Wednesday, October 11, 2017

 हिन्दू सत्य सनातन धर्म की - अद्भुत पूजा पद्धति जो पूर्णतया वेदानुकूल है,अनुकरणीय है, ध्यान मुद्रा...

 हिन्दू सत्य सनातन धर्म की - अद्भुत पूजा पद्धति जो पूर्णतया वेदानुकूल है,अनुकरणीय है, ध्यान मुद्रा में बैठ कर निम्न वेदमंत्रों का अर्थ सहित चिन्तन करें, ईश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करें-*

*अथ वैदिक सन्ध्या*-


ओ३म्‌ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ॥

-यजु. ३६.३


ओ३म्‌ शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभि स्रवन्तु नः॥

-यजु. ३६.१२

(दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें)


ओं वाक्‌ वाक्‌। ओं प्राणः प्राणः। ओं चक्षुः चक्षुः। ओं श्रोत्रं श्रोत्रम्‌। ओं नाभिः।

ओं हृदयम्‌। ओं कण्ठः। ओं शिरः। ओं बाहुभ्यां यशोबलम्‌। ओं करतलकरपृष्ठे॥

(इन्द्रिय स्पर्श करें)


ओं भूः पुनातु शिरसि। ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः। ओं स्वः पुनातु कण्ठे।

ओं महः पुनातु हृदये । ओं जनः पुनातु नाभ्याम्‌। ओं तपः पुनातु पादयोः।

ओं सत्यम्‌ पुनातु पुनश्शिरसि। ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र॥

(जल से मार्जन करें)


ओं भूः। ओं भुवः। ओं स्वः। ओं महः। ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्‌॥

(प्राणायाम करें)


ओं ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः॥


समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥


सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्‌।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥

-ऋग्‌. १०.१९०.१-३


ओ३म्‌ शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभि स्रवन्तु नः॥

-यजु. ३६.१२

(दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें)


ओं प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं उदीची दिक्सोमोेऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥


ओं ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥

-अथर्व.३.२७.१-६


ओम्‌ उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्तऽउत्तरम्‌।

देवं देवत्रा सूर्य्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्‌॥

-यजु. ३५.१४


उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः।

दृशे विश्वाय सूर्य्यम्‌॥

-यजु. ३३.३१


चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।

आप्रा द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षम्‌

सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा॥

-यजु. ७.४२


तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्‌।

पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं

शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं

भूयश्च शरदः शतात्‌॥

-यजु. ३६.२४


ओ३म्‌ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ॥

-यजु. ३६.३


हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा

धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः॥


ओं नमः शम्भवाय च मयोभवाय च

नमः शंकराय च मयस्कराय च

नमः शिवाय च शिवतराय च॥

-यजु. १४.४१


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सत्यार्थ प्रकाश : क्या और क्योंमहर्षि दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में अपना कालजयी...

सत्यार्थ प्रकाश : क्या और क्यों


महर्षि दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में अपना कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश रचकर धार्मिक जगत में एक क्रांति कर दी . यह ग्रन्थ वैचारिक क्रान्ति का एक शंखनाद है . इस ग्रन्थ का जन साधारण पर और विचारशील दोनों प्रकार के लोगों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा . हिन्दी भाषा में प्रकाशित होनेवाले किसी दुसरे ग्रन्थ का एक शताब्दी से भी कम समय में इतना प्रसार नहीं हुआ जितना की इस ग्रन्थ का अर्धशताब्दी में प्रचार प्रसार हुआ . हिन्दी में छपा कोई अन्य ग्रन्थ एक शताब्दी के भीतर देश व विदेश की इतनी भाषाओँ में अनुदित नहीं हुआ जितनी भाषाओँ में इसका अनुवाद हो गया है. हिन्दी में तो कवियों ने इसका पद्यानुवाद भी कर दिया .


सार्वभौमिक नित्य सत्य : इस ग्रन्थ का लेखक ईश्वर जीव प्रकृति इन तीन पदार्थों को अनादि मानता है .ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव भी अनादि व नित्य हैं . सृष्टि नियमों को भी ग्रन्थ करता अनादि व नित्य तथा सार्वभौमिक मानता हिया . विज्ञान का भी यही मत है की सृष्टि नियम Laws of Nature अटल अटूट सार्वभौमिक हैं . इन नियमों का नियंता परमात्मा है . परमात्मा की सृष्टी नियम न तो बदलते हैं न टूटते हैं न घटते हिएँ न बढते हैं और न ही घिसते हैं इसलिए चमत्कार की बातें करना एक अन्धविश्वास है . किसी भी मत का व्यक्ति चमत्कार में आस्था रखता है तो यह अन्धविश्वास है.


सबसे पहला ग्रन्थ विश्व में इस युत में चमत्कारों को चुनौती देने वाला सबसे पहला ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश है. जिस मनीषी ने चमत्कारों को तर्क तुला पर तोलकर मत पंथों को अपनों व परायों को झाक्खोरा विश्व का वह पहला विचारक महर्षि दयानन्द सरस्वती है. सत्यार्थ प्रकाश के प्रणेता तत्ववेत्ता ऋषि दयानन्द को न तो पुराणों के चमत्कार मान्य हैं और न ही बाइबल व कुरान के . हनुमान के सूर्य को मुख में ले लिया यह भी सत्य नहीं है और हजरत ईसा ने रोगियों को चंगा कर दिया , मृतकों को जीवित कर दिया तथा हजरत मुहम्मद साहेब ने चाँद के दो टुकडे कर दिए – ये भी ऐतिहासिक तथ्य नहीं है . हजरत मुसा हों अथवा इब्राहीम सृष्टि नियम तोड़ने में कोई भी सक्षम नहीं हो सकता . दयानन्द जी के इस घोष का कड़ा विरोध हुआ . आर्य विद्वानों ने इस विषय मरण सैकड़ों शाश्त्रार्थ किये. पंडित लेखराम जी आर्य पथिक को इसी कारण बलिदान तक देना पड़ा . ख्वाजा हसन निजामी को सन १९२५ में एक आर्य विचारक प्रो हासानन्द ने चमत्कार दिखाने की चुनौती दी और कहा की में आपसे बढकर जादूगरी से चमत्कार दिखाऊंगा . ख्वाजा साहेब को आगे बढकर चमत्कार दिखाने का साहस ही नहीं हुआ . (दृष्टव्य : दैनिक तेज उर्दू दिनांक ३०.१०.१९२५ पृष्ठ ५ ) सत्य साईं बाबा भी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की चुनौती को स्वीकार करके कोई चमत्कार न दिखा सका.


अब तो विरोधी भी मन रहे हैं : ईश्वर की कृपा हुयी . ऋषी की पुण्य प्रताप व अनेक बलिदानों की फलस्वरूप अब विरोधी भी सत्यार्थ प्रकाश के प्रभाव को स्वीकार करके इस अन्धविश्वास से मुक्ति पा रहे हैं . हाँ ऐसे लोगों की अब भी कमी नहीं है जो सत्यार्थ प्रकाश से प्रकाश भी पा रहे हैं और इसे कोष भी रहे हैं . गुड का स्वाद भी लेते हैं और गन्ने को गालीयाँ भी देते हैं . पुराण बाइबिल व कुरान के ऐसे प्रसंगों की व्याख्याएं ही बदल गयीं हैं . अब रोगियों को चंगा करने का अर्थ मानसिक और आध्यात्मिक रोगों को दूर करना हो गया है . मृतकों को जिलाने का अर्थ नैतिक मृत्यु से बचाना किया जाने लगा है . यह व्याख्या कैसे सूझी? इन धर्म ग्रंथों के भाष्य व तफ्सीरें बदल गयीं हैं .


सत्य असत्य की कसौटी : आज से साथ वर्ष पहले तक धर्म की सच्चाई की कसौटी चमत्कारों को माना जाता था . आज है कोई जो कुमारी मरियम से ईसा की उत्पत्ति को इसाई मत की सचाई का प्रबल प्रमाण मानता हो ? कौन है जो पुराणों की असंभव बातों को संभव व सत्य मानता हो ? कौन है जो बुराक पर सवार होकर पैगम्बर मुहम्मद की आसमानी यात्रा को सत्य मानता हो ? मुसलमानों के नेता सर सैयद अहमद खां ने बड़ी निर्भीकता से इन गप्पों को झुठलाया है ( दृष्टव्य “ हयाते जावेद लेखक मौलाना हाली – पानीपत ). यह सब सत्यार्थ प्रकाश का ही प्रभाव है .


लोगों का ध्यान नहीं गया :सत्यार्थ प्रकाश ने भारतीय जनमानस में मातृभूमि का प्यार जगाया . जन्म भूमि व पूर्वजों के प्रति आस्था पैदा की . जातीय स्वाभिमान को पैदा किया . एकादश समुल्लास की अनुभुमिका ने भारतीयों की हीन भावना को भगाया. सत्यार्थ प्रकाश की इसी अनुभुमिका का प्रभाव था की गर्ज -२ कर आर्य लोग गाया करते थे :


कभी हम बुलन्द इकबाल थे तुम्हें याद हो कि न याद हो


हर फेन में रखते कमाल थे तुम्हें याद हो य न याद हो .


सत्यार्थ प्रकाश ने देशवासियों को स्वराज्य का मंत्र दिया . इनके अतिरिक्त सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित कुछ वाक्यों व विचारों की मौलिकता व महत्व्य को विचारकों ने जाना व माना परन्तु उनका व्यापक प्रचार नहीं किया गया .इन्हें हम संक्षेप में यहाँ देते हैं :


ऋषी दयानन्द आधुनिक विश्व के प्रथम विचारक हैं जिन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में सबके लिए अनिवार्य व निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा का सिद्धांत रखा . उनके एक प्रमुख शिष्य स्वामी दर्शनानंद जी ने भारत में सबसे पहले निःशुल्क शिक्षा प्रणाली का प्रयोग किया .ऋषी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कृषक व श्रमिक आदि राजाओं के राजा हैं . कृषकों व श्रमिकों का समाज में सम्मान का स्थान है . इस युग में ऐसी घोषणा करने वाले पहले धर्म गुरु ऋषी दयानन्द ही थेऋषी ने अपने सत्यार्थ प्रकाश के १३ वे समुल्लास में लिखा है की यदि कोई गोरा किसी काले को मार देता है तो भी पक्षपात करते हुए न्यायालय उसे दोषमुक्त करके छोड़ देता है . इसाई मत की समीक्षा करते हुए ऐसा लिखा गया है . यह महर्षि की निर्भीकता व सत्य वादिता एवं प्रखर देशभक्ति का एक प्रमाण है . बीसवीं शताब्दी में आरंभिक वर्षों में मद्रास कोलकाता व रावलपिंडी आदि नगरों में ऐसे घटनाएं घटती रहती थें . मरने वालों के लिए कोई बोलता ही नहीं था .प्रथम विश्व युद्ध तक गांधी जी भी अंग्रेज जाति की न्याय प्रियता में अडिग आस्था रखते हुए अंग्रेजी न्याय पालिका का गुणगान करते थे

महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय महापुरुष हैं जिन्होंने विदेशी शाषकों की न्याय पालिका का खुलकर अपमान किया . ऋषी ने विदेशियों की लूट खसोट व देश की कंगाली पर तो इस ग्रन्थ में कई बार खून के आंसू बहाये हैं

सत्यार्थ प्रकाश के तेरहवें समुल्लास में ही इसाई मत की समीक्षा करते हुए लिखा है कि तभी तो ये इसाई लोग दूसरों के धन पर ऐसे टूटते हैं जैसे प्यासा जल पर व भूखा अन्न पर . ऐसी निर्भीकता का हमारे देश के आधुनिक इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता


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ओ३म् ओ३म् ओ३म् सभी को सादर वैदिक नमस्ते जी जब हम मूर्ति पूजा का ख़ंडन करते हैँ तो लोग ये तर्क करते...

ओ३म् ओ३म् ओ३म्
सभी को सादर वैदिक नमस्ते जी
जब हम मूर्ति पूजा का ख़ंडन करते हैँ तो लोग ये तर्क करते हैं—-
वे कहते है की अगर आप अपने पिता की तस्वीर पर नहीं थूक सकते तो फिर मूर्ति का तिरस्कार क्यों करते है ।
उत्तर : हम मूर्ति का तिरस्कार नहीं वरन मूर्ति को ईश्वर मान उसको पूजने का विरोध करते हैं।हम पिता की तस्वीर अपने घर में लगाते है क्योंकि वह हमारे प्रिय हैँ हमारे आदर्श हैँ ,हमारे पूर्वज हैँ ।किन्तु उस तस्वीर को पिता समझ कर पिता की तरह व्यवहार नही करते। तस्वीर से धन नही मांगते ,सहायतानही मांगते ।क्योकि यह जानते है कि यह पिता की तस्वीर है पिता नहीं ,पिता की तरह चेतन नही है , यह जड़ है, ना सुनती है , ना देखती है ओर ना प्रतिक्रिया करती है।सबसे बड़ी बात , अगर पिता जीवित है तो सिर्फ उस चेतन पिता से चर्चा करके ही कुछ प्राप्त किया जा सकता , उनकी जड़ तस्वीर या मूर्ति से नही। अगर हमारे जीवित पिता हमे अपनी तस्वीर से बात करते देंखे तो वे हमें मूढ़ समझेंगे, बुद्धिहीन समझेंगे ओर क्रोध भी करेंगे ।क्या यही गलती हम उस चेतन ईश्वर के सम्बन्ध में नही कर रहे है??वह परमपिता परमात्मा जीवित है , चेतन है , हमारे ह्र्दय में है , फिर भी हम उसकी जगह मूर्तियों से मांगते है, जो जड़ है , हम जड़ वस्तुओं से बात करते है ईश्वर समझ कर । क्या ईश्वर यह देखकर प्रसन्न होगा??ईश्वर का कोई रूप रंग आकर नहीं होता फिर एक मनुष्य जैसी आकृति ईश्वर का प्रतिक कैसे आभासित करवासकती है??और चलो करवा भी दिया तो फिर मूर्ति में जरा भी टूट होते ही फेंक क्यों देते हो , फिर उसका भगवान् मर गया ?? गायब हो गया??क्यों नहीं सड़को पर पड़ी टूटी फूटी मूर्तियो को भी उठा लाते हो ??सच तो ये है तुम लोग मूर्तियो में ईश्वर का प्रतिक नहीं देखते बल्कि मूर्ति को ही भगवान् माने बैठे हो , वो भी एक ख़ास समय और स्तिथि में जब उसमे कोई मुर्ख पाखंडी पंडा आकर प्राण ना फूँक देतभी और जब तक वह खंडित ना हो जाए तब तक ।इससे आगे पीछे की स्तिथियों में वे ही मूर्तियां सड़को पर पड़ी रहती है।
2 : दूसरा तर्क है मूर्ति में भी भगवान है क्योकि वह कण कण में है तो मूर्ति को ही क्यों नहीं पूजते?
उत्तर : ईश्वर तो कण कण में है परंतु मूर्ति उसने नहीं बनाई , मूर्ति तो मनुष्य ने बनाई , ईश्वर ने बनाया फूल तो बताओ कौन बड़ा मूर्ति या फूल , तुम छोटी वस्तु पर बड़ी वस्तु चढ़ाते हो ।वह ईश्वर सर्वव्यापक है और तुम उसे एक छोटी सी मूर्ति में सिमित कर देते हो ।जब किसी से मिलना होता है तो उस स्थान पर हमारा ओर जिससे मिलना हो उसकी एक साथ उपस्तिथि आवश्यक है ।उदाहरण के लिए , अगर मुझे अपने मोदी जी से मिलना हो तो या तो दिल्ली जाना पड़ेगा या मोदी जी को मुजफ्फरनगर आना पड़ेगा ।इसी प्रकार अगर ईश्वर का साक्षत्कार करना है तो ईश्वर ओर हमे एक स्थान पर उपस्थित होना पड़ेगा ।हम से आशय हमारा शरीर नही बल्कि हमारी आत्मा से है।अर्थात वह स्थान बताइये जहां हमारी आत्मा ओर ईश्वर एक साथ उपस्थित हो।ईश्वर तो सर्वव्यापक होने से मूर्ति में भी है, आपके शरीर के भीतर भी है।अब आप कहाँ कहाँ है ??क्या आप मूर्ति के भीतर है ??क्या आप संसार की किसी भी वस्तु के भीतर है??आप सिर्फ अपने शरीर के भीतर है , यही वह स्थान है जहां आपका ईश्वर से साक्षात्कार सम्भव है , अन्यथा कही नही।यह मेरे विचार नही अपितु वेद वाणी है जो तर्क की कसौटी पर भी खरी उतरती है।वेद अंतिम प्रमाणवेद निंदक नास्तिकों अस्तिचिंतन करे, ओर ईश्वर को अपने भीतर खोजे ओर उसका तरीका भी वेदो में ही है जिसे महृषि पतंजलि ने अष्टांग योग के नाम से प्रचारित किया है।
3: तीसरा तर्क एकाग्रता के लिए मूर्ति जरुरी है, उत्तर : मूर्ति पर एकाग्रता किस लिए बढ़ा रहे हो , क्या मूर्ति भगवान् है , नहीं मूर्ति भगवान नहीं । मूर्ति को एकाग्रचित होकर भगवान् समझने से भी वह भगवान् नहीं बनेगी , मूर्ति ही रहेगी ।और किसी दिन टूट गयी 20 साल की एकाग्रता को ठेष पहुचेगी किन्तु आप फिर भी आप बिना मूर्ति के उपासना नही करेंगे बल्कि दूसरी मूर्ति खरीद लाओगे।सभी मूर्तिपूजक ये दावा करते है कि एक दिन मूर्तिपूजा करते करते एकाग्रता इतनी अधिक हो जाएगी किमूर्ति छूट जाएगी और ध्यान निराकार पर लग जायेगा।यह झुठ है क्योंकि निराकार पर ध्यान तभी लगेगा जब निराकार उपासना विधि आर्थत अष्टांग योग का प्रयास करोगे।इसीलिए एक 10 साल का बालक मूर्तिपूजा करते करते 80 साल का हो जाता है किंतु मूर्तिपूजा नहीछोड़ताअष्टाङ्ग योग विधि अपना कर कोई भी व्यक्ति एकाग्रता भी बढ़ा सकता है और निराकार ईश्वर का ध्यान भी कर सकता है ।


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हवन का महत्वफ़्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमे उन्हें पता चला की हवन मुख्यतः...

