भर लें और दृढ़ कार्क लगा दें।१० दानें प्रतिदिन पानी से निगल लें।निरन्तर एक वर्ष तक प्रयोग करें।
इन बीजों के सेवन से बुद्धि तीव्र होती है।चेहरा लाल हो जाता है।बाल पुनः काले होने लगते हैं।
पथ्य-गर्म वस्तुओं से बचें।

(27) उषःपान:-प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व ८ अंजलि जल पीना बड़ा लाभकारी है।ऋषियों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की है।
'भावप्रकाश’ में लिखा है-

सवितुः समुदयकाले प्रसृतीसलिलस्य पिबेदष्टौ ।
रोगजरापरिमुक्तो जीवेद् वत्सरशतं साग्रम् ।।
सूर्योदय के समय जो व्यक्ति प्रतिदिन आठ अंजलि जल पान करता है वह रोगों से मुक्त हो जाता है,बुढ़ापा उसके पास नहीं फटकता और वह सौ वर्ष से भी अधिक आयु प्राप्त करता है।

प्रातः उषःपान करने से कब्ज,वीर्य सम्बन्धी रोग,बवासीर,उदररोग,कुष्ट,मूत्र और धातुरोग,सिरदर्द,नेत्रविकार ,निर्बलता तथा वात,पित्त और कफ आदि से होने वाले भयंकर से भयंकर रोग नष्ट हो जाते हैं।

यदि यह जल मुख के बजाय नासिका से पिया जाए तो सोने पे सुहागे का काम करता है।

नासिका द्वारा जलपान के गुणों का वर्णन करते हुए आयुर्वेद के ग्रन्थों में लिखा है–
विगतघननिशीथे प्रातरुत्थाय नित्यम्,
पिबति खलु नरो यो घ्राणरन्ध्रेण वारि ।
स भवति मतिपूर्णश्चक्षुषा तार्क्ष्यतुल्यो,
वलिपलितविहीनः सर्वरोगैर्विमुक्तः ।।

अर्थात् रात्रि का अन्धकार दूर हो जाने पर जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर नासिका द्वारा जलपान करता है,वह बुद्धिमान बन जाता है।उसकी नेत्र ज्योति गरुड़ के समान हो जाती है।उसके बाल असमय में सफेद नहीं होते तथा वह सम्पूर्ण रोगों से सदा मुक्त रहता है।

नासिका द्वारा जलपान से सिर-दर्द,जुकाम-चाहे नया हो या पुराना,नजलि,नकसीर चलना आदि रोग जड़मूल से दूर हो जाते हैं।

शीत ऋतु में यदि जल बहुत शीतल हो तो उसे थोड़ा गर्म करके पान किया जा सकता है।

जल पीने के नियम:-लाभ सूर्योदय के पूर्व पीने से ही होता है।सूर्यास्त के पश्चात् जल कभी नहीं पीना चाहिये।
रात्रि के प्रथम पहर में जल विष है,मध्य रात्रि में दूध के समान और प्रातः सूर्योदय से पूर्व माँ के दूध के समान गुणकारी है।
भोजन के तुरन्त बाद भी जल नहीं पीना चाहिये।

(27) मल-मूत्र के वेगों को न रोकें:-बहुत से व्यक्ति किसी अन्य आवश्यक कार्य के कारण मल-मूत्र के वेगों को रोक लेते हैं।ऐसा करना शरीर के लिए बहुत हानिकर है।

महर्षि चरक ने कहा है:-
न वेगान् धारयेद्धीमाञ्जातान्मूत्रपुरीषयोः ।-(चरक० सूत्र० ७/३)
बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि मल-मूत्र के वेगों को न रोके।
इन वेगों को रोकने से भारीपन,सिरदर्द आदि हो जाते हैं।नेत्र ज्योति मन्द होती है।


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Thursday, January 28, 2016

🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷 भूपेश आर्यः 🌻जीवेम शरदः शतम्🌻 शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमसौ। एतौ यक्ष्मं वि...

🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷

भूपेश आर्यः

🌻जीवेम शरदः शतम्🌻

शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमसौ।
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुन्ञतो अंहसः ।।-(अथर्व० ८/२/१८)
चावल और जौ तेरे लिए कल्याणकारी हों,ये कफ न करने वाले व खाने में मधुर हैं।ये रोग को रोकते हैं और कष्टों से बचाते हैं,अर्थात् जौ और चावल के प्रयोग से रोग आते ही नहीं और मनुष्य रोग पीड़ा से बचा रहता है।

त्रयायषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम् ।
त्रेधामृतस्य चक्षणं त्रीण्यायूँषि तेs करम् ।।-(अथर्व० ५/२८/७)
जमदग्नि-जिसकी जठराग्नि मन्द नहीं होती,उस जमदग्नि की आयु तीन सौ साल होती है।
कश्यपस्य-वस्तुओं के स्वरुप व तत्त्व को समझने वाले के लिए भी तिहरी आयु है।इनमें शरीर,मन व बुद्धि तीनों प्रकार से अमरता सी दिखाई देती है,अर्थात् इनकी बुद्धि तीन सौ वर्ष तक उर्वरा रहती है,इनके मन मलिन नहीं होने पाते,शरीर रोगी नहीं होते।मैं भी तेरी आयु तीन सौ वर्ष की करता हूं।

अयं मे हस्तो भगवान् अयं में भगवत्तरः ।
अयं मे विश्वभेषजोsयं शिवाभिमर्शनः ।।-(अथर्व० ४/१३/६)
अर्थ:-वैद्य रोगी से अत्यन्त विश्वास के साथ कहता है कि –“यह मेरा हाथ बड़ा सौभाग्यवाला है।यह दूसरा उससे भी अधिक सौभाग्यशाली है।यह हाथ सब रोगों की ओषधि है,तथा छूते ही कल्याण करने वाला है।”

इस मन्त्र में सम्मोहन विद्या व चिकित्सा की चर्चा है।

अपामार्ग ओषधीनां सर्वासामेक इद्वशी।
तेन ते मृज्म आस्थितमथ त्वमगदश्चर ।।-(अथर्व० ४/१७/८)
अपामार्ग सब ओषधियों को वश में रखने वाली एक ओषध है।उससे तेरे शरीर में स्थित् रोग को हम दूर करते हैं,अतः तू अब निरोग होकर चल।

न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते ।
यं भेषजस्य गुल्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते ।।-(अथर्व० १९/३८/१)
अर्थ-जिसको इस ओषध गुल्गुल का सुगन्ध प्राप्त होता है उसे न रोग व्याप्ता है और न ही कोई शाप प्रभावित करता है।

अश्ववत्थो दर्भो वीरुधां सोमो राजामृतं हविः ।
व्रीहिर्यवश्च भेषजौ दिवस्पुत्रावमत्य्रौ ।।-(अथर्व० ८/७/२०)
वृक्षों में पीपल,घासों में कुशा,लताओं में सोमलता,पेय पदार्थों में जल तथा भक्ष्य पदार्थों में घृत प्रमुख है।वृष्टिजल से उत्पन्न व्रीहि और यव अमर्त्य औषध हैं।इनके होते हुए असमय के रोगों से मृत्यु का प्रश्न ही नहीं उठता।


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सनातन संस्कृति में मुंडन क्यूँ :— *********************** क्या आप जानते हैं कि हमारे सनातन...

सनातन संस्कृति में मुंडन क्यूँ :—
***********************

क्या आप जानते हैं कि हमारे सनातन धर्म में बच्चों के मुंडन की परंपरा क्यों बनाई गई है और केवल बच्चे ही क्यों …जन्म से लेकर मृत्यु तक के हमारे सोलह संस्कारों में भी मुंडन को हमारे हिन्दू धर्म में अनिवार्य माना गया है…! यहाँ तक कि हम हिन्दू सनातन धर्मियों में बच्चों का मुंडन जितना अनिवार्य है उतना ही अनिवार्य किसी नजदीकी रिश्तेदार की मृत्यु के समय भी है….और, इस तरह से मुंडन करवाना हम सनातनियों के संस्कार में सम्मिलित है …

लेकिन, हम से अधिकतर सनातनी बिना कुछ जाने समझे इसे केवल इसीलिए करते हैं क्योंकि हम बचपन से ही ऐसा देखते आये हैं….और, चूँकि हमारे पूर्वज भी ऐसा किया करते थे इसीलिए, हमलोग भी बस इसे एक “"आध्यात्मिक परंपरा”“ के तौर पर इसे निभा देते हैं…!

लेकिन यह जानकर हर किसी को बेहद हैरानी होगी कि मुंडन का आध्यात्म से कुछ लेना-देना नहीं है बल्कि यह एक शुद्ध विज्ञान है और, मुंडन संस्कार सीधे हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा है।

कारण :– वास्तव में जब बच्चा मां के गर्भ में होता है तो वो माँ के प्लीजेंटल फ्लूइड तैरता रहता है ….तथा, बच्चे के जन्म लेने के बाद उसके शरीर में प्लीजेंटल फ्लूइड में मौजूद रसायन एवं , कीटाणु, बैक्टीरिया और जीवाणु लगे होते हैं जो, साधारण तरह से धोने पर शरीर से तो निकल जाते हैं परन्तु, बाल होने के कारण सर से नहीं निकल पाते हैं….!अतएव , उसे पूरी तरह से साफ़ करने के लिए….. उस बाल को निकलना जरुरी होता है….

अतः… एक बार बच्चे का मुंडन जरूरी होता है……. ताकि, बच्चे को भविष्य में इन्फेक्शन का कोई खतरा ना रहे….

यही कारण है कि जन्म के एक साल के भीतर बच्चे का मुंडन कराया जाता है… और, लगभग कुछ ऐसा ही कारण मृत्यु के समय मुंडन का भी होता है….!जब पार्थिव देह को जलाया जाता है तो , उसमें से भी कुछ ऐसे ही जीवाणु हमारे शरीर पर चिपक जाते हैं, क्यूंकि जलाते समय जो रासायनिक अभिक्रियाएँ होती है वो अत्यंत ही उच्च ताप एवम दाब पे होती है ,, और दाब के वातावरण के अंतर के कारण ही जीवाणु साधारण ( ठन्डे) वातावरण की तरफ DIFFUSE करते हैं …

इसीलिए, पार्थिव देह जलाने के बाद नदी में स्नान और धूप में बैठने की भी परंपरा है….क्योंकि आज हम सभी इस बात से अवगत हैं कि सूर्य की रोशनी में बहुत सारे बैक्टीरिया और वाइरस जीवित नहीं रह पाते हैं तदोपरांत, सिर में चिपके इन जीवाणुओं को पूरी तरह निकालने के लिए ही मुंडन कराया जाता है ( यहाँ तक कि दाढ़ी और मूंछें तक निकाल दी जाती है )

यहाँ कुछ मनहूस सेक्यूलर आदतन ये बोल सकते हैं कि :– अगर मुंडन का यही कारण है तो, मुंडन तुरंत क्यों नहीं करवा दिया जाता है… तो उन कूढ़मगजों के लिए इतना ही समझा देना पर्याप्त है कि नवजात शिशु की त्वचा काफी कोमल होती है .
और, तुरंत ही उस पर ब्लेड चलाने से इन्फेक्शन का खतरा घटने के बजाए और, बढ़ ही जाएगा इसीलिए, लगभग ६ महीने साल भर तक इंतजार किया जाता है ताकि. वो नवजात शिशु बाहरी आवो-हवा का आदि हो जाए…उसी तरह किसी की मृत्यु के बाद भी तुरत मुंडन नहीं करवा कर कुछ दिन बाद ( नवमी के दिन ) मुंडन इसीलिए करवा जाता है ताकि, उस दौरान घर की पूरी तरह साफ़-सफाई की जा सके अन्यथा, मुंडन के बाद भी साफ़-सफाई करने से स्थिति वही रह जाएगी….!

अंत में इतना ही कहूँगा कि….. हम सनातनियों को गर्व करना चाहिए कि जो बातें हम आज के आधुनिकतम तकनीक के बाद भी ठीक से समझ नहीं पाते हैं,,,उस जीवाणु -विषाणु , और बैक्टीरिया -वाइरस एवं उससे होने वाले दुष्प्रभावों को हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि हजारों-लाखों लाख पहले ही जान गए थे….! परन्तु चूँकि हर किसी को बारी-बारी विज्ञान की इतनी गूढ़ बातें समझानी संभव नहीं थी ( क्यूंकि हर कोई समझने समझाने के लायक नहीं होता) इसलिए, हमारे पूर्वजों ने इसे एक परंपरा का रूप दे दिया ताकि, उनके आने वाले वंशज (जो अगर साधारण बुद्धि के भी हैं ) सदियों तक उनके इन अमूल्य खोज का लाभ उठाते रहें….जैसे कि… हमलोग अभी उठा रहे हैं….!🚩🚩


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Wednesday, January 27, 2016

2021 हमारे वेदों की कीर्ति समस्त विश्व में पुनर्स्थापित होने की ओर अग्रसर…. 👉नाम - आचार्य...

2021 हमारे वेदों की कीर्ति समस्त विश्व में पुनर्स्थापित होने की ओर अग्रसर….

