Wednesday, September 14, 2016

*आज* हिंदी है हम : भारत के माथे की बिंदी, हिन्दी *संस्कृत तथा हिन्दी की उपेक्षा राष्ट्रघातक...

*आज*
हिंदी है हम : भारत के माथे की बिंदी, हिन्दी

*संस्कृत तथा हिन्दी की उपेक्षा राष्ट्रघातक है*
हिन्दी को अपने ही घर में संघर्ष करना पड़ रहा है कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ राजनीतिक दलों ने इसको राजनीतिक मुद्दा बना दिया है और वे बिलकुल नहीं चाहते हैं कि पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक देश की जनता भाषायी दृष्टि से एकता के सूत्र में बंधे तथा भारत देश की हिन्दी भाषा को राजकीयभाषा, राजभाषा से बढ़कर राष्ट्रभाषा बनाया जा सके जो देश और देश की जनता का गौरव बन सके। यह भी एक दिलचस्प बात है कि जनता से वोट तो मांगे जाते हैं हिन्दी भाषा या अन्य भारतीय भाषाओं में लेकिन सरकार बनाने के बाद सत्तापक्ष शासन देश की भाषा में न करके अंग्रेजी भाषा की तरफदारी करते हैं जो अन्याय है। इसी प्रकार हिन्दी भाषा या अन्य भारतीय भाषाओं के कारण फिल्मी अभिनेताओं को सफलता व प्रसिद्घि मिलती है लेकिन वे इंटरव्यू अंग्रेजी भाषा में देते हैं, इससे वे क्या सिद्घ करना चाहते हैं? यदि इनको अंग्रेजी भाषा से इतना लगाव है तो उसी भाषा में फिल्म बनाएं फिर देखिए उनकी सफलता व प्रसिद्घि का ग्राफ क्या होता है यह तो वही कहावत चरितार्थ होती है कि खाएं हिन्दी की और गावें अंग्रेजी की। ठीक ऐसे ही देश के कुछ खिलाड़ी भी करते हैं। इन सभी को तो अपना साक्षात्कार हिन्दी भाषा में देने में गौरव महसूस करना चाहिए।

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए तीन प्रमुख बातें कही थीं-

*1. किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता है।
2. कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती है।
3. भारत के हित में, भारत को शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो आत्मां को पहचाने, जिसे आत्म विश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिन्दी अपनानी चाहिए*

वर्षों बाद शासन ने ली सुध
तत्पश्चात संविधान ने 14 सितंबर, 1949 को हिन्दी भाषा को संघ की राजभाषा (लिपि-देवनागरी एवं अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय) के रूप में स्वीकार किया था, इसलिए भारत देश में प्रतिवर्ष सितंबर महीने की 14 तारीख को ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है और विभिन्न शासकीय, अशासकीय कार्यालयांे, शिक्षा संस्थाओं इत्यादि में विविध संगोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रतियोगिताओं तथा अन्य कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। परंतु दु:ख इस बात का है कि ये सभी आयोजन केवल औपचारिकता मात्र बनते जा रहे हैं और जनता की गाढ़ी कमाई इस पर खर्च की जा रही है जो जनता के कल्यांण पर खर्च की जा सकती थी।

*हमें शुद्घ रूप से भारतीय होना चाहिए
हिन्दी भाषा के पक्ष में कई विद्वानों जैसे महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, रवीन्द्रनाथ टैगोर, भारतेंदु हरिश्चंद्र, स्वामी विवेकानंद इत्यादि ने अपने-अपने मत दिए हैं। फिर ऐसे कौन-से कारण हैं कि जिनकी वजह से आज राजभाषा हिन्दी की यह स्थिति हुई, इस पर चर्चा करने से पहले हम इस बात पर प्रकाश डालना चाहते हैं कि

आज किस प्रकार एक सोची-समझी रणनीति के तहत भारत देश में हिन्दी भाषा एवं अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति षड्यंत्र रचा जा रहा है। यदि हम विश्लेषण करें तो पाएंगे कि भारत देश में हिन्दी भाषा एवं अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाई कराने वाले विद्यालयों की संख्या में कमी आई है जबकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कराने वाले विद्यालयों की संख्या में इजाफा हुआ है ऐसा क्यों?