हवन का महत्व

फ़्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमे उन्हें पता चला की हवन मुख्यतः आम की लकड़ी पर किया जाता है। जब आम की लकड़ी जलती है तो फ़ॉर्मिक एल्डिहाइड नामक गैस उत्पन्न होती है जो की खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणुओ को मारती है तथा वातावरण को शुद्द करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गैस और इसे बनाने का तरीका पता चला। गुड़ को जलाने पर भी ये गैस उत्पन्न होती है।

(२) टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गयी अपनी रिसर्च में ये पाया की यदि आधे घंटे हवन में बैठा जाये अथवा हवन के धुएं से शरीर का सम्पर्क हो तो टाइफाइड जैसे खतरनाक रोग फ़ैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।

(३) हवन की महत्ता देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर एक रिसर्च की क्या वाकई हवन से वातावरण शुद्द होता है और जीवाणु नाश होता है अथवा नही. उन्होंने ग्रंथो. में वर्णित हवन सामग्री जुटाई और जलाने पर पाया की ये विषाणु नाश करती है। फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी काम किया और देखा की सिर्फ आम की लकड़ी १ किलो जलाने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हुए पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलायी गयी एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद बॅक्टेरिया का स्तर ९४ % कम हो गया। यही नही. उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजुद जीवाणुओ का परीक्षण किया और पाया की कक्ष के दरवाज़े खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के २४ घंटे बाद भी जीवाणुओ का स्तर सामान्य से ९६ प्रतिशत कम था। बार बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ की इस एक बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था।

यह रिपोर्ट एथ्नोफार्माकोलोजी के शोध पत्र (resarch journal of Ethnopharmacology 2007) में भी दिसंबर २००७ में छप चुकी है।

रिपोर्ट में लिखा �


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Sunday, September 24, 2017

। ओ३म् ।। श्राद्ध - तर्पण विषयक शङ्का समाधान शङ्का - वेद के कुछ मन्त्रों में मरे हुए पितरों का...

। ओ३म् ।।
श्राद्ध - तर्पण विषयक शङ्का समाधान
शङ्का - वेद के कुछ मन्त्रों में मरे हुए पितरों का तर्पण-श्राद्ध की प्रतीती है , “ये अग्निदग्धा अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते” इत्यादि मन्त्र , जिनका बहुत स्पष्ट होने से अर्थ बदला भी नहीं जा सकता , क्योंकि “दह भस्मीकरणे” धातु रूप ही दग्ध होता है अर्थात् ‘जो पितर अग्नि से जले व अग्नि से न जले हों, ऐसे पितरों को हविष्य खाने के अर्थ में बुलाता हूं ।’
समाधान - शङ्का में प्रस्तुत मन्त्र विचारने योग्य है कि अग्नि से पितरों का जलना कैसे हो सकता है ? पितर नाम यदि शरीर का रखो , तो यह बात घट सकती है कि अग्नि से जले पितर, परन्तु जो शरीर अग्नि से जला दिया गया , वह उसी समय भस्म गया , अब उसको श्राद्ध में बुलाना वा उसके लिये श्राद्ध का फल पहुंचाना , दोनों बातों में असम्भव दोष घट रहा है - पुनरपि यदि पितर नाम जीवात्मा का मानो, जिसका बुलाना मान भी लिया जाये परन्तु वह अग्नि से नहीं जलाया गया, क्योंकि शरीर के जलने से पहले ही वह निकल गया और उसके निकल जाने से ही शरीर जलाया गया । तो उन जीवात्माओं के साथ अग्निदग्ध विशेषण लग ही नहीं सकता । यदि पुनः कोई कहे कि चेतन शरीर पितर है तो मन्त्र के अनुसार वह तो जलाया ही नहीं गया । इस प्रकार इस मन्त्र द्वारा किसी भी रीति से मृतकों के श्राद्ध पक्ष का अर्थ नहीं बन रहा है - इसी प्रकार जीवात्मा को किसी का पितर , पुत्र आदि नहीं कह सकते - दृष्टव्य - नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।। श्वेताशवतरोपनिषद् ।।
शङ्का - अथर्ववेद में स्पष्ट ही मरे हुए पितरों का तर्पण लिखा है - ये च जीवा ये च मृता ये जाता ये च यज्ञियाः - मन्त्र कहता है 'जो मरे , जीते , प्रकट हुए और यज्ञ सम्बन्धी पितर हैं , उन सबके लिये सहतयुक्त जल की धारा प्राप्त हो ।
समाधान - अथर्ववेद के इस मन्त्र में भी तर्पण का विधान नहीं है । अर्थात् जो कोई लोग इस (ये जीवा ..) मन्त्र से मृत पद को देखकर मरों का तर्पण निकालते हैं , उनको “जीवाः” पद से जीवितों का भी तर्पण निकालना चाहिये । यदि कोई कहे कि जीवा पद मृत शब्द का विशेषण है , तो उसके मत में समुच्चय अर्थ के लिये पढ़ा 'चकार’ निरर्थक हो जायेगा अर्थात् समुच्चार्थ पढ़े 'चकार’ से स्पष्ट प्रतीत होता है कि मृता और जीवा दोनों भिन्न पद हैं । और सर्वनामवाची यत् शब्द के चार प्रयोग मन्त्र पूर्वाध में ही पढ़े हैं । उनसे भी सबका पृथक् होना सूचित होता है । कथन कोई कुछ भी करे , किन्तु उक्त अथर्ववेद के मन्त्र का अर्थ मरे हुए पितरों के तर्पण पक्ष में यथावत् कोई नहीं घटा सकता है । इस कारण इस मन्त्र से मरों के तर्पण का नाम भी नहीं निकलता , किन्तु संसार का उपकार करने वाली एक प्रकार की विद्या इससे निकलती है , इस मन्त्र का संक्षिप्त व्याख्यान प्रस्तुत किया जाता है -
पदार्थ - *ये जीवाः* - जो किसी प्रकार कष्ट के साथ अन्न जलादि को पाकर प्राण धारण करते *च* - और *ये मृताः* - जो शीघ्र प्रकट हुए थोड़ी अवस्था के पशु पक्षी आदि के बच्चे वा अंकुररूप वृक्षादि *च* - और *ये याज्ञयाः* - यज्ञ कर्म में उपयुक्त होने वाले ओषधि, वनस्पति वा अन्नादि हैं *तेभ्यः* - उनके अच्छे प्रकार होने के लिये *घृतस्य* - जल की *व्युन्दती* - शीतलता गुण पहुंचने वाली *मधुधारा* - खारीपन आदि दोष रहति ऐसी *कुल्या* - कृत्रिम बनावटी नदी - नहर *एतु* - प्राप्त हों , जिससे जगत् में सब चराचर प्राणियों की रक्षा हो ।।
भावार्थ - जिस - जिस मरु आदि देश में जल नहीं मिलता वा बड़े कष्ट से मिलता है , उन - उन प्रदेशों में सुगमता से सर्वदोष रहित मीठा जल प्राप्त होने के लिये देशहितैषी धनाढ्य वा प्रजापालन में तत्पर राजपुरुषों को नवीन नदी - नहर निकालनी चाहिये , क्योंकि जल से ही सब चराचर की उत्पत्ति होना और स्थति रहना सम्भव है ।।
।। ओ३म् ।।


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Saturday, September 23, 2017

महाराजा हरि सिंह को विलेन की तरह पेश करने वाले नव इतिहासकारों को यह देश माफ नहीं कर सकता है। जम्मू...

महाराजा हरि सिंह को विलेन की तरह पेश करने वाले नव इतिहासकारों को यह देश माफ नहीं कर सकता है।
जम्मू काश्मीर रियासत के आखिरी हिन्दू राजा के बारे में जो गलतफहमियाँ फैलायी गई हैं , उसके अनुसार हरि सिंह ने राज्य का विलय कराने में देरी की थी ,
या फिर …उस वक्त विलय कराने पर मजबूर हुए जब पाकिस्तानी कबाईलियों का अटैक हुआ था ,
या फिर… वे विलय चाहते ही नहीं थे , राज्य को स्वतंत्र देश बनाना चाहते थे।
काश! कि महाराजा ने अपनी बायोग्राफी लिखवाई होती तो आज कई चेहरे बेनकाब हुए होते।
विलय के बाद उन्हें उस राज्य से निर्वासित होने के लिए मजबूर किया गया था , जिस राज्य से के लोगों के हृदय में अपने लोकप्रिय राजा के प्रति अगाध श्रद्धा थी ।
हिन्दू , बौद्ध और यहाँ तक कि गिलगीत बल्तिस्तान के मुस्लिमों में भी उनके प्रति आदर और प्रेम का भाव था और वे सभी भारत के साथ आने को बिना शर्त और सहर्ष तैयार थे।
बस कोई तैयार नहीं था तो वो था एक कट्टर मुस्लिम और सिर्फ काश्मीर घाटी तक सीमित रहने वाला एक नेता शेख अब्दुल्ला …. वो भारत से जम्मू कश्मीर रियासत को एक अलग स्वायतशासी राज्य बनाने वाले कानूनों की माँग कर रहा था … ऐसे कानून जो भारत के साथ दिखने के बावजूद भी राज्य को भारत से अलग रखे।
महाराजा की छवि को धूमिल करने में माउंटबेटन , शेख अब्दुल्ला और नेहरू की तिकड़ी के षडयंत्रों का बड़ा हाथ रहा था।
रही सही कसर उनके नालायक कुपुत्र कर्ण सिंह ने पूरा किया था ।
नेहरू के विचारों से सम्मोहित कर्ण सिंह को अपना पिता दुश्मन की तरह तथा नेहरू की मुस्लिम शेख-परस्त नीतियाँ राज्य के लिए हितकारी लग रही थीं ।
माउंटबेटन तो खैर विदेशी था जिसकी सत्ता खत्म हो चुकी थी …आखिरी वक्त तक वो दबाव बनाता रहा कि महाराजा हर हाल में राज्य का विलय पाकिस्तान के साथ कर लें । सभी रियासतों को यह छूट थी कि वे दोनों में से किसी देश के साथ जा सकते हैं।
क्योंकि ऐसा होने पर एंग्लो-अमेरिकन गुट को साम्यवादी रूस और चीन तक पहुँच बना कर वैश्विक रणनीति तय करने में सहुलियत होती .. और वजह था, राज्य की सीमा का उन दोनों देशों के साथ लगना।
माउंटबेटन ने महाराजा के रियासत के तात्कालिन प्रधानमंत्री रामचंद्र काक की अंग्रेज बीबी को पटा लिया था । अब उसकी सहायता से वह महाराजा पर दबाव डालने के लिए रामचंद्र काक को उकसाता रहा … वह उकसाया भी , रामचंद्र काक जिन्ना के संपर्क में भी था और महाराजा पर दबाव भी बनाता रहा … लेकिन आखिर में पटेल की सलाह पर महाराजा ने उस गद्दार प्रधानमंत्री को उसकी हैसियत दिखा दी … यानी कि उसे हटा दिए।
नेहरू दबाव बनाते रहे थेे कि भले ही विलय में देर हो … या पाकिस्तानी कबाईली सेना घाटी पर कब्जा कर ले , परंतु रियासत की सत्ता हर हाल में शेख को मिलनी चाहिए ….लेकिन महाराजा इसके सख्त खिलाफ थे।
नेहरू तो यहाँ तक ताल ठोके थे कि यदि पूरी घाटी को पाकिस्तान क्यों ना दखल कर ले , शेख को सत्ता मिल जाने के बाद हम घाटी को भारतीय सेना की मदद से खाली करवा लेंगे इतनी ताकत है हमारे में।
लेकिन वे क्या कर पाये थे यह तो सारा देश जानता है , आज पीओके पाक के कब्जे में है।
शेख अब्दुल्ला की मुस्लिम परस्त पार्टी यह दबाव बनाती रही कि महाराजा पहले घाटी छोड़े … क्विट काश्मीर का नारा सालों पहले से बुलंद किए हुए थे शेख अब्दुल्ला।
इस प्रकार तीनों महाराजा पर दबाव बनाते रहे….
परंतु महाराजा को इन तीनों लफंदरों की शर्तें मंजूर नहीं थी।
यहाँ ध्यान दें , शेख को सिर्फ़ काश्मीर घाटी से ही मतलब था..यानी कि जम्मू , लद्दाख और गिलगित बल्तिस्तान से कोई लेना देना नहीं था … वैसे भी शेख सिर्फ घाटी तक ही सीमित था पर नेहरू उसे पूरे रियासत की सत्ता सौपना चाहते थे।
आखिरकार देश की आजादी के ढाई महीनों बाद महाराजा ने उसी विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए जो विलय पत्र शेष सभी रियासतों के लिए था।
बिना किसी शर्त के हस्ताक्षर किए थे महाराजा ने … पर हाँ , एक लााइन जरूर लिखे थे कि रियासत की सत्ता मुस्लिम परस्त शेख अब्दुल्ला को यदि ना मिले तो उन्हें आत्मिक खुशी होगी।
अठारह वर्षों तक राज्य से निर्वासित होकर मुंबई को अपना ठिकाना बनाने वाले राष्ट्र भक्त महाराजा की अंतिम साँसें एक हाॅस्पिटल के बेड पर जिस वक्त निकल रही थी, बस चंद स्टाफ उनके पास खड़े थे .. अपनी मातृभूमि जम्मू कश्मीर की धरती पर दोबारा कदम रखने और उसकी रज को माथे से लगा पाने की लालसा धरी की धरी रह गई ।
मृत्यु से पहले महाराजा ने अपने परिजनों से एक वचन लिया था कि उनके पार्थिव शरीर को उनका पुत्र कर्ण सिंह हाथ भी ना लगाए … और उनकी अस्थियों को जम्मू की तवी नदी में प्रवाहित की जाए।
1925 में रियासत की सत्ता संभालने वाले एक लोकप्रिय राजा और 1930 के गोलमेज सम्मेलन में अँगरेजों को आँखें दिखाने वाले देशभक्त महाराजा की छवि अब उन गद्दारों और वामपंथी इतिहासकारों की मोहताज नहीं रही।
सत्य परेशान हो सकता है पर परास्त नहीं।
आज 23 सितंबर है ,,,,,,
महाराजा हरि सिंह का जन्म दिन है ,… देशभक्त डुग्गरों की धरती पर पैदा हुए ऐसे महाराजा को मैं शत-शत नमन करता हूँ।


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☆नीम के महत्व को समझो☆ भारत देश में नीम एक बहुत बड़ी औषधि है, जिसे कई हजारों सालों से उपयोग किया जा...

