Thursday, December 31, 2015

30 दिसम्बर/जन्म-दिवस प्रेम के उपासक रमण महर्षि प्रौढ़ावस्था में तो प्रायः सभी लोग प्रभु स्मरण करने...

30 दिसम्बर/जन्म-दिवस

प्रेम के उपासक रमण महर्षि

प्रौढ़ावस्था में तो प्रायः सभी लोग प्रभु स्मरण करने लगते हैं; पर कुछ लोग अपने पूर्व जन्म के संस्कारवश बाल्यवस्था में ही प्रभु को समर्पित हो जाते हैं। महर्षि रमण के नाम से प्रसिद्ध हुए वेंकटरमण ऐसी ही एक विभूति थे। उनका जन्म तमिलनाडु के एक छोटे से गाँव तिरुचली में 30 दिसम्बर, 1879 को हुआ था। बचपन में वे बहुत सुन्दर और स्वस्थ थे; पर पढ़ने में उनकी रुचि बहुत कम थी। उन्हें विद्यालय भेजने में माँ को पसीने छूट जाते थे। बहुत अधिक सोने के कारण लोग उन्हें कुम्भकर्ण कहते थे।

जब वे 16 वर्ष के थे, तब उनके घर तमिलनाडु के अरुणाचल पर्वत (तिरुवन्नमलाई) से एक संन्यासी पधारे। उनकी वार्त्ता से वेंकटरमण के मन में अरुणाचल दर्शन की जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी। उन्होंने ठान लिया कि वे एक बार अरुणाचल अवश्य जायेंगे। उन्हीं दिनों उन्होंने शैव सन्तों की कथाएँ एवं कविताएँ पढ़ी। इससे उनके मन में अध्यात्म के प्रति प्रेम जाग गया।

अब रमण अधिक से अधिक समय एकान्त में बैठकर चिन्तन-मनन करने लगे। कभी-कभी तो वे समाधि में घण्टों बैठे रहते थे। उन्हें हर समय अरुणाचल की याद आती थी। रेल से वहाँ के निकटवर्ती स्टेशन तक जाने के लिए भी तीन रु. का टिकट लगता था। एक दिन माँ ने उन्हें बड़े भाई की फीस जमा कराने के लिए पाँच रु. दिये। रमण ने माँ को एक पत्र लिखा कि मैं भगवान् को खोजने जा रहा हूँ। आप लोग मेरी तलाश न करें। पत्र के साथ ही उन्होंने शेष दो रु. भी रख दिये।

इसके बाद उनकी यात्रा बहुत कठिन थी। रेल से उतरकर भी बहुत दूर जाना था। धन के अभाव में उन्हें पैदल ही चलना पड़ा। मार्ग में लोग दयावश उन्हें भोजन करा देते थे। रात में वे किसी मन्दिर में रुक जाते थे। अन्ततः वे तिरुवन्नमलाई पहुँच गये। सामने ही अरुणाचल पर्वत पर स्थित मन्दिर था। रमण अपनी सुध-बुध खो बैठे। उन्होंने वहाँ कठिन साधना प्रारम्भ कर दी।

धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैलने लगी। लोग उन्हें महर्षि रमण कहने लगे। मन्दिर में आने वालों के कारण उनकी साधना में व्यवधान आता था। अतः थम्बी रंगास्वामी नामक भक्त के आग्रह पर वे उसके बाग में रहने लगे। जब उनके परिवारजनों को यह पता लगा, तो वे वहाँ आये और उनसे वापस घर चलने का आग्रह किया; पर रमण ने सबको समझाकर लौटा दिया।

कुछ समय बाद वे फिर अरुणाचल मन्दिर आ गये। उनके शिष्यों ने वहीं एक आश्रम तथा मन्दिर बना लिया। वहाँ गोशाला, वेद पाठशाला, प्रकाशन विभाग आदि खोले गये। सब आश्रमवासी अपने लिए निर्धारित काम स्वयं करते थे। महर्षि रमण भी सबके साथ सहयोग करते थे। आश्रम सब धर्म, जाति और सम्प्रदायों के लिए खुला था। पशु-पक्षी भी वहाँ स्वतन्त्रता से विचरते थे। रमण के मन में सबके लिए समान प्रेम था।

1947 में उन्हें कैन्सर ने घेर लिया। इससे उन्हें बहुत शारीरिक कष्ट होता था; पर वे सदा मुस्कुराते रहते थे। उनके शिष्य एवं आगंतुक यह देखकर दंग रह जाते थे। चिकित्सकों ने शल्य क्रिया कर उनकी बाँह से वह गाँठ निकाल दी; पर रोग शान्त नहीं हुआ। अब बाँह को काटना ही विकल्प था; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए और प्रभुधाम जाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी। 24 अप्रैल, 1950 को प्रेमावतार महर्षि रमण ने शरीर छोड़ दिया।
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नमस्ते जी यदि आपको ऋग्वेद का दूसरा , तीसरा और चौथा मंडल का पीडीएफ फाईल चाहिए तो आप इस 👇लिंक ...

नमस्ते जी
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🌻🌷ओ३म्🌷🌻 भूपेश आर्य 🌻ईश्वर जगत कर्ता है🌻 आस्तिक नास्तिक संवाद:- प्रश्न:-जब बिना बनाने वाले के...

🌻🌷ओ३म्🌷🌻

भूपेश आर्य

🌻ईश्वर जगत कर्ता है🌻

आस्तिक नास्तिक संवाद:-

प्रश्न:-जब बिना बनाने वाले के कोई चीज नहीं बनती तो जगत् के कर्ता ईश्वर को किसने बनाया?

उत्तर:-आप यह प्रश्न अपने मत के आधार पर कर रहे हैं या वैदिक सिद्धान्त के आधार पर !यदि अपने मत के आधार पर कर रहे हैं तो आप तो ईश्वर को मानते ही नहीं,अतः यह प्रश्न कि ईश्वर को किसने बनाया,ऐसा ही होगा,जैसा कि"मनुष्य के सींग किसने बनाये" यह प्रश्न है,और यदि हमारे माने हुए ईश्वर को लक्ष्य करके आपका यह प्रश्न है,तो हम तो हम तो ईश्वर को बना नहीं मानते ,नित्य मानते हैं और नित्य को बनाने वाले की आवश्यकता नहीं।

नियम यह नहीं है कि “कोई चीज बिना बनाये नहीं बनती” प्रत्युत यह नियम है कि “कोई भी बनी हुई चीज बिना बनाये नहीं बनती” और ईश्वर बना हुआ है नहीं,अतः उस पर यह नियम लागू नहीं होता।

प्रश्न:-जगत् को कब बनाया?

उत्तर:-एक अरब, छियानवें करोड़, आठ लाख,तरेपन हजार,एक सौ पन्द्रह वर्ष(1,96,08,53,115)बीत गये।

प्रश्न:-किससे बनाया ?

उत्तर:-यहां साधनों की आवश्यकता नहीं है।परमात्मा सम्पूर्ण प्रकृति के अन्दर व्यापक है।अतः अपनी प्रयत्न शक्ति से वह प्रत्येक अणु के अन्दर गति और परिवर्तन पैदा कर सकता है।साधनों की आवश्यकता वहां हुआ करती है जहां दूरी हो।जैसे कि हाथ से दूर पड़े अंगार को उठाने के लिए चिमटे की आवश्यकता है।और आत्मा से दूर के,चिमटे को उठाने के लिए हाथ चाहिये।परन्तु आत्मा के समीप होने वाले हाथ को उठाने के लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती।इसी प्रकार परमात्मा भी प्रकृति के अत्यन्त समीप है,अतः उसमें गति देने के लिए परमात्मा को साधन की आवश्यकता नहीं।

प्रश्न:-किस चीज से बनाया?

उत्तर:-प्रकृति से ।

प्रश्न:-निराकार से साकार जगत कैसे बन गया ?

उत्तर:- ईश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं,निमित्त कारण है।जगत् का उपादान कारण प्रकृति है।और प्रकृति साकार है,निराकार नहीं।अतः साकार से ही साकार बना है निराकार नहीं।बनने वाली चीज निमित्त कारण के आकार को ग्रहण नहीं किया करती प्रत्युत उसमें उपादान कारण का स्वरुप आया करता है।

जैसे कि बने हुए मकान में राज का रंग रुप नहीं आता क्योंकि वह उसका निमित्त कारण है,उपादान होने से ईटें और चूने का ही रंग रुप उसमें आता है।

प्रश्न:-परमाणु किस अवस्था में थे और कहां थे ?

उत्तर:- प्रकृति के रुप में थे और प्रकृति सूक्ष्म रुप में सर्वत्र फैली हुई थी।

प्रश्न:-परमाणु जड़ थे या चैतन्य! एक जैसे रुप वाले थे या पृथक् पृथक् ।

उत्तर:-प्रकृति का ही नाम परम सूक्ष्म होने से परमाणु है और प्रकृति सत्व,रज और तम इन तीनों गुणों की सम अवस्था का नाम है।अनेक गुण सूक्ष्म रुप से इन तीनों के अन्दर ही समाये हुए हैं।प्रकृति के अन्दर चैतन्य गुण नहीं है।

प्रश्न:-चैतन्य सुख की अवस्था में था या दुःख की ?

उत्तर:-चैतन्य दो प्रकार के हैं।एक जीव और दूसरा ईश्वर ।इनमें से ईश्वर तो सदा एकरस है। और जीव प्रलय के समय सुषुप्ति जैसी अवस्था में थे।

प्रश्न:/सब जीवों की दशा एक सी थी या पृथक्-२। उनमें और मुक्त जीवों में क्या भेद था ?

उत्तर:-बद्ध जीवों की सबकी दशा एक सी थी।मुक्त जीव आनन्द का उपभोग करते थे और बद्ध जीव सुषुप्ति जैसी अवस्था में,इसलिये भोग के संबंध में सब बद्ध जीव एक जैसे थे।परन्तु संस्कार भेद से उनका भेद उस समय भी ऐसा था जैसा कि अब है परन्तु सुषुप्ति के कारण वह प्रकट न था।जैसे इस समय की सुषुप्ति में।

प्रश्न:-प्रलय के बाद ईश्वर ने जीवों को कैसी शक्ल दी और किस तरह दी। हाथ पैर आदि इन्द्रियों से बढ़ई की तरह बनाया,या जिह्वा से “बन जाओ” बगैरह शब्द कह दिया और सब चीजें बन गयी ?

उत्तर:- पृथ्वी आदि ,भूत बन जाने के बाद परमात्मा ने वृक्षों और वनस्पतियों के बीज रुप में परिवर्तन होने वाले परमाणुओं को अपनी शक्ति से जोड़ दिया और उनसे वृक्ष वनस्पति पैदा हो गये।इसके बाद मनुष्य,पशु,पक्षी आदि उपादान कारण अर्थात बीज की शक्ति रखने वाले अणुओं को जोड़ दिया।और उन बीजों में से मनुष्य,पशु,पक्षी आदि की युवा अवस्था में उत्पत्ति हुई।भेद इतना ही है कि अब वही बीज माता और पिता के शरीर में पैदा होता है और फिर इकट्ठा होकर माता के गर्भाशय में पलता है और आरम्भ काल में वही शक्ति किसी और प्रकार से पृथ्वी माता के उदर में पलकर मनुष्य,पशु,पक्षी रुप बनी।इसलिये प्रलय के बाद ईश्वर ने जीवों को ऐसी ही शक्ल दी जैसी कि अब है।उसी तरह दी,जैसा ऊपर लिखा है।हाथ-पैर आदि इन्द्रियों से घड़कर बढ़ई की तरह नहीं बनाये।और न ही अपनी वाणी से बन जाओ मात्र कहा(क्योंकि ईश्वर निराकार है)।

प्रश्न:-इतनी बड़ी विशाल सृष्टि का सूक्ष्म परमाणु के रुप में चला जाना और उसका फिर बिना सहस्त्रों इंजीनियरों और मजदूरों के,बन कर तैयार हो जाना नितांत असंभव प्रमाण बाधित और साइन्स के विरुद्ध है।

उत्तर:-इस विशाल सृष्टि की रचना और इसका संहार आपको असम्भव और निष्प्रमाण जैसे प्रतीत हो यह स्वाभाविक ही बात है।कारण यह कि मनुष्य की बहुत थोड़ी शक्ति है और उसका बहुत थोड़ा ज्ञान है।एक चींटी कब स्वीकार करेगी कि १० मन भार के गठ्ठे को कोई उठाकर भी ले जा सकता है।हेतु इसका भी यही होगा कि हम सहस्रों भी इसे उठाकर नहीं ले जा सकती तो अकेला इसे कोन उठा सकेगा।परन्तु हाथी के लिए ये बाय हाथ का खेल है।आपको और भी अधिक आश्चर्य होगा जब आप इस रचित संसार की नियम श्रृंखला पर ध्यान देंगे।

देखिये इतनी बड़ी हमारी पृथ्वी और उससे भी सैंकड़ों गुणा बड़ा सूर्य आकाश में कैसे लटक रहा है।लाखों क्रेनें भी लगें तब भी इन्हें ठहरा नहीं सकती।पृथ्वी कितने ही ग्रहों के साथ इसके चारों और कैसी तीव्र गति से चक्कर काट रही है।लाखों इंजन भी इनको चलाने में समर्थ न होंगे।ध्रुव के चारों और तीव्र गति से घूमते हुए सप्त ऋषियों को देखकर और ध्रुव को उसी स्थान पर खड़ा देखकर आपका आश्चर्य सीमा से बाहर हो जायेगा।यदि आपके पास आंखें और ज्योतिष शास्त्र न होते तो आप इन सब यथार्थ बातों को असम्भव,प्रमाण बाधित कहने में कुछ भी देर न लगाते।हां तो इस ग्रह चक्र की नियम श्रृंखला का संयोजक कौन है?

क्या स्वभाव से ही!
बलिहारी आपके इस स्वभाववाद पर।तब तो आप भूमि के पेट में पले हुए लोहे को तो स्वभाव कहते ही हैं,उसे नियमित रुप देकर संचालित घड़ी को भी स्वभाव की महिमा कहा करें।भूमि से निकले हुए पत्थरों को ही उन्हें तोड़ और घड़ कर एक विषेश रुप में स्थापित मकान को भी स्वभाव की लीलि कहा करें।

आप यदि ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि संसार में जितनी मनुष्य की बनाई हुई वस्तुएं हैं वे सब क्षीणता की और जा रही हैं और यह उनका क्रम से होने वाला क्षय ही एक दिन उनके सर्वनाश में कारण बनता है।परन्तु जिस दिन ये वस्तुएं बिगड़ चुकती हैं,उसके बाद बनने की और अग्रसर होती हुई नहीं देखी जाती।चाहे एक इंजन सहस्रों वर्ष बिगड़ा पड़ा रहे परन्तु फिर भी हर समय होने वाला प्राकृतिक परिवर्तन उसे इंजन का रुप नहीं दे सकता।हां इंजन के आभ्यान्तर अणुओं के परिणाम से वह एक दिन सर्वनाश होकर मिट्टी में मिल जायेगा।और फिर कभी न पैदा होगा।

इसी प्रकार पृथ्वी के आभ्यान्तर(अंदर के) परिवर्तन से कदाचित लोहे आदि के निर्माण और क्षय को स्वभाव कहा जा सके,परन्तु क्षीण होते होते पृथ्वी सूर्य आदि गोलों का निर्माण स्वभाव से कदापि नहीं हो सकता।यह ग्रहों का निर्माण,आकर्षण में नियमपूर्वक स्थापन की व्यवस्था किसी बुद्धिमान का ही काम है।आज तक कोई नया ग्रह आकाश में घूमते हुए अणुओं से बनकर आकाश में आता हुआ नहीं देखा गया।

ग्रहों की शक्ति क्षीण हो रही है इस सिद्धांत को वैज्ञानिक संसार भी मानता है।भूमि और सूर्य की वह ऊष्मा जो इनके आरम्भ काल में थी अब नहीं है।यह क्षय का सिलसिला बन्द नहीं हो सकता।और बिगड़ते-२ जब सब भूमिएं,वृक्ष और वनस्पतियों को पैदा करने में असमर्थ हो जावेंगी,जो कि प्राणियों के उपभोग के पदार्थ हैं,सब निष्फल हो जाने के कारण परमात्मा इनका सर्वनाश कर देंगे।औय कुछ काल तक इनको उसी सूक्ष्म अवस्था में पड़े रहने देंगे कि इनमें फिर जनन शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाये।जैसा कि किसान अपनी भूमि को एक वर्ष तक जोतता और एक वर्ष पड़ी रहने देता है।इसके अनन्तर जब वे अणु समर्थ और शक्तिशाली हो जावेंगे,परमात्मा फिर इसी रुप में इस सारे ग्रह और नक्षत्र मण्ड़ल का निर्माण कर इसे इसी प्रकार नियम में व्यवस्थित् कर देंगे।यहां इंजनों और इंजीनियरों या किसी भी प्रकार की मशीनरी की आवश्यकता नहीं।
अणु-२ के अंदर विराजमान परमात्मा ही प्रकृति के नियमित परिवर्तन के लिए पर्याप्त है।

प्रश्न:-ईश्वर ने जगत को क्यों बनाया?

उत्तर:-प्राणियों के कर्मों का न्यायानुसार फल देने के लिए।

प्रश्न:-यदि ईश्वर में इच्छा थी तो वह रागी बन गया ?

उत्तर:- ईश्वर की यह इच्छा थी कि प्राणियों का उद्धार हो ,उन्हें आनन्द की प्राप्ति हो और उनके कर्मानुसार फल मिले यह इच्छा उसमें सदा रहती है।राग का कारण स्वार्थ होता है,निष्काम परोपकार का भाव राग को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न:-क्या ईश्वर नहीं जानता था कि लोग पैदा होकर बुरे कर्म करेंगे।यदि जानता था ,तो उन्हें स्वतन्त्र क्यों बनाया ?

