Wednesday, June 21, 2017

विश्व योग दिवस पर विशेष… ● महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की दृष्टि में - योग...

विश्व योग दिवस पर विशेष…

● महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की दृष्टि में - योग ●
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[नोट - आर्य समाज के प्रवर्त्तक महान् योगी स्वामी दयानन्द जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के सप्तम समुल्लास में वेद तथा योगदर्शन आदि शास्त्रों में वर्णित वैदिक योग पद्धति के सच्चे स्वरूप का संक्षेप में वर्णन किया है । आज ‘विश्व योग दिवस’ पर सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित उनके निम्नलिखित योग विषयक विचारों को यहां उद्धृत किया जाता है – भावेश मेरजा]

‘उपासना’ शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है । अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उसको सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी रूप से प्रत्यक्ष [करने] के लिये जो-जो काम करना होता है वह-वह सब करना चाहिये । अर्थात् -

तत्राऽहिंसासत्याऽस्तेयब्रह्मचर्याऽपरिग्रहा यमाः॥

इत्यादि सूत्र पातञ्जल योगशास्त्र के हैं ।

जो उपासना का आरम्भ करना चाहें उसके लिये यही आरम्भ है कि –

वह किसी से वैर न रक्खे, सर्वदा सब से प्रीति करे । सत्य बोले । मिथ्या कभी न बोले । चोरी न करे । सत्य व्यवहार करे । जितेन्द्रिय हो । लम्पट न हो और निरभिमानी हो । अभिमान कभी न करे । ये पांच प्रकार के यम मिल के उपासना-योग का प्रथम अंग है ।

शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥ योग सू॰॥

राग द्वेष छोड़ भीतर और जलादि से बाहर पवित्र रहे । धर्म से पुरुषार्थ करने से लाभ में न प्रसन्नता और हानि में न अप्रसन्नता करे । प्रसन्न होकर आलस्य छोड़ सदा पुरुषार्थ किया करे । सदा दुःख सुखों का सहन और धर्म ही का अनुष्ठान करे, अधर्म का नहीं । सर्वदा सत्य शास्त्रों को पढ़े पढ़ावे । सत्पुरुषों का संग करे और ‘ओ३म्’ इस एक परमात्मा के नाम का अर्थ विचार करे नित्यप्रति जप किया करे । अपने आत्मा को परमेश्वर की आज्ञानुकूल समर्पित कर देवे । इन पांच प्रकार के नियमों को मिला के उपासना योग का दूसरा अंग कहाता है ।

इसके आगे छः अंग योगशास्त्र वा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में देख लेवें ।

जब उपासना करना चाहें तब एकान्त शुद्ध देश में जाकर, आसन लगा, प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभि प्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो कर संयमी होवें ।

जब इन साधनों को करता है तब उस का आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है । नित्यप्रति ज्ञान विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुंच जाता है ।

जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है ।

वहां सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी सगुण और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान, अति सूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित हो जाना निर्गुणोपासना कहाती है ।

इस का फल – जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं, इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये ।

इस से इस का फल पृथक् होगा परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सब को सहन कर सकेगा । क्या यह छोटी बात है ?

और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है । क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे हैं, उस का गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है ।
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