☆नीम के महत्व को समझो☆
भारत देश में नीम एक बहुत बड़ी औषधि है, जिसे कई हजारों सालों से उपयोग किया जा रहा है| आज के समय में बहुत सी अंग्रेजी दवाइयां नीम की पत्ती व उसके पेड़ से बनती है| नीम के पेड़ की हर एक चीज फायदेमंद होती है, बहुत सी बड़ी बड़ी बीमारियों का इलाज इससे किया जाता है| भारत देश में नीम का पेड़ घर में होना शुभ माना जाता है, लोग अपने घर में इसे लगाते है ताकी इसके फायदे उठा सके| भारत से नीम के पत्तों का निर्यात 34 देशों में किया जाता है|
नीम का स्वाद कड़वा होता है, लेकिन ये जितनी कड़वी होती है, उतनी ही फायदे मंद होती है| आइये मैं आज आपको नीम के गुण और उसके लाभ से अवगत कराती हूँ, जिसे आप आसानी से घर में उपयोग कर बहुत बीमारियों को दूर कर सकते है|
नीम के उपयोग
दवा के रूप में
नीम की पत्ती लेप्रोसी , आँख की बीमारी , नकसीर , पेट के कीड़े , पाचन , भूख में कमी , त्वचा के रोग , दिल
और खून की नसों की बीमारी , बुखार , डायबिटीज , मसूड़े , लिवर आदि परेशानी दूर करने में काम आती हैं।
नीम की टहनी मलेरिया में , पेट या आंतों के अल्सर , स्किन डिजीज , दांत और मसूड़ों की परेशानी आदि में काम आती है।
नीम की दातुन का उपयोग आज भी कई लोग करते है। यह दातुन बाजार में भी मिलती है। इससे दांत में प्लाक जमना
कम होता है तथा मसूड़ों में सूजन या खून आना , मुंह से बदबू आना आदि से बचाव होता है।
नीम के फूल Neem ke fool पित्त कम करने में , कफ मिटाने में तथा पेट के कीड़े मिटाने में काम आते हैं।
नीम का फल जिसे निमोड़ि Nimodi या निम्बोड़ि Nimbodi कहते हैं बवासीर , पेट के कीड़े , नकसीर , पेशाब की तकलीफ , कफ , घाव , डायबिटीज , आँखों की परेशानी आदि में काम आता है। नीम का तेल Neem ka tel बालों के लिए , लिवर की ताकत के लिए , खून साफ करने के लिए , तथा खून में शक्कर की मात्रा कम करने के लिए काम में लिया जाता है।
कीटनाशक के रूप में
नीम की पत्तियों को अलमारी में रखा जाता है ताकि कपड़े कीटों से बचे रहें। इन्हे गेहूं या चावल आदि भरने से पहले ड्रम या पीपे आदि में नीचे बिछाया जाता है ताकि उनमे कीड़े ना पड़ें। नीम की पत्तियां जलाकर मच्छरों को दूर किया जाता है। नीम की पत्ती का खाद बनता है , जिसका उपयोग करने से फसल कई प्रकार की बीमारियों से बच सकती हैं। घर में गमलों में लगाए जाने वाले पौधे पर पानी में नीम का तेल डालकर छिड़काव करने से पौधे पर लगे कीट नष्ट हो जाते हैं। निम्बोड़ी के बीज को पीस कर पाउडर बनाया जाता है फिर इसे पानी में रात भर भिगोते हैं। इस पानी को फसल पर छिड़कने से यह कीटों से बचाव करता है। यह कीड़ों को सीधे ही नहीं मारता लेकिन इसके छिड़कने से कीड़ो का पत्ती खाना , पत्तियों पर अंडे देना आदि बंद हो जाता है। इस तरह से फसल ख़राब होने से बच जाती है। नीम कीटों का अंडे से बाहर निकलना भी रोकता है। नीम का तेल दीमक के उपचार में भी काम करता है।
खाने पीने में
नीम के फूल का उपयोग दक्षिण भारत में मनाये जाने वाले त्यौहार ‘ उगादी ‘ के समय किया जाता है। नीम के फूल और गुड़ खाकर ‘उगादी’ त्यौहार मनाया जाता है। दक्षिण भारत में कर्नाटक में नीम के ताजा फूल से कढ़ी बनाई जाती है। ताजा फूल ना हों तो सूखे फूल काम में लिए जाते हैं। तमिलनाडु में इमली से बनाई जाने वाली रसम में इसे डाला जाता है।
बंगाल में नीम की कोमल पत्ती और बैंगन की सब्जी बनाई जाती है। इसे चावल के साथ खाया जाता है।
महाराष्ट्र में गुडी पड़वा यानि नववर्ष की शुरुआत , थोड़ी मात्रा में नीम की पत्ती या उसके रस का सेवन करके की जाती है। इससे मौसम के बदलाव के कारण होने वाली परेशानी तथा पित्त विकार से बचाव होता है।
नीम की पत्ती कड़वी होने के कारण पित्त शांत करने वाली मानी जाती है। चैत्र महीने में कोमल नीम की पत्ती का सेवन करना लाभप्रद होता है। अक्सर चैत्र महीने में जानकार लोग नीम की कोमल पत्ती तोड़कर खाते दिखाई देते है।
नीम के फायदे
वाइरस का संक्रमण
वाइरस के कारण होने वाले चिकन पॉक्स , स्माल पॉक्स यानि चेचक या बोदरी जैसी बीमारियों को फैलने से रोकने में नीम का उपयोग किया जाता रहा है। नीम की पत्ती को पीस कर लगाने से त्वचा पर दूसरी जगह वाइरस नहीं फैलता। यह हर्पीज़ जैसे हानिकारक वाइरस को भी मिटा सकता है। चिकन पॉक्स होने पर नीम की पत्तियां पानी में उबाल कर इस पानी से नहाना बहुत लाभदायक होता है। इससे त्वचा को आराम मिलता है और यह संक्रमण अन्य स्थान पर नहीं फैलता।
त्वचा के रोगों में नीम की पत्ती पानी में उबाल कर इस पानी से नहाने से बहुत लाभ होता है। इससे त्वचा की खुजली या जलन आदि में भी आराम मिलता है। यह पानी पीने से पेट के कीड़े नष्ट होते हैं और आंतों की कार्यविधि सुधरती है।
हृदय की देखभाल
नीम की पत्ती पानी में उबाल कर यह पानी पीने से नसों में लचीलापन आता है इससे हृदय पर दबाव कम होता है। यह हृदय की धड़कन नियमित करने में सहायक होता है और इस प्रकार उच्च रक्तचाप को कंट्रोल करता है।
बालों के लिए
नीम की पत्ती डाल कर उबाला हुआ पानी से सिर धोने से डैंड्रफ ठीक होती है। बाल गिरना कम हो जाते हैं।
आँखों के लिए
ताजा नीम की पत्तियाँ पानी में उबाल कर इस पानी के ठंडा होने पर आँख धोने से कंजंक्टिवाइटिस तथा आँख लाल होना , आँख में जलन आदि में लाभ होता है।
मलेरिया
नीम की पत्तियां का उपयोग मलेरिया बुखार को रोकने में कारगर पाया गया है। नीम की पत्तियां मच्छर को पनपने से रोकती हैं।
जोड़ों का दर्द
नीम का तेल लगाने से मांसपेशियों तथा जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है।
कीड़े का काटना
नीम की पत्ती पीस कर लगाने से कीड़े के काटने के कारण होने वाली सूजन और जलन में आराम मिलता है।
स्किन
नीम की पत्ती त्वचा की सुंदरता बढ़ाने में मददगार हो सकती है। नीम की पिसी हुई पत्ती और हल्दी मिलाकर लगाने से मुँहासे , फुंसी , ऐक्ने आदि ठीक होते हैं। स्किन का हर प्रकार का इन्फेक्शन मिटता है। त्वचा कोमल होती है। नीम की पत्ती डालकर उबाला हुआ पानी स्किन टोनर की तरह काम करता है। इसके उपयोग से मुँहासे , स्कार , ब्लेक हेड आदि मिटते है और रंग निखरता है। इसका फेस पैक भी बनाया जा सकता है। इसके लिए थोड़े से पानी में कुछ नीम की पत्ती और संतरे के छिलके उबाल लें। छान कर पानी ठंडा कर लें। इसमें मुल्तानी मिट्टी , दही , शहद और दूध मिलाकर स्मूथ पेस्ट बना लें। इसे चेहरे पर लगाकर सूखने दें फिर धो लें। इससे चेहरे पर कांति आ जाती है और फोड़े फुंसी , ब्लेक हेड , व्हाइट हेड आदि मिट जाते हैं।
गले का संक्रमण
नीम के पानी के गरारे करने से गला ठीक होता है। नीम की कोमल पत्तियां खाने से सर्दी ,जुकाम, फ्लू ,वाइरल बुखार आदि में आराम आता है।
नीम के उपयोग में सावधानी
नीम एक औषधि है। किसी भी औषधि को लेने के कुछ नियम परहेज आदि होते है अन्यथा औषधि नुकसानदेह भी हो सकती है। नीम के उपयोग में भी सावधानी आवश्यक है। अतः इन बातों का ध्यान जरूर रखें।
बच्चों के लिए नीम का तेल या पत्ती का उपयोग नुकसान देह हो सकता है। छोटे बच्चों के लिए नीम विषैला साबित हो सकता है। इससे उल्टी , दस्त , चक्कर आना , बेहोशी आदि लक्षण प्रकट हो सकते हैं। छोटे बच्चों को नीम की पत्ती या तेल आदि मुंह के द्वारा नहीं दिया जाना चाहिए।लम्बे समय तक नीम के तेल का उपयोग हानिकारक होता है। इससे किडनी और लीवर को नुकसान हो सकता हैगर्भावस्था में तथा स्तनपान कराने वाली माँ को नीम की पत्ती नहीं खानी चाहिए। नीम का सेवन गर्भपात का कारण बन सकता है। डायबिटीज की दवा चल रही हो तो नीम का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए। नीम भी रक्त में शुगर की मात्रा को कम करता है।यदि बच्चा चाहते हों तो नीम का उपयोग नहीं करना चाहिए। यह शुक्राणु को कमजोर कर सकता है। गर्भधारण कैसे हो जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।यदि किसी प्रकार अंग प्रत्यारोपण का ऑपरेशन करवाया हो तो नीम का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे दवा का असर कम होने की संभावना होती है।किसी भी प्रकार के ऑपरेशन के आस पास के दिनों में नीम का प्रयोग नहीं करना चाहिए।इम्यून सिस्टम से सम्बंधित दवा चल रही हो तो नीम के कारण दवा का असर कम हो सकता है , अतः सावधान रहेंयदि कोई ऐसी दवा चल रही हो जिसमे लिथियम हो तो नीम का उपयोग नुकसानदेह हो सकता है अतः चिकित्स्क की सलाह जरूर लें।
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*हिन्दुओ के जीवन मे सब काम मानने से हो जाते है* 1: एक पंडत ने , तीन बार ऐसा कहकर *ॐ प्राण आगच्छतु*...

*हिन्दुओ के जीवन मे सब काम मानने से हो जाते है*
1: एक पंडत ने , तीन बार ऐसा कहकर *ॐ प्राण आगच्छतु* मूर्ति में प्राण फूँक दिए ।
हमने कहा पंडत जी यह मूर्ति चेतन प्राणवान लोगो की तरह व्यवहार क्यो नही करती ??
पंडत ने कहा कि *मान् लो* इसमें प्राण आ गए है
2: मेरी माता तस्वीर को भोग लगाती है , अगले दिन तस्वीर साफ करती है क्योकि भोजन ज्यो का त्यों लगा हुआ है,
हमने कहा कि माता तस्वीर ने कुछ नही खाया , माता ने कहा कि *मान लो* खा लिया
3: एक मित्र मिट्टी के ढ़ेले पर लाल धागा बांध कर गणेश जी की पूजा करते है, हमने कहा गणेश जी कहां है , उन्होंने कहा कि *मान लो* यही गणेश है।
4: एक धार्मिक व्यक्ति कौवों को भोजन कराता है पितर मान कर, हमने कहा ये कौवा किसी ओर पड़ोसी का पितर भी तो हो सकता है, उन्होंने कहा कि *मान लो* यही हमारा है।
5: हमारे मोहल्ले के लोगो ने रात भर माता का जागरण किया, सुबह हमने कहा कि क्या माता जाग गयी ? उन्होंने कहा कि *मान लो* जाग गयी
6: पड़ोस के एक घर मे एक महिला को दौरे पड़ गए वो नाचने लगी, हमने कहा इसे अस्पताल ले चलो, लोगो ने कहा माता आयी है इस पर , हमने कहा माता आई होती तो नाचती क्यो? दुष्टो का संहार करती । लोगो ने कहा *मान लो* आयी है
इसी *मान लो* ने हिन्दुओ का सबसे अधिक विनाश किया है
कट्टर हिन्दू कहते है देश खतरे में है, धर्म खतरे में है, गौमाता खतरे में है, मैं कहता हूं कि
मान लो ये हिन्दू राष्ट्र बन गया है
मान लो ये सब मुल्ले सनातनी बन गए है
मान क्यो नही लेते की घर घर मे गाय सुरिक्षित है
*क्या मानने से काम चल जाएगा*
धर्म रक्षा का काम ईश्वर देवी देवताओं के जिम्मे होता तो तिल भर भी धर्म की हानि कभी ना हुई होती।
*खोल लो आंखे* धर्मरक्षा व राष्ट्ररक्षा तुम्हारी जिम्मेदारी है।
असत्य , अंधविश्वास ओर *मान लो* के सहारे स्वराज्य सम्भव नही
*हिन्दुओ श्रद्धा वही होती है जो सत्य पर आधारित हो*
*“वेत्ति यथावत् तत्त्वपदार्थस्वरुपं यया सा विद्या।”*
जिससे पदार्थों का यथार्थ स्वरुप बोध होवे, वह विद्या है।
*मान लो* पर अविद्या, अंधश्रद्धा पाखण्ड झूठ , अंधविश्वास खड़ा होता है।
आओ अविद्या से विद्या की ओर
आओ अंधकार से प्रकाश की ओर
आओ अंधश्रद्धा से श्रद्धा की ओर
आओ गुलामी से स्वराज्य की ओर


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*R.O. का लगातार सेवन बनेगा मौत का कारण*:–चिलचिलाती गर्मी में कुछ मिले या ना मिले पर शरीर को...

*R.O. का लगातार सेवन बनेगा मौत का कारण*:–
चिलचिलाती गर्मी में कुछ मिले या ना मिले पर शरीर को पानी ज़रूर मिलना चाहिए। अगर पानी RO का हो तो, क्या बात है ! परंतु *क्या वास्तव में हम आर. ओ. के पानी को शुद्ध पानी मान सकते हैं* ?
*जवाब आता है बिल्कुल नहीं। और यह जवाब विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) की तरफ से दिया गया है।*
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताया कि इसके लगातार सेवन से हृदय संबंधी विकार, थकान, कमजोरी, मांसपेशियों में ऐंठन, सर दर्द आदि दुष्प्रभाव पाए गए हैं। यह कई शोधों के बाद पता चला है कि इसकी वजह से *कैल्शियम और मैग्नीशियम पानी से पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं* जो कि शारीरिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।
RO के पानी के लगातार इस्तेमाल से शरीर मे विटामिन *B-12* की कमी भी होने लगती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार मानव शरीर 500 टीडीएस तक सहन करने की क्षमता रखता है परंतु RO में 18 से 25 टीडीएस तक पानी की शुद्धता होती है जो कि नुकसानदायक है। इसके *विकल्प में क्लोरीन को रखा जा सकता है जिसमें लागत भी कम होती है एवं पानी के आवश्यक तत्व भी सुरक्षित रहते हैं*। जिससे मानव का शारीरिक विकास अवरूद्ध नहीं होता।
जहां एक तरफ एशिया और यूरोप के कई देश RO पर प्रतिबंध लगा चुके हैं वहीं भारत में RO की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। और कई विदेशी कंपनियों ने यहां पर अपना बड़ा बाजार बना लिया है। स्वास्थय के प्रति जागरूक रहना और जागरूक करना ज़रूरी हैं। अब शुद्ध पानी के लिए नए अविष्कारों की ज़रूरत है।
याद रखें की लम्बे समय तक RO का पानी, लगातार पीने से, शरीर कमजोर और बीमारियों का घर बन जाता है। अत: प्राकृतिक (खनिज युक्त) पानी परंपरागत तरीकों से साफ कर के पीना, हितकर है


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Tuesday, June 27, 2017

“जरा सी चूक हुयी और आप गये” रात के समय एक दुकानदार अपनी दुकान बन्द ही कर रहा था कि एक...

“जरा सी चूक हुयी और आप गये”

रात के समय एक दुकानदार अपनी दुकान
बन्द ही कर रहा था कि एक कुत्ता दुकान में आया ..
,
उसके मुॅंह में एक थैली थी, जिसमें सामान की
लिस्ट और पैसे थे ..
,
दुकानदार ने पैसे लेकर सामान उस
थैली में भर दिया …
,
कुत्ते ने थैली मुॅंह मे उठा ली और चला गया
,
दुकानदार आश्चर्यचकित होके कुत्ते के पीछे
पीछे गया ये देखने की इतने समझदार
कुत्ते का मालिक कौन है …
,
कुत्ता बस स्टाॅप पर खडा रहा, थोडी देर बाद
एक बस आई जिसमें
चढ गया ..
,
कंडक्टर के पास आते ही अपनी गर्दन आगे
कर दी, उस के गले के बेल्ट में पैसे और
उसका पता भी था
,
कंडक्टर ने पैसे लेकर टिकट कुत्ते के गले के
बेल्ट मे रख दिया
,
अपना स्टाॅप आते ही कुत्ता आगे के दरवाजे पे
चला गया और पूॅंछ हिलाकर कंडक्टर
को इशारा कर दिया
और बस के रुकते ही उतरकर चल दिया ..
,
दुकानदार भी पीछे पीछे चल रहा था …
,
कुत्ते ने घर का दरवाजा अपने पैरोंसे
२-३ बार खटखटाया …
,
अन्दर से उसका मालिक आया और लाठी से
उसकी पिटाई कर दी ..
,
दुकानदार ने मालिक से इसका कारण पूछा .. ??
,
मालिक बोला .. “साले ने मेरी नींद खराब कर दी,
✒चाबी साथ लेके नहीं जा सकता था गधा”
,
,
जीवन की भी यही सच्चाई है ..
,
आपसे लोगों की अपेक्षाओं का
कोई अन्त नहीं है ..
,
जहाँ आप चूके वहीं पर लोग बुराई निकाल लेते हैं और पिछली सारी अच्छाईयों को भूल जाते हैं ..
,
इसलिए अपने कर्म करते चलो, लोग
आपसे कभी संतुष्ट नहीं होएँगे।।


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Monday, June 26, 2017

जीवन की सात मर्यादाएँ जीवन की सात मर्याएँ “सप्त मर्यादाः...

