Sunday, June 21, 2015

(1) प्रश्न :- अवतारवाद क्या है ? उत्तर :- जब जीवात्माएँ पुनर्जन्म के अनुसार शरीर परिवर्तन करती हैं...

(1) प्रश्न :- अवतारवाद क्या है ?
उत्तर :- जब जीवात्माएँ पुनर्जन्म के अनुसार शरीर परिवर्तन करती हैं तो यह उनका अवतार लेना कहा जाता है ।
(2) प्रश्न :- क्या ईश्वर अवतार लेता है ?
उत्तर :- नहीं ईश्वर कभी भी अवतार नहीं लेता ।
(3) प्रश्न :- ईश्वर का अवतार क्यों नहीं होता ?
उत्तर :- ईश्वर विराट और अनन्त है वह सीमित होकर एक छोटे से शरीर में नहीं आ सकता ।
(4) प्रश्न :- लेकिन ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है वह तो कुछ भी कर सकता है, फिर अवतार क्यों नहीं ले सकता ?
उत्तर :- सर्वशक्तिमान का अर्थ ये नहीं है कि वह कुछ भी कर जाना । ईश्वर वही करता है जो उसके स्वभाव में है । अपने स्वभाव के विरुद्ध वह कुछ नहीं करता और उसका स्वभाव अवतार लेने का नहीं है ।
(5) प्रश्न :- ईश्वर का स्वभाव अवतार लेने का क्यों नहीं है ?
उत्तर :- इसमें यह बातें सोचने की हैं कि कोई पदार्थ जब परिवर्तित होता है तो या तो वह अपनी पहली अवस्था से या तो बेहतर होगा या कमतर होगा । तो ऐसे में :-
(१) अगर ईश्वर अवतार लेकर ही सम्पूर्ण हुआ, तो क्या यह सृष्टि की रचना करने वाला वह ईश्वर अवतार लेने से पहले सम्पूर्ण नहीं था ?
(२) यदि वह ईश्वर अवतार लेने के बाद सम्पूर्णता से थोड़ा कम हुआ है तो फिर तो वह बिना अवतार लिए ही ठीक था । इससे ईश्वर का ही अपमान हुआ ।
(6) प्रश्न :- हम मानते हैं कि लोगों में आदर्श स्थापित करने के लिए ही ईश्वर मनुष्य रूप में अवतार लेता है ताकि वह लोगों को शिक्षा दे सके तो क्या ये बात गलत है ?
उत्तर :- वेदों में ऐसी कौन सी शिक्षा है जो ईश्वर ने पहले से नहीं दी ? जो उसे दुबारा शरीर लेकर संसार में आना पड़ा ? यदि ये कहो कि ईश्वर हमारे सामने ये आदर्श रखने आया कि एक मनुष्य कैसे वैदिक मर्यादाओं का पालन किया जाए ? तो फिर ये कोई बड़ी बात नहीं हुई । क्योंकि ईश्वर अपने ही बनाए नियमों को पालन करे तो यह बड़ी बात है या कि कोई मनुष्य उन नियमों का पालन करके आदर्श स्थापित करके दिखाए तब बड़ी बात है ?
उदहारण लें कि कोई बाहरवीं की श्रेणी का विद्यारथी , किसी दूसरी श्रेणी की पुस्तक का प्रश्न हल करे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है । परंतु यदि कोई आठवीं श्रेणी का विद्यार्थी यदि बाहरवीं की पुस्तक का प्रश्न हल करे तो बहुत बड़ी बात है ।
ठीक ऐसे ही वेदों की मर्यादाओं का पालन यदि कोई मनुष्य ही पालन करे तो वही सबके लिए आदर्श होगा न कि ईश्वर के मनुष्य शरीर में आने पर ।
(7) प्रश्न :- तो क्या अयोध्या पति श्रीराम और देवकीनन्दन श्रीकृष्ण जी ईश्वर का अवतार नहीं हैं ?