उत्तर:-यदि आप वैदिक सिद्धान्तों का भली भांति स्वाध्याय कर लेते तो आपको ऐसे ऐसे प्रश्न करने की आवश्यकता ही न पड़ती।अस्तु ! ईश्वर ने जीवों को बनाया नहीं और न स्वयं उन्हें स्वतन्त्रता दी।जीव अनादि है और अनादि काल से कर्म करने में स्वतन्त्र है।परन्तु कर्मों का फल भोगने के लिए उन्हें न्याय के शिकंजे में जाना पड़ता है।इसी भाव से कि वे शुभ कर्म कर जन्म मरण के बन्धन से छूटें।परमात्मा उन्हें ज्ञान का उपदेश भी देते हैं और सृष्टि का निर्माण भी करते हैं।


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Wednesday, December 30, 2015

    Dinesh Sharma December 27 at 11:58am   क्या मूर्तिपूजा वेद-विरुद्ध है? भारत में मूर्ति-पूजा...

   
Dinesh Sharma
December 27 at 11:58am
 
क्या मूर्तिपूजा वेद-विरुद्ध है?

भारत में मूर्ति-पूजा जैनियों ने लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व से अपनी मूर्खता से चलाई । जिससे उस समय तो आदि शंकरचार्य ने निजात दिला दी परंतु उनके मरते ही उनको भी शिव का अवतार ठहरा कर पेट-पूजा होने लगी । इसी मूर्ति-पूजा के कारण ही भारत में क्रूर इस्लाम की स्थापना हुई तथा भारत को परतंत्रता का मुँह देखकर अवनति के गर्त में गिरना पड़ा । अब भी यदि इस्लाम से बचना चाहते हो , मुसलमानों , इसाइयों से दुनिया को बचाना चाहते हो तो श्री राम , श्री कृष्ण के सदृश्य आर्य ( श्रेष्ठ ) बनों ।

सृष्टि की सबसे पुरानी पुस्तक वेद में एक निराकार ईश्वर की उपासना का ही विधान है, चारों वेदों के 20589 मंत्रों में कोई ऐसा मंत्र नहीं है जो मूर्ति पूजा का पक्षधर हो ।

महर्षि दयानन्द के शब्दों में – मूर्ति-पूजा वैसे है जैसे एक चक्रवर्ती राजा को पूरे राज्य का स्वामी न मानकर एक छोटी सी झोपड़ी का स्वामी मानना ।

वेदों में परमात्मा का स्वरूप यथा प्रमाण –

* न तस्य प्रतिमाsअस्ति यस्य नाम महद्यस: ।

- ( यजुर्वेद अध्याय 32 , मंत्र 3 )

उस ईश्वर की कोई मूर्ति अर्थात् – प्रतिमा नहीं जिसका महान यश है ।

* वेनस्त पश्यम् निहितम् गुहायाम ।

- ( यजुर्वेद अध्याय 32 , मंत्र 8 )

विद्वान पुरुष ईश्वर को अपने हृदय में देखते है ।

* अन्धन्तम: प्र विशन्ति येsसम्भूति मुपासते ।

ततो भूयsइव ते तमो यs उसम्भूत्या-रता: ।।

- ( यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 9 )

अर्थ – जो लोग ईश्वर के स्थान पर जड़ प्रकृति या उससे बनी मूर्तियों की पूजा उपासना करते हैं , वह लोग घोर अंधकार ( दुख ) को प्राप्त होते हैं ।

हालांकि वेदों के प्रमाण देने के बाद किसी और प्रमाण की जरूरत नहीं परंतु आदि शंकराचार्य , आचार्य चाणक्य से लेकर महर्षि दयानन्द सब महान विद्वानों ने इस बुराई की हानियों को देखते हुए इसका सत्य आम जन को बताया ।

बाल्मीकि रामायण में आपको सत्य का पता चल जाएगा की राम ने शिवलिंग की पूजा की थी कि वैदिक मंत्रों द्वारा संध्या हवन-यज्ञ करके सच्चे शिव की उपासना की थी ।

* यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यन्ति ।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ – केनोपनि० ॥ – सत्यार्थ प्र० २५४

अर्थात जो आंख से नहीं दीख पड़ता और जिस से सब आंखें देखती है , उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर । और जो उस से भिन्न सूर्य , विद्युत और अग्नि आदि जड़ पदार्थ है उन की उपासना मत कर ॥

* अधमा प्रतिमा पूजा ।

अर्थात् – मूर्ति-पूजा सबसे निकृष्ट है ।

* यष्यात्म बुद्धि कुणपेत्रिधातुके

स्वधि … स: एव गोखर: ॥ - ( ब्रह्मवैवर्त्त )

अर्थात् – जो लोग धातु , पत्थर , मिट्टी आदि की मूर्तियों में परमात्मा को पाने का विश्वास तथा जल वाले स्थानों को तीर्थ समझते हैं , वे सभी मनुष्यों में बैलों का चारा ढोने वाले गधे के समान हैं ।

* जो जन परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य की उपासना करता है वह विद्वानों की दृष्टि में पशु ही है । - ( शतपथ ब्राह्मण 14/4/2/22 )

क्या मूर्तिपूजा वेद-विरुद्ध है?

मूर्ति-पूजा (idol-worship) पर विद्वानों के विचार

* नास्तिको वेदनिन्दक: ॥ – मनु० अ० १२

मनु जी कहते है कि जो वेदों की निन्दा अर्थात अपमान , त्याग , विरुद्धाचरण करता है वह नास्तिक (Atheistic) कहाता है ।

* या वेदबाह्या: स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टय: ।

सर्वास्ता निष्फला: प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ता: स्मृता: ॥ – मनु० अ० १२

अर्थात जो ग्रंथ वेदबाह्य कुत्सित पुरुषों के बनाए संसार को दु:खसागर में डुबोने वाले है वे सब निष्फल , असत्य , अंधकाररूप , इस लोक और परलोक में दु:खदायक है ।

* प्रतिमा स्वअल्पबुद्धिनाम । - आचार्य चाणक्य (chanakya)

( चाणक्य नीति अध्याय 4 श्लोक 19 )

अर्थात् – मूर्ति-पूजा मूर्खो के लिए है ।

* नहीं नहीं मूर्ति-पूजा कोई सीढी या माध्यम नहीं बल्कि एक गहरी खाई है जिसमें गिरकर मनुष्य चकनाचूर हो जाता है जो पुन: उस खाई से निकल नहीं सकता ।

– ( दयानन्द सरस्वती स.प्र. समु. 11 में )

वेदों में मूर्ति–पूजा निषिद्ध है अर्थात् जो मूर्ति पूजता है वह वेदों को नहीं मानता तथा “ नास्तिको वेद निन्दक: ” अर्थात् मूर्ति-पूजक नास्तिक हैं ।

कुछ लोग कहते है भावना में भगवान होते है । यदि ऐसा है तो मिट्टी में चीनी की भावना करके खाये तो क्या मिट्टी में मिठास का स्वाद मिलेगा ?

इसी कारण हिन्दू जाति को हजारों वर्षो से थपेड़े खाने पड़ रहे है । मूर्ति-पूजा के कारण ही देश को लगभग एक सहस्र वर्ष की दासता भोगनी पड़ी । रूढ़िवादी , राष्ट्रद्रोह , धर्मांधता , सांप्रदायिकता , गलत को सहना , पाप , दुराचार व समस्त बुराइयों का मूल कारण यह वेद-विरुद्ध कर्म पाषाण-पूजा ही है।

* वेद ज्ञान बिन इन रोगों का होगा नहीं कभी निदान ।

कोरे भावों से दोस्तों कभी न मिलता भगवान ॥

मूर्ति-पूजा के पक्ष में कुछ लोग थोथी दलीलें देते है वे घोर स्वार्थी अज्ञानी व नास्तिक हैं तथा अनीति के पक्षधर व मानवता (humanity) के कट्टर दुश्मन है जिस प्रकार उल्लू को दिन पसंद नहीं होता , चोरों को उजेली रात पसंद नहीं होती इसी प्रकार स्वार्थियों को मूर्ति-पूजा का खंडन पसंद नहीं होता । कुछ धर्म प्रिय सच्चे लोग भी सत्य बताने वालों को धर्म खत्म करने वाला तक कह देते है और कहते है जो चल रहा है चलने दो । अत: हमें उन भूलों से बचना होगा जिनके कारण हमारा देश गुलाम हुआ । हमारे मंदिरों (Temples) को तोड़ा गया , हमारा धन छीना गया , हमारे मंदिरों की मूर्तियों (Statues) को मस्जिदों की सीढ़ियों में चुनवाया गया ।

हिन्दू जाग पंक्तियां

* भोली जाती तुझे बचाने दयानन्द गर आते न ।

सिर पर चोटी गले जनेऊ हिन्दू ढूँढे पाते ना ॥

* एक ईश्वर को तजकर के यहाँ लाखों ईश बताते थे ।

पानी , मिट्टी , ईंटें , पत्थर कब्रें तक पुजवाते थे ॥

* अन्धा गिरे जो कूप में ताको दोष न होय ।

नौजवान यदि गिरे पड़े तो उसकी चर्चा होय ॥

मूर्तिपूजा की हानियाँ

* पहली – दुष्ट पूजारियों को धन देते है वे उस धन को वेश्या , परस्त्रीगमन , शराब-मांसाहार , लड़ाई बखेड़ों में व्यय करते है जिस से दाता का सुख का मूल नष्ट होकर दु:ख होता है ।

* दूसरी – स्त्री-पुरुषों का मंदिरों में मेला होने से व्याभिचार , लड़ाई आदि व रोगादि उत्पन्न होते है ।

* तीसरी – उसी को धर्म , अर्थ , काम और मुक्ति का साधन मानके पुरुषार्थरहित होकर मनुष्यजन्म व्यर्थ गवाता है ।

* चौथी – नाना प्रकार की विरुद्धस्वरूप नाम चरित्रयुक्त मूर्तियों के पूजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत में चल कर आपस में फूट बढ़ा के देश का नाश करते है।

* पांचवी – उसी के भरोसे में शत्रु का पराजय और अपना विजय मान बैठते है । उन का पराजय होकर राज्य , स्वातंत्र्य और धन का सुख उनके शत्रुओं के स्वाधीन होता है और आप पराधीन भठियारे के टट्टू और कुम्हार के गदहे के समान शत्रुओं के वश में होकर अनेकविधि दु:ख पाते है ।

* छठी – भ्रान्त होकर मन्दिर-मन्दिर देशदेशान्तर में घूमते-घूमते दु:ख पाते , धर्म , संसार और परमार्थ का काम नष्ट करते , चोर आदि से पीड़ित होते , ठगों से ठगाते रहते है ।

* सातवी – जब कोई किसी को कहे कि हम तेरे बैठने के स्थान व नाम पर पत्थर धरें तो जैसे वह उस पर क्रोधित होकर मारता वा गाली देता है वैसे ही जो परमेश्वर (God) की उपासना (Worship) के स्थान हृदय और नाम पर पाषाणादि मूर्तियां धरते है उन दुष्टबुद्धिवालों का सत्यानाश परमेश्वर क्यों न करे ?

* आठवी – माता-पिता आदि माननीयों का अपमान कर पाषाणादि मूर्तियों का मान करके कृतघ्न हो जाते है।

* नवमी – भ्रांत होकर मंदिर-मंदिर देशदेशांतर में घूमते-घूमते दु:ख पाते, धर्म, संसार और परमार्थ (Charity) का काम नष्ट करते, चोर आदि से पीड़ित होते, ठगों से ठगाते रहते है।

* दशवी – दुष्ट पुजारियों को धन देते है वे उस धन को वेश्या, परस्त्रीगमन, मांस-मदिरा, लड़ाई-बखेड़ों में व्यय करते है जिस से दाता का सुख का मूल (अच्छे कर्म) नष्ट होकर दु:ख होता है।

* ग्यारहवाँ – उन मूर्तियों को कोई तोड़ डालता व चोर ले जाता है हा-हा करके रोते है।

* बारहवाँ – पुजारी परस्त्रीगमन के संग और पुजारिन परपुरुषों के संग से प्राय: दूषित होकर स्त्री-पुरुष के प्रेम के आनन्द को हाथ से खो बैठते है।

* तेरहवाँ – स्वामी सेवक की आज्ञा का पालन यथावत न होने से परस्पर विरुद्धभाव होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं।

* चौदहवां – जड़ का ध्यान करने वाले का आत्मा भी जड़-बुद्धि हो जाता है क्योंकि ध्येय का जड़त्व धर्म अन्त:करण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है।

* पन्द्रहवां – परमेश्वर ने सुगन्धियुक्त पुष्पादि पदार्थ वायु जल के दुर्गन्ध निवारण और आरोग्यता के लिए बनाये हैं। उन को पुजारी जी तोड़ताड़ कर न जाने उन पुष्पों कितने दिन तक सुगन्धि आकाश में चढ़ कर वायु जल की शुद्धि करता और पूर्ण सुगन्धि के समय तक उस का सुगंध होता है; उस का नाश करके मध्य में ही कर देते हैं। पुष्पादि कीच के साथ मिल-सड़ कर उल्टा दुर्गन्ध उत्पन्न करते है। क्या परमात्मा ने पत्थर पर चढ़ाने के लिए पुष्पादि सुगन्धियुक्त पदार्थ रचे है।

* सोलहवां – पत्थर पर चढ़े हुए पुष्प, चन्दन और अक्षत आदि सब का जल और मृतिका (मिट्टी) के संयोग होने से मोरी या कुंड में आकर सड़ के इतना उस से दुर्गन्ध आकाश में चढ़ता है कि जितना मनुष्य के मल का। और सैकड़ों जीव उसमें पड़ते उसी में मरते और सड़ते है।

ऐसे-ऐसे अनेक मूर्तिपूजा के करने में दोष आते हैं। इसलिए सर्वथा पाषाणादि मूर्तिपूजा सज्जन लोगों को त्याग देनी योग्य है। और जिन्होंने पाषाणमय मूर्ति की पुजा की है , करते है , और करेंगे। वे पूर्वोक्त दोषों से न बचें; न बचते है, और न बचेंगे।


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दूसरों को कुछ देने का नाम यज्ञ है – अपने धन और पदार्थों में से दूसरों को कुछ बाँटना सीखो, देना...

दूसरों को कुछ देने का नाम यज्ञ है –

अपने धन और पदार्थों में से दूसरों को कुछ बाँटना सीखो, देना सीखो, यही यज्ञ का संदेश है। क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि हमारा हाथ है न, कितना भारी अयास है इसका, मुड़कर के सदैव मुख की ओर ही आता है। तात्पर्य यह है कि किसी कक्ष में आप बैठे हुए हैं और अचानक विद्युत् चली जाये तो जो आप खा रहे हैं, क्या आपका हाथ नाक या आँख की ओर जायेगा? बिलकुल नहीं। कितना भी अन्धेरा क्यों न हो, आपका हाथ सीधा मुख की ओर जाता है, कुछ ऊपर-नीचे नहीं गिरता। इतना भारी अयास है कि हाथ मुख की ओर ही जाता है, परन्तु इस हाथ को सीधा रखना सीखो, पहले दूसरों को खिलाओ, फिर अपनी ओर लेकर के आओ, तो उसका स्वाद बढ़ जायेगा और वह भोजन पुण्य बनकर आपका, आपके परिवार का और आपके राष्ट्र का कल्याण करेगा। इसे एक दृष्टान्त से समझते हैं-

एक बार प्रजापति के पास असुर गये और जाकर शिकायत करने लगे- महाराज, आप सदैव देवताओं को उपदेश देते हो, हमें कोई भी उपदेश नहीं देते। आप पक्षपात करते हैं। इस शिकायत को सुनकर प्रजापति ने कहा – ठीक है। इस मास की पूर्णिमा के दिन आपको हम उपदेश देंगे और भोजन भी करायेंगे। यह सुनकर असुर बड़े प्रसन्न हुए, परन्तु प्रजापति ने कहा-हम उस दिन देवताओं को भी बुलायेंगे, उन्हें भी उपदेश करेंगे और आपके साथ-साथ उनको भी भोजन करायेंगे। असुरों ने उत्तर दिया – हमें कोई आपत्ति नहीं है। यह कह कर असुर चले गये।

निश्चित तिथि एवं समय की सूचना प्रजापति ने देवताओं को भी दे दी। पूर्णिमा का दिन आया। असुर और देवता प्रजापति के पास पहुँच गये। असुरों को लगा कि प्रजापति पक्षपात करते हुए पहले देवताओं को भोजन करायेंगे। बचा-खुचा हमें खिलाया जायेगा। असुरों के गुरु ने प्रजापति से कहा- महाराज! आपने हमें पहले निमन्त्रण दिया था या देवताओं को? प्रजापति ने कहा-आपको। असुरों ने कहा – फिर भोजन आप पहले हमें कराओगे या देवताओं को? प्रजापति ने कहा- आपको पहले भोजन कराया जायेगा। यह कहकर प्रजापति ने असुरों को भोजन के लिए पंक्तियों में आमने-सामने बैठने का आदेश कर दिया। असुर लोग बैठ गये। भोजन परोस दिया गया।

ज्यों ही असुरों ने भोजन की ओर हाथ बढ़ाया, प्रजापति ने कहा- रुकिये! भोजन करने से पूर्व मेरी एक शर्त है। तुहारी कोहनियों पर लकड़ी की एक-एक खपच्ची बाँधी जायेगी, तभी आप भोजन कर सकेंगे। ऐसा कहकर प्रजापति ने सभी असुरों की कोहनियों पर वैसा करा दिया और तब भोजन करने का आदेश दे दिया। असुरों ने भोजन का ग्रास उठाया, परन्तु कोहनी पर लकड़ी बँधे रहने के कारण भोजन मुख तक जाने के स्थान पर इधर-उधर अपने मुख, आँख, दाँत, सिर पर गिरने लगा। निश्चित समय हो जाने पर प्रजापति ने असुरों को कहा – अब भोजन खाना बन्द कर दीजिए। भोजन का जितना समय निश्चित था, समाप्त हो गया। बेचारे असुर रुँआसे होकर भूखे ही वहाँ से उठ गये।