जीवन की सात मर्यादाएँ

जीवन की सात मर्याएँ “सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामिदेकामभ्यंहुरोSगात् । आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ ।।” (अथर्ववेदः–५.१.६) शब्दार्थः—-कवयः-ऋषियों ने सप्त—सात,मर्यादाः—मर्यादाएँ अर्थात् सीमाएँ, ततक्षुः—बनाई है, तासाम्–उनमें से, एकाम्—एक को, इद्–भी, अभ्यगात्—को प्राप्त होता है, वह, अंहुरः-पापी होता है, स्कम्भः—स्कम्भरूप परमात्मा, उपमस्य—उपमीभूत, आयोः—मनुष्य के, नीडे—हृदयरूपी घोंसलें में,पथाम्—मार्गों की, विसर्गे—समाप्ति पर और , धरुणेषु—धारक वस्तुओं में, तस्थौ–स्थित है । भावार्थः- (क) मनुष्य के जीवन के लिए वेद ने ७ मर्यादाएँ निश्चित की है । जिनका वर्णन यास्कमुनि ने निरुक्त में किया हैः— (१.) स्तेय–चोरी, (२.) तल्पारोहणम्–व्यभिचार (३.) ब्रह्महत्या—नास्तिकता, (४.) भ्रूणहत्या—गर्भघात (५.) सुरापान—शराब पीना (६.) दुष्टस्य कर्मणः—पुनः पुनः सेव । दुष्ट कर्म का बार-बार सेवन करना । (७.) पातकेSनृतोद्यम्—पाप करने के बाद उसे छिपाने के लिए झूठ बोलना । मर्यादा कहते हैं, सीमा को । कर्त्तव्य-शास्त्र की ये सात मर्यादाएँ (सीमाएँ) हैं । कर्त्तव्य-शास्त्र इन सीमाओं के अन्दर रहता है । इन सीमाओं का अतिक्रम न करना सत्कर्त्तव्य का कर्म है । (ख) इन मर्यादाओं में से एक का भी जो उल्लंघन करता है, वह पापी होता है । (ग) जो इन सातों मर्यादाओं में रहता है, वह परमात्मा का अधिक सदृश बन जाता है । परमात्मा में और उसमें परस्पर उपमानोपमेय भाव हो जाता है । (घ) परमात्मा की स्कम्भरूप अर्थात् भुवनप्रासाद का स्तम्भरूप है, वह उपमीभूत मनुष्य के हृदय-नीड में रहता है । इसी हृदय-मन्दिर में वह मर्यादाबद्ध मनुष्य परमात्मा का भजन और उसका प्रत्यक्ष कर सकता है । मनुष्य के हृदय में ही परमात्मा का भान क्यों होता है, इसके उत्तर के लिए ही मन्त्र में “उपमस्य” यह पद दिया है । जीवात्मा की उपमा परमात्मा से और परमात्मा की जीवात्मा से है । ये दोनों ही अप्राकृतिक है , प्रकृति से विलक्षण है । इसीलिए वेद तथा उपनिषदों में प्रकृति-वृक्ष पर बैठे दो पक्षियों से जीवात्मा और परमात्मा को रूपित किया गया है । रूपक का अभिप्राय यही है कि जीवात्मा और परमात्मा परस्पर सदृश हैं और प्रकृति से विलक्षण हैं । तभी तो जीवात्मा और परमात्मा में परस्पर सादृश्य अर्थात् उपमानोपमेय भाव है । जब साधारण जीवात्मा जो कि मनुष्य की देह है, परमात्मा के साथ सादृश्य रखता है, तब मनुष्य का वह आत्मा तो, जिसने कि सात मर्यादाओं में रहकर अपने आपको पवित्र कर लिया है, अवश्य ही परमात्मा का उपमीभूत होना चाहिए । (ङ) परमात्मा पथों की समाप्ति पर है । सभी धर्मग्रन्थों का केन्द्र-स्थान वेद है । इसी केन्द्र से धर्म के भिन्न-भिन्न पथ निकले हैं । इन सब पथों का विसर्ग अर्थात् समाप्ति वेद पर होती है । इसी समाप्ति पर परमात्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान सब धर्मग्रन्थों के केन्द्रीभूत वेदों द्वारा ही सम्भव है । “पथां विसर्गे” का एक और अभिप्राय भी सम्भव है । वेदों में जगत् और ब्रह्म में व्याप्यव्यापकता दिखलाई है । जगत् व्याप्य और ब्रह्म व्यापक है । ब्रह्म में जगत् व्यापक नहीं है । अपितु सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म के एकदेश में विद्यमान रहता है । इसी आशय को अधिक स्पष्ट करने के लिए वेदों में ब्रह्म और जगत् दैशिक सत्ता का दृष्टान्त नीड और वृक्ष से दिया जाता है । उनमें ब्रह्म को वृक्ष और जगत् को नीड बताया है । नीड कहते हैं घोंसले को । घोंसला वृक्ष के एक देश पर आश्रित रहता है और वृक्ष घोंसले से बहुत बडा होता है । इसी प्रकार परमात्माी रूपी वृक्ष इस जगत् रूपी नीड का आश्रय है और जगत् बहुत बडा है । ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र , तारादिकों के समुदायों को ही जगत् कहते हैं । ये ग्रह, नक्षत्रादि अपने-अपने नियत पथों पर घूम रहे हैं ।इनमें से कोई भी विपथगामी नहीं होता । अतः जहाँ जहाँ जगत् की सत्ता है, वहाँ वहाँ हम पथों की सत्ता की कल्पना भी कर सकते हैं । परन्तु जहाँ जगत् की अन्तिम सीमा है, जिस से परे जगत् की सत्ता नहीं, वहाँ पृथिव्यादि के घूमने का कोई पथ भी नहीं, यह स्पष्ट है । वह स्थान “पथां विसर्गे” है । वहाँ पथों का विसर्ग अर्थात् समाप्ति हो जाती है । उससे आगे कोई पथ नहीं । परन्तु परमात्मा वहाँ भी विद्यमान है । अतः परमात्मा की स्थिति “पथां विसर्गे” पर भी है । (च) वह स्कम्भ रूप परमात्मा धारक पदार्थों में भी स्थित है । स्कम्भ का अर्थ है—धारण करने वाला, थामने वाला । परमात्मा के स्कम्भरूप का वर्णन अथर्ववेद (१०.७) में बहुत उत्तम शब्दों में किया है । सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र , तारा, वायु, , पृथिवी आदि पदार्थ संसार में धारक रूप से प्रसिद्ध है । ये सब प्राणी जगत् के तथा परस्पर के धारण करने वाले हैं । परमात्मा इन धारकों का भी धारक है । वह इन धारकों में भी स्कम्भरूप (धारकरूप) से स्थित है , अर्थात् संसार का मूलाधार या मूलधारक परमात्मा ही है । अतः भक्ति, उपासना और मनन इसी महान् शक्ति का करना चाहिए । चूंकि यह सर्वोच्च है, सर्वश्रेष्ठ है, सर्वाधार है ।


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*ओ३म्* *🌷उद्गीथ ओंकार का ही नाम है🌷* ‘ओ३म्’ यह अक्षर ही 'उद्गीथ’ है।...

*ओ३म्*

*🌷उद्गीथ ओंकार का ही नाम है🌷*

‘ओ३म्’ यह अक्षर ही 'उद्गीथ’ है। 'ओ३म्’ इसकी ही उपासना करें, इसका ही गान करें। 'ओ३म्’ यह अक्षर और इसका दीर्घ स्वर से उच्चारण ही अमृत है, इसी से अभय पद प्राप्त होता है। वह उपासक जो ओंकारोपासना को इस प्रकार जान लेता है और दीर्घ–स्वर से अक्षर–'ओ३म्’ की उपासना करता है, वह भी इस अक्षर–स्वर में जो अमृत तथा अभय है, प्रविष्ट होकर अमर हो जाता है। उपनिषदों ने ओंकार का उच्च–स्वर से उच्चारण कर उसमें लीन होने को अमृत पद तथा अभय पद प्राप्ति के लिए सबसे अधिक बल दिया है।


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Saturday, June 24, 2017

मनुष्य सामाजिक प्राणी है अकेला नहीं जी सकता । करोड़ों व्यक्तियों का सहयोग लेकर आपको सब सुविधाएं...

मनुष्य सामाजिक प्राणी है अकेला नहीं जी सकता । करोड़ों व्यक्तियों का सहयोग लेकर आपको सब सुविधाएं प्राप्त होती हैं । यदि करोड़ों व्यक्ति आपके सुख के लिए आपकी सुविधाओं के लिए दिन रात मेहनत करते हैं , तो आपका भी कुछ कर्तव्य बनता है यदि आपको ईश्वर ने कुछ अधिक संपत्ति दी है तो उन गरीब असहाय विकलांगों के लिए भी कुछ दान आदि देना चाहिए । वैदिक धर्म प्रचार में भी कुछ दान देना चाहिए । ईश्वर की कृपा से आपको यह संपत्ति प्राप्त हुई है। उसका कुछ भाग ईश्वर की आज्ञा पालन में भी देना चाहिए।


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स्वस्तिवाचनम् - ऋग्वेद- मण्डल७/सूक्त३५/मन्त्र१५ ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता...

स्वस्तिवाचनम् - ऋग्वेद- मण्डल७/सूक्त३५/मन्त्र१५

ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञा:।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।८।

अर्थ ~ हे परमात्मा ! पूज्य विद्वान, यज्ञ करने वाले, विचारशील का संग करने वाले, सत्य के जानने वाले और ब्रह्मवेत्ता ज्ञानीजन उत्तम विद्या और शिक्षा के उपदेश से हम लोगों को निरन्तर उन्नति देवें। वे विद्वान विद्यादि के दान जैसे अनेक उपायों के द्वारा सर्वदा हमारी रक्षा करें।


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अधिकांश लोग अपने कल को अच्छा बनाने की चिंता में रहते हैं । चिंतन करना अच्छी बात है पर चिंता करना...

अधिकांश लोग अपने कल को अच्छा बनाने की चिंता में रहते हैं । चिंतन करना अच्छी बात है पर चिंता करना अच्छा नहीं है । चिंता ना करें चिंतन अवश्य करें । यदि कल को अच्छा बनाने के लिए आज आप मेहनत करते हैं तो जब कल का दिन आएगा तब तो कम से कम अच्छी तरह से जिएं। कल फिर आप अगले कल की चिंता करेंगे, तो ठीक से किस दिन जिएंगे ? वह आज कब आएगा जब आप खुशी से जिएंगे ! इसलिए मेहनत भी करें और खुशी से भी जिएँ। दोनों काम साथ साथ चलाएं।


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Friday, June 23, 2017

*😡क्रोध के दो मिनट😡* एक युवक ने विवाह के दो साल बाद परदेस जाकर व्यापार करने की इच्छा पिता से कही...

*😡क्रोध के दो मिनट😡*
एक युवक ने विवाह के दो साल बाद परदेस जाकर व्यापार करने की इच्छा पिता से कही ।
पिता ने स्वीकृति दी तो वह अपनी गर्भवती पत्नी को माँ-बाप के जिम्मे छोड़कर व्यापार करने चला गया ।
परदेश में मेहनत से बहुत धन कमाया और वह धनी सेठ बन गया । सत्रह वर्ष धन कमाने में बीत गए तो सन्तुष्टि हुई और वापस घर लौटने की इच्छा हुई ।
पत्नी को पत्र लिखकर आने की सूचना दी और जहाज में बैठ गया उसे जहाज में एक व्यक्ति मिला जो दुखी मन से बैठा था ।
सेठ ने उसकी उदासी का कारण पूछा तो उसने बताया कि इस देश में ज्ञान की कोई कद्र नही है ।
मैं यहाँ ज्ञान के सूत्र बेचने आया था पर कोई लेने को तैयार नहीं है
सेठ ने सोचा ‘इस देश में मैने बहुत धन कमाया है,
और यह मेरी कर्मभूमि है,
इसका मान रखना चाहिए !’
उसने ज्ञान के सूत्र खरीदने की इच्छा जताई । उस व्यक्ति ने कहा-
मेरे हर ज्ञान सूत्र की कीमत 500 स्वर्ण मुद्राएं है । सेठ को सौदा तो महंगा लग रहा था.. लेकिन कर्मभूमि का मान रखने के लिए 500 स्वर्ण मुद्राएं दे दी ।
व्यक्ति ने ज्ञान का पहला सूत्र दिया-
👍🏻कोई भी कार्य करने से पहले दो मिनटरूककर सोच लेना ।👍🏻
कई दिनों की यात्रा के बाद रात्रि के समय सेठ अपने नगर को पहुँचा ।उसने सोचा इतने सालों बाद घर लौटा हूँ तो क्यों न चुपके से बिना खबर दिए सीधे
पत्नी के पास पहुँच कर उसे आश्चर्य उपहार दूँ ।
घर के द्वारपालों को मौन रहने का इशाराकरके सीधे अपने पत्नी के कक्ष में गया तो वहाँ का नजारा देखकर उसके पांवों के
नीचे की जमीन खिसक गई ।
उसकी पत्नी के पास एक
युवक सोया हुआ था ।
अत्यंत क्रोध में सोचने लगा कि
मैं परदेस में भी इसकी चिंता करता रहा औरये यहां अन्य पुरुष के साथ है ।दोनों को जिन्दा नही छोड़ूगाँ ।क्रोध में तलवार निकाल ली । वार करने ही जा रहा था कि
उसे 500 स्वर्ण मुद्राओं से प्राप्त ज्ञान सूत्रयाद आया-
कि कोई भी कार्य करने से
पहले दो मिनट सोच लेना ।
सोचने के लिए रूका ।
तलवार पीछे खींची तो एक बर्तन से टकरा गई । बर्तन गिरा तो पत्नी की नींद खुल गई ।
जैसे ही उसकी नजर अपने पति पर पड़ी वह ख़ुश हो गई और बोली- आपके बिना जीवन सूना सूना था । इन्तजार में इतने वर्ष कैसे निकालेयह मैं ही जानती हूँ ।
पत्नी ने युवक को उठाने के लिए कहा- बेटा जाग ।तेरे पिता आए हैं
युवक उठकर जैसे ही पिता को प्रणामकरने झुका माथे की पगड़ी गिर गई । उसके लम्बे बाल बिखर गए । सेठ की पत्नी ने कहा- स्वामी ये आपकी बेटी है ।
पिता के बिना इसके मान को कोई आंच न आए इसलिए मैंने इसे बचपन से ही पुत्र के समान ही
पालन पोषण और संस्कार दिए हैं
यह सुनकर सेठ की आँखों से
अश्रुधारा बह निकली ।
पत्नी और बेटी को गले लगाकर
सोचने लगा कि यदि
आज मैने उस ज्ञानसूत्र को नहीं अपनाया होता
तो जल्दबाजी में कितना अनर्थ हो जाता ।मेरे ही हाथों मेरा निर्दोष परिवार खत्म हो जाता ।

ज्ञान का यह सूत्र उस दिन तो मुझे महंगा लग रहा था लेकिन ऐसे सूत्र के लिए तो 500 स्वर्ण मुद्राएं बहुत कम हैं ।
'ज्ञान तो अनमोल है ’

इस कहानी का सार यह है कि
जीवन के दो मिनट जो दुःखों से बचाकर
सुख की बरसात कर सकते हैं ।
वे हैं - *'क्रोध के दो मिनट *
नमस्ते जी


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"गंदे वस्त्र, गंदे दांत, अत्यधिक भोजन करने वाला ,कठोर वाक्य बोलने वाला,, सूर्योदय और सुर्यास्त में..."

“गंदे वस्त्र, गंदे दांत, अत्यधिक भोजन करने वाला ,कठोर वाक्य बोलने वाला,, सूर्योदय और सुर्यास्त में सोने वाला यदि स्वयं भगवान् विष्णु भी हो तो आद्या भगवती लक्ष्मी उसका भी त्याग कर देती है। ।।”
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पिता बेटे को डॉक्टर बनाना चाहता था । बेटा इतना मेधावी था नहीं कि PMT क्लियर कर लेता । इसलिए दलालों...

पिता बेटे को डॉक्टर बनाना चाहता था । बेटा इतना मेधावी था नहीं कि PMT क्लियर कर लेता । इसलिए दलालों से MBBS की सीट खरीदने का उपक्रम हुआ । जमीन जायदाद जेवर गिरवी रख के 35 लाख दलालों को दिए ।
वहाँ धोखा हो गया । फिर किसी रूसी देश में लड़के का एडमीशन कराया गया ।
वहाँ भी चल नहीं पाया । फेल होने लगा । depression में रहने लगा ।
रक्षाबंधन पे घर आया और यहाँ फांसी लगा ली ।
20 दिन बाद माँ बाप और बहन ने भी कीटनाशक खा के आत्महत्या कर ली ।
अपने mediocre बेटे को डॉक्टर बनाने की झूठी महत्वाकांक्षा और आत्मश्लाघा ने पूरा परिवार लील लिया । माँ बाप अपने सपने , अपनी महत्वाकांक्षा अपने बच्चों से पूरी करना चाहते हैं …….. 25 साल शिक्षा में काम करते हुए मैंने देखा कि कुछ माँ बाप अपने बच्चों को topper बनाने के लिए इतना ज़्यादा अनर्गल दबाव डालते हैं कि बच्चे का स्वाभाविक विकास ही रुक जाता है । आधुनिक स्कूली शिक्षा बच्चे की evaluation और grading ऐसे करती है जैसे सेब के बाग़ में सेब की की जाती है ।
पूरे देश के करोड़ों बच्चों को एक ही syllabus पढ़ाया जा रहा है ।
जंगल में सभी पशुओं को एकत्र कर सबका इम्तहान लिया जा रहा है और पेड़ पर चढ़ने की क्षमता देख के ranking निकाली जा रही है । ये शिक्षा व्यवस्था ये भूल जाती है कि इस प्रश्नपत्र में तो बेचारा हाथी का बच्चा फेल हो जाएगा और बन्दर first आ जाएगा ।
अब पूरे जंगल में ये बात फ़ैल गयी कि कामयाब वो जो झट से कूद के पेड़ पे चढ़ जाए ।
बाकी सबका जीवन व्यर्थ है ।
सो उन सब जानवरों ने , जिनके बच्चे कूद के झटपट पेड़ पे न चढ़ पाए , उनके लिए कोचिंग institute खुल गए । यहाँ पर बच्चे को पेड़ पे चढ़ना सिखाया जाता है ।
और चल पड़े हाथी , जिराफ , शेर और सांड़ , भैंसे , समंदर की सब मछलियाँ चल पड़ीं अपने बच्चों के साथ , coaching institute की ओर …….. हमारा बिटवा भी पेड़ पे चढ़ेगा और हमारा नाम रोशन करेगा ।
हाथी के घर लड़का हुआ ……. तो उसने उसे गोद में ले के कहा ……. हमरी जिनगी का एक्के मक़सद है ……. हमार बिटवा पेड़ पे चढ़ेगा ।
और जब बिटवा पेड़ पे न चढ़ पाया , तो हाथी ने सपरिवार ख़ुदकुशी कर ली ।
अपने बच्चे को पहचानिए । वो क्या है , ये जानिये । हाथी है कि शेर चीता लकडबग्घा , जिराफ ऊँट है कि मछली , या फिर हंस , मोर या कोयल ……… क्या पता वो चींटी ही हो …….. और यदि चींटी है आपका बच्चा , तो हताश निराश न हों ……. चींटी धरती का सबसे परिश्रमी जीव है और अपने खुद के वज़न की तुलना में एक हज़ार गुना ज़्यादा वज़न उठा सकता है ।
इसलिए उसे चींटी समझ धिक्कारिये मत ।

🌹जय श्री कृष्ण🙏🙏


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प्रश्न) मुक्ति किसको कहते हैं? (उत्तर) ‘मुञ्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्तिः’ जिस में छूट...

