Sunday, December 27, 2015

१४ पौष 28 दिसम्बर 2015 😶 “ क्या भेंट दें ? ” 🌞 🔥🔥 ओ३म् शिक्षेयमिन्...

१४ पौष 28 दिसम्बर 2015

😶 “ क्या भेंट दें ? ” 🌞

🔥🔥 ओ३म् शिक्षेयमिन् महयते दिवेदिवे राय आ कुहचिद् विदे । 🔥🔥
🍃🍂 नहि त्वदन्यन् मघवन् न आप्यं वस्यो अस्ति पिता चन ।। 🍂🍃

ऋक्० ७ । ३२। २९ ; अथर्व० २० । ८२ । २

ऋषि:- वसिष्ठ: ।। देवता- इन्द्र: ।। छन्द:- निचृत्पडित्त: ।।

शब्दार्थ- जहाँ भी कहीं विद्यमान तेरा स्तुति-पूजन करनेवाले तेरे भक्त के लिए मैं धनों को प्रतिदिन, पूरी तरह से देता ही रहता हूँ ।
हे परमेश्वर !
तेरे सिवाय और कोई हमारा सम्बन्धी प्राप्तव्य नहीं है, तथा तेरे सिवाय और कोई श्रेष्ठ पिता भी हमारा नहीं है ।

विनय:- हे परमेश्वर !
हे मेरे पिता ! मैं तुम्हें देना चाहता हूँ, अपना सब-कुछ दे देना चाहता हूँ । जब मैं तेरे अनन्त उपकारों का अनुभव करता हूँ तो हे प्रतिपालक ! मैं तुझे अपना सर्वस्व समर्पण किये बगेर नहीं रह सकता । तब सब कुछ तेरे चरणों में रख देने को आतुर होता हूँ,
परन्तु हे इन्द्र !
तूं कहाँ विद्यमान है? मैं तुझे कहाँ पाऊं? मैं तुझे देने कहाँ जाऊं? यह सब कुछ मैं समझ नहीं पाता । इस संसार में जो तेरे सच्चे भक्त होते है,जिनमें तेरा अधिक से अधिक प्रकाश होता है उन पूजनीय, तेरा पूजन करने वाले भक्तों को मैं सदा अपना धन देता रहता हूँ, उनका निरंत भरण-पोषण करता रहता हूँ । ऐसे त्यागी म्हात्मायों के लिए,ऐसे तेरे बन्दों के मेरा घर हमेशा खुला हुआ है । नहीं, ये सन्त तो जहाँ भी कहीं विद्यमान हो तो मैं प्रतिदिन इन्हें अपना धन पहुंचाता हुआ अपने धन को सफल किये करता हूँ । इस तरह नित्य इन महानुभावों को दान देते हुए मैं अनुभव करता हूँ की मैं तुम्हें देता हूँ । इनकी तृप्ति करने से, हे इन्द्र ! क्या तुम्हारी तृप्ति नहीं होती है? तुम्हें तृप्त करने के लिए मैं और क्या करूं ?
हे माघवन !
तुम्हारे सिवाय हमारा कोई बन्धुं नहीं हैं , तुम्हारे जैसा कोई श्रेष्ठ पिता नहीं है और तुम तक अपनी भेंटें कैसे पहुंचाऊ? तुम तक पहुंचाने के लिए मैं प्रतिदिन तेरे संतों की सेवा किया करता हूँ, तुम्हें तृप्त करने के लिए तुम्हारे भक्तों को दान दिया करता हूँ


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ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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