अब देवताओं के भोजन करने की बारी थी। देवताओं को भी पंक्तियों में आमने-सामने बिठा दिया गया। भोजन परोस दिया। इसी बीच असुरों के गुरु ने कहा – महाराज, यह तो न्याय नहीं है। आप देवताओं की कोहनियों में लकड़ी की खपच्चियाँ क्यों नहीं बँधवा रहे हैं? प्रजापति ने कहा- देवताओं को भी खपच्चियाँ बाँधी जायेंगी। यह कहकर प्रजापति ने देवताओं की कोहनियों पर भी लकड़ी की खपच्चियाँ बँधवा दीं। देवताओं ने भोजन का ग्रास उठाया, सामने वाले के मुख में दे दिया और सामने वाले ने भी उठाया तथा अपने सामने वाले के मुख में भोजन दे दिया । निश्चित समय से पूर्व ही सभी देवताओं ने तृप्त होकर भोजन कर लिया। यह सब दृश्य असुरों ने देाा तो बहुत लज्जित हुए। असुरों के गुरु ने कहा-महाराज! अब भूखे तो रह गये, कम से कम उपदेश तो कर दो। प्रजापति ने कहा – उपदेश तो मैं कर चुका हूँ । तुहारी समझ में नहीं आया तो मैं क्या कर सकता हूँ? असुर प्रजापति का आशय न समझते हुए पुनः बोले – महाराज, आप ने तो केवल भोजन करने का आदेश दिया है। उपदेश तो बिल्कुल नहीं किया है।

प्रजापति बोले-देखो! भोजन तुहें भी परोसा गया, देवताओं को भी परोसा गया। तुम लोग इसलिए भूखे रह गये कि तुमने स्वार्थवश स्वयं खाने का प्रयास किया, दूसरों को नहीं खिलाया। तुम अकेले खाने का प्रयास करते रहे और सभी भूखे रह गये। देवताओं ने दूसरों को खिलाने में रुचि ली, इसलिए वे तृप्त हो गये। आज का उपदेश यह है कि दूसरों को खिलाना सीखें, तभी आपकी तृप्ति होगी। इसीलिए वेद ने उपदेश दिया है- ‘जो लोग केवल अपने लिए पकाकर खा रहे होते हैं, वे लोग पाप खा रहे होते हैं, अकेले खाने वाला पाप खाता है।’

योगेश्वर कृष्ण ने तो गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक संया 12 में अकेले खाने वाले को चोर तक कह डाला है-

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानप्रदायेयो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।

यज्ञ से प्रसन्न होकर वायु, जल आदि देवता तुहें वे सब सुख प्रदान करेंगे, जिन्हें तुम चाहते हो। जो व्यक्ति उनके द्वारा दिए गए इन उपहारों का उपयोग देवताओं को बिना दिए करता है, वह तो चोर है। यहाँ ‘स्तेन’ शद का उपयोग योगेश्वर कृष्ण जी ने चोर के लिए किया है। जो अपने लिए भोजन पका रहा है, बाँटना नहीं चाहता, वह चोर है। भगवान् कृष्ण ने चोर शद का प्रयोग किया है, यह हमारी आत्मा को झिंझोड़ने वाला, हिलाने वाला शद है।

ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 117 वें सूक्त के मन्त्र संया 6 में अकेला खाने वाला किस प्रकार पापी है, उसका वर्णन इस प्रकार मिलता है-

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।

नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।।

(अप्रचेताः) धनों की अस्थिरता का विचार न करने वाला (अन्नं मोघं विन्दते) अन्न को व्यर्थ ही प्राप्त करता है। प्रभु कहते हैं (सत्यं ब्रवीमि)मैं यह सत्य ही कहता हूँ (सः) वह अन्न व धन (तस्य) उसका (इत्) निश्चय से (वधः) वध का कारण होता है। यह अदत्त अन्न व धन उसकी विलास वृद्धि का हेतु होकर उसका विनाश कर देता है। यह (अप्रचेताः) नासमझ व्यक्ति (न) न तो (अर्यमणम्) राष्ट्र के शत्रुओं का नियमन करने वाले राजा को (पुष्यति) पुष्ट करता है (नो) और न ही (सखायम्) मित्र को। वह कृपण व्यक्ति राष्ट्र रक्षा के लिए राजा को भी धन नहीं देता और न ही इस धन से मित्रों की सहायता करता है। वह दान न देकर (केवलादी) अकेला खाने वाला व्यक्ति (केवलाघः भवति) शुद्ध पाप ही पाप खाने वाला हो जाता है, दूसरों को न बाँटने वाला व्यक्ति ‘चोर’ ही कहलायेगा। जो केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे पाप की हंडिया पकाते हैं। यज्ञपूर्वक बाँटकर खाना पुण्य प्राप्ति का मार्ग है।

ब्राह्मण लोक कल्याण के लिए अपना समय ज्ञानोपार्जन तथा ज्ञान दान में लगाता है तथा अपने भोजन में से थेाड़ा-सा भाग बलिवैश्वदेव यज्ञ के लिए निकालता है। यह बलिवैश्वदेव इस बात का प्रतीक है कि ब्राह्मण सदैव इस बात को स्मरण रखें कि यह जो मैं निश्चिन्त होकर ज्ञानोपार्जन कर रहा हूँ, इस निश्चिन्तता के लिए मैं राजा, प्रजा, यहाँ तक कि प्राणीमात्र का ऋ णी हूँ। मुझे लोक कल्याण के लिए जीना है और जीने के लिए खाना है। इसी प्रकार क्षत्रिय अन्याय निवारण के व्रत के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। वैश्य प्रजा का दारिद्र्य निवारण करने के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। शूद्र किसी न किसी व्रतधारी की सेवा के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। सो लोकसेवा के लिए जीना और जीने के लिए खाना यज्ञशेष खाना है। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए गीता के तीसरे अध्याय 3 श्लोक 13 में इस प्रकार वर्णन है-

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।

वे व्यक्ति ही सन्त हैं जो यज्ञ के बाद बची हुई, वस्तु (यज्ञशेष)का उपभोग करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो दुष्ट लोग केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे तो समझो पाप ही खाते हैं।

यह जो बात ऋग्वेद में कही है, गीता में भी कही है वह इस बात को समझा रही है कि वस्तुओं को अधिक-से- अधिक संग्रह करके अपने पास रख लेना अच्छी बात नहीं है। बाँटने का नाम यज्ञ है, सेवा का नाम यज्ञ है, परोपकार का नाम यज्ञ है, हम इसे करना सीखें।

आपके घर में जो भी पदार्थ आये उसका प्रयोग करने से पहले भगवान् को भोग लगाओ, अर्थात् अग्नि में आहुति दो, फिर जिसे बलिवैश्वदेव यज्ञ कहते हैं, उसका अनुष्ठान करके प्राणी मात्र के लिए भाग निकालिये। जिसे हम भाग रखने के मन्त्र द्वारा बताते हैं कि गौ ग्रास निकालिए, आस-पास कोई व्यक्ति भूखा, पीड़ित, दुःखी याचक है, उसके लिए भाग निकालिए। पितृयज्ञ और अतिथियज्ञ द्वारा माता-पिता, गुरु, अतिथि, राष्ट्र सबके लिए भाग निकालिए।

कहते हैं, जो पाप खा रहे होते हैं फिर वह रोग बनकर, वही कलह बनकर, वही विवाद बनकर, वही तनाव बनकर, वही सन्ताप बनकर व्यक्ति के परिवार में उसके जीवन में उभरता है, अतः बाँटना सीखो, देना सीखो।

हमारा कर्म यज्ञ बन जाये, हम याज्ञिक बन जायें। कैसे! जब कोई व्यक्ति यज्ञ करता है तो उसकी सुगन्ध को समेटकर कभी कैद करके रख नहीं सकता। तभी तो कहा जाता है- ‘‘इदन्न मम’’- यह आहुति अग्नि, सोम, प्रजापति और इन्द्र के लिए है, मेरे लिए नहीं। परोपकार के लिए किया गया जो भी कर्म है, वह सब यज्ञ है। सेवा यज्ञ है, जनकल्याण के लिए निस्वार्थ भाव से किया गया है कार्य यज्ञ है। तभी तो वेद में कहा है – ‘तुम देवताओं को प्रसन्न करो, देवता तुहें प्रसन्न करेंगे। तुम देवताओं के लिए यज्ञ करो, देवता तुहारे लिए यज्ञ करेंगे, तुहारा कल्याण करेंगे। सुख को जितना अधिक बाटेंगे उतना ही अधिक आनन्द आयेगा। इस तरह से यज्ञ शेष को ग्रहण करना सीखो – प्राप्त करो और बाँटो। बाँटने का परिणाम यह होगा उस वस्तु का स्वाद बढ़ जायेगा।’

कहते हैं कि प्रसन्नता को बाँटो, इसलिए कि प्रसन्नता बढ़ जाये और दुःख को बँटाओ, इसीलिए कि दुःख हल्का पड़ जाये। जब भी किसी के जीवन में प्रसन्नता आती है तो लोग निमन्त्रण देने पहुँच जाते हैं, सब मित्रों सबन्धियों को कहते हैं- आइये, हमारी प्रसन्नता में समिलित होइये, क्योंकि हमारी प्रसन्नता में वृद्धि हो जायेगी। दुःख आता है तो लोग बिना निमन्त्रण के सूचना मात्र से दुःख को बाँटने आ जाते हैं, सब लोग साथ खड़े हो जाते हैं, यह कहने के लिए कि तुहारे साथ संवदेना और सहानुभूति लेकर हम आये हैं, अपने को अकेला मत समझना और यह नहीं सोचना कि तुम अकेले हो। दुःख आया है, दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति पर दुःख आता है, दुःख के बिना कोई अछूता नहीं रहता। प्रत्येक व्यक्ति को दुःख का सामना स्वयं करना पड़ता है, परन्तु दुःख बाँटने वाले उसका मनोबल बढ़ाते हैं और द़ुःख बँट जाता है, घट जाता है।

आपने एक बात देखी होगी- आपके कमरे में दो खिड़कियाँ हैं, आप निमन्त्रण देते हैं शुद्ध वायु को, पवनदेव को और कहते हैं-पवन देव! घुटन है अन्दर, आप आओ, हमें शुद्ध वायु प्रदान करो। आपने निमन्त्रण दिया, परन्तु वे आने के लिए तैयार नहीं हैं। पवन देव बोले-एक मार्ग से बुलाया और मुझे बन्दी बनाकर रखना चाहता है, दूसरी खिड़की खोल, तभी मैं अन्दर आऊँगा। मैं एक ओर से आऊँगा, तुहें ताजगी देने के पश्चात् दूसरीािड़की से बाहर चला जाऊँगा।

इधर से वायु आए, उधर से जाए। तात्पर्य यह है कि जब तुहारे जीवन में आनन्द आए तो बाँटना प्रारभ कर दो। बाँटना प्रारभ कर दोगे तो क्या होगा? वह कई गुणा तुहारे पास आएगा और तुहें आनन्दित करना प्रारभ कर देगा।

कुएँ से पानी निकालो तो वह दूसरों का कल्याण करेगा, दूसरा पानी यहाँ आयेगा, ताजा बना रहेगा, जीवन जीवन्त रहेगा। जो जल भरकर जाये बादल, इधर से भरकर लाये और उधर से बरसाये, तभी उन बादलों की शोभा है। और यदि गरजते हुए चले जायें तो उनकी कोई शोभा नहीं। उनका होना न होना व्यर्थ है। वहाँ बादल भी बाँटना सीख रहा है। इसी का नाम जीवन है। यह जीवन क ी सत्यता है, यह जीवन का एक उद्देश्य है। योगीराज कृष्ण कहते हैं- ‘इसी का नाम यज्ञ है।’ इसीलिए यह एक चक्र है जो घूम रहा है। यदि पाना चाहते हैं तो देना सीखो और दोगे तो लौट पर भी पर्याप्त मात्रा में आयेगा।

वेद के ऋषि स्पष्ट रूप से निर्देश करते हैं कि यदि खाना चाहते हो तो ध्यान रखना-यज्ञ करने के बाद घर में भोजन को खायें। उस पर तुहारा अधिकार है, बाँटकर खाओ, इसमें आपको आनन्द आयेगा। इसी में हम सभी का हित है। प्रभु हम सब पर कृपा करें कि स्वार्थी न बनें, परोपकार भी सकाम भावना से न करें, दूसरों को बाँटना सीखें, तभी हमारा यज्ञ सफल होगा।


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. यजुर्वेद ९-३९ (9-39) स॑वि॒ता त्वा॑ स॒वाना॑ सुव॒ताम॒ग्निर्गृ॒हप॑तीना॒ सोमो॒ वन॒स्पती॑नाम् ।...

. यजुर्वेद ९-३९ (9-39)

स॑वि॒ता त्वा॑ स॒वाना॑ सुव॒ताम॒ग्निर्गृ॒हप॑तीना॒ सोमो॒ वन॒स्पती॑नाम् । बृह॒स्पति॑र्वा॒च ऽइन्द्रो ज्यैष्ठ्याय रु॒द्रः प॒शुभ्यो॑ मि॒त्रः स॒त्यो वरु॑णो॒ धर्म॑पतीनाम् ॥

भावार्थ:- हे राजन् जो आपकों अधर्म से लौटाकर धर्म के अनुष्ठान में प्रेरणा करें, उन्हीं का संग सदा करो, औरों का नहीं।।

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एक कहानी जो आपके जीवन से जुडी है । ध्यान से अवश्य पढ़ें– एक अतिश्रेष्ठ व्यक्ति थे , एक दिन...

एक कहानी जो आपके जीवन से जुडी है ।
ध्यान से अवश्य पढ़ें–

एक अतिश्रेष्ठ व्यक्ति थे , एक दिन उनके पास एक निर्धन आदमी आया और बोला की मुझे अपना खेत कुछ साल के लिये उधार दे दीजिये ,मैं उसमे खेती करूँगा और खेती करके कमाई करूँगा,

वह अतिश्रेष्ठ व्यक्ति बहुत दयालु थे
उन्होंने उस निर्धन व्यक्ति को अपना खेत दे दिया और साथ में पांच किसान भी सहायता के रूप में खेती करने को दिये और कहा की इन पांच किसानों को साथ में लेकर खेती करो, खेती करने में आसानी होगी,
इस से तुम और अच्छी फसल की खेती करके कमाई कर पाओगे।
वो निर्धन आदमी ये देख के बहुत खुश हुआ की उसको उधार में खेत भी मिल गया और साथ में पांच सहायक किसान भी मिल गये।

लेकिन वो आदमी अपनी इस ख़ुशी में बहुत खो गया, और वह पांच किसान अपनी मर्ज़ी से खेती करने लगे और वह निर्धन आदमी अपनी ख़ुशी में डूबा रहा, और जब फसल काटने का समय आया तो देखा की फसल बहुत ही ख़राब हुई थी , उन पांच किसानो ने खेत का उपयोग अच्छे से नहीं किया था न ही अच्छे बीज डाले ,जिससे फसल अच्छी हो सके |

जब वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति ने अपना खेत वापस माँगा तो वह निर्धन व्यक्ति रोता हुआ बोला की मैं बर्बाद हो गया , मैं अपनी ख़ुशी में डूबा रहा और इन पांच किसानो को नियंत्रण में न रख सका न ही इनसे अच्छी खेती करवा सका।

अब यहाँ ध्यान दीजियेगा-

वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति हैं -“ भगवान”

निर्धन व्यक्ति हैं -“हम”

खेत है -“हमारा शरीर”

पांच किसान हैं हमारी इन्द्रियां–आँख,कान,नाक,जीभ और मन |

प्रभु ने हमें यह शरीर रुपी खेत अच्छी फसल(कर्म) करने को दिया है और हमें इन पांच किसानो को अर्थात इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रख कर कर्म करने चाहियें ,जिससे जब वो दयालु प्रभु जब ये शरीर वापस मांग कर हिसाब करें तो हमें रोना न पड़े।


इस ज्ञान को अपने जीवन में लगायें।।

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माँ के पेट में आया तब एक मिलीग्राम वजन भी नहींथा… जब पेट से बाहर आया तब चार किलो के लगभग...

माँ के पेट में आया तब एक मिलीग्राम वजन भी नहींथा…
जब पेट से बाहर आया तब चार किलो के लगभग था…
जब कमाने लायक यानि 25 वर्ष का हुआ तब वजन 67 किलोग्राम था…
आज 75 के लगभग हो गया है…
उस एक मिलीग्राम से भी कम वजन से जो 4 किलो हुआ था,वह माता के रक्त को सोखकर हुआ…
उसके बाद 67 किलोग्राम का पिता के पुरुषार्थ रूप से उसका भी रक्त शोषण करके इतना बड़ा हुआ… और अब जब 75 किलो हो गया, यह भी माता के पुरुषार्थ और देखभाल का ही नतीजा है…
तात्पर्य यह है कि माता-पिता से ही हमारा पूरा वजूद है… सारे के सारे हम उनके कर्ज तले दबे पड़े हैं… और उस पर भी यदि हम उनकी आज्ञा पालन न करें…
उन्हें कडवा बोले… उन्हें कुछ समझे ही नहीं…उन्हें कहें कि तुम लोगों ने किया ही क्या है… तो फिर हम जैसा नीच अधम प्राणी इस धरा पर कोई नहीं…
अतः अपने माता-पिता और पितृगण से इतना प्रेम और सम्मान करो जितना स्वयं अपनी आत्मा का भी न करते हो अर्थात अति विनम्र सरल बिछे हुए रहो सदा उनके आगे…. यही सन्तान धर्म है…यही धर्म है…यही कर्तव्य है…


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आप को जो अपनी किसी भी बीमारी के बारे में पूछना हैं तो इन नीचे दिए गए लिंक्स से एक बार ज़रूर देखे। और...

आप को जो अपनी किसी भी बीमारी के बारे में पूछना हैं तो इन नीचे दिए गए लिंक्स से एक बार ज़रूर देखे। और अगर आपको अपनी बीमारी के बारे में कोई डिटेल यहां ना मिले तो नीचे कमेंट में लिखिए। हम उसको अपडेट कर देंगे।

गृध्रसी - सायटिका का घरेलु उपचार
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एसिडिटी के लिए रामबाण इलाज।
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सर्दी खांसी जुकाम
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शुगर - मधुमेह
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हार्ट - (हृदय सम्बंधित, कोलेस्ट्रोल, रक्त चाप सम्बंधित, इत्यादि)
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कैंसर सम्बंधित
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किडनी सम्बंधित (डायलिसिस, स्टोन, मूत्र सम्बंधित)
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गुर्दे और मूत्राशय की पत्थरी
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लिवर सम्बंधित (पीलिया और अन्य)
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लिवर सोराइसिस के लिए
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मोटापा
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मोटापे और पतलेपन से परेशान
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बालो के रोग (सफ़ेद होना, झड़ना, गंजापन)
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मिर्गी का उपचार।
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Vimal


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👉बहुराष्ट्रीय कंपनियां और भारत का निर्यात 👇👇👇👇👇👇 👉कहां जाता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां निर्यात...