👉नाम - आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

👉उद्देश्य- वेद से सम्पूर्ण सृष्टि विज्ञान (cosmology and astronomy) व ब्रह्माण्ड के बनने की प्रक्रिया को वैदिक विज्ञान से सिद्ध करना तथा 2021 तक वेदों को समस्त वैज्ञानिकों के मध्य वैज्ञानिक रूप से अपौरुषेय (परमात्मा की वाणी ) सिद्ध करना |

सम्पूर्ण भूमंडल पर यह सिद्ध हो जाएगा की वेद ही परम पिता परमात्मा का दिया ज्ञान है और सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है ||

सफलता(अब तक ) ——
👉1. Big Bang Theory को वैदिक सिद्धांतों से अपनी पुस्तक में गलत सिद्ध किया तथा और उसी पुस्तक के सिद्धांत से BARC के वैज्ञानिक डॉ आभाष कुमार मित्रा जी ने नासा में अपना research paper present किया तथा big bang की कई कमियों को सिद्ध किया और black hole को गलत सिद्ध करके उस की जगह नयी अवधारणा ECO(eternal collapsing object) को स्थापित किया |

👉2. इस रिसर्च पेपर से विश्व के महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग भी सहमत हुए तथा अपनी big bang theory की कमियों को ग्रहण किया | किसी भी वैज्ञानिक ने “vaidik theory of universe"पर कोई प्रश्न नहीं उठाया है जबकि कुछ वैज्ञानिको ने इस पर कार्य करना भी शुरू कर दिया है|

👉3. आचार्य जी वेद के "एतेरेय ब्राम्हण” विज्ञान का वैज्ञानिक भाष्य पूरा कर रहे हैं जो की विश्व में सर्वप्रथम हो रहा है |

👉4. आचार्य जी ने कई वैज्ञानिकों और स्टीफन हॉकिंग जैसे वैज्ञानिकों को आधुनिक science पर कई आक्षेप लिख कर भेजे जिनका जवाब स्टीफन और अन्य वैज्ञानिको के पास नहीं है |

👉5..एक तरफ हजारो वैज्ञानिक इसी खोज में सर्न प्रयोगशाला में लगे है वाही दुसरी तरफ आचार्य जी अकेले कठिन परिश्रम कर रहे है और आचार्य जी ने दावा किया है की वे सर्न से पहले यह सब खोज लेंगे |

निष्कर्ष :- मित्रो यह अब तक की सबसे बड़ी रिसर्च होगी तथा इस से हमारे भारत देश का खोया वेद विज्ञान पुनर्स्थापित होगा |

विज्ञान वेद के पीछे चलेगा न की वेद विज्ञान के पीछे |

संसार में फैले धार्मिक आडंबर , धर्म के नाम पर फैले गलत मत , मतान्तर नष्ट हो जायेंगे और विशुद्ध वैदिक मत की स्थापना होगी |


आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक ने वेदिक सिद्धांतों से विश्व के वेज्ञानिकों को चकित किया (आचार्य जी वेदों से सृष्टि विज्ञान के बारे में शोध कर रहे है )-

प्रस्तुत है उनकी पुस्तक मेरा जीवन व्रत से -


कुछ विज्ञान बुद्धि वाले आधुनिक व्यक्ति प्रायः प्रश्न करते है की वैदिक लोग एक सुई तक न बना पाये और प्रतीज्ञा करते है की आधुनिक विज्ञान अधूरा है

हमारा वेद सम्पूर्ण विज्ञान है अन्य प्रश्न भी है इन प्रश्नों का सामना करते हुये मुझे वेज्ञानिक मंडली में रक्षा प्रयोगशाला जोधपुर में जुलाइ २००५ में करना पड़ा एक वेज्ञानिक ने मुझसे कहा संस्कृतज्ञ और वैदिक लोग नकल करने में बहुत चतुर होते है जो भी आधुनिक विज्ञान बड़ा अविष्कार करते है उसे ही वेद मे ढूंढकर दिखाते है और कहते है हमारे वेद व ऋषि ग्रंथों में यह पहले से विध्यमान है आज तक आप लोगों ने कोई नया अविष्कार करके नहीं बताया है इसका उत्तर मेने यह कहकर दिया “मेने अपनी पुस्तक में आपके विज्ञान की कहीं नकल नहीं की बल्कि आपके प्रशिद्ध सिद्धांतों की भूलें दिखाकर उनका समाधान अपने मस्तिष्क व वैदिक विज्ञान से दिया है जो संसार में अन्यत्र नहीं मिलेगा ”


मेरे उत्तर से वे भौंचक्के रह गये वहीं पर पदमभूषण से सम्मानित अंतर्रस्ट्रीय वेज्ञानिक प्रो अजीतरंजी को मेने वेदग्यों साधु संतों पर व्यंग्य करते देखा “आप लोग व्यर्थ प्रश्न ही करते है जैसे बिग बेंग से पूर्व क्या था ,उससे पूर्व क्या था ….|

इन प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है प्रश्न करने में कुछ खर्च नहीं होता ” उस वेज्ञानिक मंडली के मध्य मेने तत्काल यह उत्तर दिया “मान्य प्रो साहब में आपसे प्रश्न करने नहीं आया हु की बिग बेंग से पूर्व क्या था बल्कि उत्तर देने आया हु बिग बेंग सिद्धांत क्यूं गलत है ?

मे न सिर्फ ये बताने आया हु न केवल बिग बेंग से पूर्व क्या था बल्कि सबसे पूर्व क्या था ?”

तब उन्होने आशचर्यचकित हो कर मुझ साधु वेशधारी से कहा की मे आपकी पुस्तक अवश्य पढूंगा २००४ वर्ल्ड कांग्रेस ओन वेदिक साइंसेस में जब सभी वेज्ञानिकों व विद्वानों ने वेद मंत्रों का गलत अर्थ करके विज्ञान से शंकर अद्वैतवाद की पुष्टि की तब आचार्य जी ने उनकी गलत धारणाओं का खंडन कर कहा की जब तक ब्रम्ह सूत्र मे जनमध्यष्य यतः सूत्र जीवित है संसार का कोई विद्वान ब्रम्ह सूत्रों से शंकर अद्वैतवाद की सिद्धि नहीं कर सकता |

और बाद में आचार्य जी ने त्रैतवाद की सिद्धांत को सिद्ध करते हुये बिग बेंग की धारना का खंडन किया व एक सिद्धांत वेज्ञानिकों के समक्ष सिद्ध किया की शून्य आयतन में अनन्त द्रव्यमान व उर्जा का होना संभव नहीं जिस सिद्धांत से बाद मे भाभा सेंटर के वेज्ञानिक मित्रा जी ने नासा में स्टीफन हॉकिंग के सिद्धांत का खंडन किया और दुनिया मे सबसे महान माने जाने वाले वेज्ञानिक स्टीफन ने अपनी गलती स्वीकार करनी पड़ी
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है󝰼󞰼󝴓३म्🌷🌻🌷 🌷ईश्वर का स्वरुप🌷 अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः। प्रिया...

है󝰼󞰼󝴓३म्🌷🌻🌷

🌷ईश्वर का स्वरुप🌷

अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः।
प्रिया पदानि पश्वो निपाहि विश्वायुरग्ने गुहा गुहं गाः ।।–(ऋ० १/६७/३)
अर्थ:-जैसे अज अर्थात् न जन्म लेने वाला अजन्मा परमेश्वर न टूटने वाले विचारों से पृथिवी को धारण करता है,विस्तृत अन्तरिक्ष तथा द्यौलोक को रोके हुए है,प्रीतिकारक पदार्थों को देता है,सम्पूर्ण आयु देने वाला,बंधन से सर्वथा छुड़ाता है,बुद्धि में स्थित हुआ वह गोप्य पदार्थ को जानता है,वैसे तू भी हे विद्वान जीव!हमें प्राप्तव्य की प्राप्ति करा।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते ।
तस्य योनि परिपश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ।।-(यजु० ३१/१९)
अर्थ:-अपने स्वरुप से उत्पन्न न होने वाला अजन्मा परमेश्वर,गर्भस्थ जीवात्मा और सबके ह्रदय में विचरता है और उसके स्वरुप को धीर लोग सब और देखते हैं।उसमें सब लोक लोकान्तर स्थित है।

ब्रह्म वा अजः ।-(शतपथ० ६/४/४/१५)
ब्रह्म ही अजन्मा है।

उपनिषदों में भी परमात्मा को स्थान-स्थान पर अजन्मा वर्णन किया है–

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो प्रवदन्ति नित्यम् ।।-(श्वेता० ३/२१)

मैं उस ब्रह्म को जानता हूं जो पुराना है और अजर है।
सबका आत्मा और विभु होने से सर्वगत है।ब्रह्मवादी जिसके जन्म का अभाव बतलाते हैं क्योंकि वह नित्य है।

एकधैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम् ।
विरजः पर आकाशदजं आत्मा महान् ध्रुवः ।।-(बृहरदार० ४/४/२०)
अर्थ-इस अविनाशी अप्रमेय ब्रह्म को एक ही प्रकार से देखना चाहिये,वह मल से रहित,आकाश से परे,जन्म-रहित आत्मा महान और अविनाशी है।

दिव्यो ह्यमूर्त्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः ।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः ।।-(मुण्ड० २/२)
अर्थ:-वह दिव्य पुरुष(परमात्मा) बिना मूर्ति के है,बाहर और अन्दर दोनों जगह विद्यमान है।बिना प्राण और मन के है।शुभ्र है और अव्यक्त प्रकृति के परे है।

अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ।।-(श्वेता० २/१५)
अजन्मा,ध्रुव,सारे तत्त्वों से अलग परमात्मदेव को ब्रह्मतत्त्वदर्शी जानकर पाशों से छूट जाते हैं।

स वा एष महानज आत्माsजरोsमरोsमृतोsभयं ब्रह्म ।-(बृह० ४/४/२५)
अर्थ:-वह महान् अजन्मा आत्मा,अजर,अमर,अभय,अमृत ब्रह्म है।

दर्शनशास्त्र भी परमात्मा को अजन्मा ही बताते हैं:-

उत्पत्त्यसंभवात् ।-वेदान्त० २/२/३९)
ईश्वर के जन्म का असंभव पाये जाने से उसका कोई कर्त्ता नहीं।

न च कर्त्तुः करणम्।-(वेदान्त० २/२/४०)
और न उस कर्त्ता परमात्मा का कोई करण इन्द्रियादि है।

करणवच्चेन्न भोगादिभ्यः ।-(वेदा० २/२/३७)
अर्थात् लोकदृष्टि के अनुसार परमात्मा का भी इन्द्रियों का अधिष्ठान यदि शरीर मानें तो ठीक नहीं,क्योंकि ईश्वर के शरीर वा इन्द्रियादि मानने से उसे भी संसारी जीवों की तरह सुख-दुःख-भोक्ता मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से ईश्वर भी अनीश्वर हो जायेगा।

उपनिषदों के और उद्वरण देखिये:-

अशरीरं शरीरेषु अनवस्थेष्ववस्थितम् ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ।।-(कठोप० १/२/२२)

वह परमात्मा लोगों के शरीर में रहते हुए भी स्वयं शरीर-रहित है।बदलने वाली वस्तुओं में एकरस(न बदलने वाला) है।उस महान् विभु आत्मा को जानकर धीर पुरुष शोकमुक्त हो जाता है।

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाsरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तं मृत्युमुखात्प्रमुच्यते ।।-(कठ० ३/१५)
अर्थ:-वह ब्रह्म शब्द नहीं,स्पर्श नहीं,रुप नहीं,इस प्रकार रस नहीं और न गन्ध वाला है।वह अविनाशी,सदा एकरस रहने वाला,अनुत्पन्न,सीमा-रहित महत्तत्व से भी सूक्ष्म,अचल है।उसको निश्चयात्मक रीति से जानकर मनुष्य मौत के मुख से छूट जाता है।

अणोरणीयान् महतोमहीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः ।।-(कठ० 2/20)
अर्थ:-ब्रह्म सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म है,बड़े से भी बड़ा है।वह प्राणी के ह्रदयाकाश में स्थित है।उसकी महिमा को बुद्धि के निर्मल होने से निष्काम शोक रहित प्राणी देखता है।

इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्त्वादपि महानात्मा महतोsव्यक्तमुत्तमम् ।।-(कठ० 6/7)
अव्यक्तातु परः पुरुषो व्यापकौsलिंग एव च ।
यज्ज्ञात्वा मुच्यतेजन्तुरमृतत्वं च गच्छति ।।-(कठ० 6/8)

अर्थ:-इन्द्रियों से मन सूक्ष्म है,मन से सूक्ष्म अहंकार है।अहंकार से भी सूक्ष्म महत्तत्व है तथा महत्तत्व से भी सूक्ष्म प्रकृति और जीवात्मा है।जीव और प्रकृति से भी सूक्ष्म परमात्मा है जोकि व्यापक और चिन्ह आदि से रहित निराकार है,जिसको जानकर मनुष्य दुःखों से छूट जाता है और अमृतत्व को प्राप्त होता है।

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कच्श्रनैनम् ।
ह्रदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ।।-(कठ० 6/9)
इस ब्रह्म का कोई रुप सामने नहीं है और न आँखों से इसे कोई देख सकता है।यह ह्रदय,मन तथा बुद्धि से ज्ञात होता है।जो लोग इसे जानते हैं वे अमृत हो जाते हैं।

यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुः श्रोत्रं तदपाणिपादम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः ।।-(मु० 1/1/6)
अर्थ:-जो परमात्मा न देखा जाता है,न पकड़ा जाता है,जिसका कोई गोत्र नहीं,वर्ण नहीं,जिसके न नेत्र हैं,न श्रोत्र,न हाथ,न पाँव हैं,वह नित्य है,व्यापक है,सर्वगत है और बड़ा सूक्ष्म तथा अव्यय है।उसी जगत के निमित्त-कारण ब्रह्म को धीर पुरुष सर्वत्र देखते हैं।

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ।।-(मुं० 3/1/8)
वह ब्रह्म आँख से ग्रहण नहीं किया जाता।उसे न वाणी से,न अन्य इन्द्रियों से,न तप से और न कर्म से ग्रहण किया जा सकता है।अपितु ज्ञान की महिमा से शुद्ध अन्तःकरणवाला होकर ध्यान करता हुआ ही उस कला-रहित ब्रह्म को देख सकता है।

अपाणिपादो जवनो गृहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्य न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ।।-(श्वेता० 3/19)
अर्थ:-वह बिना हाथ के सबका ग्रहण करने वाला तथा बिना पाँव के वेगवाला है।बिना नेत्र के देखता और बिना कान के सुनता है।वह हर एक जानने योग्य वस्तु को जानता है,पर उसका अंत जानने वाला कोई नहीं।ज्ञानी लोग उसको मुख्य महान् पुरुष कहते हैं।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ।।-(श्वेता० 4/14)
अर्थ:-वह ईश्वर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है।वह इस जगत और उसके प्रत्येक पदार्थ में व्यापक है।उसी ने इस विश्व और इसके रुप वाले पदार्थों को रचा है।वह सारे संसार को घेरे हुए है।उसी कल्याण स्वरुप प्रभु को जानकर मनुष्य अत्यन्त शान्ति को प्राप्त होता है।

न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
पराSस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ।।-(श्वेता० 6/8)
उसका कोई कार्य नहीं,उसके इन्द्रियादि करण नहीं।न कोई उसके समान और न कोई उससे अधिक है।उसकी शक्ति सबसे महान है।उसमें ज्ञान,बल और कार्य करने की शक्ति स्वभाव से है।

न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिंगम् ।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ।।-(श्वेता० 6/9)
अर्थ:-लोक में कोई उस परमात्मा का स्वामी नहीं,न उस पर कोई शासन करने वाला है और न उसका कोई चिन्ह है।वह जगत का निमित्त कारण है।वह इन्द्रियों के स्वामी जीवात्माओं का भी स्वामी है।वह न किसी से उत्पन्न हुआ है और न उसका कोई स्वामी है।

उपर्युक्त समस्त उपनिषद वाक्य जहाँ परमात्मा को सुस्पष्ट रुप में निराकार वर्णन करते हैं,वहाँ यह भी बताते हैं कि उसे शुद्ध अन्तःकरण से ध्यान द्वारा ही जीवात्मा में ग्रहण किया जाता है।

एकेश्वरवाद के वेद के मन्त्र देखिये:-

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यं स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।।-(ऋग्० 1/164/46)
अर्थ:-एक सद् परमात्मा को इन्द्र,मित्र,वरुण,अग्नि,दिव्य,सुपर्ण,गरुत्मान,यम तथा मातरिश्वा आदि नाम देते हैं,अर्थात् इन नामों से उस एक ही प्रभु का वर्णन होता है।

यजुर्वेद में ईश्वर को अग्नि,वायु,आदित्य,चन्द्रमा तथा शुक्र आदि कहा गया है:-
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रं तद् ताs आपः स प्रजापतिः ।।-( यजु० 32/1)
अग्नि,आदित्य,वायु,चन्द्रमा,शुक्र,ब्रह्म,आपः,प्रजापति इन शब्दों द्वारा परमात्मशक्ति का बोध होता है,अर्थात् प्रकाशस्वरुप होने से उस परमात्मा का नाम अग्नि,कभी विनाश न होने से आदित्य,जगत का धारण तथा जीवन होने से वायु,आनन्दस्वरुप होने से चन्द्रमा,अत्यन्त पवित्र होने से शुक्र,सबसे बड़ा होने से ब्रह्म तथा प्रजा का पालन करने से प्रजापति है।

परमात्मा एक ही है।अथर्ववेद के काण्ड 13,प्र० 5 के मंत्र हैं:-

न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते । 16 ।।
न पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते ।17 ।।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते । 18 ।।

अर्थ:-ईश्वर न दूसरा है,न तीसरा है,न ही चौथा कहलाता है। 16 ।।
न पाँचवाँ है,न छठा है,न सातवाँ ही कहलाता है। 17 ।।
न आठवाँ है,न नवाँ है,न ही दसवाँ कहलाता है। 18 ।।

तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव ।-(अथर्व० 13/20)
अर्थ:-वह सर्वशक्ति है,वह एक है,एकवृत और एक है।


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यजुर्वेद १०-२४ (10-24) ह॒सः शु॑चि॒षद्वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत् ।...

