♦🚩🔸 *अथ द्वितियोऽध्यायः* 🔸🚩♦
🐚 सुप्रभातम् ! सुदिनमस्तु ! शुभमस्तु ! 🐚
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🚩आचार्य चाणक्य कहते हैं🚩
🔸द्वितीयोऽध्यायः🔸
अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलुब्धता ।
अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः॥१॥
*🔸शब्दार्थ* :— *अनृतम्*= असत्य भाषण *साहसम्*= बिना सोचे-विचारे किसी काम में झटपट लग जाना *माया*= छल, कपट करना, धोखा देना *मूर्खत्वम्*= मूर्खता *अतिलुब्धता*= अत्यन्त लोलुपता, लोभी होना *अशौचत्वम्*= अपवित्रता *निर्दयत्वम्*= निर्दयता ये *स्त्रीनाम्*= स्त्रियों के *स्वभावजाः*= स्वाभाविक, स्वभाव से उत्पन्न होने वाले *दोषाः*= दोष हैं।
*🔸भावार्थ* :— आचार्य चाणक्य के अनुसार, स्वाभाविक गुण-दोष प्रत्येक प्राणी की व्यक्तिगत उपलब्धि होती है। स्वाभाविक गुण-दोष वे होते हैं, जो प्राणी के अन्दर जन्म के साथ प्रकट होते हैं; इन्हें कहीं भी बाहर से ग्रहण नहीं करना पड़ता। इसी संदर्भ में उन्होंने असत्य संभाषण, निडरता, छल-कपटता, मूर्खता, लालच, अपवित्रता और निर्दयता को स्त्रियों के स्वाभाविक दोषों में सम्मिलित किया है। लेकिन साथ ही वे यह भी कहते हैं कि प्रत्येक स्त्री में उपर्युक्त दोषों का होना आवश्यक नहीं है।
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