👉बहुराष्ट्रीय कंपनियां और भारत का निर्यात

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👉कहां जाता है कि
बहुराष्ट्रीय कंपनियां निर्यात बढ़ाती है !
👉आजादी से पहले भारत का विश्व निर्यात में करीब ६.२ प्रतिशत योगदान था तब यहां १० से १५ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियां थी !

👉अब विश्व निर्यात में भारत का योगदान आधे प्रतिशत से भी कम रह गया है !
और देश में करीब २००० बहुराष्ट्रीय कंपनियां काम कर रही है !

👉भारत का ६६ से ७० प्रतिशत निर्यात लघु उद्योग और हाथ के बने समानों से होता है !

pepsi के साथ सरकार की सर्थ् थी कि जिस दिन से यह कंपनी खाद सामग्री बनाएगी उसी दिन से अपने आधे उत्पाद का निर्यात करेगी !

👉लेकिन अभी तक पेप्सी ने अपना निर्यात वादा वादा पूरा नहीं किया

और न ही सरकार इस विषय पे कुछ कर रही है

👉तो भाइयों हमें फिर से १९०५ वाला आंदोलन दोहराना होगा और हमें फिर से बहिष्कार बहिष्कार बहिष्कार वाला हथकंडा अपनाना होगा !

स्वदेशी मंच भारत की पत्रिका के लिये संपर्क करे ९५६६०५९३३९
और विदेशी कंपनी के सामान का बहिष्कार करे

मनोरंजन पाल आर्य
स्वदेशी मंच भारत


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बाबा के प्रॉडक्ट्स ने उड़ाई FMCG कंपनियों की नींद● पतंजलि ब्रैंड के तहत कन्जयूमर प्रॉडक्ट्स सेगमेंट...

बाबा के प्रॉडक्ट्स ने उड़ाई FMCG कंपनियों की नींद●
पतंजलि ब्रैंड के तहत कन्जयूमर प्रॉडक्ट्स सेगमेंट में कदम रखने वाले बाबा रामदेव ने देश की बड़ी कन्जयूमर गुड्स कंपनियों के टॉप मैनेजमेंट की नींद उड़ा दी है। पतंजलि ब्रैंड कई कैटिगरीज में बड़ी कंपनियों के प्रॉडक्ट्स को टक्कर दे रहा है।
बिस्कुट बनाने वाली ब्रिटानिया के एमडी वरुण बेरी ने कहा कि उन्होंने खुद पतंजलि बिस्कुट्स को परखा है। देश की बड़ी एफएमसीजी कंपनियों में शुमार डाबर के चीफ एग्जिक्युटिव सुनील दुग्गल भी पतंजलि के प्रॉडक्ट्स को ताकतवर मानते हैं।
फ्यूचर ग्रुप के फूड और एफएमसीजी प्रेसिडेंट देवेन्द्र चावला ने पिछले सप्ताह हरिद्वार में पतंजलि के 150 एकड़ में बने फूड पार्क का दौरा किया था। फ्यूचर ग्रुप के बिग बाजार और फूड बाजार स्टोर्स में पतंजलि के प्रॉडक्ट्स बेचे जा रहे हैं।
एक प्रमुख पर्सनल केयर फर्म के हेड ने बताया कि उनके पैरंट्स पतंजलि के प्रॉडक्ट का इस्तेमाल करते हैं, जबकि उनकी कंपनी भी उसके जैसा प्रॉडक्ट बनाती है। उन्होंने कहा, ‘मेरे घर में ही पतंजलि कॉम्पिटिशन दे रहा है।’
चावला ने बताया, 'हम देख रहे हैं कि मिडल क्लास के साथ ही रईस कस्टमर्स भी पतंजलि के प्रॉडक्ट्स खरीद रहे हैं। पतंजलि के साथ एक फायदा यह है कि ग्राहक इसके प्रॉडक्ट्स को आयुर्वेद की सोच के साथ खरीदते हैं। यह केवल एक प्रॉडक्ट तक सीमित नहीं है। कस्टमर्स एक साथ कई कैटिगरीज में खरीदारी कर लेते हैं। यह ट्रेंड अन्य एफएमसीजी कंपनियों के साथ नहीं देखा जाता।’
डाबर का मुकाबला च्यवनप्राश और शहद जैसे प्रॉडक्ट्स में पतंजलि के साथ है। दुग्गल ने कहा, 'बाबा रामदेव इस इंडस्ट्री में एक नए व्यक्ति हैं और इस वजह से उनके बारे में अनुमान लगाना मुश्किल है। हमें उनके साथ अलग तरीके से निपटना होग,
idea for concept of “Hindu”


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👉एक वचन🔆 🐚आज हम “पर्यावरण एक भारतीय संस्कृति” के सन्दर्भ में कुछ विचारों पर मंथन कर रहे...

👉एक वचन🔆

🐚आज हम “पर्यावरण एक भारतीय संस्कृति” के सन्दर्भ में कुछ विचारों पर मंथन कर रहे है। वैसे यह ऎसा विषय है इस पर आप और हम कितना भी लिखे, बोले, या विचार करे …..उतना कम होगा।

📝 पूरे विश्व में प्रकृति द्वारा रचित भारतीय संस्कृति को पर्यावरण के संरक्षण के मूल्यों में बहुत महत्व दिया गया है। यहां मानव जीवन को हमेशा मूर्त या अमूर्त रूप में पृथ्वी , जल , वायु , आकाश , सूर्य , चन्द , नदी , वृक्ष एवं पशु-पक्षी आदि के साहचर्य में ही देखा गया है।

🌱पर्यावरण शब्द का अर्थ है हमारे चारों ओर का आवरण। पर्यावरण संरक्षण का तात्पर्य है कि हम अपने चारों ओर के आवरण को संरक्षित करें तथा उसे अनुकूल बनाएं। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यही कारण है कि भारतीय चिंतन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है , जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है।

👳🏻भारतीय संस्कृति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि यहां पर्यावरण संरक्षण का भाव पुराने कालो में भी मौजूद था, उसका स्वरूप अलग-अलग रहा था। उस काल में कोई राष्ट्रीय वन नीति या पर्यावरण पर काम करने वाली संस्थाएं नहीं थीं।

🔆 पर्यावरण का संरक्षण हमारे नियमित क्रिया-कलापों से ही जुड़ा हुआ था। इसी वजह से वेदों से लेकर कालिदास , दाण्डी , पंत , प्रसाद आदि तक सभी के काव्य में इसका व्यापक वर्णन किया गया है।

👳🏻भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हुई है।

🙌समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना, इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें।

🌀 श्रीकृष्ण ने स्वयं को ऋतुस्वरूप, वृक्ष स्वरूप, नदीस्वरूप एवं पर्वतस्वरूप कहकर इनके महत्व को रेखांकित किया है।

📝भारतीय विचारधारा में जीवन का विभाजन भी प्रकृति पर ही आधारित था। चार आश्रमों में से तीन तो पूरी तरह से प्रकृति के साथ ही व्यतीत होते थे।

👉 ब्रह्माचर्य आश्रम, जो गुरु-गृह में व्यतीत होता था और गुरुकुल सदैव वन-प्रदेश, नदी तट पर ही हुआ करते थे, जहां व्यक्ति सदैव प्रकृति से जुड़ा रहता था।

👉वानप्रस्थ आश्रम में भी व्यक्ति वन प्रदेशों में रहकर आत्मचिंतन तथा जन कल्याण के कार्य करता था।

👉संन्यास आश्रम में तो समग्र उत्तरदायित्वों को भावी पीढ़ी को सौंपकर निर्जन वन एवं गिरि कंदराओं में रह कर ही आत्मकल्याण करने का विधान था।

🌎जिस प्रकार राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार संतुलन बनाए रखने हेतु पृथ्वी का 33 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिए समर्पित था, जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भांति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का संतुलन बना रहे।

📝 उपनिषदों में लिखा है, कि

👉हे अश्वरूप धारी परमात्मा! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन है, नदियां तुम्हारी नाडि़यां हैं, पर्वत-पहाड़ तुम्हारे हृदयखंड हैं, समग्र वनस्पतियां, वृक्ष एवं औषधियां तुम्हारे रोम सदृश हैं। ये सभी हमारे लिए शिव बनें। हम नदी, वृक्षादि को तुम्हारे अंग स्वरूप समझकर इनका सम्मान और संरक्षण करते हैं।

🌀भारतीय परम्परा में धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का महत्व है। पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल सुहाग से सम्बद्ध किया गया है, भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है, जो कई रोगों की रामबाण औषधि है। विल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया और ढाक, पलाश, दूर्वा एवं कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों से जोड़ा गया। पूजा के कलश में सप्तनदियों का जल एवं सप्तभृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता था।

👉 सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राजचिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएं खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मंगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं।

💧वैदिक ऋषि प्रार्थना करते है, कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियां हमारे लिए शांतिप्रद हों।

👉ये शांतिप्रद तभी हो सकते हैं जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है, जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है।

💧आज का सूत्र है:
🌐भारतीय संस्कृति की रक्षा।
❄पर्यावरण समस्या का निदान।

🌞आपका दिन शुभ रहे, इसी आशा के साथ आपका अवनीश त्यागी


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हृदय भीतर आरसी ,मुख देखा नहिं जाय | मुख तो तबही देखि हो , जब दिल की दुविधा जाय || साखी २९ , बीजक...

हृदय भीतर आरसी ,मुख देखा नहिं जाय |
मुख तो तबही देखि हो , जब दिल की दुविधा जाय || साखी २९ , बीजक

अर्थ - परमतत्व परमात्मा को देखने के लिए हृदय के भीतर आरसीतुल्य जीवात्मा का वास है , परंतु परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया जाता , क्योंकि परमात्मा को तभी देखा जा सकता है , जब दिल से दुविधा - देहाध्यास नष्ट न हो जाए |


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यजुर्वेद ९-३८ (9-38) दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे॒ श्विनो॑र्बा॒हुभ्या॑म्पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम् ।...

यजुर्वेद ९-३८ (9-38)

दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे॒ श्विनो॑र्बा॒हुभ्या॑म्पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम् । उ॑पा॒शोर्वी॒र्ये॑ण जुहोमि ह॒त रक्षः॒ स्वाहा॑ रक्ष॑सान्त्वा व॒धायाव॑धिष्म॒ रक्षोव॑धिष्मा॒मुमसौ ह॒तः ॥

भावार्थ:- प्रजाजनों को चाहिये कि अपने बचाव और दुष्टों के निवारणार्थ विघया और धर्म की प्रवृत्ति के लिये अच्छे स्वभाव, विघया और धर्म के प्रचार करनेहारे, वीर, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, सभा के स्वामी राजा को स्वीकार करें।।

सम्पूर्ण अर्थ पदार्थ सहित पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें

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🌻🍀ओ३म्🌻🍀 भूपेश आर्य 🌻मांसाहार:- महर्षि दयानन्द कहते हैं कि-वृक्षों के अत्यन्त अन्धकार(तमोगुणी)...

🌻🍀ओ३म्🌻🍀

भूपेश आर्य

🌻मांसाहार:-

महर्षि दयानन्द कहते हैं कि-वृक्षों के अत्यन्त अन्धकार(तमोगुणी) महा सुषुप्ति,महान नशे में होने से भक्ष्या-भक्ष्य,पाप-पुण्य,हिंसा-अहिंसा से होने वाली पीड़ा उन्हें नहीं होती इसलिए उन्हें काटने से हिंसा नहीं होती,वेद ने वृक्षों के फलों को तथा साग-भाजी,कन्द-मूल आदि को भक्ष्य बताया है अतः उनके खाने में कोई पाप नहीं।

क्या वृक्ष वनस्पतियों में जीव है?परमात्मा की निर्माण की हुई वनस्पतियों में जीव तो है परन्तु वह सुषुप्ति अवस्था में है।कहा भी जाता है कि घोर अत्याचारी,दुराचारी,व्यभिचारियों को परमात्मा जो उनके कर्मों का फल देता है,वह फल उन्हें सुषुप्ति अवस्था में भोगनि पड़ता है।यह योनिया़ अन्धकारमय हैं।

जीव सृष्टि के देखने से पता चलता है कि जीव अपने शरीर को भीतर से बढ़ाता है और मनुष्य की कृतियां बाहर से बढ़ती हैं।अतः वृक्ष-वनस्पतियां जो भीतर से बढ़ती हैं,वे जीव तो धारण करती हैं किन्तु इन योनियों के जीवों को सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती।वनस्पति को शरीर नहीं होता।

शरीर उसे कहते हैं जिससू जीव इन्द्रियों की चेष्टा करता है जैसा कि गौतम ऋषि के न्यायदर्शन १/१/११ में लिखा है।

जीव के लक्षण इस प्रकार हैं-इच्छा,द्वेष,सुख-दुःख,ज्ञान व परिवर्तन।शरीर में बधिरता करने से शस्त्रक्रिया(आपरेशन) का कष्ट मालूम नहीं होता,इसी प्रकार वृक्ष-वनस्पति को पीड़ा नहीं होती।
जैसे -घर को आग लगी तो दरवाजे,खिड़कियों को पीड़ा नहीं होती।

ध्यान रहे अपने शरीर में बाह्यवाहक (Efferent nerves) स्नायु भीतर से बाहर वृत्ति वाले होते हैं और ज्ञानवाहक स्नायु Sensory nerves हैं।यह दोनों वृक्षों में नहीं होते।

इसी प्रकार गेहूं,सब्जियां,घास-पात को लेंवे।इनके सेवन से कोई पाप नहीं लगता।

प्राणियों को काटे बिना मांस मिलता नहीं।पशु-पक्षियों को काटते समय वह छटपटाता है,आर्त (करुणात्मक)आवाज करता है,उसका रक्त विषाक्त हो जाता है।मांस में एसिड और तेजाब अधिक है,जै उत्तेजना देता है,शक्ति,ताकत नहीं।
उत्तेजना से स्नायु कमजोर अर्थात् दुर्बल होते हैं।

डॉ० हेम,लंदन कहते हैं कि मांस में यूरिक एसिड है।मांस अधिक तेजाब और विष उत्पन्न कर देता है।मांस खाना आदत है,फैशन है,बहुत से शासनकर्त्ताओं का एक प्रकार से अन्धानुकरण है,केवल जुबां अर्थात् जिव्हा का चस्का है,आत्मबल न होने से वह छूटता नहीं।

मांस से 8 गुना शक्ति उड़द में है,32 गुना शक्ति बादाम में है।

इस सृष्टि में परमात्मा के तीन सफाई कामगार हैं,-वराह,मीन व मुर्गी।इन्हें इनका कार्य नहीं करने देने से या उन्हें काटकर खाने से रोगोत्पत्ति होना स्वाभाविक ही है,इसलिए कवि कहता है–
दुर्बल को न सताइये,जाकी मोटी हाय ।
बिना सांस की धोकनी,,शलोह भस्म हो जाय।।

मनुष्यों की श्रेष्ठता इसमें नहीं कि वह पशुओं को मारकर खा जावे अपितु मनुष्य की श्रेष्ठता तो मानवीय गुणों को धारण करने में है।

🌻शाकाहारी अधिक आयु वाला व बलशाली होता है:-
एक बार ६० मील चलने की प्रतियोगिता हुई थी जिसमें १४ मांसाहारी और ८ शाकाहारी सम्मिलित हुवे थे।वे आठों शाकाहारी प्रतियोगिता जीत गये और मांसाहारी चलने में पिछड़ गये,हांपते रहे।

प्रो० राममूर्ति जो शुद्ध शाकाहारी थे,मोटर वाहनादि अपने प्राणायाम के बल से रोकते थे।वीर हनुमान जी जो शुद्ध शाकाहारी थे,उनमें कितना बल और शक्ति थी जिसकी कोई मिसाल नहीं।
पहलवान भारत केसरी मास्टर चंदगीराम शाकाहारी थे ,पांच किलो बादाम का नाश्ता करते थे,उन्होंने पहलवान मेहरूद्दीन जो मांसाहारी था,उसे कुश्ती में पछाड़ दिया था।

बुद्धि की तीव्रता,तीक्ष्णता केवल शाकाहार से उपजती है मांसाहार से नहीं।

शाक बोने में आनन्द है,शाक उगाने में आनन्द है,शाक सब्जिया़ देखने में आनन्द है,उनके सूंघने व खाने में आनन्द है।शाकाहार में रोग का खतरा नहीं।शाकाहार स्वस्थ भी है,उसमें ताजगी व सभी विटामिन होते हैं।
शाकाहारी की आयु मांसाहारी से लम्बी होती है।

शाकाहारी के मन में कोमलता,मृदुता,शांति,जीव दया और प्रेम रहता है तथा वे शुद्ध रक्त वाले होते हैं।

अब विचार करिये जो पशु-पक्षियों को मारते हैं,कया बिना अपराध दण्ड़ देना धर्म है?न्यायाधीश भी बिना अपराध दण्ड़ नहीं दे सकता,तब वह परमात्मा जो दयालु और न्यायकारी है,सर्व प्राणी मात्र का सृष्टा है,मान्य है पिता है वह किस प्रकार ऐसे घृणित अमानवीय कार्यों पर दण्ड़ नहीं देगा?सभी प्राणी ईश्वर के पुत्रवत हैं।

🌻अब थोडा विचार अण्ड़े के संबंध में:-
समाज में कुछ भ्रान्तियां चल रही हैं कि अण्ड़ा शाकाहारी होता है।कारण बताया जाता है कि वह मुर्गी के संयोग बिना पैदा होता है।परन्तु ध्यान रहे कि मुर्गे के बिना पैदा हुआ अण्ड़ा भी सजीव होता है,शाकाहारी नहीं।
अमेरिकन वैज्ञानिक फिलिप्स जे. स्केम्बल कहते हैं कि-

(1) कोई भी अण्ड़ा निर्जीव नहीं होता।यह बात अमेरिका के मिशीगन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दी है कि कोई भी अण्ड़ा चाहे वह मुर्गे के संसर्ग से हो या न भी हो तो भी वह निर्जीव नहीं है।

अण्ड़ा फलीकरण क्रिया से पैदा होता है,उसमें जीव के लक्षण होते हैं,इसलिए जिस अण्ड़े से चूजा बाहर आये वही अण्ड़ा सजीव है,यह मान्यता गलत है।जीव के लक्षण होने से अफलनशील अण्ड़ों को मृत नहीं कहा जा सकता।तब वे शाकाहारी किस प्रकार होंगे?