प्रश्न) मुक्ति किसको कहते हैं?
(उत्तर) ‘मुञ्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्तिः’ जिस में छूट जाना हो उस का नाम मुक्ति है।
(प्रश्न) किस से छूट जाना?
(उत्तर) जिस से छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटने की इच्छा करते हैं?
(उत्तर) जिस से छूटना चाहते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटना चाहते हैं।
(उत्तर) दुःख से।
(प्रश्न) छूट कर किस को प्राप्त होते और कहां रहते हैं?
(उत्तर) सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं।
(प्रश्न) मुक्ति और बन्ध किन-किन बातों से होता है?
(उत्तर) परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसङ्ग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करे। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत ईश्वराज्ञाभङ्ग करने आदि काम से बन्ध होता है।
(प्रश्न) मुक्ति में जीव का लय होता है वा विद्यमान रहता है।
(उत्तर) विद्यमान रहता है।
(प्रश्न) कहां रहता है?
(उत्तर) ब्रह्म में।
(प्रश्न) ब्रह्म कहां है और वह मुक्त जीव एक ठिकाने रहता है वा स्वेच्छाचारी होकर सर्वत्र विचरता है?
(उत्तर) जो ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है उसी में मुक्त जीव अव्याहतगति अर्थात् उस को कहीं रुकावट नहीं विज्ञान, आनन्दपूर्वक स्वतन्त्र विचरता है।

साभार -सत्यार्थप्रकाश


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इतिहास की गलत जानकारी :- आम कहना हैं की सिखों ने हिंदुओं की रक्षा की। खालसा पन्थ की स्थापना के समय...

इतिहास की गलत जानकारी :-

आम कहना हैं की सिखों ने हिंदुओं की रक्षा की। खालसा पन्थ की स्थापना के समय ब्राह्मण,हिन्दू खत्री आगे आये थे। हर हिन्दू ने अपने परिवार का बड़ा बेटा खालसा फौज के लिए दिया था। एक और जहां मराठे लड़ रहे थे वहीं दूसरी और राजपूतों और ब्राह्मणों ने मुगलों की नाक में दम किया हुआ था। जब पहली खालसा फ़ौज बनी तब उसका नेतृत्व एक ब्राह्मण भाई प्राग दास जी के हाथ में था। उसके बाद उनके बेटे भाई मोहन दास जी ने कमान सम्भाली। सती दास जी,मति दास जी,दयाल दास जी जैसे वीर शहीद ब्राह्मण खालसा फ़ौज के सेनानायक थे। इन्होंने गुरु जी की रक्षा करते हुए अपनी जान दी। गुरु गोबिंद जी को शस्त्रों की शिक्षा देने वाले पण्डित कृपा दत्त जी भी एक ब्राह्मण थे, उनसे बड़ा योद्धा कभी पंजाब के इतिहास में नही देखा गया। जब 40 मुक्ते मैदान छोड़ कर भागे तब एक बैरागी ब्राह्मण लक्ष्मण दास जी उर्फ़ बन्दा बहादुर जी और उसका 14 साल के बेटे अजय भारद्वाज ने गुरु जी के परिवार की रक्षा के लिए सरहिंद में लड़े। चप्पड़ चिड़ी की लड़ाई में उनकी इतिहासिक विजय हुई। 1906 में खालसा पन्थ सिख धर्म बना। अकाली लहर चला कर उसे हिन्दू धर्म से कुछ लोगों ने अलग कर दिया। इतिहास से छेड़छाड़ हुई पर सच्चाई कभी बदल नही सकती।

सभी ब्राह्मणों से अनुरोध है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और महान ब्राह्मण योद्धाओं जिनका इतिहास बिकाऊ वामपंथी इतिहासकारों ने मिटा दिया वो सबके सामने आये।


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आओ मित्रों ! भजन का आनन्द लेवे । इतनी शक्ति हमें दे न दाता मनका विश्वास कमज़ोर हो ना हम चलें नेक...

आओ मित्रों ! भजन का आनन्द लेवे ।

इतनी शक्ति हमें दे न दाता
मनका विश्वास कमज़ोर हो ना
हम चलें नेक रास्ते पे हमसे
भूलकर भी कोई भूल हो ना…

हर तरफ़ ज़ुल्म है बेबसी है
सहमा-सहमा-सा हर आदमी है
पाप का बोझ बढ़ता ही जाये
जाने कैसे ये धरती थमी है
बोझ ममता का तू ये उठा ले
तेरी रचना का ये अन्त हो ना…
हम चले…

दूर अज्ञान के हो अन्धेरे
तू हमें ज्ञान की रौशनी दे
हर बुराई से बचके रहें हम
जितनी भी दे, भली ज़िन्दगी दे
बैर हो ना किसीका किसीसे
भावना मन में बदले की हो ना…
हम चले…

हम न सोचें हमें क्या मिला है
हम ये सोचें किया क्या है अर्पण
फूल खुशियों के बाटें सभी को
सबका जीवन ही बन जाये मधुबन
अपनी करुणा को जब तू बहा दे
करदे पावन हर इक मन का कोना…
हम चले…

हम अन्धेरे में हैं रौशनी दे,
खो ना दे खुद को ही दुश्मनी से,
हम सज़ा पाये अपने किये की,
मौत भी हो तो सह ले खुशी से,
कल जो गुज़रा है फिरसे ना गुज़रे,
आनेवाला वो कल ऐसा हो ना…

हम चले नेक रास्ते पे हमसे,
भुलकर भी कोई भूल हो ना…
इतनी शक्ति हमें दे ना दाता,
मनका विश्वास कमज़ोर हो ना…


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🌷💚 ओउम् नमस्ते जी 🌷💚 🌷💚 आपका दिन शुभ हो 🌷💚 दिनांक – 23 जून 2017 दिन – शुक्रवार तिथि...

🌷💚 ओउम् नमस्ते जी 🌷💚
🌷💚 आपका दिन शुभ हो 🌷💚

दिनांक – 23 जून 2017
दिन – शुक्रवार
तिथि – चतुर्दशी
नक्षत्र– रोहिणी
पक्ष– कृष्ण
माह – आषाढ़
ऋतु – वर्षा
सूर्य – दक्षिणायन
सृष्टि संवत् – 1, 96, 08, 53, 118
कलयुगाब्द – 5119
विक्रम संवत् – 2074
शक संवत् – 1939
दयानंदाब्द – 194

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🌷 जिस व्यवसाय में आय कम और खर्च ज्यादा हो या जिसमें आय बढ़ाने के लिए बेईमानी करना पडे उस व्यवसाय को छोड़ देना ही उचित है क्योंकि बेईमानी से प्राप्त कि गई आय का पैसा दुःख और विपत्ति लाने वाला सिद्ध होता है जिसका पता बाद में चलता है तत्काल नही नही चलता इसलिए ख्याल में नही आता ।धन हम अपने जीवन निर्वाह के लिए , अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और पारिवारिक विकास के लिए कमाते है ताकि परिवार अभावों से पीड़ित और दुखी न रहे ।यदि धन प्राप्त करके भी दुख दूर न हो तो ऐसे धन से क्या लाभ ?

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🌹 *ओ३म् नमस्ते जी* 🌹
🙏🏻

*🌷मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा ।*
*हठश्चैव विषादश्च परोक्तं नैव मन्यते ।।*

🌷मूर्ख मनुष्य के पाँच चिन्ह होते हैं यथा-(१) अभिमानी होना,(२) कटु-कठोर बोलना,गाली प्रदान करना,(३) हठी,अड़ियल होना,(४) दुःखी होना और (५) दूसरे की कही हुई बात को न मानना।

🌹 *शुभ प्रभात जी* 🌹
।। *ओ३म्* ।।
🙏🏻

🌷💚🌷💚 ओउम् 🌷💚🌷💚 सुदिनम् 🌷💚🍁


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जैसे शरीर में मुख होता है जिसके तेजवान , ओजपूर्ण होने से शरीर की शोभा बढ़ती है जहाँ ज्ञानेन्द्रिया...

जैसे शरीर में मुख होता है जिसके तेजवान , ओजपूर्ण होने से शरीर की शोभा बढ़ती है जहाँ ज्ञानेन्द्रिया होती है सर्दी में सबकुछ ढकते है पर कोई मुख का ढक्कन नही माँगता , वैसे ही समाज में ब्राम्हण होना चाहिए व्रती , ब्रम्हचारी ,तेजवान , प्रत्येक दशा में ज्ञानार्जन कर ज्ञानर्पण करने वाला ।

जैसे शरीर में भुजाये होती है जिसके मजबूत होने से विपक्षी भय खाता है चाहे मुख पर वार हो या पैर में काटा लगे भुजाएं रक्षार्थ आती है वैसे ही समाज में बलशाली महारथी क्षत्रिय होने चाहिए ।

जैसे शरीर में उदर( पेट ) होता है जिसकी पाचन शक्ति से मुख हो या भुजाएं या पैर सबमे शक्ति आती है जो पौष्टिकता को बिना भेदभाव् किये सारे शरीर में बाटता है , ऐसे होने चाहिए समाज में दानवीर वैश्य ।

जैसे शरीर में पैर होते है जिनकी मजबूती से शरीर को मजबूत संतुलन मिलता है जिसके तेज से शरीर तेजगामी होता है जिसके बिना उदर हो या भुजाएं या मुख स्थान तक परिवर्तित नही कर सकते है ऐसे होने चाहिए समाज में तेजवान , वेगवान शुद्र ।

जिस प्रकार मुख , उदर , भुजाओं , पैरों के महान सामंजस्य से सुंदर शरीर का निर्माण व् सञ्चालन होता है वैसे ही ब्राम्हण , क्षत्रिय , वैश्य व् शुद्र के महान सामंजस्य से सुंदर समाज का निर्माण होना चाहिए ।
विशेष ध्यान रहे अंगों ( वर्ण ) की पहचान उसका कार्य है ।

यही है वैदिक वर्ण व्यवस्था यही है आर्यसमाज की कामना ।


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ईश्वर के ध्यान-समाधि से प्राप्त होने वाली उपलब्धियां- १. नित्य आनंद की प्राप्ति होना- जो कभी...

ईश्वर के ध्यान-समाधि से प्राप्त होने वाली उपलब्धियां-
१. नित्य आनंद की प्राप्ति होना- जो कभी उत्पन्न, नाश, वृद्धि, ह्रास को प्राप्त नहीं होता.
२. ईश्वर की सत्य विद्या मिलना.
३. बल
४. सत्याचरण
५. अविद्या, अधर्माचरण, दुखों का विनाश.
- पूज्य स्वामी जी के प्रवचन में से (२२-६-२०१६).


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Thursday, June 22, 2017

श्रीकृष्ण जैसा योगी ना रै रावण सा अभिमान नहीं कितणा ए घमंड करे जा तू मन मैं नारद जीतणा ज्ञान...

श्रीकृष्ण जैसा योगी ना रै
रावण सा अभिमान नहीं
कितणा ए घमंड करे जा तू मन मैं नारद जीतणा ज्ञान नहीं
दयानंद सा रै इस दुनिया मैं वेदों का विद्वान नहीं
चाहे लाख त्यजुरी भरी रहो पर कर्ण जिसा धनवान नहीं
दुर्योधन जीसी ना नही रै
हरिश्चंद्र सी हां कोन्या
वेद शास्त्र ढूंढ लिए पर ओ३म् बराबर ना कोन्या
हेर श्रवण जैसा पूत जगत मैं कौशल्या सी मां कोन्या।


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What is God? Who is He and Where does He stay? Answer: God is an Eternal, Conscious, Formless and...

What is God? Who is He and Where does He stay?
Answer: God is an Eternal, Conscious, Formless and all-pervading entity who is the efficient cause of the Universe and the support of all. The Benevolent Supreme is Self-Existence + All-Intelligence + All Blissful + Infinite personified and Holy, Apprehend, Independent by nature. He is Almighty of all hence Omnipotent. He is Limitless. Countless creations and souls reside in God and God Himself resides in all these things. There is no place left vacant in this Universe where there is non-existence of the Supreme Soul–“Ishaa Vaasyamidam Sarvam” (Yajurveda 40/1) means God resides in this whole Universe.
“Aa Varivarti Bhuvaneshvantah” (Rigveda 1-164-31) He is called God whose attributes, actions, nature and oritological essences are nothing but truth. He is one, without a second. God is Omniscient (All knowledgeable), Omnipresent and Eternal means He is without a beginning or end. By His nature He is Imperishable, Gynostic, Blissful, Pure, Just, Merciful, Unborn, Unchangeable, Incomparable
He who is Generator, Organizer and Destroyer of the Universe is called “GOD”.
He who is away from Ignorance - Happiness - Unhappiness - Desires - Undesired and mixed actions is called God.
God is Benevolent, and Fearless. His activities include the creation, preservation, and destruction of the marvelous structure of the Universe and the dispensation of reward or punishment commensurate with the virtuous or vicious deeds of all living beings.
Most of the great philosophers have maintained that there exist some sort of absolute, whether it is called God or by any other name.,best name as described by God Himself is AUM.
Remember, three things are eternal- God,Souls and matter.Even being Omnipotent God cannot create Souls and matter.God create the universe by various combination of tiny particles of matter for the use of Souls.As every company provide a manual mentioning various instructions regarding use of their product similarly God reveals a manual in the minds of four best persons in the beginning of universe mentioning varios instructions regarding use of His valuable gifts like air,water,light,food etc. This manual is known as Vedas.It is paramount duty of all human beings to read Vedas and act accordingly. The book Light of Truth ( Satyarthparkash)by Rishi Dayanand contains the extract of Vedas.

- Dr Mumukshu Arya ( Consultant Physician and Cardiologist )


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ब्राह्मण कौन ? यास्क मुनि के अनुसार- जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः। वेद पाठात् भवेत्...

ब्राह्मण कौन ?

यास्क मुनि के अनुसार-
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः।
वेद पाठात् भवेत् विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।

अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।

-महर्षि मनु के अनुसार
विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥

अर्थात-शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं”
(मनु; 11-35)

-महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार
“जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण

नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – महाभारत)

-महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार
“जो निष्कारण (कुछ भी मिले एसी आसक्ति का त्याग कर के).

-वेदों के अध्ययन में व्यस्त हे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण हे.”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०, पराशर स्मृति)

-भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार “शम, दम, करुणा, प्रेम, शील (चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण हे” और
“चातुर्वर्ण्य माय सृष्टं गुण कर्म विभागशः”
(भ.गी. ४-१३)

इसमे गुण कर्म ही क्यों कहा भगवान ने जन्म क्यों नहीं कहा?

-जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार
“ब्राह्मण वही हे जो “पुंस्त्व” से युक्त हे. जो “मुमुक्षु” हे. जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन हे. जो सरल हे. जो नीतिवान हे, वेदों पर प्रेम रखता हे, जो तेजस्वी हे, ज्ञानी हे, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदो का अध्ययन और अध्यापन कार्य हे, वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण हे”
(सन्दर्भ ग्रन्थ – शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह,आत्मा-अनात्मा विवेक)

किन्तु जितना सत्य यह हे की केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हे. कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है यह भी उतना ही सत्य हे.
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हे जेसे…..

(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे| परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|

(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीनचरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|
ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया |
(ऐतरेय ब्राह्मण२.१९)

(3) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |

(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे,
प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया |
(विष्णु पुराण ४.१.१४)

(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए|
पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया |
(विष्णु पुराण ४.१.१३)

(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(7) आगे उन्हीं के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए|
(विष्णु पुराण ४.२.२)

(8) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |

(9) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(10) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए |
(विष्णु पुराण ४.३.५)

(11) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया |
(विष्णु पुराण ४.८.१) वायु,

विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |

(12) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |

(13) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |

(14) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |

(15) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |

(16) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया |
विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |

(17) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |

मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक हे के नहीं यह अलग विषय हे किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी हे उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी.

वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हे. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कार तरफ वापस बढे.


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Wednesday, June 21, 2017

सूर्य नमस्कार एवं मुसलमानों की भ्रान्ति 21 जून को योग दिवस के अवसर पर सूर्य नमस्कार करने का अनेक...