ध्यान होगा कि जब अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा का भारत में सबसे पहले समर्थन किया था तो अंग्रेजी पढ़ने वालों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की थी। आज भी प्रत्येक सरकारी नौकरी में अंग्रेजी विषय का अनिवार्य प्रश्नपत्र होता है जिसमें उत्तीर्ण होना आवश्यक है लेकिन हिन्दी विषय का अनिवार्य प्रश्नपत्र क्यों नहीं होता? सरकार की नीतियों के कारण एवं उच्चपदस्थ अधिकारियों पर सरकारी कामकाज में हिन्दी भाषा के कार्यान्वयन को लेकर सरकार का अंकुश न होने के कारण ऐसा घटित हो रहा है। सरकार की नीतियों के कारण ही दिन-प्रतिदिन अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कराने वाले विद्यालयों की संख्या में इजाफा हो रहा है। मेरा मानना है कि यदि किसी भी नौकरी के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्यक है तो उस पर अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने का बोझ क्यों डाला जाता है जबकि उसे हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाई कराते हुए अंग्रेजी भाषा या अन्य किसी अंतरराष्ट्रीय भाषा को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा सकता था। विद्यार्थियों को शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जानी चाहिए जबकि ऐसा बिलकुल नहीं हो रहा है और षड्यंत्र के तहत उन पर अंग्रेजी माध्यम जबरदस्ती थोपा जा रहा है जिससे विद्यार्थियों का आधा समय अंग्रेजी समझने में चला जाता है और उन्हें विषय को समझने में बहुत कम समय मिल पाता है।

*अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा अब केवल रटने वाली शिक्षा हो गई है। आज भी भारत देश के कई विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से प्रदान की जाती है और स्वतंत्रता के इतने वषोंर् के बाद भी सरकार देश की जनता के लिए उच्च शिक्षा हिन्दी भाषा एवं अन्य भारतीय भाषाओं में मुहैया नहीं करा पाई है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है।*

*भाषा पर हावी दासता के चिन्ह*
अंग्रेजी भाषा को चालाकी से रोजगार से जोड़ दिया गया है इसलिए अंग्रेजी का कद घटने के बजाए बढ़ता जा रहा है हमलोग कितने हिन्दी दिवस, हिन्दी पखवाड़े मनाकर भी हिन्दी भाषा को उचित स्थान नहीं दिलवा सकते हैं। यदि हिन्दी भाषा को रोजगार से जोड़ दिया जाए तो शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो इसे पढ़ना नहीं चाहेगा।

*सांस्कृतिक सम्बंधों का सेतु बनी हिन्दी*
हमारा मानना है कि जब देश की जनता ने चुनकर संसद में भेजा है तो देश के लिए बनाई जाने वाली नीतियां-योजनाएं में हिन्दी भाषा में बनाई जाएं और बाद में अंग्रेजी में अनुवाद करवाया जाए अथवा अंग्रेजी में अनुवाद कराने की कोई जरूरत नहीं है। शुरुआत में थोड़ी दिक्कत होगी बाद में सब ठीक हो जाएगा। मेरा मानना है कि यदि रक्षा मंत्रालय का सारा कामकाज हिन्दी भाषा में किया जाए तो सोने पर सुहागा होगा क्योंकि हमारे देश के अधिकारी एवं सैनिक हिन्दी भाषा को आसानी से समझ सकेंगे और गोपनीयता बनी रहेगी जबकि दूसरे देशों के अधिकारियों एवं सैनिकों के लिए हिन्दी भाषा एक कूट भाषा होगी। आजकल मीडिया द्वारा हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों के भरपूर प्रयोग का प्रचलन जोरों पर है जिससे हिन्दी का काफी नुकसान हो रहा है और जो व्यक्ति हिन्दी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करता है उसे योग्य माना जाता है जबकि दूसरी तरफ यदि कोई अंग्रेजी भाषा में हिन्दी के शब्दों को प्रयोग करता है तो उसे गंवार समझा जाता है ऐसा दोहरा मापदंड क्यों? यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहता हूं कि यदि अंग्रेजी ही विद्वता का मापदंड होता तो अमरीका, ब्रिटेन आदि के सभी नागरिक विद्वान होते और वहां अन्यान्य देशों के प्रतिभाशाली व्यक्तियों की मांग बिलकुल नहीं होती। यह सत्य है कि सारी सृजनात्मकता व्यक्ति की मातृभाषा में ही हो सकती है तो फिर हम सभी अंग्रेजी के पीछे क्यों पड़े हैं?

हिन्दी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था-

*निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान कै मिटै न हिय को शूल*

और अंत में, भाषा अपनी और अपना देश, यही है गौरव का संदेश। - आनंद कुमार सोनी
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक कुलसचिव (राजभाषा) हैं) 
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