यजुर्वेद १०-२४ (10-24)

ह॒सः शु॑चि॒षद्वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत् । नृ॒षद्व॑र॒सदृ॑त॒सद्व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जाऽऋ॑त॒जाऽअ॑द्रि॒जा ऋ॒तम्बृ॒हत् ॥

भावार्थ:- मनुष्यों को उचित है कि सर्वत्र व्यापक और पदार्थो की शुद्धि करनेहारे ब्रह्मा परमात्मा ही की उपासना करें, क्योंकि उस की उपासना के बिना किसी को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से होने वाला पूर्ण सुख कभी नहीं हो सकता।।

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संविधान की पुनर्रचना जरूरी...

संविधान की पुनर्रचना जरूरी क्यों?
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दो सितम्बर 1953 को राज्यसभा में सांसद के नाते डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि, “लोग मुझे संविधान का निर्माता कहते हैं, लेकिन मैं बताना चाहता हूँ कि मैं उस समय भाड़े का टटू था। हम वकील लोग अनेक चीजों की वकालत करते हैं लेकिन अध्यक्ष महोदय! मैं यह कहने को बिलकुल तैयार हूँ कि इसे जलाने वाले लोगों में मैं पहला व्यक्ति होऊँगा क्योंकि यह किसी के हित में नहीं है।”
27 जुलाई 1946 को संविधान सभा के गठन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जिन्ना ने मुस्लिम लीग की बैठक में कहा था कि यह संविधान सभा वैसी नहीं है जैसी कि हम में से अधिकाँश लोग चाहते थे। इसका जन्म विशेष परिस्थिति में हुआ है और इसके जन्म के पीछे ब्रिटिश सरकार का हाथ है।
-स्वामी मुक्तानंद सरस्वती लिखित
‘अभारतीय इन्डियन संविधान’ पुस्तक में से


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🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷 भूपेश आर्य 🌻गर्भवती स्त्री के लिए उपदेश🌻 गर्भवती स्त्री के लिए शोक,चिन्ता,पुरुष...

🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷

भूपेश आर्य

🌻गर्भवती स्त्री के लिए उपदेश🌻

गर्भवती स्त्री के लिए शोक,चिन्ता,पुरुष स्पर्श,असमय सोना और जागना,ऊँचे नीचे स्थानों पर चलना,छलांग लगाना,बहुत जोर से कुछ चिर हंसना रोना,भूख प्यास धूप में चलना,थकान,बोझ उठाना,अधिक परिश्रम करना,घोड़े,टांगे,रिक्षा,स्कूटर,की ऊंची-नीची आदि गढ़ों वाली सड़क पर स्वारी,डरावनी कथा सुनना,जुलाब लेना,कुनीन बर्तना,गरम पदार्थ(जैसे छुआरा,सूखा नारियल,काजू,बैंगन,करेला,सूखा,बादाम,पिस्ता,गुड़,तिल,मोठ,मसूर,ब्रांडी,लहसुन,अण्ड़ा,लालमिर्च खाना और हर समय लेटे रहना निषिद्ध है।

मोटर और तांगे की स्वारी में अन्धेरे में और चलाने वाले की असावधानी से यह खतरा होता है कि सड़क में कहीं गड्ढ़ा होने से ऐसा झटका लगता है। कि रक्त जारी होकर गर्भपात हो जाता है।सावधान रहें।

मावा,मैदा,बारीक आटे की रोटी,उड़द,मसूर,कचनार,कचालू,मांस,खुम्भ,अनार,केला,दही,चावल,भिण्ड़ी विबन्ध अर्थात् कब्ज करते हैं।गर्भवती को कभी कब्ज न होने पाये।हो जाये तो दूध,दलिया,पालक,घिया तोरी,टिण्डा,चने का शोरबा,गाजर,मूली,शलजम,पत्तों वाले साग,खरबुजा,नाशपाती,लोकाट,पपिता आदि लाभदायक होंगे।

सोते समय दो तीन तोले गुलकन्द या एक तोला इसबगोल का छिलका या हरड़ का मुरब्बा थोड़े दूध के साथ निःसंकोच खिला सकते हैं।

यदि गर्भवती के किसी रोग के लिए हकीम,वैद्य या डाक्टर से औषधि मांगी जाए ,तो गर्भ का हाल बता देना अत्यन्त आवश्यक है।

चलना फिरना,सैर करना,सदा प्रसन्न रहना,नारियल या सरसों के तेल की मालिश करना,साफ सुथरे कपड़े पहनना,स्वस्थ बलिष्ठ सुन्दर योद्धा और सुचरित्र तथा धार्मिक महा-विद्वान् पुरुषों के चित्र देखना तथा पवित्र जीवन व्यतीत करना–ये बातें गर्भवती के लिए बहुत लाभदायक है।माता-पिता के स्वास्थय एवं उनके विचारों का सन्तान पर बहुत प्रभाव पड़ता है।बुद्धिमान और सुन्दर माता पिता के बच्चे प्रायः बुद्धिमान और सुन्दर ही होते हैं।
यह भी देखा गया है कि सहवास के समय माता या पिता में से कोई किसी रोग से पीड़ित हो,तो बच्चे के शरीर में भी उस रोग का विष जाकर आयु भर उसे दुःख देता है।नशे में चूर होकर सम्भोग करने वाले लोगों के बच्चे प्रायः दुराचारी,पागल और कुबुद्धि होते हैं।अश्लील उपन्यास पढ़ने वालों तथा विषय-सम्बन्धी बातें कहने सुनने और करने वालों के बच्चे बहुत विषय-विलासी,चालाक और नटखट होते हैं।

माता-पिता का क्रोधी होना,निन्दक होना,झूठा और चालाक होना,या सत्यवादी,धर्मात्मा होना आदि गुण-अवगुण भी सन्तान में प्रस्थान कर जाते हैं।

गर्भ के दिनों में स्त्री क्या खाये,जिससे स्वस्थ रहे और सन्तान भी स्वस्थ पैदा हो,यह अवश्य जानने योग्य बात है।प्रायः दाल,सब्जी,मक्खन,दूध,चावल,लस्सी,दही,घी,मलाई,ऋतु के ताजे फल,भिगोकर छिलका उतारे बादाम,मोटे आटे की रोटी,घी पड़ी हुई खिचड़ी, और दलिया लाभकारी है।
परन्तु गर्म चीजें-बैंगन,प्याज,अण्ड़ा,माँस,मछली,सिरका,बाजरा,काजू,छुआरा,नारियल आदि हानिकारक हैं।
वात,कफ,शीतल प्रकृति वाली स्त्रियाँ अनार,लस्सी,उड़द की दाल,ककड़ी,तरबूज आदि न खायें।

एक आँवले के उत्तम मुरब्बे पर एक चाँदी का वर्क,एक सोने का वर्क,इलायची के दानें और तबाशीर मोटी,एक एक माशा पीसकर लगातार प्रतिदिन प्रात।काल खा लेना चाहिये।गर्मियों में सोने का वर्क न मिलायें।
सबसे अधिक शक्तिदायक ‘सैर’ है ,अर्थात् प्रातः सांय घण्टा भर के लिए बाग-बगीचा में वायु सेवनार्थ जाना बहुत लाभदायक है।

कई स्त्रियाँ गर्भवती को मिथ्या परामर्श दिया करती हैं कि तुम्हें अपना और बच्चे का पालन करना है,इसलिए दुगना भोजन किया करो।यह उनकी बड़ी भूल है।अधिक खाने से गर्भवती का स्वास्थय बिगड़ जाता है।जितना वह प्रसन्नता पूर्वक खा सके और भली-भाँति पचा सके,तथा भोजन करके किसी प्रकार का पेट में बोझ न प्रतीत हो,उतना ही खाये।

कहा गया है कि 'गर्भवती की प्रत्येक इच्छा पूरी होनी चाहिये,'इसलिए वह जिस अच्छी या बुरी वस्तु की इच्छा करती है,वह लाकर देने का पूर्ण प्रयत्न किया जाता है।लोग इस नियम के समझने में भूल करते हैं।
अभिप्राय तो यह है,कि उसे प्रसन्न रखा जाये,किसी प्रकार का क्रोध,शोक या चिन्ता न होने पाये।यह नहीं कि किसी भूल पर सास ,ससूर,पति आदि उसे बुरा भला कहकर उसका जी जलाते रहें और उसके खाये-पिये का कोयला बनाते रहें।यह भी नहीं,कि गजनी या चूल्हे की मिट्टी,कोयला,आदि स्वास्थय नाशक,या रबड़ी,मावा,कचालू,मांस,उड़द आदि गरिष्ठ व तामसिक पदार्थ दिये जायें।

एक और बात ! गर्भ के पहले ६ महिनों में घर के काम काज आदि में उचित परिश्रम करती रहे और उसके बाद के तीन महिने थोड़ा काम और अधिक आराम करे।


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Monday, January 25, 2016

🌷🌻🌷ओ३म्🌷🌻🌷 भूपेश आर्य 🌷धर्म का वास्तविक स्वरुप🌷 धर्म विरोध का प्रथम कारण है धर्म के वास्तविक...

🌷🌻🌷ओ३म्🌷🌻🌷

भूपेश आर्य

🌷धर्म का वास्तविक स्वरुप🌷

धर्म विरोध का प्रथम कारण है धर्म के वास्तविक स्वरुप को न समझना।धर्म के वास्तविक स्वरुप को समझ लेने पर कोई धर्म का विरोध कर ही नहीं सकता।

धर्म का वास्तविक स्वरुप-

धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बना ह जिसका अर्थ है धारण करना।
धारणाद्धर्म:,अर्थात जो सबको धारण करता है वह धर्म है,अथवा जिसको सब धारण करते हैं,जिसके बिना किसी का निर्वाह ही नहीं,जिस बात से कोई संसार का मनुष्य इंकार न कर सके उसे धर्म कहते हैं।

जैसे सूर्य उदय होने पर उससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
दूसरी बात ये है कि धर्म सारे संसार के लिए एक है,पृथक-2 नहीं।जैसे सूर्य सबके लिए एक है अलग अलग नहीं।

मनु ने क्रियात्मिक धर्म का वर्णन किया है।
यथा: धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:।
धीर्विद्या सत्यम क्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।।

१.धृति-धैर्य रखना।
२.क्षमा-निर्बलों पर दया करना क्षमा है,क्षमा वीरों का भूषण और कमजोरों का दूषण है।
३.दम-मन को वश में रखना दम है,बिना मन को वश में किये कोई कार्य सफल नहीं होता।
४.अस्तेय-सोते मनुष्य की वस्तु उठा लेना,पागल से कोई वस्तु छीन लेना या असावधान मनुष्य से विविध उपायों द्वारा छल करके किसी भी वस्तु को ले लेना चोरी है।
वेद का आदेश है कि"मा गृद्ध: कस्य स्विद्धनम्" कि किसी के धन का लोभ मत करो।
५.शौच-जल से शरीर की,सत्य से मन की,विद्या और तप से आत्मा की और ज्ञान द्वारा बुद्धि की शुद्धि करना शौच कहलाता है।
६.इन्द्रियनिग्रह-इन्द्रियों को
वश में रखना रुप,रस,गन्ध,स्पर्श आदि विषयों के मर्यादा विरुद्ध सेवन से बचना।
याद रखो विष को खाने से मनुष्य मरता है परन्तु विषयों के स्मरण मात्र से ही मानव का नाश हो जाता है।
नाम अमृत को छोडकर करे विषय विष पान।
मन्द मति इस जीव को दे सुमति भगवान।।
७.धी-अर्थात बुद्धि के अनुकूल सोच समझ कर काम करना,बुद्धि विरुद्ध कार्यों से बचना।
वाणी दूषित विद्धा बिन,मन दूषित बिन ज्ञान।
प्रभु चिन्तन बिन चित्त,और बुद्धि दूषित बिन ध्यान।।

८.विद्या-अच्छे शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना और उनके अनुसार आचरण करना विद्या है।
९.सत्य-मन,वचन,कर्म की अनुकूलता का नाम सत्य है।
१०.अक्रोध-किसी से वैर विरोध,क्रोध न करना।

ये धर्म के दस क्रियात्मक लक्षण हैं।

नीति शास्त्र में निम्न लक्षण कहे हैं-
इज्याध्ययन दानानी तप: सत्यं धृति क्षमा ।
अलोभ इति मार्गोsयं धर्मस्याष्टविध:स्मृत: ।।
अर्थात यज्ञ करना,स्वाध्याय करना,दान देना,तप करना,सत्याचरण,धीरज धारण,क्षमा भाव रखना और लोभ न करना ये धर्म के आठ लक्षण हैं।