उत्तर :- नहीं ये मनुष्य ही थे और अपने वैदिक कर्तव्यों का पालन करने के कारण ये महामानव बने, ऋषि बुद्धि के हुए । पर वे कभी भी ईश्वर का अवतार नहीं थे ।
(8) प्रश्न :- श्रीकृष्ण जी ने गीता में कहा है “ यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानम् सुर्जाम्यहम् …… ” जिसमें वो कहते हैं जब जब धर्म की हानी होगी वो धर्म और साधुओं का उद्धार करने के लिए बारा बार अवतार लेंगे, तो आप इसे कैसे झुठला सकते हो ?
उत्तर :- प्रथम तो अगर आपकी संस्कृत अच्छी है तो ये बतायें कि इस पूरे श्लोक में कहीं भी अवतार शब्द कहाँ आया ? यदि नहीं तो फिर अवतार होना कैसे सिद्ध हुआ ?
और दूसरी बात इस श्लोक में भारत लिखा हुआ है । यदि ये मानें कि भारत में वो अवतार लेते रहेंगे तो क्या बाकी दुनिया अरब, ईराक, ईरान, फ्रांस, टर्की, जर्मनी, अमरीका आदि में धर्म की हानी नहीं होगी ?? तो ये तो साफ श्लोक का अर्थ करने वाले की मूर्खता है, एक ओर भारत को पुन्य भूमी बोलता है और दूसरी ओर बोलता है कि यहाँ पाप बढ़ता है जिस कारण ईश्वर को बार बार अवतार लेना पड़ता है । इससे यह भारत पुण्य भूमी की बजाए पाप भूमी सिद्ध हुआ जहाँ बार बार ईश्वर को अवतार लेना पड़ता है । पुण्य भूमी तो बाकी कि दुनिया को बोलना पड़ेगा जहाँ ईश्वर को अवतार नहीं लेना पड़ रहा ।
तीसरी बात ये है कि इसी श्लोक को आधार बना कर पाखंडी लोग अपने आप को ईश्वर या कृष्ण, विष्णु आदि का अवतार सिद्ध करते हुए दिखाई देते हैं । और लोगों से पैसे ऐंठते रहते हैं और मूर्ख लोग भेड़ चाल की भांती एक दूसरे के पीछे इन नये नये भगवानों को सिर पर चढ़ा लेते हैं ।
चौथी मज़े की बात ये है कि ये नये भगवान केवल कृष्ण के अवतार ही बन बैठते हैं और उनकी भांती रासलीला रचाने का ढोंग करके ( स्त्रीयों का मेला ) अपने आश्रमों में लगाते हैं । लेकिन अजीब बात तो ये है कि कोई पाखंडी राम या हनुमान जी का अवतार बनने की सोचता भी नहीं क्योंकि राम या हनुमान बन कर तो ब्रह्मचर्य की मर्यादा का पालन करना पड़ेगा और उस स्थिती में ये पंडे स्त्रीयों का आनन्द कैसे ले पाएँगे ?
(9) प्रश्न :- तो क्या भगवान विष्णु के जो दस अवतार कहे गए हैं, क्या वो झूठ है ?
उत्तर :- अगर आपके गणित को मानें तो सत्युग में पाप नहीं होता, तो त्रेता, द्वापर और कलियुग आते आते पाप बढ़ता जाता है । लेकिन आपके अवतार क्यों कम होते जाते हैं ?
सत्युग में मोहिनी, मत्सय, कुर्म, वराह अवतार हुए हैं ।
त्रेतायुग में वामन, राम, परशुराम ।
द्वापरयुग में कृष्ण, कपिल, वशिष्ट ।
कलियुग में बुद्ध और कल्कि ।
होना तो यह चाहिए था कि ये अवतार कलियुग आते आते यह अवतार बढ़ने चाहिए थे । पर ये यहाँ पौराणिकों की उल्टी गंगा कैसे बह रही है भाई ?? ये तो सरासर ही मूर्खता है ।
(10) प्रश्न :- पर अवतारवाद का तो स्पष्ट वर्णन वेदों में है, तो आप क्यों नहीं मानते ?