सूर्य नमस्कार एवं मुसलमानों की भ्रान्ति

21 जून को योग दिवस के अवसर पर सूर्य नमस्कार करने का अनेक मुस्लिम संगठनों ने यह कहकर विरोध किया हैं कि इस्लाम में केवल एक अल्लाह की इबादत करने का आदेश है जबकि हिन्दू समाज में तो सूर्य, पेड़, जल, नदी, पर्वत आदि सभी की पूजा का विधान हैं। इसलिए एक मुस्लमान के लिए सूर्य नमस्कार करना नापाक है।
यह स्पष्टीकरण सुनकर मुझे आर्यसमाज के प्रसिद्द भजनोपदेशक स्वर्गीय पृथ्वी सिंह बेधड़क का एक भजन स्मरण हो आया जिसमें एक मुस्लिम लड़की एक आर्य लड़की से इस्लाम ग्रहण करना का प्रलोभन यह कहकर देती हैं कि इस्लाम में एक अल्लाह की इबादत करने का बताया गया है तो आर्य लड़की उसे प्रतिउत्तर देती है कि हमारे वेद तो आपके इस्लाम से करोड़ो वर्ष पुराने हैं एवं उसमें विशुद्ध एकेश्वरवाद अर्थात केवल एक ईश्वर की उपासना का प्रावधान बताया गया हैं जबकि मुसलमानों को यह भ्रान्ति हैं कि वे केवल एक अल्लाह की इबादत करते हैं क्यूंकि उनके तो कलमे में भी एक अल्लाह के अलावा रसूल भी शामिल है, नबी, फरिश्ते, शैतान,जिन्न आदि भी हैं। अर्थात इस्लाम विशुद्ध एकेश्वरवाद नहीं है। विशुद्ध एकेश्वरवाद तो केवल वेदों में वर्णित हैं।

स्वामी दयानंद द्वारा बताये गए ईश्वर और देवता के अंतर को मुसलमान लोग समझ जाते तो यह शंका नहीं होती।

ईश्वर को परिभाषित करते हुए स्वामी दयानंद लिखते है कि जिसको ब्रह्मा, परमात्मादि नामों से कहते हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षण युक्त है जिसके गुण, कर्म, स्वाभाव पवित्र हैं जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनंत, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता , सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त परमेश्वर हैं उसी को मानता हूँ।

देव शब्द को परिभाषित करते हुए स्वामी दयानंद लिखते है कि उन्हीं विद्वानों, माता-पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री, स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना देवपूजा कहलाती है।

वेदों में तो पूजा के योग्य केवल एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, भगवान को ही बताया गया है। देव शब्द का प्रयोग सत्यविद्या का प्रकाश करनेवाले सत्यनिष्ठ विद्वानों के लिए भी होता हैं क्यूंकि वे ज्ञान का दान करते हैं और वस्तुओं के यथार्थ स्वरुप को प्रकाशित करते हैं।

स्वामी दयानंद देव शब्द पर विचार करते हुए ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदविषयविचार अध्याय 4 में लिखते हैं की दान देने से ‘देव’ नाम पड़ता हैं और दान कहते हैं अपनी चीज दूसरे के अर्थ दे देना। 'दीपन’ कहते हैं प्रकाश करने को, 'द्योतन’ कहते हैं सत्योपदेश को, इनमें से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है की जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है तथा विद्वान मनुष्य भी विद्यादि पदार्थों के देनेवाले होने से देव कहाते है। दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव हैं। तथा माता-पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन, विद्या और सत्योपदेशादी के करने से देव कहाते हैं। वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करनेवाला हैं, सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव हैं, अन्य कोई नहीं। कठोपनिषद 5/15 का भी प्रमाण हैं की सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इस सबका प्रकाश करनेवाला एक वही है क्यूंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा हैं। इसमें यह जानना चाहिये की ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करनेवाला नहीं हैं , इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव हैं।

अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र वसु, रूद्र, आदित्य, इंद्र,सत्यनिष्ठ विद्वान,वीर क्षत्रिय, सच्चे ब्राह्मण, सत्यनिष्ठ वैश्य, कर्तव्यपरायण शूद्र से लेकर माता-पिता, आचार्य और अतिथि तक सभी मनुष्यों के लिए कल्याणकारी हैं इसलिए सम्मान के योग्य हैं।

जिस प्रकार से माता-पिता, आचार्य आदि सभी खिदमत करने वाले मगर उनका सम्मान हर मुसलमान करता हैं कोई उन्हें यह नहीं कहता कि हम सेवक का नमन क्यों करे उसी प्रकार से सूर्य, वायु, अग्नि,पृथ्वी, पवन आदि भी मनुष्य कि सेवा करते हैं इसलिए सम्मान के योग्य हैं।

सूर्य नमस्कार और वन्दे मातरम सम्मान देने के समान है न कि पूजा करना है।

सम्मान करना एवं पूजा करने में भेद को समझने से इस शंका का समाधान सरलता से हो जाता है जिसका श्रेय स्वामी दयानंद को जाता है।

डॉ विवेक आर्य


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*महर्षि पतञ्जलि ने योग को ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध’ के रूप में परिभाषित किया है।...

*महर्षि पतञ्जलि ने योग को ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध’ के रूप में
परिभाषित किया है। योगसूत्र में उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक,
मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार
से बताया है। अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला
मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों
का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:

*'यम’ : पांच सामाजिक नैतिकता

*अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना

*सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना

*अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना

*ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं:

* चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
* सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना

*अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की
इच्छा नहीं करना

*'नियम’: पाच व्यक्तिगत नैतिकता
*शौच – शरीर और मन की शुद्धि

*संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना

*तप – स्वयं से अनुशाषित रहना

*स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना

*इश्वर-प्रणिधान – इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा

*'आसन’: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण

*'प्राणायाम’: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण

*'प्रत्याहार’: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना

*'धारणा’: एकाग्रचित्त होना

*'ध्यान’: निरंतर ध्यान

*'समाधि’: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था


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🎭 क्या वेद में आर्य-द्रविड़ युद्ध का वर्णन है? एक सत्य जिसे किसी ने नही बताया। सप्रमाण भ्रांति...

🎭 क्या वेद में आर्य-द्रविड़ युद्ध का वर्णन है?

एक सत्य जिसे किसी ने नही बताया।
सप्रमाण भ्रांति निवारण

🎲 अंग्रेजों से पूर्व आर्य-द्रविड़ के युद्ध की कोई अवधारणा नही थी। लेकिन अंग्रेजों ने आर्यों की महान ऐतिहासिक संस्कृति को विदेशी आक्रमणकारी बताकर आर्यों और वैदिक धर्म को भारत से मिटाने की एक सफल योजना चली, जिसे उस समय दयानंद सरस्वती जी ने धूल धूसरित कर दिया।

*परंतु आज भी अंग्रेजी दास मानसिकता वालों के द्वारा अपने भारत के अतीत के इतिहास को देखे बिना वेदों के विषय में पुनः भ्रान्ति फैलाई जा रही रही है कि आर्य लोग विदेशी (संभवत मध्य एशिया) थे और वे भारत भूमि पर आक्रमणकारी के रूप में आये। यहाँ के मूल निवासी काले रंग के लोगों पर जो द्रविड़ (दास) थे और जिन्हें आर्यों ने दास और दस्युओं का नाम दिया था पर आर्यों ने अनेक अत्याचार किये [i]।*

*सन्दर्भ -*The Aryan invaders or immigrants found in India to groups of people, one of which they named the Dasas and Dasyu, and the other Nishadas. Vedic Age p.156 अर्थात आर्य आक्रान्ताओं ने भारत में दो प्रकार के वर्गों को पाया। एक वर्ग को उन्होंने दास और दस्यु का नाम दिया और दूसरे को निषादों का।

आर्य-द्रविड़ युद्ध की मान्यता के चलते यह भ्रान्ति उत्पन्न होती है कि दक्षिण भारत में रहने वाले एवं श्याम वर्ण वाले जो लोगों पर उत्तर भारत में रहने वाले श्वेत वर्ण वाले लोगों को प्रताड़ित एवं पीड़ित किया हैं। *इस भ्रान्ति के निवारण के लिए कुछ प्रश्नों का उत्तर अपेक्षित हैं।*

🔺 *शंका 1–* आर्य और द्रविड़ शब्द का क्या अर्थ हैं? आर्य कौन कहलाते हैं ? क्या आर्य और द्रविड़ या दास अलग अलग जातियां हैं?

समाधान- आर्य शब्द कोई जातिवाचक शब्द नहीं है, अपितु गुणवाचक शब्द है। ऋग्वेद 10/64/11 के अनुसार आर्य वे कहलाते हैं जो भूमि पर सत्य, अहिंसा,पवित्रता, परोपकार आदि व्रतों को विशेष रूप से धारण करते हैं। *आर्य शब्द ‘ऋ’ धातु से बनता है जिसका अर्थ ‘गति-प्रापणयो:’ है अर्थात ज्ञान, गमन, प्राप्ति करने और प्राप्त कराने वाले को आर्य कहते हैं।* अर्थात आर्य वे हैं जो ज्ञान-संपन्न हैं, जो सन्मार्ग की ओर सदा गति करने वाले पुरुषार्थी हैं और जो ईश्वर तथा परमानन्द को प्राप्त करने तथा तदर्थ-प्रयतनशील होते हैं। संस्कृत कोषशब्दकल्पद्रुम में आर्य का अर्थ पूज्य, श्रेष्ठ, धार्मिक, धर्मशील, मान्य, उदारचरित, शांतचित, न्याय-पथावलम्बी, सतत कर्त्तव्य कर्म अनुष्ठाता आदि मिलता हैं। आर्य शब्द का अर्थ होता हैं “श्रेष्ठ” अथवा बलवान, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर के ऐश्वर्य का स्वामी, उत्तम गुणयुक्त, सद्गुण परिपूर्ण आदि।

वेद, रामायण, महाभारत, गीता आदि में *“आर्य”* शब्द का प्रयोग गुणवाची के रूप में ही हुआ हैं।

*आर्य शब्द का प्रयोग वेदों में निम्नलिखित विशेषणों के लिए हुआ हैं।*

श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए [ऋग्वेद 1/103/3], इन्द्र का विशेषण [ऋग्वेद 10/138/3], सोम का विशेषण[ऋग्वेद 9/63/5],ज्योति का विशेषण[ऋग्वेद 10/43/4], व्रत का विशेषण[ ऋग्वेद 10/65/11], प्रजा का विशेषण [ऋग्वेद 7/33/7], वर्ण के विशेषण [ऋग्वेद 3/34/9] के रूप में हुआ हैं.

निरुक्त में आर्य शब्द का अर्थ ईश्वर पुत्र: के रूप में हुआ है।

रामायण बालकाण्ड में *आर्य* शब्द आया है । श्री राम के उत्तम गुणों का वर्णन करते हुए वाल्मीकि रामायण में नारद मुनि ने कहा है – *आर्य: सर्वसमश्चायमं, सोमवत् प्रियदर्शन: [रामायण बालकाण्ड 1/16]* अर्थात् श्री राम आर्य – धर्मात्मा, सदाचारी, सबको समान दृष्टि से देखने वाले और चंद्र की तरह प्रिय दर्शन वाले थे।

किष्किन्धा काण्ड[किष्किन्धा काण्ड 19/27] में बालि की स्त्री पति के वध हो जाने पर उसे *आर्य पुत्र* कह कर रुधन करती है।

👉🏼 महाभारत में *“आर्य”* शब्द 8 गुणों से युक्त व्यक्ति के लिए हुआ हैं। जो ज्ञानी हो, सदा संतुष्ट रहनेवाला हो, मन को वश में रखनेवाला, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, दानी, दयालु और नम्र गुणवाला आर्य कहलाता हैं।

📒 भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने जब देखा कि वीर अर्जुन अपने क्षात्र धर्म के आदर्श से च्युत होकर मोह में फँस रहा है तो उसे सम्बोधन करते हुए उन्होंने कहा – *कुतस्त्वा कश्मलमिदं, विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम्, अकीर्ति करमर्जुन [गीता 2/3]* अर्थात् हे अर्जुन, यह अनार्यो व दुर्जनों द्वारा सेवित, नरक में ले-जाने वाला, अपयश करने वाला पाप इस कठिन समय में तुझे कैसे प्राप्त हो गया ? यहा श्री कृष्ण ने अर्जुन को आर्य बनाने के लिए अनार्यत्व के त्याग को कहा है।

इस प्रकार से वैदिक वांग्मय में आर्य शब्द का प्रयोग गुणों से श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए हुआ हैं।

दास शब्द का अर्थ अनार्य, अज्ञानी, अकर्मा, मानवीय व्यवहार शुन्य, भृत्य, बल रहित शत्रु के लिए हुआ हैं न की किसी विशेष जाति के लोगों के लिए हुआ हैं।

*दास शब्द का वेदों में विविध रूपों में प्रयोग –*

मेघ विशेषण ऋग्वेद 5/30/7 में प्रयोग हुआ है। शीघ्र बनने वाले मेघ के रूप में ऋग्वेद 6/26/5 में प्रयोग हुआ है। बिना बरसने वाले मेघ के लिए ऋग्वेद 7/19/2 में प्रयोग हुआ है। बलरहित शत्रु के लिए ऋग्वेद 10/83/1 में प्रयोग हुआ है। अनार्य के लिए ऋग्वेद 10/83/19 में प्रयोग हुआ है। अज्ञानी ,अकर्मका ,मानवीय व्यवहार से शून्य व्यक्ति के लिए ऋग्वेद 10/22/8 में प्रयोग हुआ है। प्रजा के विशेषण में ऋग्वेद 6/25/2, 10/148/2 और 2/11/4 में प्रयोग हुआ है। वर्ण के विशेषण रूप में ऋग्वेद 3/34/9, 2/12/4 में हुआ है। उत्तम कर्महीन व्यक्ति के लिए ऋग्वेद 10/22/8 में दास शब्द का प्रयोग हुआ है अर्थात यदि ब्राह्मण भी कर्महीन हो जाय तो वो भी दास कहलायेगा। गूंगे या शब्दहीन के विशेषण में ऋग्वेद 5/29/10 में दास का प्रयोग हुआ है।

अष्टाध्यायी 3/3/19 में दास का अर्थ लिखा है - दस्यते उपक्षीयते इति दास: जो साधारण प्रयत्न से क्षीण किया जा सके ऐसा साधारण व्यक्ति व 3/1/134 में आया है ” दासति दासते वा य: स:” अर्थात दान करने वाला यहा दास का प्रयोग दान करने वाले के लिए हुआ है। अष्टाध्यायी 3/1/134 में दास्यति य स दास: अर्थात जो प्रजा को मारे वह दास ” यहा दास प्रजा को और उसके शत्रु दोनों को कहा है। अष्टाध्यायी 5/10 में हिंसा करने वाले ,गलत भाषण करने वाले को दास दस्यु (डाकू) कहा है।

निरुक्त 7/23 में कर्मो के नाश करने वाले को दास कहा है।

*दस्यु शब्द का अर्थ उत्तम कर्म हीन व्यक्ति [ऋग्वेद 7/5/6] ,अज्ञानी, अव्रती[ऋग्वेद 10/22/8], मेघ[ऋग्वेद 1/59/6] आदि के लिए हुआ हैं न की किसी विशेष जाति अथवा स्थान के लोगों के लिए माना गया है।*

वैदिक वांग्मय में और राष्ट्र के लिए सहायक व्यक्तियों को आर्य एवं घातक व्यक्तियों को दास या दस्युओं माना गया हैं। आर्य और द्रविड़ में भेद व्यक्ति के गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर बताये गए है। न की उत्तर दक्षिण भारतीय, श्याम-श्वेत वर्ण, बाहर से आये हुए एवं स्थानीय मूलनिवासी के आधार पर माना गया है। इस विषय को ठीक प्रकार से न समझ पाने के कारण पश्चिमी लेखकों ने आर्यों द्वारा भारत पर बाहर से आकर आक्रमण करने की निराधार कल्पना को जन्म दिया। इसी अधकचरे ज्ञान के आधार पर कुछ लोग अपनी छोटी राजनीती करते दीखते है। यह समाधान पढ़ लेने के पश्चात आर्य-द्रविड़ युद्ध की कल्पना त्यागने योग्य है।

♦ *शंका 2:–*वेदों के मन्त्रों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता हैं की आर्य और भारत के आदिवासी दो अलग अलग जातियां थी। आर्य और आदिवासीओ का स्वरुप और धार्मिक विश्वास भिन्न भिन्न था।

*समाधान—* पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों के अनुसार आदिवासीओ को काले वर्ण वाला, अनास यानि चपटी नाक वाला और लिंग देव अर्थात शीशनदेव की पूजा करने वाला लिखा हैं जबकि आर्यों को श्वेत वर्ण वाला सीधी नाक वाला और देवताओं की पूजा करने वाला लिखा हैं।

*MacDonnell लिखते है the term Das, Dasyu properly the name of the dark aborigine’s अर्थात दास, दस्यु काले रंग के आदिवासी ही हैं।*

Griffith Rigveda 1/10/1 – The dark aborigines who opposed the Aryans अर्थात काले वर्ण के आदिवासी जो आर्यों का विरोध करते थे।

Vedic mythology p. 151,152 में भी आर्यों द्वारा कृष्ण वर्ण वाले दस्युओ को हरा कर उनकी भूमि पर अधिकार करने की बात कही गयी हैं। ऋग्वेद के 1/101/1, 1/130/8, 2/20/7 और 4/16/13 मंत्रो का हवाला देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया हैं की भारत के मूल निवासी कृष्ण वर्ण के थे। ऋग्वेद 7/17/14 में सायण ने कृष्ण का अर्थ मेघ की काली घटा किया है।

अन्य सभी मंत्रो में इसी प्रकार इन्द्र के वज्र का मेघ रुपी बादलों से संघर्ष का वर्णन है। बादलों के कृष्ण वर्ण की आदिवासियो के कृष्ण वर्ण से तुलना कर बिजली (इन्द्र के वज्र) और बादल (मेघ) के संघर्ष के मूल अर्थ को छुपाकर उसे आर्य-दस्यु युद्ध की कल्पना करना कुटिलता नहीं तो और क्या हैं। *वैदिक इंडेक्स के लेखक ने ऋग्वेद 5/29/10 में अनास शब्द की चपटी नाक वाले द्रविड़ आदिवासी की व्याख्या की है।* ऋग्वेद 5/29/10 में दासो को द्वेषपूर्ण वाणी वाले या लड़ाई के बोल बोलने वाले कहा गया है।

*ऋग्वेद 5/129/10* में अनास शब्द का अर्थ चपटी नाक वाला नहीं अपितु शब्द न करने वाला अर्थात मूक मेघ हैं जिसे इन्द्र अपने वज्र (बिजली) से छिन्न भिन्न कर देता हैं। यहाँ भी अपनी कुटिलता से द्रविड़ आदिवासियो को आर्यों से अलग दिखने का कुटिल प्रयास किया गया है।