(2) अण्ड़ा मुर्गी का रजोधर्म है।अण्ड़ा मुर्गी का गर्भ है।गर्भ खाना मानवता से परे है।भ्रूण हत्या,गर्भपात हत्या है।अधर्म है।

(3) अण्डों में कोलेस्टरोल की मात्रा अधिक होती है,जिसको खाने से रक्त के प्रवाह में बिगाड़ होकर ह्रदय रोग पैदा होते हैं।

(4) अण्ड़ों में डी.डी.टी. की मात्रा अधिक होती है,जो स्वास्थय के लिए अत्यन्त हानिकारक है।

(5) अण्ड़े के सेवन से कफ/बलगम पैदा होता है।अण्डे के मायक्रोव बैक्टेरियों से आंतों में रोग पैदा होते हैं।

(6) प्रकृति ने अण्डा प्रजनन के लिए निर्माण किया है,यह ईश्वरीय व्यवस्था और विधान है,इसको छोड़कर मनुष्य अण्डा खाने के लिए उपयोग करता है,यह किस प्रकार उचित है?

(7) मनुष्य के भोज्य पदार्थ में कार्बोहाइड्रेटस की आवश्यकता है,जो अण्ड़ों में बिल्कुल नहीं,अतः यह मनुष्य का आहार नहीं।

अण्डों में १३.३ प्रोटीन है और १७३ डिग्री कैलोरी ऊर्जा है।मेथी में २६.२ प्रोटीन है और ३३३ डिग्री कैलोरी है और यह कोलेस्टरोल की सफाई भी करती है।मूगफली में ३१ प्रोटीन है और ४६० डिग्री कैलोरी है।साधारणतः मनुष्यों को २५०० से ३३०० पर्यन्त कैलोरी की आवश्यकता प्रतिदिन होती है।जिसमें अण्ड़ो से पूर्ति नहीं हो सकती।

(9) अण्डों की साल्मोनेला बैक्टीरियों से इंगलैंड में 1600 अंग्रेजों की मृत्यु हुई तब इंगलैंड के वेल्स क्षेत्र में ४० लाख मुर्गियां और ४० करोड़ अण्ड़े नष्ट कर दिये गये थे।ध्यान रहे सालमोनेला जीवाणु अण्ड़े उबालने पर भी जीवित रहते हैं।

(10) इथोपिया देश में देखा गया है,कि गर्भवती महिलायें अण्ड़े सेवन करें तो बच्चा गंजा पैदा होता है,और उसकी प्रजनन शक्ति कम होती है।

(11) यह वैज्ञानिक सच्चाई है कि अण्ड़ा देने के बाद मुर्गियों और अण्डों के बीच ४८ घण्टों तक बातचीत का जीवन्त सिलसिला पाया जाता है,मुर्गी क्लक,क्लक,क्लक ध्वनि करती है,तो अण्ड़ों का भ्रूण पिप,पिप,पिप संकेत करता है।

मुर्गीपालन उद्योग ने ह्रदयाघात,कैंसर,लकवा आदि असाध्य रोगों को जन्म दिया है।भारत में बिना सोचे समझे अण्ड़ा आहार को बढ़ावा देना दुर्भाग्य ही है।


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प्रश्न :- ईश्वर का Job-Profile क्या है ?? . उत्तर :- ईश्वर के कार्य, निम्न हैं :- . 1) ईश्वर, सृष्टि...

प्रश्न :- ईश्वर का Job-Profile क्या है ??
.
उत्तर :- ईश्वर के कार्य, निम्न हैं :-
.
1) ईश्वर, सृष्टि की उत्पत्ति करता है | जड़-प्रकृति के मूलभूत तत्त्वों को गति देकर सूर्य-चन्द्र-पृथिवी आदि की रचना करता है |
.
2) ईश्वर, सृष्टि के आदि में ज्ञान देता है जिसे वेद कहते हैं | मनुष्य के उत्पन्न होने से पहले जीवात्मा के कल्याण के लिए ईश्वर ज्ञान देता है ताकि ज्ञानवान् बन कर जीवात्मा दुष्कर्मों से बच कर अपना कल्याण कर सके और जड़-जगत का सही उपभोग कर सके |
.
3) ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति के बाद उसका नियमन, पालन व पोषण करता है |
.
4) सर्वव्यापक, न्यायकारी व अन्तर्यामी परमात्मा जीवात्मा के कर्मों का फल देता है | दयालु बन कर न्याय करना उसका गुण है | “”(ईश्वर के सन्दर्भ में दयालु और न्यायकारी दोनों गुण समानार्थी हैं)
.
5) 4,32,00,00,000 वर्ष ब्रह्म-दिन के बाद सृष्टि का प्रलय कर 4,32,00,00,000 वर्ष तक ब्रह्म-रात्रि के बाद क्रम-सख्या प्रथम से पुनः कार्य शुरू करते हैं |
.
उल्लेखनीय है कि, ईश्वर का यह कार्य, प्रवाह से अनादी हैं और अनन्त | स्वभाव से ही ईश्वर यह सारे कार्य करता है और करता रहेगा |
याद रखियेगा ! जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है उसके कार्य गिनती में कम ही होते हैं लेकिन सारे कार्य सूक्ष्म और महत्त्व के होते हैं इसीलिए ईश्वर को ब्रह्म कहा जाता है क्यों की ईश्वर सबसे ऊपर विराजमान, सबसे बड़ा, अनन्त बलयुक्त है |


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🌾🐚ओ३म् 🐚🌾 🙏 सभी मित्रों को नमस्ते जी🙏 नदियों की आरती उतारना,मूर्तियों की आरती उतारना,मूर्तियों का...

🌾🐚ओ३म् 🐚🌾
🙏 सभी मित्रों को नमस्ते जी🙏

नदियों की आरती उतारना,मूर्तियों की आरती उतारना,मूर्तियों का विसर्जन करना,शिवजी के गुप्तांग वा लिंग पर जल चढाना,ईश्वर का अवतार मानना,सम्प्रदायों को धर्म मानना,स्वछन्दता को स्वतन्त्रता मानना,पुराण कुरान बाईबल आदि को ईश्वरकृत वा ऋषिकृत मानना ….अज्ञानता है मूढता है | क्या राजा क्या रंक सब इसकी चपेट में हैं !!

सुख शान्ति के उपाय (4)- हम एक बनें, नेक बनें , श्रेष्ठ , बलिष्ठ , संगठित बनें परस्पर के मतभेद, स्वार्थ , सम्प्रदाय वाद जाति वाद को नष्ट करें तभी सुरक्षित रह पायेंगे

💐 
“बाधाओं से रुकें नहीं, संकटों एवं प्रलोभनों में झुकें नहीं, निन्दाओं से विचलित न होकर, तब तक आगे बढ़ते रहना जब तक ध्येय न मिल जाए।”
आपका दिन मँगलमय हो।।


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👌101 ગુજરાતી કહેવતો..👌 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹 😋તમને કેટલી કેહવત યાદ છે ? 💚૧, બોલે તેના બોર વહેચાય 💚૨. ના બોલવામાં...

👌101 ગુજરાતી કહેવતો..👌
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
😋તમને કેટલી કેહવત યાદ છે ?

💚૧, બોલે તેના બોર વહેચાય
💚૨. ના બોલવામાં નવ ગુણ
💚૩. ઉજ્જડ ગામમાં ઍરંડો પ્રધાન
💚૪. ડાહ્યી સાસરે ન જાય અને
💖ગાંડીને શીખામણ આપે
💚૫. સંપ ત્યાં જંપ
💚૬. બકરું કઢતા ઉંટ પેઠું
💚૭.રાજા, વાજા
💖 અને વાંદરાં ત્રણેય સરખાં
💚૮. સિધ્ધિ તેને જઈ વરે
💖જે પરસેવે ન્હાય
💚૯. બગલમાં છરી અને
💖ગામમાં ઢંઢેરો
💚૧૦. લૂલી વાસીદુ વાળે અને
💖 સાત જણને કામે લગાડે
💚૧૧. અધૂરો ઘડો છલકાય ઘણો
💚૧૨. ખાલી ચણો વાગે ઘણો
💚૧૩. પારકી મા જ કાન વિંધે
💚૧૪. જ્યાં ન પહોચે રવિ,
💖ત્યાં પહોંચે કવિ
💖અને જ્યાં ન પહોંચે કવિ
💖ત્યાં પહોંચે અનુભવી
💚૧૫. ટીંપે ટીંપે સરોવર ભરાય
💚૧૬. દૂરથી ડુંગર રળિયામણાં
💚૧૭. લોભી હોય ત્યાં
💖ધૂતારા ભૂખે ન મરે
💚૧૮. શેરને માથે સવાશેર
💚૧૯. શેઠની શીખામણ ઝાંપા સુધી
💚૨૦. હિરો ગોગે જઈને આવ્યો
💖અને ડેલીએ હાથ દઈને
💖પાછો આવ્યો
💚૨૧. વડ જેવા ટેટા ને
💖બાપ જેવા બેટાં
💚૨૨. પાડાનાં વાંકે પખાલીને ડામ
💚૨૩. રામ રાખે તેને કોણ ચાખે
💚૨૪. ઊંટના અઢાર વાંકા
💚૨૫. ઝાઝા હાથ રળીયામણાં
💚૨૬. કીડીને કણ ને હાથીને મણ
💚૨૭. સંગર્યો સાપ પણ કામનો
💚૨૮. ખોદ્યો ડુંગર, નીકળ્યો ઉંદર
💚૨૯. નાચ ન જાને આંગન ટેઢા
💚૩૦. ઝાઝી કીડીઓ સાપને તાણે
💚૩૧. ચેતતા નર સદા સુખી
💚૩૨. સો દહાડા સાસુના
💖એક દાહડો વહુનો
💚૩૩. વાડ થઈને ચીભડાં ગળે
💚૩૪. ઉતાવળે આંબા ન પાકે
💚૩૫. સાપ ગયા અને
💖લીસોટા રહી ગયા
💚૩૬. મોરનાં ઈંડા ચીતરવા ન પડે
💚૩૭. પાકા ઘડે કાંઠા ન ચડે
💚૩૮. કાશીમાં પણ
💖કાગડા તો કાળા જ
💚૩૯. કૂતરાની પૂંછડી
💖જમીનમાં દટો તો પણ
💖વાંકી ને વાંકી જ
💚૪૦. પુત્રનાં લક્ષણ પારણાં માં
💖અને વહુનાં લક્ષણ બારણાં માં
💚૪૧. દુકાળમાં અધિક માસ
💚૪૨. એક સાંધતા તેર તૂટે
💚૪૩. કામ કરે તે કાલા,
💖વાત કરે તે વ્હાલાં
💚૪૪. મા તે મા,
💖બીજા વગડાનાં વા
💚૪૫. ધીરજનાં ફળ મીઠાં
💚૪૬. માણ્યુ તેનું
💖સ્મરણ પણ લહાણું
💚૪૭. કૂવામાં હોય તો
💖હવાડામાં આવે
💚૪૮. સો સોનાર કી એક લૂહાર કી
💚૪૯. રાજા ને ગમે તે રાણી
💚૫૦. કાગનું બેસવુ
💖અને ડાળનું પડવું
💚૫૧. આમદની અટ્ટની ખર્ચા રૂપૈયા
💚૫૨. ગાંડાના ગામ ન હોય
💚૫૩. સુકા ભેગુ લીલુ બળે
💚૫૪. બાવાનાં બેવુ બગડે
💚૫૫. લક્ષ્મી ચાંદલો કરવા આવે
💖ત્યારે કપાળ ધોવા ન જવાય
💚૫૬. વાવો તેવું લણો
💚૫૭. શેતાનું નામ લીધુ
💖શેતાન હાજર
💚૫૮. વખાણેલી ખીચડી
💖દાઢે વળગી
💚૫૯. દશેરાનાં દિવસે ઘોડા ન દોડે
💚૬૦. સંગ તેવો રંગ
💚૬૧. બાંધી મુઠી લાખની
💚૬૨. લાખ મળ્યાં નહિ
💖અને લખેશ્રી થયા નહિ
💚૬૩. નાણાં વગરનો નાથીયો ,
💖નાણે નાથા લાલ
💚૬૪. લાલો લાભ વિના ન લૂટે
💚૬૫. હિમ્મતે મર્દા
💖તો મદદે ખુદા
💚૬૬. પૈ ની પેદાશ નહી અને
💖ઘડીની નવરાશ નહી
💚૬૭. છાશ લેવા જવુ
💖અને દોહણી સંતાડવી
💚૬૮. ધોબીનો કૂતરો
💖ન ઘર નો , ન ઘાટનો
💚૬૯. ધરમની ગાયનાં
💖દાંત ન જોવાય
💚૭૦. હાથી જીવતો લાખનો ,
💖મરે તો સવા લાખનો
💚૭૧. સીધુ જાય અને
💖યજમાન રીસાય
💚૭૨. વર મરો, કન્યા મરો
💖પણ ગોરનું તરભાણું ભરો
💚૭૩. હસે તેનું ઘર વસે
💚૭૪. બેગાની શાદીમેં
💖અબ્દુલ્લા દિવાના
💚૭૫. ફરે તે ચરે,
💖બાંધ્યા ભૂખ્યા મરે
💚૭૬. ભેંસ આગળ ભાગવત
💚૭૭. ઘરનાં છોકરાં ઘંટી ચાટે
💖ને પાડોશીને આંટો
💚૭૮. રાત થોડી ને વેશ ઝાઝા
💚૭૯. ના મામા કરતાં
💖કાણો મામો સારો
💚૮૦. ભેંસ ભાગોળે
💖અને છાશ છાગોળે
💚૮૧. મન હોયતો માંડવે જવાય
💚૮૨. અણી ચૂક્યો સો વર્ષ જીવે
💚૮૩. પારકી આશ સદા નીરાશ
💚૮૪. ઘરકી મુર્ગી દાલ બરાબર
💚૮૫. બાર વર્ષે બાવો બાલ્યો
💚૮૬. પહેલુ સુખ તે જાતે નર્યા
💚૮૭. ભાવતુ હતું ને વૈદે કીધું
💚૮૮. જેને કોઇ ન પહોંચે
💖તેને તેનું પેટ પહોંચે
💚૮૯. નામ મોટા દર્શન ખોટા
💚૯૦. લાતોના ભૂત
💖વાતોથી ન માને
💚૯૧. ગાય વાળે તે ગોવાળ
💚૯૨. બાંધે એની તલવાર
💚૯૩. ઘેર ઘેર માટીનાં ચૂલા
💚૯૪. ઝાઝા ગુમડે ઝાઝી વ્યથા
💚૯૫. મારું મારું આગવું
💖ને તારું મારું સહિયારું
💚૯૬. આગ લાગે ત્યારે
💖કૂવો ખોદવા ન જવાય
💚૯૭. આંધળામાં કાણો રાજા
💚૯૮. ઈદ પછી રોજા
💚૯૯. ખાડો ખોદે તે પડે
💚૧૦૦. ક્યાં રાજા ભોજ ,
💚ક્યાં ગંગુ તલી
💖૧૦૧. નમે તે સૌને ગમે


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🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳 वन्दे मातरम् सभी मित्र अंग्रेजी नववर्ष शुभकामना वाले समूह या सदस्य का 1 जनवरी...

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वन्दे मातरम्

सभी मित्र अंग्रेजी नववर्ष शुभकामना वाले समूह या सदस्य का 1 जनवरी तक तुरन्त बहिष्कार कर के देश भक्ति का परिचय दे !

जय भारत!

🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾
सनातन धर्म को मानने वाले चार प्रकार के होते हैं :–

(1) सैक्युलर हिंदू :- ये वो प्रजाती है जिसको लगता है कि सब धर्म समान होते हैं । सब भाई-भाई होते हैं । इन्हीं लोगों की लड़कियाँ सबसे अधिक मुसलमानों के साथ भागती हैं

(2) नार्मल हिंदू :- ये वो प्रजाति है जिसे धर्म से कुछ खास लगाव नहीं है । बस थोड़ा सा मंदिर हो आएँगे और अधिक कुछ नहीं । इनको पैसा कमाने से ज्यादा मतलब होता है । “देश जाए भाड़ में, धर्म जाए भाड़ में”, “हमें क्या लेना देना?”, “अपना क्या?, "तेरे को क्या?”, “मेरे को क्या?” ये इनकी सोच होती है ।

(3) कट्टर हिंदू :- ये वो प्रजाती है जिसे अपने धर्म के बारे में कोई जानकारी नहीं होती बस एक बात रटी होती है कि “ईसाई और मुसलमान बहुत बुरे होते हैं” ( बिना पढ़े ) । ये लोग अधिकतर उसी नेता के पीछे दिवाने हो जाते हैं जो काम करने के बजाए थोड़ा सा हिंदुत्व पर अच्छा सा भाषण दे देता है । इन लोगों के ये नारे बहुत प्रसिद्ध हैं :- “जय श्री राम”, “जो हिंदू राम का नहीं वो किसी काम का नहीं"। ये लोग अपने धर्म के बारे में बहुत ही कम जानते हैं । दब किसी मुल्ले या ईसाई से बातचीत हो जाए तो निरुत्तर हो जाते हैं क्योंकि सामर्थ्य तो पढ़ने से ही आता है ।

(4) आर्य :- ये वो प्रजाती है जिसे अपने धर्म की मूल जानकारी के साथ साथ दूसरों के बारे में भी अच्छी खासी जानकारी होती है । तभी मुल्लों, ईसाईयों, अम्बेदकरवादीयों, वामपंथीयों आदि सब पर भारी पड़ते हैं और उनकी पोल खोलते हैं क्योंकि ये अपने ग्रंथों के साथ साथ दुशमनों की वाहियात किताबों को भी पढ़ते हैं । आर्यों का नाम सुनते ही विधर्मी चौकन्ने हो जाते हैं । इनका नारा है "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” ।

।। ओ३म् ।।


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🌅 NDS को बहुत बड़ी...