(2)-धर्म का दूसरा लक्षण-
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं,श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत।।
धर्म का सार सुनो और सुनकर मन में धारण करो,जो व्यवहार तुम्हें अपने लिए अच्छा नहीं लगता,वह दूसरों के लिए भी कभी मत करो।

(3)-वेदाज्ञा का पालन करना धर्म है-धर्मादपेतं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्।
न तत सेवेत मेधावी न तद्वित मिहोच्यते।।

अर्थात बुद्धिमान व्यक्ति धर्मरहित(वेद विरुद्ध) महाफल देने वाले कर्म का भी सेवन न करे,क्योकि धर्म विरुद्ध कर्म कभी भी हितकारक नहीं।
वह कर्म पीछे कर्ता का समूल नाश कर देता है।

(4)-धर्म का चौथा लक्षण है- “ सीमानोअनतिक्रमणं यत्तत् धर्मम्” सीमा या मर्यादा का अतिक्रमण न करना धर्म है।सब अपनी मर्यादा में चलें।स्वकीय कर्तव्य में तत्पर रहें।उसका उल्लंघन कभी न करें।

(5)-पांचवां लक्षण -जो प्राणीमात्र का कल्याण करने वाला कर्म है,जिससे प्राणीमात्र का हित हो,किसी का अहित न हो उसे धर्म कहते हैं।
यथा य एव श्रेयस्कर: स एव धर्म शब्देन उच्यते,मीमांसा भाष्य सूत्र १२
जिस काम से सबका कल्याण हो उसे धर्म शब्द से कहा जाता है।
इसलिए पुराने लोग प्रात: काल उठते ही ऊंचे स्वर से प्रार्थना करते सुनाई देते थे-
हे भगवान सबका भला,सबके भले में हमारा भी भला।।

(6)-धर्म का छठा लक्षण है-
योग के द्वारा आत्मदर्शन करना,अपने आपको पहचानना।
मैं क्या हूं, मैं संसार में क्यों आया हूं मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है।
इस जीवन के पश्चात क्या होगा इत्यादि,अत: “अयं तु परमोधर्मोयण्योगेनात्मदर्शनम्”
परन्तु आज संसार अन्य वस्तुओं को जानने में लगा है ।अपना पता ही नहीं।

(7)-सांतवा धर्म का लक्षण है-परमात्मा को सर्वज्ञ तथा सर्वव्यापक जानकर सब प्रकार के पापों से बचना,यथाशक्ति अपने आप को सब बुराईयों से बचाना चाहिये यही धर्म है।

(8)-धर्म का आठवां लक्षण है-विश्व की सेवा करना तथा परोपकार करना तथा किसी को किसी प्रकार से भी दु:खी न करना, यथा
“परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्” दूसरों का उपकार करना पुण्य और दूसरों को दु:ख देना पाप है।

(9)-धर्म का नवां लक्षण है-
वेद स्मृतिः सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।-(मनु० २/१२)

वेद=श्रुति,स्मृति,सदाचार,शीलादि और अपना सन्तोष,यह चार प्रकार का साक्षात् धर्म (मुनि लोग)कहते हैं।


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भारत

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🐒🐒हनुमान तांडव🐒🐒 ।। छंद रेणकी।। सुरताणिया जगमालसिंह'ज्वाला’ रचित दोहा डगमग...

🐒🐒हनुमान तांडव🐒🐒

।। छंद रेणकी।।
सुरताणिया जगमालसिंह'ज्वाला’ रचित
दोहा
डगमग पग लग डोलती,थग थग धरणी थाय।
भगतवसल इण भुवन से,जग जग जस नह जाय।1।
🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒
गढ़ लंका सब गोखड़ा,भांगया तु भरपूर।
उछल उछल उधयान में,रमे रास लंगूर।2।
🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒
रट रट मुख राम,निपट झट नटखट,परगट तांडव रुप रचे।
कट कट कर दंत,पटक झट तरु वट,लपट झपट कपि नाच नचे।
दट दट झट दोट,चोट अति चरपट,लट पट दाणव मार लहै।
जय जय हनुमान,जयति जय जय जय,बिकट पंथ बजरंग बहै।1।
🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒
फरररर आभ, पंथ बहे फररर,घररर नाद युँ साद घुरे।
डर डर कर सोय,अचर अरु वनचर,फर फर नभचर, आज फरे।
थर थर अति पीठ,कमठ थिर थिरके,ढररर लंका कोट ढहै।
जय जय हनुमान,जयति जय जय जय,बिकट पंथ बजरंग बहै।2।
🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒
हड़ड़ड़ हाक धाक देय हनुमंत,कड़ड़ड़ यु ब्रह्मण्ड कंपे।
गड़ड़ड़ गाज आभ होवे गड़ गड़,धड़ड़ड़ कोप धरा धरपे।
चड़ चड़ गिरी सूर,हूर हस हड़ हड़,तड़तड़ करतल नाद वहै।
जय जय हनुमान,जयति जय जय जय,बिकट पंथ बजरंग बहै।3।
🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒
बळ वळ अति प्रबळ,निर्मळ मुख मळकत,जळकत शशि जिम रूप जयो।
पळ पळ प्रतिबिम्ब,जळळ तळ थळ जळ,भळळळ भाण उजाण भयो।
हळळळ हीर वीर होवे हळ हळ,छळ छळ वपु वळ रुप वहै।
जय जय हनुमान,जयति जय जय जय,बिकट पंथ बजरंग बहै।4।
🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒
रजनीचर समर,धरे अज अनुचर कर कर धर वध,ढेर करे।
निरखत सब नजर,देव नर किन्नर,भर भर उर अति नूर भरे।
हर हर कर नगर डगर धर बंदर,घर घर अंदर अगन दहै।
जय जय हनुमान,जयति जय जय जय,बिकट पंथ बजरंग बहै।5।
🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒
खळ खळ अति रगत,बहे नद खळळळ,ढळळळ आंत्रड़ भोम ढळे।
खळ दळ झट मचळ,घसळ दय वळ वळ,गळळळ काळज पेट गळे।
दळ दळ सोय नाथ हाथ जु खळ दळ,पळ पळ शिव सब खबर लहै।
जय जय हनुमान,जयति जय जय जय,बिकट पंथ बजरंग बहै।6।
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दट दट भट मुंड, शुंड शर कट कट,लट लट धरणी सीस रढे।
पट पट भट हाथ लेय झट पटकत,चटकत प्राण जु बाण चढ़े।
गट गट झट गटक,झटक लहु जोगण,मरघट के सम लंक वहै।
जय जय हनुमान,जयति जय जय जय,बिकट पंथ बजरंग बहै।7।
🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒
भर भर भणडार,द्वार सुख सागर,नागर निश दिन आप नमों।
घर पर धन धान देय हर धीणो,समरथ कुण धर आप समों।
हर हर ‘जगमाल’,रटे निशि वासर,कथे छंद फरजंद कहै।
जय जय हनुमान,जयति जय जय जय,बिकट पंथ बजरंग बहै।8।
🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒🐒
🐒छप्पय🐒
कड़ड़ दंत कड़ड़ाट,नाट नटराज नचायो।
धड़ड़ धरा धड़ड़ाट,दाट दैतांण डचायो।
हड़ड़ हचे हडुमान,गान चारण मिळ गावै।
अखिल उचारे ओम,वयोम पुष्प वरसावे।
हसे हसे श्री राम हिव,छड़ड़ड़ शिव चलम छड़ड़ावे।
'जगमाल’ सि पोवे जबर, ,गड़ड़ गजब गीत गड़ड़ावे


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Thursday, January 21, 2016

📖________________✒ क्या आप जानते हैं, एसिडिटी की दवा से हो सकती है आपकी किडनी खराब। जब हम खाना...

📖________________✒

क्या आप जानते हैं, एसिडिटी की दवा से हो सकती है आपकी किडनी खराब।


जब हम खाना खाते हैं तो इस को पचाने के लिए शरीर में एसिड बनता हैं। जिस की मदद से ये भोजन आसानी से पांच जाता हैं। ये ज़रूरी भी हैं। मगर कभी कभी ये एसिड इतना ज़्यादा मात्रा में बनता हैं के इसकी वजह से सर दर्द, सीने में जलन और पेट में अलसर और अलसर के बाद कैंसर तक होने की सम्भावना हो जाती हैं।
ऐसे में हम नियमित ही घर में इनो या पीपीआई (प्रोटॉन पंप इनहिबिटर्स) दवा का सेवन करते रहते हैं। मगर आपको जान कर आश्चर्य होगा के ये दवाये सेहत के लिए बहुत खतरनाक हैं। पीपीआई ब्लड में मैग्नीशियम की कमी कर देता है। अगर खून पर असर पड़ रहा है तो किडनी पर असर पड़ना लाज़मी है। जिसका सीधा सा अर्थ की ये दवाये हमारी सेहत के लिए खतरनाक हैं। हमने कई ऐसे मूर्ख लोग भी देखे हैं जो एसिडिटी होने पर कोल्ड ड्रिंक पेप्सी या कोका कोला पीते हैं ये सोच कर के इस से एसिडिटी कंट्रोल होगा। ऐसे लोगो को भगवान ही बचा सकता हैं।
तो ऐसी स्थिति में कैसे करे इस एसिडिटी का इलाज।
आज हम आपको बता रहे हैं भयंकर से भयंकर एसिडिटी का चुटकी बजाते आसान सा इलाज। ये इलाज आपकी सोच से कई गुना ज़्यादा कारगार हैं। तो क्या हैं ये उपचार। ये हर रसोई की शान हैं। हर नमकीन पकवान इसके बिना अधूरा हैं। ये हैं आपकी रसोई में मौजूद जीरा। जी हाँ जीरा।
कैसे करे सेवन।
जब भी आपको एसिडिटी हो जाए कितने भी भयंकर से भयंकर एसिडिटी हो आपको बस जीरा कच्चा ही चबा चबा कर खाना हैं। एसिडिटी के हिसाब से आधे से एक चम्मच (ढाई से पांच ग्राम) जीरा खाए। इसके 10 मिनट बाद गुनगुना पानी पी ले। आप देखेंगे के आपकी समस्या ऐसे गायब हो गयी जैसे गधे के सर से सींग।
ये उपरोक्त नुस्खा मैंने बहुत लोगो पर आजमाया हैं। और उनका अनुभव ऐसा हैं के जैसे जादू। तो आप भी ये आजमाए।

______________✒वैदिक


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Wednesday, January 20, 2016

विश्व पुस्तक मेले में सत्यार्थ प्रकाश की धूम 🚩📙📙📙📙📙📙📙📙📙🚩 आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के तत्वाधान में...

विश्व पुस्तक मेले में सत्यार्थ प्रकाश की धूम
🚩📙📙📙📙📙📙📙📙📙🚩
आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के तत्वाधान में विश्व पुस्तक मेले (11-17 जन., 2016) में आकर्षक एवं विशाल स्टॉल लगए गए । इसके अतिरिक्त मेले में परोपकारिणी सभा, अजमेर का भी प्रभावशाली स्टॉल दर्शनीय था । गोबिंद राम हासानंद आदि कुछेक और भी स्टॉल थे, जहाँ से आर्य समाजिक साहित्य की रिकॉर्ड तोड़ विक्री हुई ।
एक ओर महत्वपूर्ण बात यह देखने को मिली कि देश के कोने कोने से इन स्टॉलों के माध्यम से आर्य समाज का वैचारिक सन्देश प्रसारित करने के उद्देश्य से अनेकों कार्यकर्ता सोत्साह अपनी सेवाएं उपलब्ध कराते रहे । प्रस्तुत हैं इस अवसर से सम्बंधित कुछेक महत्वपूर्ण एवं उत्साहवर्धक झलकियाँ :
1. स्वामी सम्पूर्णानंद जी, स्वामी आत्मानंद जी, गुरुकुलो के ब्रह्मचारीगण, डा. धर्मवीर जी द्वारा आर्यसमाजिक दृष्टिकोण से शंका समाधान गैर आर्यसमाजियों को विशेष रूप से निरुत्तर और ऋषि दयानन्द की विचारधारा की तरफ झुकाने में सक्षम वा सफल भूमिका निभाता रहा ।
2. सत्यार्थ प्रकाश और वेदों के सेट खरीदने में मुस्लिम विद्वानों, मौलानाओं, मदरसा के उस्तादों की रूचि आश्चर्य और उत्सुकता का विषय रही । वे आर्य समाज की मान्यताओं को लेकर तर्क वितर्क भी करते थे परंतु वे आर्य विद्वानों के तर्क सुन प्रायः निशब्द और हतप्रभ ही दिखाई देते थे । जबकि कुछ के चेहरों पर झल्लाहट, खीज, हठधर्मिता भी रही ।
3. बागपत से मौलाना अख्तर हुसैन, जो वहां एक मदरसे के प्रमुख हैं, ने शंका समाधान में आर्य समाज के तर्क और प्रमाणों के समक्ष अपनी पराजय स्वीकार की और कहा कि उनके पास पहले से ही हिंदी वा उर्दू में सत्यार्थ प्रकाश उपलब्ध है तथा वे आर्य समाज से प्रभावित हैं ।
4. इस्लाम के तथाकथित विद्वान् ज़ाकिर नाईक के उस्ताद श्री एस ए तारिक़ ने अपने अनेकों साथियों के साथ सभा के स्टॉल में पधार कर आर्य समाज का साहित्य देखा और खरीदा ।
5. चांदनी चौक, दिल्ली से कांग्रेस नेता श्री कौसर माबूदी ने बताया कि उनके पास उर्दू में चारों वेद और सत्यार्थ प्रकाश है। उन्होंने हिंदी के मूल सत्यार्थ प्रकाश को सहर्ष खरीदा । उन्होंने आर्य समाज के वहां उत्साहपूर्ण वातावरण को देख टिप्पणी की कि आर्य समाज अब पुनः अंगड़ाई ले चुका है और आर्य युवक अपने तर्कों से अपनी क्षमता का परिचय देने में समर्थ हैं ।
6. अन्य अनेकों मुस्लिम आगंतुकों में से फुरकान खान, जावेद मियां वा फरहान आदि ने भी मुझसे बातचीत के दौरान उक्त विचारों की पुष्टि की ।
7. सुदर्शन टी वी के प्रबंध निदेशक श्री सागर जी आर्य पुरुष वा महिला कार्यकर्ताओं को सोत्साह एवं आक्रामक ढंग से सत्यार्थ प्रकाश के विक्रय की सेवा करते देख बहुत प्रभावित हुए । उन्होंने आर्यसमाज को स्वसंस्कृति और स्वधर्म की रक्षा में अग्रणी बताया । सुदर्शन टी वी ने स्वामी सम्पूर्णानंद जी का सत्यार्थ प्रकाश को ले कर एक साक्षात्कार भी रिकॉर्ड किया ।
8. इंडोनेशिया से मेले में पधारे श्री धर्म यश, जो कि वहां बाली द्वीप से थे, आर्य समाज को लेकर अत्यंत उत्साही दिखे और मुझसे 3 सत्यार्थ प्रकाश खरीदते हुए उन्होंने बताया कि वे हिंदी जानते हैं और कई बार सत्यार्थ प्रकाश पढ़ चुके है और आर्य समाज से विशेष रूप से प्रभावित हैं ।
9. आर्य प्रतिनिधि सभा के सद्प्रयासों से 10 रुपए के मूल्य पर 18000 से अधिक सत्यार्थ प्रकाश विक्रय हुए । इसके अतिरिक्त परोपकारिणी सभा ने भी 3000 से अधिक सत्यार्थ प्रकाश वितरित किए एवं अन्यान्य स्टॉलों से भी सत्यार्थ प्रकाश विक्रय हुए । इस प्रकार हिंदी भाषा में सत्यार्थ प्रकाश ने समूचे मेले में सभी भाषाओं में विक्री होने वाली किसी एक पुस्तक की सर्वाधिक विक्री का रिकॉर्ड स्थापित किया । उर्दू, अंग्रेजी वा अन्य भाषाओं में सत्यार्थ प्रकाश की विक्री इसके अतिरिक्त रही और विशेष बात यह है कि सत्यार्थ प्रकाश की यह प्रतियां मुस्लिम सहित मुख्यतः गैर आर्य समाजियों के घरों में गई ।
10. वेदों के हिंदी अंग्रेजी के सेट और आर्य समाज का अन्यान्य साहित्य भी गैर आर्य समाजियों के हाथों प्रचूर मात्रा में गया । दिल्ली सभा और परोपकारिणी सभा, अजमेर का यह प्रयास अन्य सभाओं के लिए अनुकरणीय है ।
11. आर्ष साहित्य की बड़ी मात्रा में विक्री से उत्साहित दिल्ली सभा के महामंत्री श्री विनय आर्य जी ने आगामी वर्ष के पुस्तक मेले में इसबार से दोगुने स्तर पर साहित्य प्रचार की घोषणा की । सभा के स्टॉल पर बच्चों, युवकों, महिलाओं, वृद्ध पुरुषों को समर्पित भाव से सेवा करते देखना उत्साह और आनंद का विषय रहा । युवा वर्ग बड़ी संख्या में सेवा में तल्लीन रहा ।
12. दिल्ली सभा के स्टॉल पर 17 जनवरी को स्वामी अग्निवेश उपस्थित हुए और अनेको क्रेताओं ने सत्यार्थ प्रकाश उनके ऑटोग्राफ ले कर खरीदे ।
13. मेले में इस्लामिक स्टॉलों पर मुस्लिम युवक भोले भाले हिंदुओं को आकर्षित करने में सक्रिय थे और निशुल्क कुरआन के अंक और सी डी वितरित करते रहे । इसी प्रकार ईसाई मिशनरीज़ भी निशुल्क बाइबल वितरित करते रहे ।
14. मेले में जहाँ राधा स्वामी, नूरमहल के जागृति मंच ( गुरु आशुतोष सम्प्रदाय ), कबीरपंथी, आनंद पुरी वा अन्यान्य भी देखे गए वहां बापू आसाराम के स्टॉल पर निशुल्क साहित्य वितरित करते उनके कार्यकर्ता बड़ी संख्या में सक्रिय थे ।
- सुभाष दुआ 🙏🙏🙏🙏