उत्तर :- वेदों में ईश्वर के कई नाम हैं, जिनके आधार पर ही संसार में लोगों के नाम रखे जाते रहे हैं , नाकि वेदों में अवतार का वर्णन है । जैसे किसी का नाम विष्णु है तो ये विष्णु नाम वेदों से लिया गया है, जो निराकार परमेश्वर सर्व सुंदर विशेषणों से युक्त है उसे ही विष्णु कहा जाता है । इसका अर्थ ये नहीं कि वो विष्णु नामक व्यक्ति वेदों का विष्णु भगवान है, किसी का नाम ओम् प्रकाश है तो ये नहीं कि ये व्यक्ति वेदों में कहे गए ओम् का अवतार है । अपनी बुद्धि को खोलिए ।
(11) प्रश्न :- आपके तर्क ठीक हो सकते हैं, परंतु हम यह मानते हैं कि ईश्वर हमारी रक्षा करने के लिए शरीर रूप में आता है, यदि हम उसे प्रेम से भक्ति भाव से पुकारें तो ?
उत्तर :- यदि ऐसी बात है तो भारत पिछले १००० वर्ष तक विदेषीयों का गुलाम रहा है जिसमें असंख्य अत्याचार प्रजा पर हुए हैं । जैसे मुसलमान शासक के काल में :-
गर्भवती स्त्रीयों के पेट फाड़ डाले जाते थे ।
मुसलमान सैनिक सुंदर लड़कियों को उठा ले जाते थे और गज़नी के बाज़ार में बेच देते थे ।
हिन्दुओं के मूँह पर थूक दिया जाता था ।
पाकिस्तान बनते समय हिन्दू सिक्खों के बच्चों को पका पका कर खाया गया, उनकी स्त्रीयों से सामूहिक बलात्कार हुए उनके स्तन काटे गए ।
तो ऐसे असंख्य अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए ईश्वर ने अवतार क्यों नहीं लिया ? कहाँ थे आपके चतुर्भुज विष्णु ? तो जब विदेशी आपके बहु बेटियों, माओं बहनों की और आपके देश, आपकी संस्कृति की अस्मत लूटते रहे तब आप राम राम, कृष्ण कृष्ण की तोता रट लगाते रहे और ये आशा करते रहे कि कोई कल्कि कोई कृष्ण आपकी रक्षा के लिए आयेगा । ये आपकी नपुंसकता नहीं तो क्या है ?
(12) प्रश्न :- अवतारवाद के मानने से क्या हानी है ?
उत्तर :- अवतारवाद के मानने से :-
(१) पुरूषार्थ छोड़ मनुष्य भाग्यवादी हो जाता है । वो सोचता है कि मेरी रक्षा आकर कोई अवतार ही करेगा ।
(२) समाज अनेकों ईश्वरों में बंट जाता है जिससे की राष्ट्र कमज़ोर हो जाता है ।
(३) अनेकों पाखंड चलने लगते हैं कई मनुष्य भगवान के अवतार बनकर जनता को ठगते हैं और उनका शोषण करते हैं । और लोगों को अवतार के भरोसे बैठ कर नपुंसक बनाते रहते हैं ।
(४) निर्बल हुए धर्म समाज पर अनेकों विदेशी ईसाई और मुसलमान मत परिवर्तन का गंदा खेल खेलते हैं ।
(५) अनेकों मत होने से देश टूटने लगता है ।
(13) प्रश्न:- ईश्वर अवतार लेकर धरती पर दुष्टों का विनाश करने आते हैं।
उ. ईश्वर सर्वव्यापक है वा एकदेशी? -उत्तर होगा सर्वव्यापक। अब आया-जाया तो तब जाता है जब कोई एकदेशी हो। उदाहरण के लिए मैं एकदेशी हूं। और मुझे ब्राज़ील देखना है तो मुझे वहाँ जाकर ही देखना होगा। लेकिन यदि मैं सर्वव्यापक होता तो मुझे कहीं जाने की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि आया-जाया तो वहां जाता है जहां हम हों न। ईश्वर सब जगह है तो उसे आने-जाने की क्या ज़रूरत? रही बात दुष्टों के संहार की बात। ईश्वर सबके अंदर है। अब ईश्वर को यदि दुष्टों को मारना है तो वो उन दुष्टों की दिल की धड़कने, सांस आदि रोक कर भी मार सकता है। अवतार की क्या ज़रूरत ??


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