🌅
NDS को बहुत बड़ी सफलता
“”“”“”“”“”“”“”“”“”“”“”“”“”’“”“”“”“”“”
स्वीडन में डिजिटल करेंसी सिस्टम लागू हुआ।
NDS पूरी दुनिया में न्याय की स्थापना का अभियान चला रही है।
DCS मानवीय सभ्यता का प्रथम सोपान है।
अब हो जायेगा स्वीडन पूर्ण आर्थिक अपराधमुक्त देश।
अब स्वीडन में नहीं होगा भ्रष्टाचार।
नहीं होगा कालाधन।
नहीं चल सकेगी नकली मुद्रा।
नहीं संभव होगी टैक्स चोरी।
नहीं होगा अन्य कोई भी मौद्रिक अपराध।।
स्वीडन अब होग पवित्र देश।
2016 से होगा धरती पर मानवता का श्रीगणेश।।
अब भारत की सरकार।
नहीं कर पायेगी डिजिटल करेंसी सिस्टम को इंकार।।
अब नहीं चल पायेगा कोई बहाना।
अब सरल होगा भारत में भी DCS लागू कराना।।
NDS की विगत कई वर्षों की तपस्या रंग लायी।
डिजिटल करेंसी दुनिया में अपना स्थान बना पायी।।
अब दुनिया का होगा उद्धार।
बेईमानों का होगा बंटाढार।।
NDS के 111 प्रस्तावों में यह डिजिटल करेंसी सिस्टम है पहला न्याय प्रस्ताव।
अन्य 110 प्रस्तावों से भी है जनता का लगाव।।
अब होगा स्वीडन कैशलेस कंट्री।
हर मौद्रिक लेन-देन की होगी पारदर्शी एंट्री।।
अब सब कुछ होगा पवित्र और स्पष्ट
हो जायेगा बेईमानों का सब दाव-पेंच नष्ट।
बंद होगी सब हेरा-फेरी।
अब नहीं बजेगी मक्कारों की रणभेरी।।
बंद होगी सब गुंडागर्दी।
अब न होगी स्वभाव में अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी।
सबको DCS की बहुत बहुत बधाई..!!
अंततोगत्वा NDS की बात दुनिया को समझ में आई।
आशा है भारत देश भी DCS को जल्दी अपनाएगा।
बेईमानो से पूरे देश को शीघ्र ही छुटकारा मिल जायेगा।

-(NDS हरिद्वार)
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आवश्यकता है राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की तारीख: 28 Dec 2015 14:14:13  मुसलमान शासकों  और...

आवश्यकता है राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की

तारीख: 28 Dec 2015 14:14:13


मुसलमान शासकों  और अंग्रेजों  के काल में भारत में जनगणना का आधार बिल्कुल भिन्न था। वस्तुत: उस समय इसका आधार होता था  किसी भी प्रकार से अपने शासन को मजबूत बनाए रखना। मुसलमान आक्रमणकारियों, पठानों तथा मुगलों ने भारत का इस्लामीकरण या गुलामीकरण करने के भरसक प्रयास किए थे। क्रूर मुसलमान शासकों ने मजहबी उन्माद के आधार पर हिन्दुओं पर क्रूर अत्याचार, भीषण नरसंहार तथा जबरदस्ती कन्वर्जन किया था। (विस्तार के लिए देखें  के.एस. लाल, ‘ग्रोथ ऑफ मुस्लिम पॉपुलेशन इन इंडिया’, नई दिल्ली 1973) ब्रिटिश सरकार के औपनिवेशिक शासन  में केवल 'शासितों’ की जनगणना की जाती थी।
जनगणना का उद्ेश्य अपने शासन को सुदृढ़ तथा स्थाई बनाना होता था। इनका स्पष्ट उद्देश्य देश की सामाजिक, भाषायी, सांस्कृतिक एवं धार्मिक आयामों की जानकारी प्राप्त कर 'पहचान की राजनीति’ को प्रश्रय देना था। यह अंग्रेजों की नीति 'विभाजित करो एवं राज करो’ का आधार था। इसी क्रम में उन्होंने जातीय संरचना की विसंगतियों को उभारा और उसी के अनुकूल जनगणना की प्रश्नावलियां भी तैयार कीं। (विस्तार के लिए देखें प्रो. राकेश सिन्हा, भारत नीति प्रतिष्ठान, जनगणना, 2011 'बाधित दृष्टि : विखंडित विचार’, नई दिल्ली, 2010, पृ. 6, 61)। अंग्रेज सदैव हिन्दुओं की जनसंख्या को 'बड़ा खतरा’ कहते रहे। इसी नीति के अन्तर्गत वे मुस्लिम संरक्षण तथा तुष्टीकरण का सहारा लेते रहे। 1849 ई. में पंजाब का धोखे से विलय के पश्चात् सदैव वे हिन्दू और सिखों में भेद करते रहे। (देखें सतीश चन्द्र मित्तल की पुस्तक 'आधुनिक भारतीय इतिहास की प्रमुख भ्रांतियां,’ पृ. 117-128)’
1871 ई. की जनगणना में उन्होंने जनगणना अधिकारियों के लिए एक प्रश्न यह भी जोड़ा कि वे सदैव ध्यान रखें कि 'आर्य भारत से आए'। अंग्रेज अधिकारियों को भारत में जनगणना में जाति, भाषा और मत-पंथ के आधार पर वर्गीकरण उपनिवेश के हित में लगता था। भारत के तत्कालीन वायसराय तथा भारत मंत्री के पत्र व्यवहार से यह बात बार-बार स्पष्ट होती है। भारत मंत्री चार्ल्स वुड ने भारत के वायसराय लॉर्ड एलिग्न को 10 मई, 1862 ई. को लिखा था, 'जातियों के बीच सामान्यत: द्वेष हमारी शान्ति के लिए महत्वपूर्ण तत्व है।’ यदि 1881 से 1941 तक की जनगणना के आंकड़े देखें तो ज्ञात होता है कि हिन्दुओं की जनसंख्या बिना किसी अपवाद के निरंतर घटती रही और इसके विपरीत मुसलमानों की जनसंख्या सदैव बढ़ती रही। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1881 ई. में हिन्दुओं की जनसंख्या 79.9 प्रतिशत थी, जो क्रमश: 1891 ई. में 74.24 प्रतिशत, 1901 ई. में 72.87 प्रतिशत, 1911 ई. में 71.68 प्रतिशत, 1921 ई. में 70.73, 1931 में 70.67 तथा 1941  में 69.48 प्रतिशत रही। (देखें प्रो. विक्टर पेट्रोन, 'इंडिया : स्पाटलाईट्स ऑन पॉपुलेशन,’ पृ. 781)। अर्थात् इन साठ वर्षों में विश्व के एकमात्र हिन्दू बहुसंख्यक देश भारत में हिन्दुओं की लगभग 6 प्रतिशत जनसंख्या घट गई थी। विश्व में शायद किसी भी देश में ऐसा घटता हुआ अनुपात रहा हो। इसके विपरीत मुसलमानों की जनसंख्या 1881 ई. में कुल 19.97 प्रतिशत थी, जो क्रमश: 1891 ई. में 20.41 प्रतिशत, 1901 ई. में 21.88 प्रतिशत, 1911 ई. में 22.39 प्रतिशत, 1921 में 23.33 प्रतिशत, 1931 में 23.49 प्रतिशत तथा 1941 में 24.28 प्रतिशत हो गई थी।  अर्थात् इस कालखण्ड में मुसलमानों की जनसंख्या 5 प्रतिशत बढ़ी। हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि का यह असन्तुलन अनोखा था। इसमें अनेक कारण थे। जैसे अंग्रेजों द्वारा मुस्लिम संरक्षण, तुष्टीकरण तथा उनका पक्षपातपूर्ण रवैया आदि। यह सर्वविदित है कि अंग्रेजी सरकार ने 1941 ई. की जनगणना में जानबूझकर मुसलमानों के साथ पक्षपातपूर्ण नीति अपनाई थी। (वही. पृ. 77)। इसी भांति अंग्रेजों ने भारत में जातीय भेद बढ़ाकर समाज में अलगाव, टकराव तथा बिखराव किया था। यहां तक कि उन्होंने देश को 'मार्शल’ तथा 'गैर मार्शल’ जातियों में कृत्रिम और मनमाने ढंग से बांट दिया था।

राष्ट्रीय जनगणना नीति
यह सर्वज्ञात है कि भारत का विभाजन अथवा पाकिस्तान का निर्माण कांग्रेस, जो उस समय देश के 70 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधि होने का दावा करती थी, ने मजहब के आधार  पर स्वीकार किया था। भारत के 96.5 प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया था। केवल 3.5 प्रतिशत मुसलमानों ने इसका विरोध किया था। परन्तु 1951 ई. की दसवर्षीय जनगणना के आंकड़ों से ज्ञात होता है भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् हुई पहली जनगणना में हिन्दुओं की जनसंख्या 84.48 प्रतिशत थी तथा मुसलमानों की जनसंख्या अचानक बढ़कर 9.91 प्रतिशत हो गई थी। अचानक जनसंख्या बढ़ने का प्रमुख कारण यह था कि अनेक मुसलमान भारत के प्रधानमंत्री पं. नेहरू के आश्वासन पर भारत में ही रुक गए थे, यद्यपि उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण का भरपूर समर्थन किया था। इसकी चर्चा भारत की संविधान निर्मात्री सभा की कार्यवाही में भी हुई थी। इतना ही नहीं, अनेक मुसलमान पाकिस्तान से लौटकर वापस भारत आ गए थे। वस्तुत: इस संवेदनशील विषय पर सरकार ने गंभीरता से विचार नहीं किया था। 1961 ई. की जनगणना में हिन्दुओं की जनसंख्या 85 प्रतिशत थी, जो 1971 ई. में घटकर 83.00 प्रतिशत हो गई थी। जबकि मुसलमानों की जनसंख्या बढ़कर 11.21 प्रतिशत हो गई थी।
26 जनवरी, 1950 से भारत का संविधान लागू हुआ तथा गणतंत्र की स्थापना हुई। अभी तक भारत में जनगणना नीति ब्रिटिश शासकों के आधार 'शासितों’ पर शासन करने तथा अपने मनमाने ढंग से जनसंख्या वृद्धि को प्रोत्साहन देने, नियम बनाने तथा आदेशों को लादने की थी, परन्तु अब स्वतंत्र भारत में जनगणना का विषय नागरिकों के लिए था। अत: जनगणना की प्रश्नावली भी बदल गई थी। जहां ब्रिटिश शासनकाल में जनगणना  में  विघटनकारी तथा अलगाववादी प्रश्नों को प्रमुखता दी गई थी, अब इसका जोर भाषा, प्रांत सम्प्रदाय एवं जाति जैसे विभेदों को समाप्त करना था। प्रमुखत: जाति विभेद दूर करना चर्चा का प्रमुख एजेण्डा रहा था। संविधान सभा में इस पर गंभीर विचार-विनिमय भी हुआ था। डॉ. बी.आर. आम्बेडकर ने जाति प्रथा को 'राष्ट्र विरोधी’ अवधारणा कहा था। उन्होंने कहा था, 'हजारों जातियों में विभाजित लोग कैसे एक राष्ट्र हो सकते हैं? जितनी जल्दी हम यह अनुभूति कर लें कि सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक स्वरों पर हम एक राष्ट्र हैं, हमारे लिए उतना ही अच्छा होगा। तभी हम एक राष्ट्र बनने की आवश्यकता महसूस कर सकते हैं और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गंभीरतापूर्वक रास्ता ढूंढ सकते हैं। यह लक्ष्य प्राप्त करना बड़ा कठिन है। संयुक्त राज्य अमरीका से भी कठिन। अमरीका में जाति व्यवस्था नहीं है, जबकि भारत में जाति व्यवस्था है। जातियां राष्ट्र विरोधी होती हैं, क्योंकि वे सामाजिक जीवन में अलगाव पैदा करती हैं। वे इसलिए भी राष्ट्र-विरोधी होती हैं कि वे जातियों के बीच में वैमनस्य एवं ईर्ष्या पैदा करती हैं, लेकिन यदि हम एक राष्ट्र के रूप में स्थापित होना चाहते हैं तो हमें इन कठिनाइयों से उबरना होगा।’ (बी.आर. आम्बेडकर, डिबेट, कांस्टीच्युएट अंसेबली ऑफ इंडिया, भाग 11, 25 नवम्बर, 1949)।
 देश के अन्य महापुरुषों ने भी तब इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए थे। प्रसिद्ध समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने जातिभेद को समानतामूलक समाज की स्थापना में सबसे बड़ी अड़चन माना। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने जाति के आधार पर मतदाताओं से अपील का विरोध किया। (पाञ्चजन्य, 5 फरवरी, 1962)।  इसी के साथ ब्रिटिश शासन से चले आ रहे मुस्लिम तुष्टीकरण की भी आलोचना की गई।

५यह आशा थी कि भारतीय गणतंत्र में देश के सभी राजनीतिक दल भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप राष्ट्र को मजबूत बनाएंगे तथा एकता के सूत्र में बांधेंगे। परन्तु इसकी सर्वप्रथम अवहेलना तथा दुरुपयोग सर्वप्रथम देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने किया। कांग्रेस ने अपने घटते हुए जनाधार के कारण ब्रिटिश शासकों की नीति 'बांटो और राज करो’ अपनाई तथा मुस्लिम तुष्टीकरण और मुस्लिम अलगाव भाव जगाकर उन्हें भारत की राष्ट्रीय मुख्यधारा से दूर रखा। उन्होंने मुस्लिम अल्पसंख्यक तथा हिन्दू साम्प्रदायिकता का राग अलापा तथा आपातकाल के दौरान संविधान में 'समाजवाद’ तथा 'सेकुलरवाद’ को जोड़कर राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया। एकमात्र कांग्रेसी नेता संजय गांधी ने मुस्लिम तुष्टीकरण का अवश्य कुछ विरोध किया। विशेषकर परिवार नियोजन में नसबन्दी को लेकर तुर्कमान गेट, दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में अभियान चलाकर। पर कांग्रेस के भावी एजेण्डे से हमेशा के लिए परिवार नियोजन अभियान समाप्त हो गया। बल्कि राजीव गांधी, सोनिया गांधी के काल में मुसलमानों को तरह-तरह की सुविधाएं देने के तरीके अपनाए गए। कांग्रेस की देखा-देखी अन्य छद्म सेकुलरवादी दलों ने भी जातिवाद का उन्माद बढ़ाया तथा मुसलमानों की मजहबी भावना को भड़काया। स्वाभाविक है इसने जनसंख्या वृद्धि के सन्तुलन को भी बिगाड़ा। 2011 की भारतीय जनगणना में मुस्लिम जनसंख्या के आंकड़े चौकाने वाले हैं। इसमें मुसलमानों की जनसंख्या 14 प्रतिशत बताई गई है। इसमें गैर-कानूनी रूप से आए बंगलादेशी मुसलमान शामिल नहीं हैं। यदि उन्हें भी मिला दें तो यह जनसंख्या 16 से 18 प्रतिशत तक हो सकती है।
जनसंख्या नीति का निर्णय
उल्लेखनीय है कि भारत ने विश्व के सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश चीन से भी पहले 1952 ई. में ही जनसंख्या नियंत्रण के उपायों की घोषणा की थी। इस नीति का उद्देश्य सकल प्रजनन दर (टी.एफ.आर.) को 2.1 के प्रतिस्थापन स्तर तक लाने का था और यह  भी तय किया गया था कि इस लक्ष्य को सन् 2010 तक प्राप्त कर लिया जाएगा। यह अपेक्षा थी कि अपने राष्ट्रीय संसाधनों और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रजनन दर का यह लक्ष्य समाज के सभी वर्गों पर समान रूप से लागू होगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यदि इस नीति पर गंभीरता से काम किया जाता तो 2001 में जनसंख्या 10130 लाख होती,  परन्तु मार्च, 2001 ई. में यह जनसंख्या 10270 लाख हो गई थी। अर्थात्् सोचे गए आंकड़े को पारकर लगभग 140 लाख आगे पहुंच गई थी। बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए फरवरी 2001 ई. में एक समग्र राष्ट्रीय जनसंख्या नीति का निर्माण और जनसंख्या आयोग का गठन किया गया। इसमें कुछ तात्कालिक लक्ष्य, कुछ मध्यावधि तथा कुछ दीर्घकालीन अवधि के उद्देश्य निर्धारित किए गए और कहा गया था कि 2045 ई. तक लक्ष्य प्राप्त कर लिया जाएगा। परन्तु प्राप्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि योजनानुसार यह नीति सभी वर्गों पर समान रूप से लागू ही नहीं हुई है।  
2005-2006 का राष्ट्रीय प्रजनन एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण और 2011 की जनगणना के 0.6 आयु वर्ग के पांथिक आधार पर प्राप्त आंकड़ों से असमान सकल प्रजनन दर एवं बाल जनसंख्या अनुपात का पता चलता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 1951 से 2011 की जनगणना में जहां भारत में उत्पन्न मत-पंथों के अनुयायियों का अनुपात 84.48 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया, वहीं मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 9.8 प्रतिशत से बढ़कर 14.23 प्रतिशत हो गया। इसके साथ ही सीमावर्ती प्रदेशों असम, पश्चिम बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में तो मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक थी। बंगलादेशी घुसपैठियों ने यह असन्तुलन और बढ़ा दिया था। 
 3 अप्रैल, 2015 को वाशिंगटन के पीयू नामक एक अमरीकी थींक टैंक ने 2010 से 2050 ई. तक के सन्दर्भ में, विश्व में विभिन्न पांथिक समुदायों की अनुमानित जनसंख्या रपट दी है। इसके अनुसार विश्व में तब तक 35 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि होगी।  इसके अनुसार मुसलमानों की जनसंख्या सर्वाधिक 73 प्रतिशत, ईसाई समाज की 35 प्रतिशत तथा हिन्दुओं की जनसंख्या 34 प्रतिशत बढ़ेगी। भारत के सन्दर्भ में रपट में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर बढ़ने के दो कारण दिए गए हैं- प्रथम, मुसलमान युवकों के विवाह की औसत आयु 22 वर्ष है, जबकि गैर-मुस्लिम युवकों की 30 वर्ष। अर्थात् मुसलमानों को 7-8 व


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वेद सन्देश =========== “मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा | साम्यञ्चः सव्रता...

