Wednesday, June 21, 2017

“तन आत्म ब्रह्म युजन है योग” ”युज“ धातु का अर्थ है युजन या अटूट जोड़ । इससे योग शब्द बनता है । स्पष्ट...

“तन आत्म ब्रह्म युजन है योग”

”युज“ धातु का अर्थ है युजन या अटूट जोड़ । इससे योग शब्द बनता है । स्पष्ट है जहां युजन नहीं है वहां योग नहीं है । आज के युग के अधिकांश प्रचलित योग युजन नहीं तोड़ है । मूल ”योग“ अर्थ के ये हत्यारे हैं । ”मैं आत्मा हूँ“ योग नहीं है कि इसमें आत्मा का तन से ब्रह्म से टूटन है । ”मैं ब्रह्म हूँ“ भी योग नहीं है कि इसमें तन, आत्मा से टूटन है जो लिखने कहने की अवस्था में असंभव है, योग शब्द योग की सच्ची कसौटी है । ”चिन्तनहीन रह जाना“ योग की संपूर्ण अभाव है । अभाव योग हो ही नहीं सकता। योग का अर्थ ही सकारात्मक है । तन आत्म ब्रह्म सकारात्मक संबंध योग है । जहां तन नहीं है वहाँ मृत्यु है । योग कहाँ है । यदि मृत्यु नहीं है तो मोक्ष है अर्थात् बंधनहीनता है तो उलट योग है योग कहा हैं ? योग बड़ी ऊँची सकारात्मक व्यवहार स्थिति है । तन आत्म ब्रहम युजन है योग, समन्वयीभूत समग्र है योग।

योग निश्चितः ”अयोग“ नहीं है । यह अर्थयोग भी नहीं है, यह कसरत नहीं है, प्राणायाम नहीं है, आसन क्रम नहीं है, एकाग्रता नहीं है, धारणा नहीं है, ध्यान नहीं है, समाधि नहीं है, योग टुकड़ा है ही नहीं। ये सब टुकड़े होने से चित्त की वृत्तियाँ हो जायेंगी । वृत्ति निरोध के साथ साथ स्वस्वरूप स्थिति योग है । समग्र सहज युजन सिद्धि योग है । अति आत्म साधना योग है ।

इस योग का अति आत्मा साधना का एक प्रारूप इस प्रकार है:

(1) स्थिर सुख्म आसनम
(2) स्व आकलन
(3) सलोडम या सओडम
(4) विलोडम या विओडम
(5) नाड़ी शोधक सओडम
(6) नाड़ी शोधक विओडम
(7) आरोह इमम सुखम रथम

1. तन सुतन सतापूर्त
2. कर्मेन्द्रिया सुकर्मेन्द्रियां सुपथ
3. ज्ञानेन्द्रियां सुानेन्द्रियां सुथमा सुनियमा
4. मना सुमना शिदंकल्पम
5. प्रज्ञा सुप्रज्ञा ऋतंभरा
6. मेधा सुमेधा श्रृतंभरा
7. बोधा सुबोधा सत्यंभरा
8. गुहा सुगुहा अथंभरा
9. अंतसा अतंतस स्वंभरा
10. चैतन्य आत्मा सुआत्मा अति आत्म भरा
11. अति आत्म
12. अति आत्मतर
13. अति आत्म जय
14. अगाओ
अगाओ, अगाओ, अगाओ……………..(कम से कम इक्कीस मिनट तक)
(7) क्रम संख्या (14) से (1) तक दुहरायें

फिर क्रमशः (6), (5), (4), (3), (2), (1),

साधना के हर चरण हर उपचरण पश्चात तनिक समय चरण अर्थ पर विचार करना है ।

यह समन्वीभूत समग्र योग का एक क्रम है । साधनावस्था विचार कार्य बीज होता है । यह विचार क्रमशः सहज धीमी सशक्त गति मानव के जीवन कर्मों में उर्ध्व गति परिवर्तन करता है । स्व स्वास्थ्य संस्थान - अनाहत संस्थान - क्रमशः सशक्त करता है, सशक्त करता है, समन्वयीभूत समग्र योग मानव संपूर्णीकरण करता है ।

”युज“ धातु का अर्थ है ”सुबंध“ जिस योग में तन, कर्मेन्द्रियां, ज्ञानेन्द्रियां, मन, प्रज्ञा, मेधा, बोधा, गुहा, अंतसा, आत्म, अति आत्म ”सुबन्ध“ है । वह योग है, सुबन्धता योग की वैज्ञानिकता है । योग ”सुबन्धीकरण“ की श्रेष्ठ प्रक्रिया है । ”अति आत्म“ विश्वमात्मा है जो विश्वपार सुपार अतिपार है । इसका गुणात्मक स्वरूप अति आत्म, अति आत्मतर, अति आत्मतम है । अति आत्मतम समन्वय को उच्चतम सुक्ष्मतम अवस्था है । तन से अति आत्म तक की कड़ियों में एक सुसम्बन्ध है ।