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लीजिये थोडा विस्तृत अध्ययन कीजिये।👇🏿 कौन थी राधा?? श्री कृष्ण भगवान् को राधा के साथ जोड़ना।...

लीजिये थोडा विस्तृत अध्ययन कीजिये।👇🏿


कौन थी राधा??


श्री कृष्ण भगवान् को राधा के साथ जोड़ना। अश्लीलता भरा वर्णन करना। प्रेम लीला रास लीला दिखाना। 16108 गोपियों से शादी करना।

अनेक आरोप पुराणों में लगाये गए हैं।
पुराण मुग़ल काल ( गुलामी काल में ) हिंदुओं को भ्रमित करने हुतु लिखे या लिखवाये गए थे।


अरे कृष्ण के साथ राधा का नाम जोड़के आप खुद ही भगवान् श्रीकृष्ण को गाली दे रहे हो। और गर्व महसूस करते हो हिन्दुओ!!! अब तो श्याम चूड़ी भी बेचने लगा। वो भी छलिया का भेष बनाकर।


जरा सोचो यही है मिलावट। 10 - 20 या सौ - दो सौ वर्षों बाद कोई पढ़ेगा तो वो समझेगा की श्री कृष्ण जी चूड़ी भी बेचते थे।

अरे वे राजा थे। कोई भिखारी थोड़े न थे।

योगिराज धर्म संस्थापक श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र में कहीं भी कलंक नहीं है। वे संदीपनी ऋषि के आश्रम में शिक्षा दीक्षा लिए तो रास लीला रचाने गोपियो और राधा के बीच कब आ गए ?। अपनी बुद्धि खोलो और विचारो।


श्री कृष्ण जी वेदों और योग के ज्ञाता थे। उनके जीवन पर कलंक मत लगाओ हिंदुओं। जागो। कब तक सोते रहोगे??।


श्री कृष्ण भगवान् सम्पूर्ण ऐस्वर्य के स्वामी थे। दयालु थे। योगी थे। वेदों के ज्ञाता थे। वेद ज्ञाता न होते तो विश्वप्रसिद्ध “गीता का उपदेश ” कैसे देते?


जो श्री कृष्ण जी मात्र एक विवाह रुक्मिणी से किये और विवाह पश्चात् भी 12 वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन किया । तत्पश्चात प्रद्युम्न नाम का पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। ऐसे योगी महापुरुष को रास लीला रचाने वाले छलिया चूड़ी बेचने वाला 16 लाख शादिया करने वाला आदि लांछन लगाते शर्म आनी चाहिए।

अपने महापुरुषों को जानो भाइयों।

जिस श्री कृष्ण का नाम तुम लोग राधा के साथ जोड़ते हो जान लो राधा क्या थी उनकी…………

राधा का नाम पुराणों में आता है। सम्पूर्ण महाभारत में केवल कर्ण का पालन करने वाली माँ राधा को छोड़कर इस काल्पनिक राधा का नाम नहीं है, भागवत् पुराण में श्रीकृष्ण की बहुत सी लीलाओं का वर्णन है, पर यह राधा वहाँ भी नहीं है. राधा का वर्णन मुख्य रूप से ब्रह्मवैवर्त पुराण में आया है. यह पुराण वास्तव में कामशास्त्र है, जिसमें श्रीकृष्ण राधा आदि की आड़ में लेखक ने अपनी काम पिपासा को शांत किया है, पर यहाँ भी मुख्य बात यह है कि इस एक ही ग्रंथ में श्रीकृष्ण के राधा के साथ भिन्न-भिन्न सम्बन्ध दर्शाये हैं, जो स्वतः ही राधा को काल्पनिक सिद्ध करते हैं. देखिये- ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखंड के पाँचवें अध्याय में श्लोक 25,26 के अनुसार राधा को कृष्ण की पुत्री सिद्ध किया है. क्योंकि वह श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से उत्पन्न हुई बताया है. ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रकृति खण्ड अध्याय 48 के अनुसार राधा कृष्ण की पत्नी (विवाहिता) थी, जिनका विवाह ब्रह्मा ने करवाया. इसी पुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय 49 श्लोक 35,36,37,40, 47 के अनुसार राधाा श्रीकृष्ण की मामी थी. क्योंकि उसका विवाह कृष्ण की माता यशोदा के भाई रायण के साथ हुआ था.

गोलोक में रायण श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था. अतः गोलोक के रिश्ते से राधा श्रीकृष्ण की पुत्रवधु हुई. क्या ऐसे ग्रंथ और ऐसे व्यक्ति को प्रमाण माना जा सकता है?

हिन्दी के कवियों ने भी इन्हीं पुराणों को आधार बनाकर भक्ति के नाम पर शृंगारिक रचनाएँ लिखी हैं. ये लोग महाभारत के कृष्ण तक पहुँच ही नहीं पाए. जो पराई स्त्री से तो दूर, अपनी स्त्री से भी बारह साल की तपस्या के बाद केवल संतान प्राप्ति हेतु समागम करता है, जिसके हाथ में मुरली नहीं, अपितु दुष्टों का विनाश करने के लिए सुदर्शन चक्र था, जिसे गीता में योगेश्वर कहा गया है. जिसे दुर्योधन ने भी पूज्यतमों लोके (संसार में सबसे अधिक पूज्य) कहा है, जो आधा पहर रात्रि शेष रहने पर उठकर ईश्वर की उपासना करता था, युद्ध और यात्रा में भी जो निश्चित रूप से संध्या करता था. जिसके गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र को ऋषि दयानन्द ने आप्तपुरुषों के सदृश बताया, बंकिम बाबू ने जिसे सर्वगुणान्ति और सर्वपापरहित आदर्श चरित्र लिखा, जो धर्मात्मा की रक्षा के लिए धर्म और सत्य की परिभाषा भी बदल देता था. ऐसे धर्म-रक्षक व दुष्ट-संहारक कृष्ण के अस्तित्त्व पर लांछन लगाना ठीक नहीं है।।


सच को स्वीकारें।

असत्य को त्यागें।
🙏🏻


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७ माघ 20 जनवरी 2016 😶 “ व्रत पालन करो ! ” 🌞 🔥🔥 ओ३म् न देवनामति व्रतं...

७ माघ 20 जनवरी 2016

😶 “ व्रत पालन करो ! ” 🌞

🔥🔥 ओ३म् न देवनामति व्रतं शतात्मा चन जीवति । 🔥🔥
🍃🍂 तथा युजा वि वावृते ।। 🍂🍃

ऋक्० १० । ३३ ।९

ऋषि:- कवय ऐलूष: ।। देवता- उपमश्रवा मैत्रातिथि: ।। छन्द:- गायत्री ।।

शब्दार्थ- देवों के अटल नियम को अतिक्रमण करके सौ मनुष्यों की शक्ति रखनेवाला, शतगुणा वीर्यवाला पुरुष भी नहीं जीता, बचता। और वैसे ही, वह अपने साथी से, साथी की सहायता से वियुक्त हो जाता है।

विनय:- मनुष्यों!
देखो, देव लोग अपने व्रतपालक में बड़े कठोर हैं। इन देवों के नियम अटल हैं। ये किसी के लिए टल नहीं सकते। इन ईश्वरीय नियमों को तोड़ने का यत्न करना बड़ी मूर्खता है। इन्हें तोड़ने का यत्न करनेवाला टूट जाएगा, पर ये नियम न तोड़े जा सकेंगे। इनका अतिक्रमण करके, इनका उल्लंघन करके ‘शतात्मा’ पुरुष भी नहीं बच सकता, सौ मनुष्यों की शक्ति रखनेवाला, शतगुणा वीर्य रखनेवाला मनुष्य भी जीवित नहीं रह सकता। उसे भी व्रत-भंग पर अपने बड़े-से-बड़े साथी से बलात् वियुक्त हो जाना पड़ता है। दैव नियमों का भंग करने पर हमारे सब सम्बन्ध विच्छिन हो जाते हैं, हमारे सब जोड़ टूट जाते हैं। उस समय हमारी सहायता करना चाहता हुआ भी हमारा बलवान्-से-बलवान् जोड़ीदार, हमारा समर्थ-से-समर्थ साथी, हमारी सहायता नहीं कर सकता। उसके देखते-देखते हमें नियमभंग का कठोर दण्ड भोगना पड़ता है। वह भी हमें बचा नहीं सकता। इसलिए हे भाइयों! हमें कभी मद में आकर, अपने किसी भी प्रकार के बल के घमण्ड में आकर, कभी भूलकर भी देवों के व्रतों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए, देवों के नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।


🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂
ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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नियोग और नारी नियोग और नारी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चतुर्थ समुल्लास के क्रम सं0 120 से 149 तक की...

नियोग और नारी

नियोग और नारी
‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चतुर्थ समुल्लास के क्रम सं0 120 से 149 तक की सामग्री पुनर्विवाह और नियोग विषय से संबंधित है। लिखा है कि

द्विजों यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में पुनर्विवाह कभी नहीं होने चाहिए। (4-121)
स्वामी जी ने पुनर्विवाह के कुछ दोष भी गिनाए हैं जैसे -
(1) पुनर्विवाह की अनुमति से जब चाहे पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष छोड़कर दूसरा विवाह कर सकते हैं।
(2) पत्नी की मृत्यु की स्थिति में अगर पुरुष दूसरा विवाह करता है तो पूर्व पत्नी के सामान आदि को लेकर और यदि पति की मृत्यु की स्थिति में स्त्री दूसरा विवाह करती है तो पूर्व पति के सामान आदि को लेकर कुटुम्ब वालों में झगड़ा होगा।
(3) यदि स्त्री और पुरुष दूसरा विवाह करते हैं तो उनका पतिव्रत और स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाएगा।
(4) विधवा स्त्री के साथ कोई कुंवारा पुरुष और विधुर पुरुष के साथ कोई कुंवारी कन्या विवाह न करेगी। अगर कोई ऐसा करता है तो यह अन्याय और अधर्म होगा। ऐसी स्थिति में पुरुष और स्त्री को नियोग की आवश्यकता होगी और यही धर्म है। (4-134)

किसी ने स्वामी जी से सवाल किया कि अगर स्त्री अथवा पुरुष में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है और उनके कोई संतान भी नहीं है तब अगर पुनर्विवाह न हो तो उनका कुल नष्ट हो जाएगा। पुनर्विवाह न होने की स्थिति में व्यभिचार और गर्भपात आदि बहुत से दुष्ट कर्म होंगे। इसलिए पुनर्विवाह होना अच्छा है। (4-122)
जवाब दिया गया कि ऐसी स्थिति में स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य में स्थित रहे और वंश परंपरा के लिए स्वजाति का लड़का गोद ले लें। इससे कुल भी चलेगा और व्यभिचार भी न होगा और अगर ब्रह्मचारी न रह सके तो नियोग से संतानोत्पत्ति कर ले। पुनर्विवाह कभी न करें। आइए अब देखते हैं कि ‘नियोग’ क्या है ?