वैदिक इंडेक्स के लेखक ने ऋग्वेद 7/21/5 और 10/99/3 के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया हैं की दस्यु लोगो की पूजा पद्यति विभिन्न थी और वे शिश्नपूजा अर्थात लिंग पूजा करते थे।

यास्काचार्य ने निरुक्त 4/19 में शिश्न पूजा का अर्थ किया हैं अब्रहमचर्य अर्थात जो कामी व्यभिचारी व्यक्ति हो, किया हैं। *ऋग्वेद के 7/21/5 और 10/99/3* में भी कहा गया हैं की लोगों को पीड़ा पहुचने वाले, कुटिल, तथा शिश्नदेव (व्यभिचारी) व्यक्ति हमारे यज्ञो को प्राप्त न हो अर्थात दुस्त व्यक्तियों का हमारे धार्मिक कार्यो में प्रवेश न हो।

वैदिक इंडेक्स के लेखक इन मंत्रो के गलत अर्थ को करके भ्रान्ति उत्पन्न कर रहे हैं की दस्यु लोग लिंग पूजा करते हैं एवं आर्य लोग उनसे विभिन्न पूजा पद्धति को मानने वाले हैं। *सत्य अर्थ यह हैं की दस्यु शब्द किसी वर्ग या जाति विशेष का नाम नहीं हैं बल्कि जो भी व्यक्ति दुर्गुण युक्त हैं।* वह दस्यु है और दुर्गुणी व्यक्ति किसी भी समुदाय में हो दूर करने योग्य है। वेद मन्त्रों के गलत अर्थ दिखाकर को भिन्न भिन्न जातियों के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया गया है। जिससे परस्पर अंतर्विरोध एवं द्वेष भावना को बल मिले।

🔹 _*शंका 3– आर्य-दस्यु युद्ध पर स्वामी दयानंद के क्या दृष्टिकोण है?_

*समाधान—* स्वामी दयानंद आर्यों के बाहर से आने एवं स्थानियों को युद्ध में परास्त करने का स्पष्ट खंडन करते है। स्वामी जी सत्यार्थ प्रकाश 8 सम्मुलास में लिखते हैं-

“किसी संस्कृत ग्रन्थ में व इतिहास में नहीं लिखा की आर्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जंगलियो से लड़कर विजय पाकर उनको निकाल के इस देश के राजा हुए।”

स्वामी जी आर्यों और दस्युओं का गुणों के आधार पर विभाजन मानते हैं। “जो आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ”

स्वामी जी आर्यों के निवास स्थान को आर्यव्रत के रूप में सम्बोधित करते हुए उसे भारतवर्ष ही मानते है। स्वामी जी लिखते है—

“आर्याव्रत देश इस भूमि का नाम इसलिए हैं की इसमें आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इसकी अवधि उत्तर में हिमालय दक्षिण में विन्ध्याचल पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रहमपुत्र नदी है, इन चारों के बीच में जितना प्रदेश हैं उसको आर्याव्रत कहते और जो इसमें सदा रहते हैं उनको भी आर्य कहते है।”-सव-मंतव्य-अमंतव्य-प्रकाश-स्वामी दयानंद

_आर्य और दस्यु के मध्य संबंधों पर स्वामी दयानंद द्वारा विशेष व्याख्या करी गई है। स्वामी जी ऋग्वेद 10/64/11 मंत्र की व्याख्या करते हुए लिखते है—_

हे यथायोग्य सबको जाननेवाले ईश्वर! आप *'आर्यान्’* विद्या-धर्म आदि उत्कृष्ट स्वभाव आचरण युक्त आर्यों को जानो *'ये च दस्यव:’* और जो नास्तिक, डाकू, चोर, विश्वासघाती, मुर्ख, विषय-लम्पट, हिंसा आदि दोषयुक्त, उत्तम कर्मों में विघ्न करनेवाले, स्वार्थी, स्वार्थ-साधन में तत्पर, वेद-विद्या-विरोधी अनार्य मनुष्य *'बहिर्ष्मते’* सर्वोपकारक यज्ञ के विध्वंशक हैं। इन सब दुष्टों को आप (रन्धय) समुलान् विनाशय- मूलसहित नष्ट कर दीजिये। और (शासद व्रतान्) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास आदि धर्मानुष्ठान व्रतरहित, वेदमार्ग उच्छेदक अनाचारियों को यथायोग्य शासन कीजिये (शीघ्र उन पर दंड- निपातन करो) जिससे वे भी शिक्षायुक्त हो के शिष्ट हों अथवा उनका प्राणान्त हो जाय,किं वा हमारे वश में ही रहे (शाकी) तथा जीव को परम शक्तियुक्त, शक्ति देने और उत्तम कामों में प्रेरणा करनेवाले हों। आप हमारे दुष्ट कामों के विरोधक हो। मैं उत्कृष्ट स्थानों में निवास करता हुआ तुम्हारी अज्ञानुकूल सब उत्तम कर्मों की कामना करता हूंसो आप पूरी करें।- आर्याभिविनय 1/14

स्वामी दयानंद भी आर्य-दस्यु शब्दों को गुणात्मक मानते हैं न की किसी विशेष समूह अथवा जाति के आधार पर मानते हैं।

*योगी अरविन्द भी स्वामी दयानंद के समान आर्य शब्द को गुणात्मक मानते है।* अरविन्द जी के अनुसार आर्य शब्द में उदारता, नम्रता, श्रेष्ठता, सरलता, साहस, पवित्रता, दया, निर्बल संरक्षण, ज्ञान के लिए उत्सुकता, सामाजिक कर्तव्य पालनादि सब उत्तम गुणों का समावेश हो जाता है। मानवीय भाषा में इससे अधिक उत्तम और कोई शब्द नहीं। आर्य आत्मसंयमी और आंतरिक तथा बाह्य स्वराज्य -प्रेमी होता है। वह अज्ञान, बंधन तथा किसी प्रकार की दासता में रहना पसंद नहीं करता। उसकी इच्छा शक्ति दृढ़ होती है। प्रत्येक वस्तु में वह सत्य, उच्चता तथा स्वतंत्रता की खोज करता है। आर्य एक कार्यकर्ता और योद्धा होता है जो अपने अंदर और जगत में ईश्वर के राज्य को लाने के लिए अज्ञान, अन्याय तथा अत्याचारादि के विरुद्ध युद्ध करता है [आर्य पत्रिका प्रथम अंक 1914 ]।

🔸 *शंका 4–* क्या वेदों में आर्य-द्रविड़ युद्ध का वर्णन मिलता है?

*समाधान—* वैदिक इंडेक्स आदि के लेखको ने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया हैं की वेद में आर्य और दस्युओ के युद्ध का वर्णन हैं। वेद में दासों के साथ युद्ध करने का वर्णन तो मिलता है पर यह मानवीय नहीं अपितु प्राकृतिक युद्ध हैं। जैसे इन्द्र और वृत्र का युद्ध। इन्द्र बिजली का नाम हैं जबकि वृत्र मेघ का नाम है। इन दोनों का परस्पर संघर्ष प्राकृतिक युद्ध के जैसा हैं। यास्काचार्य ने भी निरुक्त 2/16 में इन्द्र-वृत्र युद्ध को प्राकृतिक माना है। इसलिए वेद में जिन भी स्थलों पर आर्य-दस्यु युद्ध की कल्पना की गई है उन स्थलों को प्रकृति में होने वाली क्रियाओ को उपमा अलंकार से दर्शित किया गया हैं। उनके वास्तविक अर्थ को न समझ कर अज्ञानता से अथवा जान कर वेदों को बदनाम करने के लिए एवं आर्य द्रविड़ के विभाजन की निति को पोषित करने के लिए युद्ध की परिकल्पना कई गयी हैं जो की गलत हैं।

🔺 _*शंका 5– डॉ अम्बेडकर के आर्यों के बाहर से आकर यहाँ पर बसने सम्बंधित विषय पर क्या विचार थे ?_

समाधान— डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक शूद्र कौन? [Who were Shudras?] में स्पष्ट रूप से विदेशी लेखकों की आर्यों के बाहर से आकर यहाँ पर बसने सम्बंधित मान्यता का स्पष्ट खंडन किया हैं। *डॉ अम्बेडकर लिखते है—

*1.* वेदों में आर्य जाति के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है।

*2.* वेद में ऐसा कोई प्रसंग उल्लेख नहीं है जिससे यह सिद्ध हो सके कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के मूलनिवासी दासो-दस्युओं को विजय किया।

*3.* आर्य, दास और दस्यु जातियों के अलगाव को सिद्ध करने के लिये कोई साक्ष्य वेदों में उपलब्ध नहीं है।

*4.* वेदों में इस मत की पुष्टि नहीं की की गई की गयी कि आर्य, दासों और दस्युओं से भिन्न रंग थे।

*डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से स्वामी दयानंद की मान्यता का अनुमोदन किया है।* वे न तो आर्य शब्द को जातिसूचक मानते थे अपितु गुणवाचक ही मानते थे। इसी सन्दर्भ में उन्होंने शूद्र शब्द को इसी पुस्तक के पृष्ठ 80 पर *“आर्य”* ही माना है। वे किसी भी आर्यों के बाहरी आक्रमण का स्पष्ट खंडन करते हैं। न ही आर्य और दास को अलग मानते हैं। रंग, बनावट आदि के आधार पर आर्यों-दस्युओं में भेद को स्पष्ट ख़ारिज करते हैं।

💎 इस प्रकार से यह सिद्ध हुआ कि वेद आर्य द्रविड़ युद्ध अथवा आर्यों के विदेशी होने की परिकल्पना का किसी भी प्रकार से समर्थन नहीं करते है।

🇹‌🇷‌🇺‌🇹‌🇭‌ 🇴‌🇫‌ 🇻‌🇪‌🇩‌

⛳ आर्य विचार ⛳


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शब्द शब्द बहू अंतरा, शब्द के हाथ न पावं । एक शब्द करे औषधि, एक शब्द करे घाव ।। शब्द सम्भाले...

शब्द शब्द बहू अंतरा, शब्द के हाथ न पावं ।
एक शब्द करे औषधि, एक शब्द करे घाव ।।

शब्द सम्भाले बोलियेे, शब्द खीँचते ध्यान ।
शब्द मन घायल करे, शब्द बढाते मान ।।

शब्द मुँह से छूट गया, शब्द न वापस आय ।
शब्द जो हो प्यार भरा, शब्द ही मन मेँ समाएँ ।।

शब्द मेँ है भाव रंग का, शब्द है मान महान ।
शब्द जीवन रुप है, शब्द ही दुनिया जहान ।।

शब्द ही कटुता रोप देँ, शब्द ही बैर हटाएं ।
शब्द जोङ देँ टूटे मन, शब्द ही प्यार बढाएं ।।


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महात्मा विदुर:- (1) मनुष्य मन, वाणी और कर्म से जिसका निरंतर चिंतन और उपयोग करता है कार्य उसे अपनी...

महात्मा विदुर:-
(1)

मनुष्य मन, वाणी और कर्म से जिसका निरंतर चिंतन और उपयोग करता है कार्य उसे अपनी ओर खींच लेता है। इसलिये सदा ही कल्याण करने वाले विचार और कार्य करें।
(2)
संपूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव रखना, किसी गुणवान के दोष न देखना, क्षमाभाव, धैर्य और मित्रों का अपमान न करने जैसे गुणों का धारण करने से आयु बढ़ती है।

(3)
इंद्रियों को रोक पाना तो मृत्यु से भी अधिक कठिन है और उन्हें अनियंत्रित होने देना तो अपने पुण्य और देवताओं का नाश करना है।

(4)
जो अपने संभावित दुःख को का प्रतिकार करने का उपाय जानता है और वर्तमान में अपने कर्तव्य के पालने में दृढ़ निश्चय रखने वाला है और जो भूतकाल में शेष रह गये कार्य को याद रखता है वह मनुष्य कभी भी आर्थिक दृष्टि से गरीब नहीं रह सकता।

(5)

जो शक्तिहीन है वह तो सबके प्रति क्षमा का भाव अपनाये। जो शक्तिशाली है वही धर्म के लिए क्षमा करे तथा जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनों ही समान है उसके लिये तो क्षमा सदा ही हितकारिणी है।


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कर्ण ने कृष्ण से पूछा - मेरा जन्म होते ही मेरी माँ ने मुझे त्यज दिया। क्या अवैध संतान होना मेरा दोष...

कर्ण ने कृष्ण से पूछा - मेरा जन्म होते ही मेरी माँ ने मुझे त्यज दिया। क्या अवैध संतान होना मेरा दोष था ?
द्रोणाचार्य ने मुझे सिखाया नहीं क्योंकि मैं क्षत्रिय पुत्र नहीं था।
परशुराम जी ने मुझे सिखाया तो सही परंतु श्राप दे दिया कि जिस वक्त मुझे उस विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, मुझे उसका विस्मरण होगा।- क्योंकि उनके अनुसार मैं क्षत्रिय ही था ।
केवल संयोगवश एक गाय को मेरा बाण लगा और उसके स्वामी ने मुझे श्राप दिया जबकि मेरा कोई दोष नहीं था ।
द्रौपदी स्वयंवर में मेरा अपमान किया गया ।
माता कुंती ने मुझे आखिर में मेरा जन्म रहस्य बताया भी तो अपने अन्य बेटों को बचाने के लिए।
जो भी मुझे प्राप्त हुआ है, दुर्योधन के दातृत्व से ही हुआ है ।
तो, अगर मैं उसकी तरफ से लड़ूँ तो मैं गलत कहाँ हूँ ?
कृष्ण ने उत्तर दिया:
कर्ण, मेरा जन्म कारागार में हुआ ।
जन्म से पहले ही मृत्यु मेरी प्रतीक्षा में घात लगाए बैठा था।
जिस रात मेरा जन्म हुआ, उसी रात मातापिता से दूर किया गया ।
तुम्हारा बचपन खड्ग, रथ, घोड़े, धनुष्य और बाण के बीच उनकी ध्वनि सुनते बीता । मुझे ग्वाले की गौशाला मिली, गोबर मिला और खड़ा होकर चल भी पाया उसके पहले ही कई प्राणघातक हमले झेलने पड़े ।
कोई सेना नहीं, कोई शिक्षा नहीं। लोगों से ताने ही मिले कि उनकी समस्याओं का कारण मैं हूँ। तुम्हारे गुरु जब तुम्हारे शौर्य की तारीफ कर रहे थे, मुझे उस उम्र में कोई शिक्षा भी नहीं मिली थी। जब मैं सोलह वर्षों का हुआ तब कहीं जाकर ऋषि सांदीपन के गुरुकुल पहुंचा ।
तुम अपनी पसंद की कन्या से विवाह कर सके ।
जिस कन्या से मैंने प्रेम किया वो मुझे नहीं मिली और उनसे विवाह करने पड़े जिन्हें मेरी चाहत थी या जिनको मैंने राक्षसों से बचाया था ।
मेरे पूरे समाज को यमुना के किनारे से हटाकर एक दूर समुद्र के किनारे बसाना पड़ा, उन्हें जरासंध से बचाने के लिए । रण से पलायन के कारण मुझे भीरु भी कहा गया ।
कल अगर दुर्योधन युद्ध जीतता है तो तुम्हें बहुत श्रेय मिलेगा ।
धर्मराज अगर जीतता है तो मुझे क्या मिलेगा ?
मुझे केवल युद्ध और युद्ध से निर्माण हुई समस्याओं के लिए दोष दिया जाएगा।
एक बात का स्मरण रहे कर्ण -
हर किसी को जिंदगी चुनौतियाँ देती है, जिंदगी किसी के भी साथ न्याय नहीं करती। दुर्योधन ने अन्याय का सामना किया है तो युधिष्ठिर ने भी अन्याय भुगता है ।
लेकिन सत्य धर्म क्या है यह तुम जानते हो ।
कोई बात नहीं अगर कितना ही अपमान हो, जो हमारा अधिकार है वो हमें ना मिल पाये…महत्व इस बात का है कि तुम उस समय उस संकट का सामना कैसे करते हो ।
रोना धोना बंद करो कर्ण, जिंदगी न्याय नहीं करती इसका मतलब यह नहीं होता कि तुम्हें अधर्म के पथ पर चलने की अनुमति है ।
कृष्ण से हमे बहुत कुछ सीखना है।
।। कमलेश देसाई।।


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विश्व योग दिवस पर विशेष… ● महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की दृष्टि में - योग...

