Sunday, July 31, 2016

*पाँच महायज्ञ निम्नलिखित हैं*: १) *ब्रह्मयज्ञ (सन्ध्या)* २) *देवयज्ञ...

*पाँच महायज्ञ निम्नलिखित हैं*:
१) *ब्रह्मयज्ञ (सन्ध्या)*
२) *देवयज्ञ (हवन)*
३) *पितृयज्ञ*
४) *भूतयज्ञ (बलिवैश्वदेवयज्ञ)*
५) *नृयज्ञ (अतिथियज्ञ)*
*पञ्चमहायज्ञ का फल* यह है, की ज्ञान प्राप्ति से आत्मा की उन्नति और आरोग्यता होने से शरीर के सुख से व्यवहार और परमार्थ कार्यों की सिद्धि होना। उससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये सिद्ध होते हैं, इनको प्राप्त होकर मनुष्यों को सुखी होना उचित है। - (_पञ्चमहायज्ञविधि_)
न्यून से न्यून एक घण्टा ध्यान अवश्य करे। जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करें। - (_सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास_)
_सदा स्त्री-पुरुष १० दश बजे शयन और रात्रि के अन्तिम प्रहर अथवा ४ बजे उठके प्रथम ह्रदय में परमेश्वर का चिन्तन करके धर्म और अर्थ का विचार किया करें, और धर्म और अर्थ के अनुष्ठान वा उद्योग करने में यदि कभी पीडा भी हो, तथापि धर्मयुक्त पुरुषार्थ को कभी न छोडे, किन्तु सदा शरीर और आत्मा की रक्षा के लिए युक्त आहार-विहार, औषध-सेवन, सुपथ्य आदि से निरन्तर उद्योग करके व्यावहारिक और पारमार्थिक कर्त्तव्य कर्म की सिद्धि के लिए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना भी किया करें, की जिससे परमेश्वर की कृपादृष्टि और सहाय से महाकठिन कार्य भी सुगमता से सिद्ध हो सकें।_ इसके लिए निम्नलिखित मन्त्र हैं: - (*संस्कार-विधि*)
*प्रा॒तर॒ग्निं प्रा॒तरिन्द्रं॑ हवामहे प्रा॒तर्मि॒त्रावरु॑णा प्रा॒तर॒श्विना॑ । प्रा॒तर्भगं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॑ प्रा॒तः सोम॑मु॒त रु॒द्रं हु॑वेम ॥*
*प्रा॒त॒र्जितं॒ भग॑मु॒ग्रं हु॑वेम व॒यं पु॒त्रमदि॑ते॒र्यो वि॑ध॒र्ता । आ॒ध्रश्चि॒द्यं मन्य॑मानस्तु॒रश्चि॒द्राजा॑ चि॒द्यं भगं॑ भ॒क्षीत्याह॑ ॥*
*भग॒ प्रणे॑त॒र्भग॒ सत्य॑राधो॒ भगे॒मां धिय॒मुद॑वा॒ दद॑न्नः । भग॒ प्र णो॑ जनय॒ गोभि॒रश्वै॒र्भग॒ प्र नृभि॑र्नृ॒वन्त॑: स्याम ॥*
*उ॒तेदानीं॒ भग॑वन्तः स्यामो॒त प्र॑पि॒त्व उ॒त मध्ये॒ अह्ना॑म् । उ॒तोदि॑ता मघव॒न्त्सूर्य॑स्य व॒यं दे॒वानां॑ सुम॒तौ स्या॑म ॥*
*भग॑ ए॒व भग॑वाँ अस्तु देवा॒स्तेन॑ व॒यं भग॑वन्तः स्याम । तं त्वा॑ भग॒ सर्व॒ इज्जो॑हवीति॒ स नो॑ भग पुरए॒ता भ॑वे॒ह ॥*
- _ऋग्वेद मण्डल-७, सूक्त-४१, मन्त्र-१,२,३,४,५, यजुर्वेद अध्याय-३४, मन्त्र-३४, अथर्ववेद ३.१६.१_
*तत्पश्चात् शौच, दन्तधावन, मुखप्रक्षालन करके स्नान करें। पश्चात् एकान्त स्थान में जाकर योगाभ्यास की रीति से परमात्मा की उपासना कर सूर्योदय पर्यन्त घर आकर सन्ध्योपासना करें*।

प्रमाण:
*ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्। कायक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च ॥मनुस्मृति ४.९२॥*
रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात (सूर्योदय से ९६ मिनट पूर्व) से उठे। आवश्यक कार्य करके धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे। कभी अधर्म का आचरण न करे। क्योंकि—
*नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव। शनैरावर्त्तमानस्तु कर्त्तुर्मूलानि कृन्तति ॥मनुस्मृति ४.१७२॥*
किया हुआ अधर्म निष्फल कभी नहीं होता परन्तु जिस समय अधर्म करता है उसी समय फल भी नहीं होता। इसलिये अज्ञानी लोग अधर्म से नहीं डरते। तथापि निश्चय जानो कि वह अधर्माचरण धीरे-धीरे सुख के मूल को काटता चला जाता है।
*अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः*॥ - (मनुस्मृति २.१०४)
जङ्गल में अर्थात् एकान्त देश में जा सावधान हो के जल के समीप स्थित हो के नित्य कर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का उच्चारण अर्थज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल चलन को करे परन्तु यह जन्म से करना उत्तम है।


*सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ) के दो अर्थ होते हैं*:
१) (*सम + ध्या*) जिसमें सम्यक प्रकार से परमात्मा का ध्यान होता है।
२) (*सन्धि + आ*) जब रात से दिन की सन्धि होती है, और जब दिन से रात की सन्धि होती है, उस समय परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करना।
*सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ) इसके ३ अंग हैं*:
१) तप (वाह्यवृत्ति प्राणायाम)
२) स्वाध्याय (ध्यान, स्वयं के कार्यों का निरीक्षण)
३) ईश्वर-प्रणिधान (दृढनिष्ठापूर्वक परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना)
*सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ) के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकरण आते हैं*:
०) *मार्जन* – शिर और नेत्रादि पर जल प्रक्षेप (यदि आलस्य न हो तो न करना) – (पञ्चमहायज्ञविधि)
१) *न्यूनतम ३ वाह्यवृत्ति प्राणायाम “ओ३म्” के मानसिक जप सहित* – (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास)
०) गायत्री मन्त्र द्वारा शिखा बन्धन (यदि केश न गिरें तो न करना) – (पञ्चमहायज्ञविधि)
२) आचमन-मन्त्र
३) इन्द्रिय-स्पर्श
४) ईश्वरप्रार्थनापूर्वक मार्जन-मन्त्र
५) प्राणायाम-मन्त्र सहित न्यूनतम ३ वाह्यवृत्ति प्राणायाम (समन्त्रक प्राणायाम)
६) अघमर्षण-मन्त्र
७) मनसा-परिक्रमा मन्त्र
८) उपस्थान-मन्त्र
९) गुरुमन्त्र (गायत्री-मन्त्र)
१०) समर्पण और नमस्कार-मन्त्र
प्रथम वाह्य जलादि से स्थूल-शरीर की शुद्धि और राग-द्वेष आदि के त्याग से भीतर की शुद्धि करनी चाहिए, इस में प्रमाण—
*अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति*॥ - (मनुस्मृति ५.१०९)
अर्थात् जल से शरीर के बाहर के अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप अर्थात् सब प्रकार के कष्ट भी सह के धर्म ही के अनुष्ठान करने से जीवात्मा, ज्ञान अर्थात् पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि दृढ़ निश्चय पवित्र होता है। इस से स्नान भोजन के पूर्व अवश्य करना।
दूसरा प्राणायाम, इसमें प्रमाण—
*प्राणायामादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः*॥ — योगदर्शन २.२८
अर्थात् जब मनुष्य प्राणायाम करता है तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।
*दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां च यथा मलाः। तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्*॥ - (मनुस्मृति ६.७१)
अर्थात् जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं वैसे प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं।
*प्राणायाम की विधि*—
*प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य*। — योगदर्शन १.३४
अर्थात् “_जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न जल बाहर निकल जाता है वैसे प्राण को बल से बाहर फेंक के बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे_।“ जब बाहर निकालना चाहे तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच के वायु को बाहर फेंक दे। जब तक मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रक्खे तब तक प्राण बाहर रहता है। इसी प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है। जब घबराहट हो तब धीरे-धीरे भीतर वायु को ले के फिर भी वैसे ही करता जाय जितना सामर्थ्य और इच्छा हो और मन में (*ओ३म्*) इस का जप करता जाय इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है।
इस से मनुष्य शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर, बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा। स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे। भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने, चालने, बड़े छोटे से यथायोग्य व्यवहार करने का उपदेश करें।
‘*आचमन*’ उतने जल को हथेली में ले के उस के मूल और मध्यदेश में ओष्ठ लगा के करे कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदय तक पहुंचे, न उससे अधिक न न्यून। उसे कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृत्ति थोड़ी सी होती है। पश्चात् ‘*मार्जन*’ अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रादि अङ्गों पर जल छिड़के, उस से आलस्य दूर होता है जो आलस्य और जल प्राप्त न हो तो न करे।

*(प्रश्न) त्रिकाल सन्ध्या क्यों नहीं करना?*
(उत्तर) तीन समय में सन्धि नहीं होती। प्रकाश और अन्धकार की सन्धि भी सायं प्रातः दो ही वेला में होती है। जो इस को न मानकर मध्याह्नकाल में तीसरी सन्ध्या माने वह मध्यरात्रि में भी सन्ध्योपासन क्यों न करे? जो मध्यरात्रि में भी करना चाहै तो प्रहर-प्रहर घड़ी-घड़ी पल-पल और क्षण-क्षण की भी सन्धि होती है, उनमें भी सन्ध्योपासन किया करे। जो ऐसा भी करना चाहै तो हो ही नहीं सकता। और किसी शास्त्र का मध्याह्नसन्ध्या में प्रमाण भी नहीं। इसलिये दोनों कालों में सन्ध्या और अग्निहोत्र करना समुचित है, तीसरे काल में नहीं। और *जो तीन काल होते हैं वे भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान के भेद से हैं, सन्ध्योपासन के भेद से नहीं*। - (_सत्यार्थ प्रकाश_)


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