अगर किसी पुरुष की स्त्री मर गई है और उसके कोई संतान नहीं है तो वह पुरुष किसी नियुक्त विधवा स्त्री से यौन संबंध स्थापित कर संतान उत्पन्न कर सकता है। गर्भ स्थिति के निश्चय हो जाने पर नियुक्त स्त्री और पुरुष के संबंध खत्म हो जाएंगे और नियुक्ता स्त्री दो-तीन वर्ष तक लड़के का पालन करके नियुक्त पुरुष को दे देगी। ऐसे एक विधवा स्त्री दो अपने लिए और दो-दो चार अन्य पुरुषों के लिए अर्थात कुल 10 पुत्र उत्पन्न कर सकती है। (यहाँ यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यदि कन्या उत्पन्न होती है तो नियोग की क्या ‘शर्ते रहेगी ?) इसी प्रकार एक विधुर दो अपने लिए और दो-दो चार अन्य विधवाओं के लिए पुत्र उत्पन्न कर सकता है। ऐसे मिलकर 10-10 संतानोत्पत्ति की आज्ञा वेद में है।
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि।
(ऋग्वेद 10-85-45)
भावार्थ ः ‘‘हे वीर्य सेचन हार ‘शक्तिशाली वर! तू इस विवाहित स्त्री या विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्य युक्त कर। इस विवाहित स्त्री से दस पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान। हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष या नियुक्त पुरुषों से दस संतान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ।’’ (4-125)

वेद की आज्ञा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णस्थ स्त्री और पुरुष दस से अधिक संतान उत्पन्न न करें, क्योंकि अधिक करने से संतान निर्बल, निर्बुद्धि और अल्पायु होती है। जैसा कि उक्त मंत्र से स्पष्ट है कि नियोग की व्यवस्था केवल विधवा और विधुर स्त्री और पुरुषों के लिए नहीं है बल्कि पति के जीते जी पत्नी और पत्नी के जीते जी पुरुष इसका भरपूर लाभ उठा सकते हैं। (4-143)

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृराावन्नजामि।
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत्।
(ऋग्वेद 10-10-10)
भावार्थ ः ‘‘नपुंसक पति कहता है कि हे देवि! तू मुझ से संतानोत्पत्ति की आशा मत कर। हे सौभाग्यशालिनी! तू किसी वीर्यवान पुरुष के बाहु का सहारा ले। तू मुझ को छोड़कर अन्य पति की इच्छा कर।’’
इसी प्रकार संतानोत्पत्ति में असमर्थ स्त्री भी अपने पति महाशय को आज्ञा दे कि हे स्वामी! आप संतानोत्पत्ति की इच्छा मुझ से छोड़कर किसी दूसरी विधवा स्त्री से नियोग करके संतानोत्पत्ति कीजिए।

अगर किसी स्त्री का पति व्यापार आदि के लिए परदेश गया हो तो तीन वर्ष, विद्या के लिए गया हो तो छह वर्ष और अगर धर्म के लिए गया हो तो आठ वर्ष इंतजार कर वह स्त्री भी नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकती है। ऐसे ही कुछ नियम पुरुषों के लिए हैं कि अगर संतान न हो तो आठवें, संतान होकर मर जाए तो दसवें और कन्या ही हो तो ग्यारहवें वर्ष अन्य स्त्री से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकता है। पुरुष अप्रिय बोलने वाली पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री से नियोग का लाभ ले सकता है। ऐसा ही नियम स्त्री के लिए है। (4-145)

प्रश्न सं0 149 में लिखा है कि अगर स्त्री गर्भवती हो और पुरुष से न रहा जाए और पुरुष दीर्घरोगी हो और स्त्री से न रहा जाए तो ऐसी स्थिति में दोनों किसी से नियोग कर पुत्रोत्पत्ति कर ले, परन्तु वेश्यागमन अथवा व्यभिचार कभी न करें। (4-149)
लिखा है कि नियोग अपने वर्ण में अथवा उत्तम वर्ण और जाति में होना चाहिए। एक स्त्री 10 पुरुषों तक और एक पुरुष 10 स्त्रियों तक से नियोग कर सकता है। अगर कोई स्त्री अथवा पुरुष 10वें गर्भ से अधिक समागम करे तो कामी और निंदित होते हैं। (4-142) विवाहित पुरुष कुंवारी कन्या से और विवाहित स्त्री कुंवारे पुरुष से नियोग नहीं कर सकती।
पुनर्विवाह और नियोग से संबंधित कुछ नियम, कानून, ‘शर्ते और सिद्धांत आपने पढ़े जिनका प्रतिपादन स्वामी दयानंद ने किया है और जिनको कथित लेखक ने वेद, मनुस्मृति आदि ग्रंथों से सत्य, प्रमाणित और न्यायोचित भी साबित किया है। व्यावहारिक पुष्टि हेतु कुछ ऐतिहासिक प्रमाण भी कथित लेखक ने प्रस्तुत किए हैं और साथ-साथ नियोग की खूबियां भी बयान की हैं। इस कुप्रथा को धर्मानुकूल और न्यायोचित साबित करने के लिए लेखक ने बौद्धिकता और तार्किकता का भी सहारा लिया है। कथित सुधारक ने आज के वातावरण में भी पुनर्विवाह को दोषपूर्ण और नियोग को तर्कसंगत और उचित ठहराया है। आइए उक्त धारणा का तथ्यपरक विश्लेषण करते हैं।
ऊपर (4-134) में पुनर्विवाह के जो दोष स्वामी दयानंद ने गिनवाए हैं वे सभी हास्यास्पद, बचकाने और मूर्खतापूर्ण हैं। विद्वान लेखक ने जैसा लिखा है कि दूसरा विवाह करने से स्त्री का पतिव्रत धर्म और पुरुष का स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाता है परन्तु नियोग करने से दोनों का उक्त धर्म ‘ाुद्ध और सुरक्षित रहता है। क्या यह तर्क मूर्खतापूर्ण नहीं है ? आख़िर वह कैसा पतिव्रत धर्म है जो पुनर्विवाह करने से तो नष्ट और भ्रष्ट हो जाएगा और 10 गैर पुरुषों से यौन संबंध बनाने से सुरक्षित और निर्दोष रहेगा ?

अगर किसी पुरुष की पत्नी जीवित है और किसी कारण पुरुष संतान उत्पन्न करने में असमर्थ है तो इसका मतलब यह तो हरगिज़ नहीं है कि उस पुरुष में काम इच्छा ;ैमगनंस कमेपतम) नहीं है। अगर पुरुष के अन्दर काम इच्छा तो है मगर संतान उत्पन्न नहीं हो रही है और उसकी पत्नी संतान के लिए किसी अन्य पुरुष से नियोग करती है तो ऐसी स्थिति में पुरुष अपनी काम तृप्ति कहाँ और कैसे करेगा ? यहाँ यह भी विचारणीय है कि नियोग प्रथा में हर जगह पुत्रोत्पत्ति की बात कही गई है, जबकि जीव विज्ञान के अनुसार 50 प्रतिशत संभावना कन्या जन्म की होती है। कन्या उत्पन्न होने की स्थिति में नियोग के क्या नियम, कानून और ‘शर्ते होंगी, यह स्पष्ट नहीं किया गया है ?

जैसा कि स्वामी जी ने कहा है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो भी पुरुष नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न कर सकता है। यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो इसके लिए स्त्री नहीं, पुरुष जिम्मेदार है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मानव जाति में लिंग का निर्धारण नर द्वारा होता है न कि मादा द्वारा।
यह भी एक तथ्य है कि पुनर्विवाह के दोष और हानियाँ तथा नियोग के गुण और लाभ का उल्लेख केवल द्विज वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए किया गया है। चैथे वर्ण ‘शूद्र को छोड़ दिया गया है। क्या ‘शुद्रों के लिए नियोग की अनुमति नहीं है ? क्या ‘शूद्रों के लिए नियोग की व्यवस्था दोषपूर्ण और पाप है ?
जैसा कि लिखा है कि अगर पत्नी अथवा पति अप्रिय बोले तो भी वे नियोग कर सकते हैं। अगर किसी पुरुष की पत्नी गर्भवती हो और पुरुष से न रहा जाए अथवा पति दीर्घरोगी हो और स्त्री से न रहा जाए तो दोनों कहीं उचित साथी देखकर नियोग कर सकते हैं। क्या यहाँ सारे नियमों और नैतिक मान्यताओं को लॉकअप में बन्द नहीं कर दिया गया है ? क्या नियोग का मतलब स्वच्छंद यौन संबंधों ;ैमग थ्तमम) से नहीं है ? क्या इससे निम्न और घटिया किसी समाज की कल्पना की जा सकती है?

कथित विद्वान लेखक ने नियोग प्रथा की सत्यता, प्रमाणिकता और व्यावहारिकता की पुष्टि के लिए महाभारत कालीन सभ्यता के दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। लिखा है कि व्यास जी ने चित्रांगद और विचित्र वीर्य के मर जाने के बाद उनकी स्त्रियों से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न की। अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और एक दासी से विदुर की उत्पत्ति नियोग प्रक्रिया द्वारा हुई। दूसरा उदाहरण पाण्डु राजा की स्त्री कुंती और माद्री का है। पाण्डु के असमर्थ होने के कारण दोनों स्त्रियों ने नियोग विधि से संतान उत्पन्न की। इतिहास भी इस बात का प्रमाण है।
जहाँ तक उक्त ऐतिहासिक तथ्यों की बात है महाभारत कालीन सभ्यता में नियोग की तो क्या बात कुंवारी कन्या से संतान उत्पन्न करना भी मान्य और सम्मानीय था। वेद व्यास और भीष्म पितामह दोनों विद्वान महापुरुषों की उत्पत्ति इस बात का ठोस सबूत है। दूसरी बात महाभारत कालीन समाज में एक स्त्री पांच सगे भाईयों की धर्मपत्नी हो सकती थी। पांडव पत्नी द्रौपदी इस बात का ठोस सबूत है। तीसरी बात महाभारत कालीन समाज में तो बिना स्त्री संसर्ग के केवल पुरुष ही बच्चें पैदा करने में समर्थ होता था।