वेद सन्देश
===========
“मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा | साम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ||”
अथर्ववेद
अर्थ:–
भाई भाई से द्वेष न करे, बहिन बहिन से द्वेष न करे | सब एक दूसरे के अनुकूल, एक चित्त और एक उद्देश्य वाले होकर एक दूसरे के प्रति कल्याणकारी और सुखप्रद रीति से मधुर बोला करें |

आहा ! कितना सुन्दर सन्देश दिया गया है वेदों में ।वाणी की मधुरता , परस्पर प्रेम एवम् सौहार्द्र की शिक्षा दी गयी है कि सभी सुख देने वाली वाणी का प्रयोग करें।

जीवन में वाणी का बहुत महत्व है। वाणी में अमृत भी है और विष भी, मिठास भी और कड़वापन भी। सुनते ही सामने वाला आग बबूला हो जाए और यदि वाणी में शालीनता है, तो सुनने वाला प्रशंसक बन जाए।

ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे आपहुं शीतल होय।।


वाणी हमें सम्मान भी दिलाती है और अपमान भी। जब मन में अहंकार होता है , क्रोध होता है तो वाणी स्वाभाविक रूप से कर्कश हो जाती है। और सबसे पहले स्वयं को हानि पहुचाती है।दूसरा व्यक्ति तो बाद में परेशान होता है पर कठोर वाणी बोलने वाले व्यक्ति की हंसी , प्रसन्नता, ख़ुशी चेहरे से पहले ही गायब कर देती है।

और यदि हम मीठा बोलते हैं तो उसका प्रभाव भी अच्छा होता है। और मीठा हम तभी बोल पाएंगे जब मन में अच्छे विचार हों।यदि स्वयं को ही हम सबसे श्रेष्ठ मानते रहेंगे , दूसरों को तुच्छ समझते रहेंगे तो अच्छे विचार भी मन में आना असंभव है।
इसलिए पहले अहं भाव को मिटाना आवश्यक है।
मधुर वाणी दूसरों को तो प्रसन्न करती ही है स्वयं को भी प्रसन्न कर देती है।

“कड़वा बोलने वाले का शहद भी नहीं बिकता।और मीठा बोलने वाले की मिर्ची भी बिक जाती है” ।


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👉एक वचन🔆 🐚आज हम “पर्यावरण एक भारतीय संस्कृति” के सन्दर्भ में कुछ विचारों पर मंथन कर रहे...

👉एक वचन🔆

🐚आज हम “पर्यावरण एक भारतीय संस्कृति” के सन्दर्भ में कुछ विचारों पर मंथन कर रहे है। वैसे यह ऎसा विषय है इस पर आप और हम कितना भी लिखे, बोले, या विचार करे …..उतना कम होगा।

📝 पूरे विश्व में प्रकृति द्वारा रचित भारतीय संस्कृति को पर्यावरण के संरक्षण के मूल्यों में बहुत महत्व दिया गया है। यहां मानव जीवन को हमेशा मूर्त या अमूर्त रूप में पृथ्वी , जल , वायु , आकाश , सूर्य , चन्द , नदी , वृक्ष एवं पशु-पक्षी आदि के साहचर्य में ही देखा गया है।

🌱पर्यावरण शब्द का अर्थ है हमारे चारों ओर का आवरण। पर्यावरण संरक्षण का तात्पर्य है कि हम अपने चारों ओर के आवरण को संरक्षित करें तथा उसे अनुकूल बनाएं। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यही कारण है कि भारतीय चिंतन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है , जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है।

👳🏻भारतीय संस्कृति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि यहां पर्यावरण संरक्षण का भाव पुराने कालो में भी मौजूद था, उसका स्वरूप अलग-अलग रहा था। उस काल में कोई राष्ट्रीय वन नीति या पर्यावरण पर काम करने वाली संस्थाएं नहीं थीं।

🔆 पर्यावरण का संरक्षण हमारे नियमित क्रिया-कलापों से ही जुड़ा हुआ था। इसी वजह से वेदों से लेकर कालिदास , दाण्डी , पंत , प्रसाद आदि तक सभी के काव्य में इसका व्यापक वर्णन किया गया है।

👳🏻भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हुई है।

🙌समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना, इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें।

🌀 श्रीकृष्ण ने स्वयं को ऋतुस्वरूप, वृक्ष स्वरूप, नदीस्वरूप एवं पर्वतस्वरूप कहकर इनके महत्व को रेखांकित किया है।

📝भारतीय विचारधारा में जीवन का विभाजन भी प्रकृति पर ही आधारित था। चार आश्रमों में से तीन तो पूरी तरह से प्रकृति के साथ ही व्यतीत होते थे।

👉 ब्रह्माचर्य आश्रम, जो गुरु-गृह में व्यतीत होता था और गुरुकुल सदैव वन-प्रदेश, नदी तट पर ही हुआ करते थे, जहां व्यक्ति सदैव प्रकृति से जुड़ा रहता था।

👉वानप्रस्थ आश्रम में भी व्यक्ति वन प्रदेशों में रहकर आत्मचिंतन तथा जन कल्याण के कार्य करता था।

👉संन्यास आश्रम में तो समग्र उत्तरदायित्वों को भावी पीढ़ी को सौंपकर निर्जन वन एवं गिरि कंदराओं में रह कर ही आत्मकल्याण करने का विधान था।

🌎जिस प्रकार राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार संतुलन बनाए रखने हेतु पृथ्वी का 33 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिए समर्पित था, जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भांति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का संतुलन बना रहे।

📝 उपनिषदों में लिखा है, कि

👉हे अश्वरूप धारी परमात्मा! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन है, नदियां तुम्हारी नाडि़यां हैं, पर्वत-पहाड़ तुम्हारे हृदयखंड हैं, समग्र वनस्पतियां, वृक्ष एवं औषधियां तुम्हारे रोम सदृश हैं। ये सभी हमारे लिए शिव बनें। हम नदी, वृक्षादि को तुम्हारे अंग स्वरूप समझकर इनका सम्मान और संरक्षण करते हैं।

🌀भारतीय परम्परा में धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का महत्व है। पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल सुहाग से सम्बद्ध किया गया है, भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है, जो कई रोगों की रामबाण औषधि है। विल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया और ढाक, पलाश, दूर्वा एवं कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों से जोड़ा गया। पूजा के कलश में सप्तनदियों का जल एवं सप्तभृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता था।

👉 सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राजचिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएं खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मंगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं।

💧वैदिक ऋषि प्रार्थना करते है, कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियां हमारे लिए शांतिप्रद हों।

👉ये शांतिप्रद तभी हो सकते हैं जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है, जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है।

💧आज का सूत्र है:
🌐भारतीय संस्कृति की रक्षा।
❄पर्यावरण समस्या का निदान।

🌞आपका दिन शुभ रहे, इसी आशा के साथ आपका अवनीश त्यागी


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गृहिणी (Homemaker ) जामुन की लकड़ी का महत्त्व अगर जामुन की मोटी लकड़ी का टुकडा पानी की टंकी में रख दे...

गृहिणी (Homemaker )
जामुन की लकड़ी का महत्त्व
अगर जामुन की मोटी लकड़ी का टुकडा पानी की टंकी में रख दे तो टंकी में शैवाल या हरी काई नहीं जमती और पानी सड़ता नहीं | टंकी को लम्बे समय तक साफ़ नहीं करना पड़ता |
जामुन की एक खासियत है कि इसकी लकड़ी पानी में काफी समय तक सड़ता नही है।जामुन की इस खुबी के कारण इसका इस्तेमाल नाव बनाने में बड़ा पैमाने पर होता है।नाव का निचला सतह जो हमेशा पानी में रहता है वह जामून की लकड़ी होती है।
गांव देहात में जब कुंए की खुदाई होती तो उसके तलहटी में जामून की लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है जिसे जमोट कहते है। आजकल लोग जामुन का उपयोग घर बनाने में भी करने लगे है।
जामून के छाल का उपयोग श्वसन गलादर्द रक्तशुद्धि और अल्सर में किया जाता है।
दिल्ली के महरौली स्थित निजामुद्दीन बावड़ी का हाल ही में जीर्णोद्धार हुआ है |700 सालों के बाद भी गाद या अन्य अवरोधों की वजह से यहाँ पानी के सोते बंद नहीं हुए हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रमुख के.एन. श्रीवास्तव के अनुसार इस बावड़ी की अनोखी बात यह है कि आज भी यहाँ लकड़ी की वो तख्ती साबुत है जिसके ऊपर यह बावड़ी बनी थी। श्रीवास्तव जी के अनुसार उत्तर भारत के अधिकतर कुँओं व बावड़ियों की तली में जामुन की लकड़ी का इस्तेमाल आधार के रूप में किया जाता था।
इस बावड़ी में भी जामुन की लकड़ी इस्तेमाल की गई थी जो 700 साल बाद भी नहीं गली है। बावड़ी की सफाई करते समय बारीक से बारीक बातों का भी खयाल रखा गया। यहाँ तक कि सफाई के लिए पानी निकालते समय इस बात का खास खयाल रखा गया कि इसकी एक भी मछली न मरे। इस बावड़ी में 10 किलो से अधिक वजनी मछलियाँ भी मौजूद हैं।
इन सोतों का पानी अब भी काफी मीठा और शुद्ध है। इतना कि इसके संरक्षण के कार्य से जुड़े रतीश नंदा का कहना है कि इन सोतों का पानी आज भी इतना शुद्ध है कि इसे आप सीधे पी सकते हैं। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि पेट के कई रोगों में यह पानी फायदा करता है।
पर्वतीय क्षेत्र में आटा पीसने की पनचक्की का उपयोग अत्यन्त प्राचीन है। पानी से चलने के कारण इसे “घट’ या "घराट’ कहते हैं।घराट की गूलों से सिंचाई का कार्य भी होता है। यह एक प्रदूषण से रहित परम्परागत प्रौद्यौगिकी है। इसे जल संसाधन का एक प्राचीन एवं समुन्नत उपयोग कहा जा सकता है। आजकल बिजली या डीजल से चलने वाली चक्कियों के कारण कई घराट बंद हो गए हैं और कुछ बंद होने के कगार पर हैं।पनचक्कियाँ प्राय: हमेशा बहते रहने वाली नदियों के तट पर बनाई जाती हैं। गूल द्वारा नदी से पानी लेकर उसे लकड़ी के पनाले में प्रवाहित किया जाता है जिससे पानी में तेज प्रवाह उत्पन्न हो जाता है। इस प्रवाह के नीचे पंखेदार चक्र (फितौड़ा) रखकर उसके ऊपर चक्की के दो पाट रखे जाते हैं। निचला चक्का भारी एवं स्थिर होता है। पंखे के चक्र का बीच का ऊपर उठा नुकीला भाग (बी) ऊपरी चक्के के खांचे में निहित लोहे की खपच्ची (क्वेलार) में फँसाया जाता है। पानी के वेग से ज्यों ही पंखेदार चक्र घूमने लगता है, चक्की का ऊपरी चक्का घूमने लगता है।पनाले में प्रायः जामुन की लकड़ी का भी इस्तेमाल होता है |फितौडा भी जामुन की लकड़ी से बनाया जाता है |
जामुन की लकड़ी एक अच्छी दातुन है|
जलसुंघा ( ऐसे विशिष्ट प्रतिभा संपन्न व्यक्ति जो भूमिगत जल के स्त्रोत का पता लगाते है ) भी पानी सूंघने के लिए जामुन की लकड़ी का इस्तेमाल करते है
हवन में भी जामुन की लकड़ी का इस्तेमाल होता है |


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Tuesday, December 29, 2015

ईश्वर और अल्लाह में क्या भेद है ? अल्लाह के गुण :- (१) सातवें आस्मान पर रहता है । (२) अरबी भाषा में...

ईश्वर और अल्लाह में क्या भेद है ?
अल्लाह के गुण :-
(१) सातवें आस्मान पर रहता है ।
(२) अरबी भाषा में बात करता है ।
(३) भुलक्कड़ है कुछ भी बोलकर बाद में भूल जाता है ।
(४) कुत्तों से नफरत करता है । सूअरों को गंदा समझता है ।
(५) अपने आपको साबित करने के लिए बार बार कसमें खाता फिरता है ।
(६) मूर्तीपूजकों से चिढ़ता है, उनके लिए जहन्नुम की आग और पत्थर बनाता है ।
(७) औरतों का बड़ा शौकीन है ।
(८) मुसलमानों को जन्नत में औरतें सप्लाई करने का काम करता है । ( दल्लाह )
(९) दिन में कम से कम पांच बार मौलवीयों की बांग ( आज़ान ) बड़े शौंक से सुनता है ।
(१०) खुद भूल जाता है कि वो खुद एक अल्लाह है और किसी दूसरे अल्लाह की कसमें खाने लग जाता है ।
(११) खुद ही काफिरों को गुमराह करता है और खुद ही उनको सज़ा भी देता फिरता है ।
(१२) अपने सारे काम फरिश्तों से करवाता फिरता है ।
# ईश्वर_के_गुण :-
(१) निराकार और सर्वव्यापक है । कण कण में है ।
(२) उसका ज्ञान सर्वत्र होने से प्रकृति के मूल संकेत वैदिक संस्कृत में हैं ।
(३) उसका ज्ञान अनन्त है ।
(४) सभी जीवात्माओं पर दया करता है , न्याय करता है ।
(५) अपने विराट रूप से स्वयं ही सूर्य की भांती सिद्ध है ।
(६) किसी प्रतिमा में नहीं आता , और प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण करता रहता है ।
(७) निर्लेप है कभी बन्धन में नहीं आता ।
(८) पुण्य करने वालों को सुख और पाप करने वालों को दुःख कर्मों अनुसार देता है ।
(९) योगाभ्यास से चित शांत किए योगियों के हृदय में प्रकाशमान होता है ।
(१०) सूर्य की भांती अपने से ही सिद्ध है, नित्य और सनातन ।
(११) यथायोग्य न्याय करता है और सबको सत्य धर्म में आने की शिक्षा सदा करता रहता है ।
(१२) सर्वव्यापक अनंत ज्ञानमय होने के कारण वह सभी कार्य पूर्ण करने में समर्थ है ।
( नोट :- आज के बाद कभी मत कहना कि ईश्वर और अल्लाह एक है )


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।।🇮🇳संस्कृतं सर्वेषां संस्कृतं सर्वत्र📚।। *शब्दान् जानीम:, वाक्यप्रयोगञ्च कुर्म: > ✈ विमानम् । 🎁...

।।🇮🇳संस्कृतं सर्वेषां संस्कृतं सर्वत्र📚।।
*शब्दान् जानीम:, वाक्यप्रयोगञ्च कुर्म: >
✈ विमानम् ।
🎁 उपायनम् ।
🚘 यानम् ।
💺 आसन्दः / आसनम् ।
⛵ नौका ।
🗻 पर्वत:।
🚊 रेलयानम् ।
🚌 लोकयानम् ।
🚲 द्विचक्रिका ।
🇮🇳 ध्वज:।
🐰 शशक:।
🐯 व्याघ्रः।
🐵 वानर:।
🐴 अश्व:।
🐑 मेष:।
🐘 गज:।
🐢 कच्छप:।
🐜 पिपीलिका ।
🐠 मत्स्य:।
🐄 धेनु: ।
🐃 महिषी ।
🐐 अजा ।
🐓 कुक्कुट:।
🐕 श्वा / कुक्कुरः / सारमेयः (श्वा श्वानौ श्वानः) ।
🐁 मूषक:।
🐊 मकर:।
🐪 उष्ट्रः।
🌸 पुष्पम् ।
🍃 पर्णे (द्वि.व)।
🌳 वृक्ष:।
🌞 सूर्य:।
🌛 चन्द्र:।
⭐ तारक: / नक्षत्रम् ।
☔ छत्रम् ।
👦 बालक:।
👧 बालिका ।
👂 कर्ण:।
👀 नेत्रे (द्वि.व)।
👃नासिका ।
👅 जिह्वा ।
👄 औष्ठौ (द्वि.व) ।
👋 चपेटिका ।
💪 बाहुः ।
🙏 नमस्कारः।
👟 पादत्राणम् (पादरक्षक:) ।
👔 युतकम् ।
💼 स्यूत:।
👖 ऊरुकम् ।
👓 उपनेत्रम् ।
💎 वज्रम् (रत्नम् ) ।
💿 सान्द्रमुद्रिका ।
🔔 घण्टा ।
🔓 ताल:।
🔑 कुञ्चिका ।
⌚ घटी।
💡 विद्युद्दीप:।
🔦 करदीप:।
🔋 विद्युत्कोष:।
🔪 छूरिका ।
✏ अङ्कनी ।
📖 पुस्तकम् ।
🏀 कन्दुकम् ।
🍷 चषक:।
🍴 चमसौ (द्वि.व)।
📷 चित्रग्राहकम् ।
💻 सड़्गणकम् ।
📱जड़्गमदूरवाणी ।
☎ स्थिरदूरवाणी ।
📢 ध्वनिवर्धकम् ।
⏳समयसूचकम् ।
⌚ हस्तघटी ।
🚿 जलसेचकम् ।
🚪द्वारम् ।
🔫 भुशुण्डिका ।(बु?) ।
🔩आणिः ।
🔨ताडकम् ।
💊 गुलिका/औषधम् ।
💰 धनम् ।
✉ पत्रम् ।
📬 पत्रपेटिका ।
📃 कर्गजम्/कागदम् ।
📊 सूचिपत्रम् ।
📅 दिनदर्शिका ।
✂ कर्त्तरी ।
📚 पुस्तकाणि ।
🎨 वर्णाः ।
🔭 दूरदर्शकम् ।
🔬 सूक्ष्मदर्शकम् ।
📰 पत्रिका ।
🎼🎶 सड़्गीतम् ।
🏆 पारितोषकम् ।
⚽ पादकन्दुकम् ।
☕ चायम् ।
🍵पनीयम्/सूपः ।
🍪 रोटिका ।
🍧 पयोहिमः ।
🍯 मधु ।
🍎 सेवफलम् ।
🍉कलिड़्ग फलम् ।
🍊नारड़्ग फलम् ।
🍋 आम्र फलम् ।
🍇 द्राक्षाफलाणि ।
🍌कदली फलम् ।
🍅 रक्तफलम् ।
🌋 ज्वालामुखी ।
🐭 मूषकः ।
🐴 अश्वः ।
🐺 गर्दभः ।
🐷 वराहः ।
🐗 वनवराहः ।
🐝 मधुकरः/षट्पदः ।
🐁मूषिकः ।
🐘 गजः ।
🐑 अविः ।
🐒वानरः/मर्कटः ।
🐍 सर्पः ।
🐠 मीनः ।
🐈 बिडालः/मार्जारः/लः ।
🐄 गौमाता ।
🐊 मकरः ।
🐪 उष्ट्रः ।
🌹 पाटलम् ।
🌺 जपाकुसुमम् ।
🍁 पर्णम् ।
🌞 सूर्यः ।
🌝 चन्द्रः ।
🌜अर्धचन्द्रः ।
⭐ नक्षत्रम् ।
☁ मेघः ।
⛄ क्रीडनकम् ।
🏠 गृहम् ।
🏫 भवनम् ।
🌅 सूर्योदयः ।
🌄 सूर्यास्तः ।
🌉 सेतुः ।
🚣 उडुपः (small boat)
🚢 नौका ।
✈ गगनयानम्/विमानम् ।
🚚 भारवाहनम् ।
🇮🇳 भारतध्वजः ।
1⃣ एकम् ।
2⃣ द्वे ।
3⃣ त्रीणि ।
4⃣ चत्वारि ।
5⃣ पञ्च ।
6⃣ षट् ।
7⃣ सप्त ।
8⃣ अष्ट/अष्टौ ।
9⃣ नव ।
🔟 दश ।
2⃣0⃣ विंशतिः ।
3⃣0⃣ त्रिंशत् ।
4⃣0⃣ चत्त्वारिंशत् ।
5⃣0⃣ पञ्चिशत् ।
6⃣0⃣ षष्टिः ।
7⃣0⃣ सप्ततिः ।
8⃣0⃣ अशीतिः ।
9⃣0⃣ नवतिः ।
1⃣0⃣0⃣ शतम्।
⬅ वामतः ।
➡ दक्षिणतः ।
⬆ उपरि ।
⬇ अधः ।
🎦 चलच्चित्र ग्राहकम् ।
🚰 नल्लिका ।
🚾 जलशीतकम् ।
🛄 यानपेटिका ।
📶 तरड़्ग सूचकम् ( तरड़्गाः)
+ सड़्कलनम् ।
- व्यवकलनम् ।
× गुणाकारः ।
÷ भागाकारः ।
% प्रतिशतम् ।
@ अत्र (विलासम्)।
⬜ श्वेतः ।
🔵 नीलः ।
🔴 रक्तः ।
⬛ कृष्णः ।
……..
संस्कृतेन सम्भाषणं कुर्मः ……..
जीवनस्य परिवर्तनं कुर्मः ……l