विश्व योग दिवस पर विशेष…

● महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की दृष्टि में - योग ●
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[नोट - आर्य समाज के प्रवर्त्तक महान् योगी स्वामी दयानन्द जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के सप्तम समुल्लास में वेद तथा योगदर्शन आदि शास्त्रों में वर्णित वैदिक योग पद्धति के सच्चे स्वरूप का संक्षेप में वर्णन किया है । आज ‘विश्व योग दिवस’ पर सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित उनके निम्नलिखित योग विषयक विचारों को यहां उद्धृत किया जाता है – भावेश मेरजा]

‘उपासना’ शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है । अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उसको सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी रूप से प्रत्यक्ष [करने] के लिये जो-जो काम करना होता है वह-वह सब करना चाहिये । अर्थात् -

तत्राऽहिंसासत्याऽस्तेयब्रह्मचर्याऽपरिग्रहा यमाः॥

इत्यादि सूत्र पातञ्जल योगशास्त्र के हैं ।

जो उपासना का आरम्भ करना चाहें उसके लिये यही आरम्भ है कि –

वह किसी से वैर न रक्खे, सर्वदा सब से प्रीति करे । सत्य बोले । मिथ्या कभी न बोले । चोरी न करे । सत्य व्यवहार करे । जितेन्द्रिय हो । लम्पट न हो और निरभिमानी हो । अभिमान कभी न करे । ये पांच प्रकार के यम मिल के उपासना-योग का प्रथम अंग है ।

शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥ योग सू॰॥

राग द्वेष छोड़ भीतर और जलादि से बाहर पवित्र रहे । धर्म से पुरुषार्थ करने से लाभ में न प्रसन्नता और हानि में न अप्रसन्नता करे । प्रसन्न होकर आलस्य छोड़ सदा पुरुषार्थ किया करे । सदा दुःख सुखों का सहन और धर्म ही का अनुष्ठान करे, अधर्म का नहीं । सर्वदा सत्य शास्त्रों को पढ़े पढ़ावे । सत्पुरुषों का संग करे और ‘ओ३म्’ इस एक परमात्मा के नाम का अर्थ विचार करे नित्यप्रति जप किया करे । अपने आत्मा को परमेश्वर की आज्ञानुकूल समर्पित कर देवे । इन पांच प्रकार के नियमों को मिला के उपासना योग का दूसरा अंग कहाता है ।

इसके आगे छः अंग योगशास्त्र वा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में देख लेवें ।

जब उपासना करना चाहें तब एकान्त शुद्ध देश में जाकर, आसन लगा, प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभि प्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो कर संयमी होवें ।

जब इन साधनों को करता है तब उस का आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है । नित्यप्रति ज्ञान विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुंच जाता है ।

जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है ।

वहां सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी सगुण और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान, अति सूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित हो जाना निर्गुणोपासना कहाती है ।

इस का फल – जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं, इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये ।

इस से इस का फल पृथक् होगा परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सब को सहन कर सकेगा । क्या यह छोटी बात है ?

और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है । क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे हैं, उस का गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है ।
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“तन आत्म ब्रह्म युजन है योग” ”युज“ धातु का अर्थ है युजन या अटूट जोड़ । इससे योग शब्द बनता है । स्पष्ट...

“तन आत्म ब्रह्म युजन है योग”

”युज“ धातु का अर्थ है युजन या अटूट जोड़ । इससे योग शब्द बनता है । स्पष्ट है जहां युजन नहीं है वहां योग नहीं है । आज के युग के अधिकांश प्रचलित योग युजन नहीं तोड़ है । मूल ”योग“ अर्थ के ये हत्यारे हैं । ”मैं आत्मा हूँ“ योग नहीं है कि इसमें आत्मा का तन से ब्रह्म से टूटन है । ”मैं ब्रह्म हूँ“ भी योग नहीं है कि इसमें तन, आत्मा से टूटन है जो लिखने कहने की अवस्था में असंभव है, योग शब्द योग की सच्ची कसौटी है । ”चिन्तनहीन रह जाना“ योग की संपूर्ण अभाव है । अभाव योग हो ही नहीं सकता। योग का अर्थ ही सकारात्मक है । तन आत्म ब्रह्म सकारात्मक संबंध योग है । जहां तन नहीं है वहाँ मृत्यु है । योग कहाँ है । यदि मृत्यु नहीं है तो मोक्ष है अर्थात् बंधनहीनता है तो उलट योग है योग कहा हैं ? योग बड़ी ऊँची सकारात्मक व्यवहार स्थिति है । तन आत्म ब्रहम युजन है योग, समन्वयीभूत समग्र है योग।

योग निश्चितः ”अयोग“ नहीं है । यह अर्थयोग भी नहीं है, यह कसरत नहीं है, प्राणायाम नहीं है, आसन क्रम नहीं है, एकाग्रता नहीं है, धारणा नहीं है, ध्यान नहीं है, समाधि नहीं है, योग टुकड़ा है ही नहीं। ये सब टुकड़े होने से चित्त की वृत्तियाँ हो जायेंगी । वृत्ति निरोध के साथ साथ स्वस्वरूप स्थिति योग है । समग्र सहज युजन सिद्धि योग है । अति आत्म साधना योग है ।

इस योग का अति आत्मा साधना का एक प्रारूप इस प्रकार है:

(1) स्थिर सुख्म आसनम
(2) स्व आकलन
(3) सलोडम या सओडम
(4) विलोडम या विओडम
(5) नाड़ी शोधक सओडम
(6) नाड़ी शोधक विओडम
(7) आरोह इमम सुखम रथम

1. तन सुतन सतापूर्त
2. कर्मेन्द्रिया सुकर्मेन्द्रियां सुपथ
3. ज्ञानेन्द्रियां सुानेन्द्रियां सुथमा सुनियमा
4. मना सुमना शिदंकल्पम
5. प्रज्ञा सुप्रज्ञा ऋतंभरा
6. मेधा सुमेधा श्रृतंभरा
7. बोधा सुबोधा सत्यंभरा
8. गुहा सुगुहा अथंभरा
9. अंतसा अतंतस स्वंभरा
10. चैतन्य आत्मा सुआत्मा अति आत्म भरा
11. अति आत्म
12. अति आत्मतर
13. अति आत्म जय
14. अगाओ
अगाओ, अगाओ, अगाओ……………..(कम से कम इक्कीस मिनट तक)
(7) क्रम संख्या (14) से (1) तक दुहरायें

फिर क्रमशः (6), (5), (4), (3), (2), (1),

साधना के हर चरण हर उपचरण पश्चात तनिक समय चरण अर्थ पर विचार करना है ।

यह समन्वीभूत समग्र योग का एक क्रम है । साधनावस्था विचार कार्य बीज होता है । यह विचार क्रमशः सहज धीमी सशक्त गति मानव के जीवन कर्मों में उर्ध्व गति परिवर्तन करता है । स्व स्वास्थ्य संस्थान - अनाहत संस्थान - क्रमशः सशक्त करता है, सशक्त करता है, समन्वयीभूत समग्र योग मानव संपूर्णीकरण करता है ।

”युज“ धातु का अर्थ है ”सुबंध“ जिस योग में तन, कर्मेन्द्रियां, ज्ञानेन्द्रियां, मन, प्रज्ञा, मेधा, बोधा, गुहा, अंतसा, आत्म, अति आत्म ”सुबन्ध“ है । वह योग है, सुबन्धता योग की वैज्ञानिकता है । योग ”सुबन्धीकरण“ की श्रेष्ठ प्रक्रिया है । ”अति आत्म“ विश्वमात्मा है जो विश्वपार सुपार अतिपार है । इसका गुणात्मक स्वरूप अति आत्म, अति आत्मतर, अति आत्मतम है । अति आत्मतम समन्वय को उच्चतम सुक्ष्मतम अवस्था है । तन से अति आत्म तक की कड़ियों में एक सुसम्बन्ध है ।

योग का एक आधारभूत शब्द शांति है । अंर्तसंबंधित स्तरों में तन स्तर से आत्म स्तर का सूक्ष्म संबंध है । संधियां क्रमिक हैं । इन अर्न्तसंबंधों एवं संधियों के परिवर्तनों में स्धैर्य और संतुलन होना चाहिए । प्रारंभिक साधक प्रायः संधियों पर स्धैर्य और संतुलन न सिद्ध कर सकने के कारण साधना संधियों पर अटक जाते हैं । कभी ठहरने लग जाते हैं कभी भटक जाते हैं । संपूर्ण योग साधना में शांति धारणा अर्थात स्धैर्य एवं संतुलन आवश्यक है । समन्वयीभूत योग दिवस दिवस व लाभप्रद है । यह जीवन व्यवहारों को भी स्धैर्य एवं संतुलन देता है । इससे क्रोध, आवेग, उत्तेजनापूर्ण व्यवहारों का शमन होता है व्यक्ति का चिन्तन तथा कार्य सुचिन्तित तथा आयोजनमय होते हैं । योग का स्वरूप वैज्ञानिक होने के कारण यह जीवन को भी वैज्ञानिक विधि सम्मत करता है । सहजतः विज्ञान जीवन दृष्टिकोण जीवन को सफल समृद्ध करता है ।

शरीर में तीन क्रियायें स्पष्ट हैं एक स्वैच्छिक चालन, दो स्वचालन तीन अचानक चालन । इसके पश्चात अचालन क्षेत्र है । स्वैच्छिक चालन में हाथ, पैर, जबान, अर्ध स्वैच्छिक चालन में वायु, उपायु, आंख, कान, नाकादि, स्वचालन में पलक झपकाना, श्वास प्रश्वास, हृदय धड़कनादि आते हैं । चालन में सहज सहता क्रियायें, पलक पर कुछ गिरते उसका झपना, कांटे आग पर पैर पड़ते खींचना आदि हैं । इसके पश्चात व्यापक अचालन क्षेत्र हैं । ये क्षेत्र भी आपस में अर्न्तसंबंधित हैं । इनमें भी संधियां, उपसंधियां हैं । समन्वीभूत योग या असमन्वीभूत योग इन समस्त संधियों उपसंधियों तथा अर्न्तसंबंधों को भी शांतिमय अर्थात स्धैर्य और संतुलन से पूर्ण कर देता है ।

भारतीय सांस्कृतिक मनोविज्ञान के सशक्तिकरण के सिद्धान्त स्पष्ट हैं । पाश्चात्य चेतन, स्वप्न अवचेतन, कामभाव, इगो मानव की अस्पष्ट धारणाओं की अपेक्षा समन्वयीभूत योग साधना प्रारूप की अवधारणाओं में निश्चित वैज्ञानिक क्रमबद्धता का सूक्ष्म धरातल है । यह स्वस्थ भौतिकी, तन कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ मना, प्रज्ञा, मेधा, बोधा, गुहा, अंतसा, आत्मा (चैतन्या) के क्रमशः सत, सुपथ, सुनियम, सुभ संकल्प, ऋत श्रृत, सत्य, अर्थ, स्व, अति आत्म गुण भाव भी देता है । भारतीय दर्शन में जागृत स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय, तुरीयातीत अवस्थायें तथा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय कोष सुस्पष्ट हैं तथा इनका और वैज्ञानिक स्तरीकरण भी स्पष्ट संभव हे । दुखद तथ्य यह है कि भारत उपलब्ध वैज्ञानिक तत्वों का अवैज्ञानिक प्रयोग करता है जबकि पाश्चात्य अवैज्ञानिक तत्वों का भी वैज्ञानिक प्रयोग करता है ।

स्नायुमंडलीय विज्ञान यह तथ्य ढूंढ चुका है कि मानव स्नायुमंडल में स्वैच्छिक एवं सहजिक दो प्रकार की तंत्रिकाएं हैं । उसे इस तथ्य का भी आभास हो चुका है कि कहीं गहन हड्डी मज्जा में स्वस्वास्थ्य संस्था कार्यरत है । भारतीय संस्कृति इसे अनाहत केन्द्र कहती है । अष्टचक्र योग अनाहत केन्द्र और स्वैच्छिक एवं सहजिक स्नायु मंडलों के साथ संपूर्ण व्यवस्था के सुकरण का समन्वयीभूत योग है ।

समन्वयीभूत योग चेतना का वैज्ञानिक सूक्ष्मीकरण अर्थात विस्तृतीकरण है । इसके पश्चात उसका अस्तित्व में अवतरणीकरण है । पूरी की पूरी प्रक्रिया सुस्तरीकृत होने से सहज अभ्यासगम्य है और वैज्ञानिक विधि सहमत होने से विज्ञान है । अतः हर एक के लिए समान लाभ प्रद है । विस्तृतीकृत चेतना का अवतरीकरण एक अति महत्वपूर्ण सुसंगतिकरण प्रक्रिया है । यह स्नायुमंडल के विभिन्न स्तरों इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा, मना, प्रज्ञा, मेधा, बोधा, गुहा, अंतसा, चैतन्या के ताने बाने का तन्वम है । इसके साथ ही साथ यह शरीर के कोषिका समूह जैनेटिक कोड समूह, आयनिक समूह, आण्विक समूह, एन्जाइम समूह, अल्प महासत्वीय, गुरुत्वान, चुम्बकान, विद्युतान, ज्योतान, (फोटाम सूक्ष्म) समूहों का भी परिमार्जन सिद्धि तथा खान पान व्यवहार ज्ञान के अनुरूप करता है । एक पंक्ति में कहा जाये तो समन्वयीभूत योग का क्षेत्र अति आवश्यक है । यह मानव है सर्वागणीय विकास का आधारभूत तथ्य है ।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन - वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)


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Tuesday, June 20, 2017

जीवन में गुरु का बडा महत्व है परन्तु गुरु यदि आत्मा परमात्मा की सत्ता से इन्कार करे,यज्ञ योग वेद की...

जीवन में गुरु का बडा महत्व है परन्तु गुरु यदि आत्मा परमात्मा की सत्ता से इन्कार करे,यज्ञ योग वेद की निन्दा करे,संयम सदाचार की शिक्षा न दे,कान में मंत्र फूके,किसी मनघडंत मंत्र की दीक्षा देकर उसको गुप्त रखने को कहे,अपने चरण धोकर उसे चरणामृत समझ पीने को कहे,जीव को परमात्मा का अंश माने, परमात्मा को साकार कहे,परमात्मा का अवतार माने, ओम् जप की महिमा न बताये ..तो समझ लेना वह गुरु नहीं गुरु घंटाल है। मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद : ( शतपथ) अर्थात जब तीन वेदानुकूल उत्तम गुरु हों तब ही मनुष्य सही अर्थों में मनुष्य बनता है, सही अर्थों में ज्ञानवान, चरित्रवान, संकल्पपवान धार्मिक व ईश्वर भक्त बनता है । आज लाखों गुरुघंटाल लाखों चेले चेलियां मूंड कर अपने अपने मत सम्मप्रदाय व आश्रम बना कर बैठे हैं । ये सब मायाजाल महाभारत युद्धोपरान्त गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पतन का ही परिणाम है जो नित नये मत सम्प्रदाय व भगवान खडे हो रहे हैं । ऐसे भी मत हैं जो पांच मकार अर्थात मद्य मांस मीन मुद्रा मैथुन को अपनाने में मुक्ति मानते हैं, ऐसे भी मत हैं जो पांच ककार अर्थात केश कंघा कृपाण कच्छा और कडा धारण करने मेंं ही मुक्ति मानते हैं, ऐसे भी मत हैं जो देवी देवताओं को बलि देने व गंगा स्नान में मुक्ति मानते हैं,ऐसे भी मत हैं जो ईसा मसीह,यीशू यहोवा,मुहम्मद, राम,कृष्ण,शिव,कबीर, नानक व अपने अपने गुरुओं को ही परमात्मा मान कर पूजने में मुक्ति मानते हैं, ऐसे भी मत हैं जो चुपचाप बैठे रहने को ही ध्यान समाधि परमज्ञान व मुक्ति का मार्ग बताते हैं !! करोडों ऋषि मुनियों व वेद का तो एक ही उपदेश है- ईश्वर एक है,धर्म एक है,धर्म ग्रन्थ एक है । जब तक विश्व में भिन्न भिन्न मत मतान्तरों का विरुद्धावाद विरोधाभास व लडाई झगडा समाप्त नहीं होगा विश्व में एकता व शान्ति नहीं हो सकती ।
…डा मुमुक्षु आर्य


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1• वेद क्या हैं ? =========== मंत्र-संहिताओं का नाम वेद है। इनको श्रुति भी कहते हैं। वेद शब्द...

1• वेद क्या हैं ?
===========
मंत्र-संहिताओं का नाम वेद है। इनको श्रुति भी कहते हैं। वेद शब्द संस्कृत के विद् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है ज्ञान। अतः वेद शास्वत ज्ञान की पुस्तकें हैं।

2• वेद की प्रमाणिकता को लगभग
सभी क्यों स्वीकार करते हैं….?
======================
आज हिंदू समाज में जो भी धर्म ग्रंथ मिलते हैं, उन सबका आदि-स्त्रोत वेद हीं है। ऐसा सभी ग्रंथ मानते भी हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने स्पष्ट कहा है कि चारों वेद ईश्वरीय होने के कारण स्वतःप्रमाण हैं परन्तु यदि अन्य ग्रन्थों के विचार भी वेदानुकूल हो तो उनके उस भाग को परतः प्रमाण माना जाए।

मनुस्मृति में कहा है, “ वेदोऽखिलो धर्ममूलम ” “ धर्म जिज्ञामानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः”( मनुस्मृति 2.13 ) यानी वेद धर्म का मूल है एवं धर्म के जिज्ञासुओं को वेद को ही प्रमाणिक मानना चाहिए।

वेद और सभी दर्शन वेदवाक्यों को ही प्रमाणिक मानते हैं। श्रुति प्रामाण्याच्च ( न्याय 3.1.32 ), श्रुत्या सिद्धस्य नापलापः ( सांख्ख 2.47 ),

महाभारत में वेदप्रमाणविहितं धर्म च ब्रवीमि ( शान्ति पर्व 24.18 ), वेदाः प्रमाणं लोकानाम् ( शान्ति पर्व 260.9 ) “ लोकों के लिए वेद ही प्रामाणिक है; वेद-प्रमाणित धर्म ही कह रहा हूँ ” आदि।

बृहस्पति एवं जाबाल ऋषि कहते हैं कि स्मृति और वेद में मतभेद होने पर वेद को ही प्रमाणिक माना जाए। अतः वेद और वेदानुकूल विचार ही प्रामाणिक हैं, ऐसा सभी आचार्य मानते हैं।

3• वेद अध्ययन का अधिकार किसको हैं ?
===========================
प्रत्येक मनुष्यमात्र को वेद पढ़ने एवं आचरण करने का पूर्ण अधिकार है। ऐसा अधिकार स्वयं वेद ने ही दिया है :-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय स्वाय चारणाय।। ( यजुर्वेद 26.2 )

“ हे मनुष्यों ! मैं ईश्वर जैसै ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्री, सेवक आदि और उत्तम लक्षणयुक्य प्राप्त अन्त्यज के लिए वेदरूप वाणी का उपदेश करता हूँ, वैसे आप लोग भी अच्छी प्रकार उपदेश करो।
========================= ” आर्यावर्ती “ ===


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