महाभारत का मुख्य पात्र गुरु द्रोणाचार्य की उत्पत्ति उक्त बात का सबूत है। चैथी बात महाभारतकाल में तो चमत्कारिक तरीके से भी बच्चें पैदा होते थे। पांचाली द्रौपदी की उत्पत्ति इस बात का जीता-जागता सबूत है। अतः उक्त समाज में नियोग की क्या आवश्यकता थी ? यहाँ यह भी विचारणीय है कि व्यास जी ने किस नियमों के अंतर्गत नियोग किया ? दूसरी बात नियोग किया तो एक ही समय में तीन स्त्रियों से क्यों किया? तीसरी बात यह कि एक मुनि ने निम्न वर्ण की दासी के साथ क्यों समागम किया ? चैथी बात यह कि कुंती ने नियम के विपरीत नियोग विधि से चार पुत्रों को जन्म क्यों दिया ? विदित रहे कि कुंती ने कर्ण, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन चार पुत्रों को जन्म दिया और ये सभी पाण्डु कहलाए। पांचवी बात यह कि जब उस समाज में नियोग प्रथा निर्दोष और मान्य थी तो फिर कुंती ने लोक लाज के डर से कर्ण को नदी में क्यों बहा दिया ? छठी बात यह है कि वे पुरुष कौन थे जिन्होंने कुंती से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न की ? स्वामी जी ने बहुविवाह का निषेध किया है जबकि उक्त सभ्यता में बहुविवाह होते थे। अब क्या जिस समाज से स्वामी जी ने नियोग के प्रमाण दिए हैं, उस समाज को एक उच्च और आदर्श वैदिक समाज माना जाए ?
‘सत्यार्थ प्रकाश’ के ‘शंका-समाधान परिशिष्ट में पं0 ज्वालाप्रसाद ‘ार्मा द्वारा नियोग प्रथा के समर्थन में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। लिखा है कि प्राचीन वैदिक काल में कुलनाश के भय से ऋषि-मुनि, विद्वान, महापुरुषों से नियोग द्वारा वीर्य ग्रहण कर उच्च कुल की स्त्रियां संतान उत्पन्न करती थी। जो प्रमाण पंडित जी ने प्रस्तुत किए हैं वे सभी महाभारत काल के हैं। क्या महाभारत काल ही प्राचीन वैदिक काल था ? क्या नियोग ही ऋषियों का एक मात्र प्रयोजन था?
यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि अगर स्वामी दयानंद सरस्वती नियोग को एक वेद प्रतिपादित और स्थापित व्यवस्था मानते थे तो उन्होंने इस परंपरा का खुद पालन करके अपने अनुयायियों के लिए आदर्श प्रस्तुत क्यों नहीं किया ? इससे स्वामी जी के चरित्र को भी बल मिलता और एक मृत प्रायः हो चुकी वैदिक परंपरा पुनः जीवित हो जाती। यह भी एक अजीब विडंबना है कि जिस वैदिक मंत्र से स्वामी जी ने नियोग परंपरा को प्रतिपादित किया है उसी मंत्र से अन्य वेद विद्वानों और भाष्यकारों ने विधवा पुनर्विवाह का प्रतिपादन किया है। निम्न मंत्र देखिए -
‘‘कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करतः कुहोषतुः।
को वां ‘ात्रुया विधवेव देवरं मंर्य न योषा कृणुते सधस्य आ।।
(ऋग्वेद, 10-40-2)
‘‘उदीष्र्व नार्यभिजीवलोकं गतासुमेतमुप ‘ोष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिशोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ।।’’
(ऋग्वेद, 10-18-8)
उक्त दोनों मंत्रों से जहाँ स्वामी दयानंद सरस्वती ने नियोग प्रथा का भावार्थ निकाला है वहीं ओमप्रकाश पाण्डेय ने इन्हीं मंत्रों का उल्लेख विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में किया है। अपनी पुस्तक ‘‘वैदिक साहित्य और संस्कृति का स्वरूप’’ में उन्होंने लिखा है कि वेदकालीन समाज में विधवा स्त्रियों को पुनर्विवाह की अनुमति प्राप्त थी। उक्त मंत्र (10-18-8) का भावार्थ उन्होंने निम्न प्रकार किया है -
‘‘हे नारी ! इस मृत पति को छोड़कर पुनः जीवितों के समूह में पदार्पण करो। तुमसे विवाह के लिए इच्छुक जो तुम्हारा दूसरा भावी पति है, उसे स्वीकार करो।’’
इसी मंत्र का भावार्थ वैद्यनाथ ‘शास्त्री द्वारा निम्न प्रकार किया गया है -
‘‘जब कोई स्त्री जो संतान आदि करने में समर्थ है, विधवा हो जाती है तब वह नियुक्त पति के साथ संतान उत्पत्ति के लिए नियोग कर सकती है।’’
उक्त मंत्रों में स्वामी दयानंद ने देवर ‘शब्द का अर्थ जहाँ ‘द्वितीय नियुक्त पति’ लिया है वहीं पाण्डेय जी ने देवर ‘शब्द का अर्थ ‘द्वितीय विवाहित पति’ लिया है। निरुक्त के संदर्भ में पाण्डेय जी ने लिखा है कि यास्क ने अपने निरूक्त में देवर ‘शब्द का निर्वचन ‘द्वितीय वर’ के रूप में ही किया है। उक्त मंत्रों के साथ पाण्डेय जी ने अथर्ववेद का भी एक मंत्र विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में प्रस्तुत किया है। जो निम्न है -
‘‘या पूर्वं पतिं वित्त्वाथान्यं विन्दते परम्।
पत्र्चैदनं च तावजं ददातो न वि योषतः।।
समानलोको भवति पुनर्भुवापरः पतिः।
योऽजं पत्र्चैदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति।।’’
(अथर्वसंहिता 9-5-27,28)
उक्त से स्पष्ट है कि वेद भाष्यों में इतना अधिक अर्थ भेद और मतभेद पाया जाता है कि सत्य और विश्वसनीय धारणाओं का निर्णय करना अत्यंत मुश्किल काम है? यहाँ यह भी विचारणीय है कि विवाह का उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति करना ही नहीं होता बल्कि स्वच्छंद यौन संबंध को रोकना और भावों को संयमित करना भी है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि जो विषय (नारी और सेक्स) एक बाल ब्रह्मचारी के लिए कतई निषिद्ध था, स्वामी जी ने उसे भी अपनी चर्चा और लेखनी का विषय बनाया है।
बेहद अफसोस और दुःख का विषय है कि जहाँ एक विद्वान और समाज सुधारक को पुनर्विवाह और विधवा विवाह का समर्थन करना चाहिए था, वहाँ कथित समाज सुधारक द्वारा नियोग प्रथा की वकालत की गई है और इसे वर्तमान काल के लिए भी उपयुक्त बताया है। क्या यह एक विद्वान की घटिया मनोवृत्ति का प्रतीक नहीं है ? आज की फिल्में जो कतई निम्न स्तर का प्रदर्शन करती हैं, उनमें भी कहीं इस प्रथा का प्रदर्शन और समर्थन देखने को नहीं मिलता। स्वामी दयानंद को छोड़कर नवजागरण के सभी विद्वानों और सुधारकों द्वारा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया गया है।
जब किसी कौम या समाज के धार्मिक लोग जघन्य नैतिक बुराइयों और बिगाड़ में गर्क हो जाते हैं, तो वह कौम नैतिक पतन की पराकाष्ठा को पहुंच जाती है। नैतिक बुराइयों में निमग्न होने के बावजूद कथित धार्मिक लोग अपने बचाव और समाज में अपना स्तर और आदर-सम्मान बनाए रखने के लिए और साथ-साथ अपने को सही और सदाचारी साबित करने के लिए उपाय तलाशते हैं। अपने बचाव के लिए कथित मक्कार लोग अपनी धार्मिक पुस्तकों से छेड़छाड़ करते हैं और उनमें फेरबदल कर उस नैतिक बुराई को जो उनमें है, अपने देवताओं, अवतारों, ऋषियों, मुनियों और आदर्शों से जोड़ देते हैं और जनसाधारण को यह समझाकर अपने बचाव का रास्ता निकाल लेते हैं कि यह बुराई नहीं है बल्कि धर्मानुकूल है। ऐसा तो हमारे ऋषि-मुनियों और महापुरुषों ने भी किया है। नियोग के विषय में भी मुझे ऐसा ही प्रतीत होता है। जब कौम में स्वच्छंद यौन संबंधों की अधिकता हो गई और जो बुराई थी, वह सामाजिक रस्म और रिवाज बन गई तो मक्कार लोगों ने उस बुराई को अच्छाई बनाकर अपने धार्मिक ग्रंथों में प्रक्षेपित कर दिया। प्राचीन काल में धार्मिक ग्रंथों में परिवर्तन करना आसान था, क्योंकि धार्मिक ग्रंथों पर चन्द लोगों का अधिकार होता था। नियोग एक गर्हित और गंदी परंपरा है, इसे किसी भी काल के लिए उचित नहीं कहा जा सकता।
भारतीय चिंतन में नारी की स्थिति अत्यंत दयनीय प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऋषि, मुनियों और महापुरुषों द्वारा कुछ ऐसे नियम-कानून बनाए गए, जिन्होंने नारी को भोग की वस्तु और नाश्ते की प्लेट बना दिया। नियोग प्रथा ने विधवा स्त्री को कतई वेश्या ही बना दिया। जैसा कि आप ऊपर पढ़ चुके हैं कि एक विधवा 10 पुरुषों से नियोग कर सकती है। यहाँ विधवा और वेश्या ‘शब्दों को एक अर्थ में ले लिया जाए तो ‘शायद अनुचित न होगा। विधवाओं की दुर्दशा को चित्रित करने वाली एक फिल्म ‘वाटर’ सन् 2000 में विवादों के कारण प्रतिबंधित कर दी गई थी, जिसमें ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर विधवाओं को वेश्याओं के रूप में दिखाया गया था। प्रायः विधवा स्त्रियाँ काशी, वृन्दावन आदि तीर्थस्थानों में आकर मंदिरों में भजन-कीर्तन करके और भीख मांगकर अपनी गुजर बसर करती थी, क्योंकि समाज में उनको अशुभ और अनिष्ट सूचक समझा जाता था।

‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी जी ने भी इस दशा का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘‘वृंदावन जब था तब था अब तो वेश्यावनवत्, लल्ला-लल्ली और गुरु-चेली आदि की लीला फैल रही है। (11-159), आज भी काशी में लगभग 16000 विधवाएं रहती हैं।
‘मनुस्मृति’ में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं। (3-21) इनमें आर्ष, आसुर और गान्धर्व विवाह को निकृष्ट बताया गया है मगर ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों और मर्मज्ञों ने इनका भरपूर फायदा उठाया। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, मुनि पराशर, कौरवों-पांडवों के पूर्वज ‘ाान्तनु, पाण्डु पुत्र अर्जुन और भीम आदि ने उक्त प्रकार के विवाहों की आड़ में नारी के साथ क्या किया ? इसका वर्णन भारतीय ग्रंथों में मिलता है।
भारतीय ग्रंथों में नारी को किस रूप में दर्शाया गया है आइए अति संक्षेप में इस पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं।
1. ‘‘ढिठाई, अति ढिठाई और कटुवचन कहना, ये स्त्री के रूप हैं। जो जानकार हैं वह इन्हें ‘ाुद्ध करता है।’’ (ऋग्वेद, 10-85-36)
2. ‘‘सर्वगुण सम्पन्न नारी अधम पुरुष से हीन है।’’
(तैत्तिरीय संहिता, 6-5-8-2)
3. नारी जन्म से अपवित्र, पापी और मूर्ख है।’’ (रामचरितमानस)
उक्त तथ्यों के आधार पर भारतीय चिंतन में नारी की स्थिति और दशा का आकलन हम भली-भांति कर सकते हैं। भारतीय ग्रंथों में नारी की स्थिति दमन, दासता और भोग की वस्तु से अधिक दिखाई नहीं पड़ती। यहाँ यह भी विचारणीय है कि क्या आधुनिक भारतीय नारी चिंतकों की सोच अपने ग्रंथों से हटकर हो सकती है ? आइए भारतीय संस्कृति में नारी की दशा का आकलन करने के लिए छांदोग्य उपनिषद् के एक मुख्य प्रसंग पर भी दृष्टि डाल लेते हैं।
नाहमेतद्वेद तात यद्गोत्रस्त्वमसि, बह्वहं चरन्ती
परिचारिणी यौवने त्वामलमे साहमेतन्न वेद यद्
गोत्रत्वमसि, जाबाला तु नामाहमस्मि सत्यकामो नाम
त्वमसि स सत्यकाम एव जाबालो ब्रुवीथा इति।
(छांदोग्य उपनिषद् 4-4-2)
यह प्रसंग सत्यकाम का है। जिसकी माता का नाम जबाला था। सत्यकाम गौतम ऋषि के यहाँ विद्या सीखना चाहता था। जब वह घर से जाने लगा, तब उसने अपनी माँ से पूछा ‘‘माता मैं किस गोत्र का हूँ ?’’ उसकी माँ ने उससे कहा, ‘‘बेटा मैं नहीं जानती तू किस गोत्र का है। अपनी युवावस्था में, जब मैं अपने पिता के घर आए हुए बहुत से अतिथियों की सेवा में रहती थी, उस समय तू मेरे गर्भ में आया था। मैं नहीं जानती तेरा गोत्र क्या है ? मेरा नाम जबाला है, तू सत्यकाम है, अपने को सत्यकाम जबाला बताना।’’
क्या उपरोक्त उद्धरणों से तथ्यात्मक रूप से यह बात साबित नहीं होती कि भारतीय चिंतन में नारी को न केवल निम्न और भोग की वस्तु बल्कि नाश्ते की प्लेट समझा गया है ?
लेखक:-दिनेश शर्मा (फिजी)


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|| सत्यार्थ प्रकाश प्रथम प्रकाशित कब और कहाँ हुआ ??? वर्तमान में पौराणिक मित्र इस प्रश्न को बार-बार...

|| सत्यार्थ प्रकाश प्रथम प्रकाशित कब और कहाँ हुआ ???

वर्तमान में पौराणिक मित्र इस प्रश्न को बार-बार उठा रहे है कि सत्यार्थ प्रकाश प्रथम प्रकाशित कब और कहाँ हुआ इसके पीछे उनकी भावनाए क्या है उनके मस्तिष्क में क्या चल रहा है ये तो वो ही जाने |

हमारा कार्य तो उनके प्रश्न का उत्तर देना है जो हम आगे दे रहे हैं ||

१* सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम प्रकाशन संवत् १९३१ के अन्त अथवा सन् १८७५ के आरम्भ में हुआ था ||

२* प्रथम प्रकाशन के मुदर्णकर्त्ता थे लाला हरवंशलाल, अधिपति स्टार प्रेस, काशी ||

३* प्रथम प्रकाशन के प्रकाशक थे उत्तर-प्रदेशस्थ मुरादाबाद नगर वास्तव्य राजा जयकृष्णदास ||

४* प्रारम्भ में उसकी मूल प्रति राजाजी के घर सुरक्षित रही हैं | संवत् २००४ में परलोकगत श्री बाबू हरबिलास शारदाजी ने उसकी फोटो-प्रति ले ली थी | यह अब परोपकारिणी सभा के कार्यलय में सुरक्षित हैं ||

५* प्रारम्भ में जब सत्यार्थ प्रकाश प्रकाशित हुई तब उसमें १२ समुल्लास छपे बाद के दो समुल्लास किसी कारण वश नहीं छापे गये थे ||

प्रश्न:-
बाद के २ समुल्लास बाद में ही लिखे गये हैं, जो स्वामी जी ने नहीं लिखे ???

उत्तर:-
नहीं ऐसा नहीं हैं |

प्रश्न:-
आपके पास क्या प्रमाण हैं कि बाद के दो समुल्लास स्वामी जी ने ही लिखे हैं ???

उत्तर:-
स्वयं सत्यार्थ प्रकाश |

प्रश्न:-
कैसे ?

उत्तर:-
सत्यार्थ प्रकाश के कई समुल्लास में इन बाद वाले दोनों समुल्लास का की चर्चा आयी हैं जिसके कुछ प्रमाण हम यहा नीचे रखते हैं आप पढ़ लेवे ||

प्रमाण १:-
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम समुल्लास, विषय- वेद ईश्वरकृत हैं अन्यकृत नहीं

“…इस प्रकार के वेद हैं अन्य बाईबल, कुरान आदि पुस्तकें नहीं | इसकी स्पष्ट व्याख्या बाइबल और कुरान के प्रकरण में ‘तेरहवें और चौदहवें समुल्लास में की जाएगी |”

प्रमाण २:-
सत्यार्थ प्रकाश नवम समुल्लास, विषय- मुक्ति प्रंसग

“जैनी (१२) बारहवें, ईसाई (१३) तेरहवें और (१४) चौहदवें समुल्लास में मुसलमानों की मुक्ति आदि विषय विशेष कर लिखेंगे |”

प्रमाण ३:-
सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास, विषय- समुल्लासों के विषय में(अन्तिम पृष्ठ पर)

“…इन चारों में से प्रथम समुल्लास में आर्यावर्त्तीय मतमतान्तर, दूसरे में जैनियों के, तीसरे में ईसाइयों और चौथे में मुसलमानों के मतमतान्तरों के खण्डण मण्डण के विषय में लिखेंगे |”

अतः अब तो आपको स्पष्ट हो गया होगा की पूर्ण सत्यार्थ प्रकाश ही स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत हैं और बाद के समुल्लास भी प्रारम्भ से ही ग्रन्थ में हैं ||

ओ३म्…!

पाखण्ड खण्डण |
वैदिक मण्डण ||

S. Media लेखक– आर्यन “द फ्यूहरर”


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Friday, January 15, 2016

🍀 नियोग प्रथा उचित या अनुचित? आजकल नियोग प्रथा को लेकर चर्चा चल रही है कि इसे मानें या न...

🍀 नियोग प्रथा उचित या अनुचित?