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ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम। चाहे सुबह हो चाहे शाम, भज लो प्यारे ओ३म् का...

ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।
चाहे सुबह हो चाहे शाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् है वेदों का वरदान, ओ३म् का नाद है ब्रह्म समान।
ओ३म् है जीवन ओ३म् है प्राण, ओ३म् में रहते स्वयं भगवान।।
ओ३म् को सुमरो आठों याम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् की ध्वनि है अति पावन, ओ३म् का मन्त्र है मनभावन।
ओ३म् का अक्षर है अनुपम, ये सृष्टि का शब्द प्रथम।।
इसपे न्योछावर शब्द तमाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् कहो ओंकार कहो, शब्द ये बारम्बार कहो।
ओ३म् की महिमा अपरम्पार, ओ३म् करेगा बेड़ा पार।।
जीतोगे जीवन संग्राम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
मनुष-जन्म पाने वालों, जीवन धन्य बना डालो।
इत-उत नाहक मत दौड़ो, ओ३म् से निज नाता जोड़ो।।
निश्चय होगा शुभ परिणाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् का नाम है प्रभु का नाम, ओ३म् है परमानन्द का धाम।
ओ३म् का सुमिरन है अनमोल, ऋषि मुनियों ने देखा तोल।।
ओ३म् है चंचल चित की लगाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।
ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।
ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म् , सब कोई बोलो भई ओ३म् ओ३म् ओ३म्
ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म्, सब कोई बोलो भई ओ३म् ओ३म् ओ३म्
ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।
ओ३म् है परमपिता का नाम, भज लो प्यारे ओ३म् का नाम।।
ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म् , सब कोई बोलो भई ओ३म् ओ३म् ओ३म्
ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म् , सब कोई बोलो भाई ओ३म् ओ३म् ओ३म्
ओ३म्
ओ३म्
ओ३म् ………….


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Sunday, December 27, 2015

१४ पौष 28 दिसम्बर 2015 😶 “ क्या भेंट दें ? ” 🌞 🔥🔥 ओ३म् शिक्षेयमिन्...

१४ पौष 28 दिसम्बर 2015

😶 “ क्या भेंट दें ? ” 🌞

🔥🔥 ओ३म् शिक्षेयमिन् महयते दिवेदिवे राय आ कुहचिद् विदे । 🔥🔥
🍃🍂 नहि त्वदन्यन् मघवन् न आप्यं वस्यो अस्ति पिता चन ।। 🍂🍃

ऋक्० ७ । ३२। २९ ; अथर्व० २० । ८२ । २

ऋषि:- वसिष्ठ: ।। देवता- इन्द्र: ।। छन्द:- निचृत्पडित्त: ।।

शब्दार्थ- जहाँ भी कहीं विद्यमान तेरा स्तुति-पूजन करनेवाले तेरे भक्त के लिए मैं धनों को प्रतिदिन, पूरी तरह से देता ही रहता हूँ ।
हे परमेश्वर !
तेरे सिवाय और कोई हमारा सम्बन्धी प्राप्तव्य नहीं है, तथा तेरे सिवाय और कोई श्रेष्ठ पिता भी हमारा नहीं है ।

विनय:- हे परमेश्वर !
हे मेरे पिता ! मैं तुम्हें देना चाहता हूँ, अपना सब-कुछ दे देना चाहता हूँ । जब मैं तेरे अनन्त उपकारों का अनुभव करता हूँ तो हे प्रतिपालक ! मैं तुझे अपना सर्वस्व समर्पण किये बगेर नहीं रह सकता । तब सब कुछ तेरे चरणों में रख देने को आतुर होता हूँ,
परन्तु हे इन्द्र !
तूं कहाँ विद्यमान है? मैं तुझे कहाँ पाऊं? मैं तुझे देने कहाँ जाऊं? यह सब कुछ मैं समझ नहीं पाता । इस संसार में जो तेरे सच्चे भक्त होते है,जिनमें तेरा अधिक से अधिक प्रकाश होता है उन पूजनीय, तेरा पूजन करने वाले भक्तों को मैं सदा अपना धन देता रहता हूँ, उनका निरंत भरण-पोषण करता रहता हूँ । ऐसे त्यागी म्हात्मायों के लिए,ऐसे तेरे बन्दों के मेरा घर हमेशा खुला हुआ है । नहीं, ये सन्त तो जहाँ भी कहीं विद्यमान हो तो मैं प्रतिदिन इन्हें अपना धन पहुंचाता हुआ अपने धन को सफल किये करता हूँ । इस तरह नित्य इन महानुभावों को दान देते हुए मैं अनुभव करता हूँ की मैं तुम्हें देता हूँ । इनकी तृप्ति करने से, हे इन्द्र ! क्या तुम्हारी तृप्ति नहीं होती है? तुम्हें तृप्त करने के लिए मैं और क्या करूं ?
हे माघवन !
तुम्हारे सिवाय हमारा कोई बन्धुं नहीं हैं , तुम्हारे जैसा कोई श्रेष्ठ पिता नहीं है और तुम तक अपनी भेंटें कैसे पहुंचाऊ? तुम तक पहुंचाने के लिए मैं प्रतिदिन तेरे संतों की सेवा किया करता हूँ, तुम्हें तृप्त करने के लिए तुम्हारे भक्तों को दान दिया करता हूँ


🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂
ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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हिंसक-रक्षक संवाद :- हिंसक- ईश्वर ने सब पशु आदि सृष्टि मनुष्य के लिये रची है, और मनुष्य अपनी भक्ति...

हिंसक-रक्षक संवाद :-

हिंसक- ईश्वर ने सब पशु आदि सृष्टि मनुष्य के लिये रची है, और मनुष्य अपनी भक्ति के लिये । इसलिये मांस खाने में दोष नहीं हो सकता I

रक्षक - भाई ! सुनो, तुम्हारे शरीर को जिस ईश्वर ने बनाया है, क्या उसी ने पशु आदि के शरीर नहीं बनाये है ? जो तुम कहो कि पशु आदि हमारे खाने को बनाये हैं, तो हम कह सकते है कि हिंसक पशुओं के लिये तुमको उसने रचा है, क्योंकि
जैसे तुम्हारा चित्त उनके मांस पर चलता है, वैसे ही सिंह, गृघ्र आदि का चित् भी तुम्हारे मांस, खाने पर चलता है, तो उन के लिये तुम क्यों नहीं ?

हिंसक - देखो, ईश्वर ने पुरुषों के दांत कैसे पैने मांसाहारी पशुओं के समान बनाये हैं । इससे हम जानते हैं कि मनुष्यों को माँस खाना उचित है।
रक्षक - जिन व्यघ्रादि पशुओं के दांत के दृष्टान्त से अपना पक्ष सिद्ध करना चाहते हो, क्या तुम भी उनके तुल्य ही हो ? देखो, तुम्हारी मनुष्य जाति उनकी पशु-जाति, तुम्हारे दौ पग और उनके चार, तुम विद्या पढ़ कर सत्यासत्य का विवेक कर सकते हो वे नहीं । और यह तुम्हारा दृष्टान्त भी युक्त नहीं, क्योंकि जो दांत का दृष्टान्त
लेते हो तो बन्दर के दांतों का दृष्टान्त क्यों नहीं लेते ? देखों बंदरों के दांत सिंह, मौर व बिल्ली आदि के समान है ओर वे मांस नहीं खाते । मनुष्य और बंदर की आकृति के भी है । इसलिये परमेश्वर ने मनुष्यों को दृष्टान्त से उपदेश किया है कि जैसे बंदर मांस कभी नहीं खाते और फलादि खाकर निर्वाह करते है, वैसे तुम भी किया करो I जैसा बंदरों का दृष्टान्त सांगोपांग मनुष्यों के साथ घटता है, वैसा अन्य किसी का नहीं । इसलिये मनुष्यों को उचित है कि मांस सर्वथा छोड़ देवें।

हिंसक - तुम लोग शाकाहारी-शाकाहारी कहते हो क्या वृक्षादि में जीवन नहीं ?

रक्षक - बिलकुल जीवन है। परन्तु जैसा तुम मानते हो वैसा नहीं। वृक्षादि सुषुप्त अवस्था में रहते है अत: उनमें सुख-दुःख की अनुभूति नाम-मात्र ही है। वेदों में उनका भी आवश्यकता अनुसार उचित मात्रा में उपयोग करने की आज्ञा है। देखो ! जब हम पशु आदि को मरते है तो वे कितना रोदन आदि विलाप करते है जबकि वृक्षादि में वैसा नहीं।
……Dinesh Sharma


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कया वेद को न मानने वाला नास्तिक है ?? ========================= उत्तर:-अवश्य नास्तिक ही होंगे...

कया वेद को न मानने वाला नास्तिक है ??
=========================
उत्तर:-अवश्य नास्तिक ही होंगे !
कयोकि वेद ईश्वरीय ग्रंथ है और वह आदेश के रुप मे है ,और उसमे सम्पुर्ण ज्ञान विज्ञान की बातें है अत : यदि कोई वेद को नही मानता है तो वह ईश्वर के आदेश का उल्लंघन करता है , इस प्रकार वह नास्तिक ही कहलायेगा !!

दूसरा मनुस्मृति के अनुसार, जो वेद की निन्दा करता है वह नास्तिक है।
उदाहरण के लिये, कोई व्यक्ति कहे की मैं अपने पिता को बहुत मानता हूँ और पिता कोई आदेश दे तो उसका पालन ना करे तो वह पिता का अपमान करता है।
वेद परमपिता की शिक्षा है उसका मानना ही परमात्मा का मानना है।

प्रशन:-जिसने वेद नही पढा,लेकिन ईश्वर मे विश्वास है तो कया वह भी नास्तिक है ?

उत्तर:-बात यहां वेद को पढ़ने से नही है , परन्तु वेद मे जो बातें बताई गई उसका विपरित कार्य करने वाले तो नास्तिक ही होंगे.यदि कोई व्यक्ति वेद को नही पढ़ा है परन्तु उसका कार्य ईश्वरीय नियमानुकुल है तो वे आस्तिक ही होंगे .
जैसे कोई ऐसे व्यक्ति जो वेद को नही पढ़ा है परन्तु ईश्वर की सत्ता मे उसे विश्वास है तो वह उसका ज्ञान वेदानुकुल ही है और ऐसे व्यक्ति बिना वेद पढ़े भी आस्तिक होगा परन्तु जो वेद को पढ़ भी लिया और ईश्वर की सत्ता पर उसे विश्वास नही है तो वह वैदिक ज्ञान के विपरित हुआ इस प्रकार उसे नास्तिक की श्रेणी मे रखा जायेगा
इसलिए कहा गया वेद की निंदा करने वाले वाले अर्थात उसकी आज्ञाओं को न मानने वाले नास्तिक होता है .
अत: वेद को न मानना वेद निंदा ही हुआ वह मनु जी के अनुसार नास्तिक हुआ .

ईश्वर की सत्ता मानने वाले एकान्त में दुराचार कर बैठते हैं किन्तु जो वेदों की शिक्षा का पालन करते हैं वे ही सदाचारी होते हैं। वास्तविक आस्तिक वही हैं। वेदों की शिक्षा का पालन नहीं करने वाले तो आस्तिक का मुखौटा लगाकर घूमते हैं, ढोंगी, पाखण्डी हैं।
केवल एक प्रकार का आस्तिक होता है जो वेदानुकूल आचरण करे अन्य सभी नास्तिक हैं।
अब जो केवल ईश्वर की सत्ता को मानता है परन्तु नदियों की आरती उतारना,मूर्तियों की आरती उतारना,मूर्तियों का विसर्जन करना,शिवजी के गुप्तांग वा लिंग पर जल चढाना,ईश्वर का अवतार मानना,सम्प्रदायों को धर्म मानना,स्वछन्दता को स्वतन्त्रता मानना,पुराण कुरान बाईबल आदि को ईश्वरकृत वा ऋषिकृत मानना,मांस खाना पशुबलि देना आदि सब पाप कर्म करता है और वेद को ईश्वरीय वाणि नहीं मानता या वेदों को कचरा बताता है….उसे क्या कहेंगे ? निश्चित ही वह नास्तिक है
इसलिए वेद नहीं पढे तो कोई बात नहीं परन्तु जो वेद को मानता है और आचरण विचार वेदानुकूल हैं तो आस्तिक ही कहलाएगा.
इस प्रकार जो वेद को नही मानता किन्तु ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करता है तो भी वो नास्तिक नही अज्ञानी है।
कयोकि ईश्वर को मानने से तात्पर्य ईश्वर की आज्ञा मानने से है और वह बिना वेद के संभव नहीं है, और ईश्वर को भी वेद बिना कहाँ ठीक ठीक जाना जाता है।
वेद ईश्वर के सही स्वरूप का ज्ञान कराता है और यदि कोई वेद ही को न माने तो ईश्वर के यथार्त स्वरूप को कैसे जान पायेगा और यदि ईश्वर के यथार्त स्वरूप को नही जानेगा तो मानेगा कैसे और यदि यथार्त ईश्वर को न मानकर किसी अन्य को मानेगा तो ये ईश्वर की अवहेलना होगी |
इसलिए केवल मानने से ही सब नही होता है मानने से तो कुछ भी,किसी मे भी,आस्था बना लेने से आस्तिकता का पाखण्ड होता है,आस्तिकता का मुखोटा पहनना होता है,
जो आस्तिक होकर भी नास्तिक ही हुआ तो ऐसे आस्तिक को हम अज्ञानी आस्तिक ही कहेंगे | इस लिए ईश्वर के सही स्वरूप को वैदिक ज्ञान जानना चाहिए और उसी के अनुरूप उसे मानना चाहिए तभी कोई आस्तिक होगा अन्यथा आस्तिक होकर भी नास्तिक ही कहलायेगा |
📝….साभार:- विद्वानो से चर्चा
प्रेषक:-नरेश खरे


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अयोध्या में मोहम्मद पैगम्बर ने नहीं श्रीराम ने लिया था जन्म : योगगुरु बाबा रामदेव विस्तृत...

अयोध्या में मोहम्मद पैगम्बर ने नहीं श्रीराम ने लिया था जन्म : योगगुरु बाबा रामदेव

विस्तृत https://t.co/ngDSfKsHTE https://t.co/t9w7aAhnDc


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बिक गयी है धरती , गगन बिक न जाए , बिक रहा है पानी,पवन बिक न जाए , चाँद पर भी बिकने लगी है जमीं ., डर...

बिक गयी है धरती , गगन बिक न जाए ,
बिक रहा है पानी,पवन बिक न जाए ,
चाँद पर भी बिकने लगी है जमीं .,
डर है की सूरज की तपन बिक न जाए ,
हर जगह बिकने लगी है स्वार्थ नीति,
डर है की कहीं धर्म बिक न जाए ,
देकर दहॆज ख़रीदा गया है अब दुल्हे को ,
कही उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए ,
हर काम की रिश्वत ले रहे अब ये नेता ,
कही इन्ही के हाथों वतन बिक न जाए ,
सरे आम बिकने लगे अब तो सांसद ,
डर है की कहीं संसद भवन बिक न जाए ,
आदमी मरा तोभी आँखें खुली हुई हैं
डरता है मुर्दा , कहीं कफ़न बिक न जाए


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