योग का एक आधारभूत शब्द शांति है । अंर्तसंबंधित स्तरों में तन स्तर से आत्म स्तर का सूक्ष्म संबंध है । संधियां क्रमिक हैं । इन अर्न्तसंबंधों एवं संधियों के परिवर्तनों में स्धैर्य और संतुलन होना चाहिए । प्रारंभिक साधक प्रायः संधियों पर स्धैर्य और संतुलन न सिद्ध कर सकने के कारण साधना संधियों पर अटक जाते हैं । कभी ठहरने लग जाते हैं कभी भटक जाते हैं । संपूर्ण योग साधना में शांति धारणा अर्थात स्धैर्य एवं संतुलन आवश्यक है । समन्वयीभूत योग दिवस दिवस व लाभप्रद है । यह जीवन व्यवहारों को भी स्धैर्य एवं संतुलन देता है । इससे क्रोध, आवेग, उत्तेजनापूर्ण व्यवहारों का शमन होता है व्यक्ति का चिन्तन तथा कार्य सुचिन्तित तथा आयोजनमय होते हैं । योग का स्वरूप वैज्ञानिक होने के कारण यह जीवन को भी वैज्ञानिक विधि सम्मत करता है । सहजतः विज्ञान जीवन दृष्टिकोण जीवन को सफल समृद्ध करता है ।

शरीर में तीन क्रियायें स्पष्ट हैं एक स्वैच्छिक चालन, दो स्वचालन तीन अचानक चालन । इसके पश्चात अचालन क्षेत्र है । स्वैच्छिक चालन में हाथ, पैर, जबान, अर्ध स्वैच्छिक चालन में वायु, उपायु, आंख, कान, नाकादि, स्वचालन में पलक झपकाना, श्वास प्रश्वास, हृदय धड़कनादि आते हैं । चालन में सहज सहता क्रियायें, पलक पर कुछ गिरते उसका झपना, कांटे आग पर पैर पड़ते खींचना आदि हैं । इसके पश्चात व्यापक अचालन क्षेत्र हैं । ये क्षेत्र भी आपस में अर्न्तसंबंधित हैं । इनमें भी संधियां, उपसंधियां हैं । समन्वीभूत योग या असमन्वीभूत योग इन समस्त संधियों उपसंधियों तथा अर्न्तसंबंधों को भी शांतिमय अर्थात स्धैर्य और संतुलन से पूर्ण कर देता है ।

भारतीय सांस्कृतिक मनोविज्ञान के सशक्तिकरण के सिद्धान्त स्पष्ट हैं । पाश्चात्य चेतन, स्वप्न अवचेतन, कामभाव, इगो मानव की अस्पष्ट धारणाओं की अपेक्षा समन्वयीभूत योग साधना प्रारूप की अवधारणाओं में निश्चित वैज्ञानिक क्रमबद्धता का सूक्ष्म धरातल है । यह स्वस्थ भौतिकी, तन कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ मना, प्रज्ञा, मेधा, बोधा, गुहा, अंतसा, आत्मा (चैतन्या) के क्रमशः सत, सुपथ, सुनियम, सुभ संकल्प, ऋत श्रृत, सत्य, अर्थ, स्व, अति आत्म गुण भाव भी देता है । भारतीय दर्शन में जागृत स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय, तुरीयातीत अवस्थायें तथा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय कोष सुस्पष्ट हैं तथा इनका और वैज्ञानिक स्तरीकरण भी स्पष्ट संभव हे । दुखद तथ्य यह है कि भारत उपलब्ध वैज्ञानिक तत्वों का अवैज्ञानिक प्रयोग करता है जबकि पाश्चात्य अवैज्ञानिक तत्वों का भी वैज्ञानिक प्रयोग करता है ।

स्नायुमंडलीय विज्ञान यह तथ्य ढूंढ चुका है कि मानव स्नायुमंडल में स्वैच्छिक एवं सहजिक दो प्रकार की तंत्रिकाएं हैं । उसे इस तथ्य का भी आभास हो चुका है कि कहीं गहन हड्डी मज्जा में स्वस्वास्थ्य संस्था कार्यरत है । भारतीय संस्कृति इसे अनाहत केन्द्र कहती है । अष्टचक्र योग अनाहत केन्द्र और स्वैच्छिक एवं सहजिक स्नायु मंडलों के साथ संपूर्ण व्यवस्था के सुकरण का समन्वयीभूत योग है ।

समन्वयीभूत योग चेतना का वैज्ञानिक सूक्ष्मीकरण अर्थात विस्तृतीकरण है । इसके पश्चात उसका अस्तित्व में अवतरणीकरण है । पूरी की पूरी प्रक्रिया सुस्तरीकृत होने से सहज अभ्यासगम्य है और वैज्ञानिक विधि सहमत होने से विज्ञान है । अतः हर एक के लिए समान लाभ प्रद है । विस्तृतीकृत चेतना का अवतरीकरण एक अति महत्वपूर्ण सुसंगतिकरण प्रक्रिया है । यह स्नायुमंडल के विभिन्न स्तरों इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा, मना, प्रज्ञा, मेधा, बोधा, गुहा, अंतसा, चैतन्या के ताने बाने का तन्वम है । इसके साथ ही साथ यह शरीर के कोषिका समूह जैनेटिक कोड समूह, आयनिक समूह, आण्विक समूह, एन्जाइम समूह, अल्प महासत्वीय, गुरुत्वान, चुम्बकान, विद्युतान, ज्योतान, (फोटाम सूक्ष्म) समूहों का भी परिमार्जन सिद्धि तथा खान पान व्यवहार ज्ञान के अनुरूप करता है । एक पंक्ति में कहा जाये तो समन्वयीभूत योग का क्षेत्र अति आवश्यक है । यह मानव है सर्वागणीय विकास का आधारभूत तथ्य है ।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन - वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)


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