आजकल नियोग प्रथा को लेकर चर्चा
चल रही है कि इसे मानें या न मानें।

धर्म के दो स्वरूप होते हैं—
शाश्वत धर्म और युग धर्म।
शाश्वत धर्म का अर्थ है हमेशा रहने
वाला धर्म, जैसे—- सत्य , दया, प्रेम
आदि । यह पहले भी था और अब भी
आगे भी रहेगा।

दूसरा धर्म है—– युग धर्म।
युग धर्म का अर्थ है—- परिस्थितियों
के अनुसार बनाई गई प्रथाएँ।

जिस युग में जिस चीज़ की आवश्यकता होती है उस युग के विद्वान उसे प्रथा का रूप प्रदान कर
देते हैं । जब उसकी आवश्यकता
खत्म हो जाती है तब उसे नष्ट कर
देते हैं। फिर नयी प्रथाएँ बना देते हैं।
ऐसा युगों से चलता आया है और
विश्व के हर देश में चलता आया है।

महाभारत काल में जो युग धर्म था
उसे आज लागू नहीं किया जा सकता।
आज की परिस्थितियाँ अलग हैं। उनकी परिस्थितियाँ अलग थीं।

हम सब बुद्धिजीवी हैं। हमें अच्छे बुरे
का ज्ञान है। आज हमारी परिस्थितियों
के अनुसार जो उचित है उसे ही हमें
स्वीकार करना चाहिए। उस समय के
लिए जो उचित था उसे उन्होंने
स्वीकार किया । आज जो उचित है
उसे हम स्वीकार करते हैं।

पुराणमित्येव न साधु सर्वम्।

पुराना है इसलिए अच्छा है , ऐसा
मानकर गलत बातों को स्वीकार नहीं
करना चाहिए। प्राचीन महापुरुषों
के युगधर्म को स्वीकार न करने से
उनका अपमान नहीं होता बल्कि
सम्मान ही होता है।

ऋषि स्वयं घोषित करते हैं,
हे पुत्र, जो हमारे सुचरित हैं उन्हें
ही तुम आचरण में लाना, हमारी
बुराइयों को नहीं।

यदि हमारे पुराने ग्रंथों में कहीं कुछ
ऐसा दिखाई देता है जो आज के
लिए उचित नहीं लगता तो उसे छोड़
देना चाहिए।

ऋषि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में
जिस नियोग प्रथा का वर्णन किया है
और महाभारत का प्रमाण प्रस्तुत
किया है उसका सिर्फ इतना ही
तात्पर्य है कि यदि सन्तानोत्पत्ति
की समस्या उत्पन्न हो जाए तो प्राचीन
काल के लोगों ने यह तरीका अपनाया
था । इसे अपनाया जा सकता है।

वर्तमान समय में Test Tube Baby
की जो प्रथा है उसमें भी तो दूसरे
पुरुष की शक्ति को दूसरी स्त्री के
गर्भ में रखा जाता है। यह भी तो
नियोग प्रथा का ही आधुनिक रूप
है।

इसलिए ऋषि दयानंद को गलत बताना उचित नहीं है।


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🌻🌷ओ३म्🌷🌻 भूपेश आर्य 🌻पुत्रोत्पादक- (1) जो स्त्री गर्भिणी हो जाने पर पहले ही मास में शिवलिंगी के 9...

🌻🌷ओ३म्🌷🌻

भूपेश आर्य

🌻पुत्रोत्पादक-

(1) जो स्त्री गर्भिणी हो जाने पर पहले ही मास में शिवलिंगी के 9 या 11 बीजों का चूर्ण बछड़े वाली गाय के दूध के साथ प्रातःकाल फांक लेती है उसके गर्भ से पुत्र ही उत्पन्न होगा,कन्या नहीं और पुत्र भी साधारण नहीं अपितु शिव के समान पराक्रमी।गर्भ का ज्ञान होते ही यह प्रयोग फोरन कर लेना चाहिये।

(2)-भांग के 9 बीज गुड़ में रखकर गोली बना लें और जब तीसरा मास प्रारम्भ हो तब प्रातः स्रान आदि से निवृत्त होकर यह गोली खिलाकर ऊपर से बछड़े वाली गौ का धारोग्ण दूध पिला दें।(निकलता हुआ)।
निश्चय ही पुत्र उत्पन्न होगा।
🌻दांतों का हिलना:-बड़ की दातुन करें।वटवृक्ष की दातुन हिलते हुए दाँतों को जमाने की सर्वश्रेष्ठ ओषधि है।इसके प्रयोग से दाँतों का आगे के लिए विकृत होना बन्द हो जाता है।


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है󝰼󞰼󝴓३म्🌷🌻🌷 🌷ईश्वर का स्वरुप🌷 अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः। प्रिया...

है󝰼󞰼󝴓३म्🌷🌻🌷

🌷ईश्वर का स्वरुप🌷

अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः।
प्रिया पदानि पश्वो निपाहि विश्वायुरग्ने गुहा गुहं गाः ।।–(ऋ० १/६७/३)
अर्थ:-जैसे अज अर्थात् न जन्म लेने वाला अजन्मा परमेश्वर न टूटने वाले विचारों से पृथिवी को धारण करता है,विस्तृत अन्तरिक्ष तथा द्यौलोक को रोके हुए है,प्रीतिकारक पदार्थों को देता है,सम्पूर्ण आयु देने वाला,बंधन से सर्वथा छुड़ाता है,बुद्धि में स्थित हुआ वह गोप्य पदार्थ को जानता है,वैसे तू भी हे विद्वान जीव!हमें प्राप्तव्य की प्राप्ति करा।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते ।
तस्य योनि परिपश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ।।-(यजु० ३१/१९)
अर्थ:-अपने स्वरुप से उत्पन्न न होने वाला अजन्मा परमेश्वर,गर्भस्थ जीवात्मा और सबके ह्रदय में विचरता है और उसके स्वरुप को धीर लोग सब और देखते हैं।उसमें सब लोक लोकान्तर स्थित है।

ब्रह्म वा अजः ।-(शतपथ० ६/४/४/१५)
ब्रह्म ही अजन्मा है।

उपनिषदों में भी परमात्मा को स्थान-स्थान पर अजन्मा वर्णन किया है–

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो प्रवदन्ति नित्यम् ।।-(श्वेता० ३/२१)

मैं उस ब्रह्म को जानता हूं जो पुराना है और अजर है।
सबका आत्मा और विभु होने से सर्वगत है।ब्रह्मवादी जिसके जन्म का अभाव बतलाते हैं क्योंकि वह नित्य है।

एकधैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम् ।
विरजः पर आकाशदजं आत्मा महान् ध्रुवः ।।-(बृहरदार० ४/४/२०)
अर्थ-इस अविनाशी अप्रमेय ब्रह्म को एक ही प्रकार से देखना चाहिये,वह मल से रहित,आकाश से परे,जन्म-रहित आत्मा महान और अविनाशी है।

दिव्यो ह्यमूर्त्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः ।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः ।।-(मुण्ड० २/२)
अर्थ:-वह दिव्य पुरुष(परमात्मा) बिना मूर्ति के है,बाहर और अन्दर दोनों जगह विद्यमान है।बिना प्राण और मन के है।शुभ्र है और अव्यक्त प्रकृति के परे है।

अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ।।-(श्वेता० २/१५)
अजन्मा,ध्रुव,सारे तत्त्वों से अलग परमात्मदेव को ब्रह्मतत्त्वदर्शी जानकर पाशों से छूट जाते हैं।

स वा एष महानज आत्माsजरोsमरोsमृतोsभयं ब्रह्म ।-(बृह० ४/४/२५)
अर्थ:-वह महान् अजन्मा आत्मा,अजर,अमर,अभय,अमृत ब्रह्म है।

दर्शनशास्त्र भी परमात्मा को अजन्मा ही बताते हैं:-

उत्पत्त्यसंभवात् ।-वेदान्त० २/२/३९)
ईश्वर के जन्म का असंभव पाये जाने से उसका कोई कर्त्ता नहीं।

न च कर्त्तुः करणम्।-(वेदान्त० २/२/४०)
और न उस कर्त्ता परमात्मा का कोई करण इन्द्रियादि है।

करणवच्चेन्न भोगादिभ्यः ।-(वेदा० २/२/३७)
अर्थात् लोकदृष्टि के अनुसार परमात्मा का भी इन्द्रियों का अधिष्ठान यदि शरीर मानें तो ठीक नहीं,क्योंकि ईश्वर के शरीर वा इन्द्रियादि मानने से उसे भी संसारी जीवों की तरह सुख-दुःख-भोक्ता मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से ईश्वर भी अनीश्वर हो जायेगा।

उपनिषदों के और उद्वरण देखिये:-

अशरीरं शरीरेषु अनवस्थेष्ववस्थितम् ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ।।-(कठोप० १/२/२२)

वह परमात्मा लोगों के शरीर में रहते हुए भी स्वयं शरीर-रहित है।बदलने वाली वस्तुओं में एकरस(न बदलने वाला) है।उस महान् विभु आत्मा को जानकर धीर पुरुष शोकमुक्त हो जाता है।

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाsरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तं मृत्युमुखात्प्रमुच्यते ।।-(कठ० ३/१५)
अर्थ:-वह ब्रह्म शब्द नहीं,स्पर्श नहीं,रुप नहीं,इस प्रकार रस नहीं और न गन्ध वाला है।वह अविनाशी,सदा एकरस रहने वाला,अनुत्पन्न,सीमा-रहित महत्तत्व से भी सूक्ष्म,अचल है।उसको निश्चयात्मक रीति से जानकर मनुष्य मौत के मुख से छूट जाता है।

अणोरणीयान् महतोमहीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः ।।-(कठ० 2/20)
अर्थ:-ब्रह्म सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म है,बड़े से भी बड़ा है।वह प्राणी के ह्रदयाकाश में स्थित है।उसकी महिमा को बुद्धि के निर्मल होने से निष्काम शोक रहित प्राणी देखता है।

इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्त्वादपि महानात्मा महतोsव्यक्तमुत्तमम् ।।-(कठ० 6/7)
अव्यक्तातु परः पुरुषो व्यापकौsलिंग एव च ।
यज्ज्ञात्वा मुच्यतेजन्तुरमृतत्वं च गच्छति ।।-(कठ० 6/8)

अर्थ:-इन्द्रियों से मन सूक्ष्म है,मन से सूक्ष्म अहंकार है।अहंकार से भी सूक्ष्म महत्तत्व है तथा महत्तत्व से भी सूक्ष्म प्रकृति और जीवात्मा है।जीव और प्रकृति से भी सूक्ष्म परमात्मा है जोकि व्यापक और चिन्ह आदि से रहित निराकार है,जिसको जानकर मनुष्य दुःखों से छूट जाता है और अमृतत्व को प्राप्त होता है।

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कच्श्रनैनम् ।
ह्रदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ।।-(कठ० 6/9)
इस ब्रह्म का कोई रुप सामने नहीं है और न आँखों से इसे कोई देख सकता है।यह ह्रदय,मन तथा बुद्धि से ज्ञात होता है।जो लोग इसे जानते हैं वे अमृत हो जाते हैं।

यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुः श्रोत्रं तदपाणिपादम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः ।।-(मु० 1/1/6)
अर्थ:-जो परमात्मा न देखा जाता है,न पकड़ा जाता है,जिसका कोई गोत्र नहीं,वर्ण नहीं,जिसके न नेत्र हैं,न श्रोत्र,न हाथ,न पाँव हैं,वह नित्य है,व्यापक है,सर्वगत है और बड़ा सूक्ष्म तथा अव्यय है।उसी जगत के निमित्त-कारण ब्रह्म को धीर पुरुष सर्वत्र देखते हैं।

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ।।-(मुं० 3/1/8)
वह ब्रह्म आँख से ग्रहण नहीं किया जाता।उसे न वाणी से,न अन्य इन्द्रियों से,न तप से और न कर्म से ग्रहण किया जा सकता है।अपितु ज्ञान की महिमा से शुद्ध अन्तःकरणवाला होकर ध्यान करता हुआ ही उस कला-रहित ब्रह्म को देख सकता है।

अपाणिपादो जवनो गृहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्य न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ।।-(श्वेता० 3/19)
अर्थ:-वह बिना हाथ के सबका ग्रहण करने वाला तथा बिना पाँव के वेगवाला है।बिना नेत्र के देखता और बिना कान के सुनता है।वह हर एक जानने योग्य वस्तु को जानता है,पर उसका अंत जानने वाला कोई नहीं।ज्ञानी लोग उसको मुख्य महान् पुरुष कहते हैं।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ।।-(श्वेता० 4/14)
अर्थ:-वह ईश्वर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है।वह इस जगत और उसके प्रत्येक पदार्थ में व्यापक है।उसी ने इस विश्व और इसके रुप वाले पदार्थों को रचा है।वह सारे संसार को घेरे हुए है।उसी कल्याण स्वरुप प्रभु को जानकर मनुष्य अत्यन्त शान्ति को प्राप्त होता है।

न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
पराSस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ।।-(श्वेता० 6/8)
उसका कोई कार्य नहीं,उसके इन्द्रियादि करण नहीं।न कोई उसके समान और न कोई उससे अधिक है।उसकी शक्ति सबसे महान है।उसमें ज्ञान,बल और कार्य करने की शक्ति स्वभाव से है।

न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिंगम् ।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ।।-(श्वेता० 6/9)
अर्थ:-लोक में कोई उस परमात्मा का स्वामी नहीं,न उस पर कोई शासन करने वाला है और न उसका कोई चिन्ह है।वह जगत का निमित्त कारण है।वह इन्द्रियों के स्वामी जीवात्माओं का भी स्वामी है।वह न किसी से उत्पन्न हुआ है और न उसका कोई स्वामी है।

उपर्युक्त समस्त उपनिषद वाक्य जहाँ परमात्मा को सुस्पष्ट रुप में निराकार वर्णन करते हैं,वहाँ यह भी बताते हैं कि उसे शुद्ध अन्तःकरण से ध्यान द्वारा ही जीवात्मा में ग्रहण किया जाता है।

एकेश्वरवाद के वेद के मन्त्र देखिये:-

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यं स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।।-(ऋग्० 1/164/46)
अर्थ:-एक सद् परमात्मा को इन्द्र,मित्र,वरुण,अग्नि,दिव्य,सुपर्ण,गरुत्मान,यम तथा मातरिश्वा आदि नाम देते हैं,अर्थात् इन नामों से उस एक ही प्रभु का वर्णन होता है।

यजुर्वेद में ईश्वर को अग्नि,वायु,आदित्य,चन्द्रमा तथा शुक्र आदि कहा गया है:-
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रं तद् ताs आपः स प्रजापतिः ।।-( यजु० 32/1)
अग्नि,आदित्य,वायु,चन्द्रमा,शुक्र,ब्रह्म,आपः,प्रजापति इन शब्दों द्वारा परमात्मशक्ति का बोध होता है,अर्थात् प्रकाशस्वरुप होने से उस परमात्मा का नाम अग्नि,कभी विनाश न होने से आदित्य,जगत का धारण तथा जीवन होने से वायु,आनन्दस्वरुप होने से चन्द्रमा,अत्यन्त पवित्र होने से शुक्र,सबसे बड़ा होने से ब्रह्म तथा प्रजा का पालन करने से प्रजापति है।

परमात्मा एक ही है।अथर्ववेद के काण्ड 13,प्र० 5 के मंत्र हैं:-

न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते । 16 ।।
न पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते ।17 ।।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते । 18 ।।

अर्थ:-ईश्वर न दूसरा है,न तीसरा है,न ही चौथा कहलाता है। 16 ।।
न पाँचवाँ है,न छठा है,न सातवाँ ही कहलाता है। 17 ।।
न आठवाँ है,न नवाँ है,न ही दसवाँ कहलाता है। 18 ।।

तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव ।-(अथर्व० 13/20)
अर्थ:-वह सर्वशक्ति है,वह एक है,एकवृत और एक है।


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