*सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास*
भाग १५
*_अब विद्यार्थियों के लक्षण— _*
*आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च। *
*स्तब्धता चाभिमानित्वं तथाऽत्यागित्वमेव च। *
*एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः ॥1॥ *
*सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्। *
*सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्॥2॥ *
—ये भी विदुरप्रजागर के श्लोक हैं।
(आलस्य) शरीर और बुद्धि में जड़ता, नशा, मोह=किसी वस्तु में फंसावट, चपलता और इधर-उधर की व्यर्थ कथा करना सुनना, पढ़ते पढ़ाते रुक जाना, अभिमानी, अत्यागी होना ये सात दोष विद्यार्थियों में होते हैं॥1॥
जो ऐसे होते हैं उन को विद्या कभी नहीं आती। सुख भोगने की इच्छा करने वाले को विद्या कहां? और विद्या पढ़ने वाले को सुख कहां? क्योंकि विषयसुखार्थी विद्या को और विद्यार्थी विषयसुख को छोड़ दे॥2॥
ऐसे किये विना विद्या कभी नहीं हो सकती। और ऐसे को विद्या होती है—
*सत्ये रतानां सततं दान्तानामूर्ध्वरेतसाम्। *
*ब्रह्मचर्यं दहेद् राजन् सर्वपापान्युपासितम्॥1॥ *
जो सदा सत्याचार में प्रवृत्त, जितेन्द्रिय और जिन का वीर्य अधःस्खलित कभी न हो उन्हीं का ब्रह्मचर्य सच्चा और वे ही विद्वान् होते हैं॥1॥
इसलिये शुभ लक्षणयुक्त अध्यापक और विद्यार्थियों को होना चाहिये।
*अध्यापक लोग ऐसा यत्न किया करें जिस से विद्यार्थी लोग सत्यवादी, सत्यमानी, सत्यकारी सभ्यता, जितेन्द्रिय, सुशीलतादि शुभगुणयुक्त शरीर और आत्मा का पूर्ण बल बढ़ा के समग्र वेदादि शास्त्रों में विद्वान् हों।*
सदा उन की कुचेष्टा छुड़ाने में और विद्या पढ़ाने में चेष्टा किया करें और विद्यार्थी लोग सदा जितेन्द्रिय, शान्त, पढ़ानेहारों में प्रेम, विचारशील, परिश्रमी होकर ऐसा पुरुषार्थ करें जिस से पूर्ण विद्या, पूर्ण आयु, परिपूर्ण धर्म और पुरुषार्थ करना आ जाय इत्यादि *ब्राह्मण* वर्णों के काम हैं।
क्षत्रियों का कर्म राजधर्म में कहेंगे।
*जो वैश्य हों वे ब्रह्मचर्यादि से वेदादि विद्या पढ़ विवाह करने नाना देशों की भाषा, नाना प्रकार के व्यापार की रीति, उन के भाव जानना, बेचना, खरीदना द्वीपद्वीपान्तर में जाना आना, लाभार्थ काम को आरम्भ करना, पशुपालन और खेती की उन्नति चतुराई से करनी करानी, धन को बढ़ाना, विद्या और धर्म की उन्नति में व्यय करना, सत्यवादी निष्कपटी होकर सत्यता से सब व्यापार करना, सब वस्तुओं की रक्षा ऐसी करनी जिस से कोई नष्ट न होने पावे। *
शूद्र सब सेवाओं में चतुर, पाकविद्या में निपुण, अतिप्रेम से द्विजों की सेवा और उन्हीं से अपनी उपजीविका करे और द्विज लोग इसके खान, पान, वस्त्र, स्थान, विवाहादि में जो कुछ व्यय हो सब कुछ देवें अथवा मासिक कर देवें।
चारों वर्ण परस्पर प्रीति, उपकार, सज्जनता, सुख, दुःख, हानि, लाभ में ऐकमत्य रहकर राज्य और प्रजा की उन्नति में तन, मन, धन का व्यय करते रहें। स्त्री और पुरुष का वियोग कभी न होना चाहिए। क्योंकि—
*पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम्। *
*स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसन्दूषणानि षट्॥मनु॰॥ *
_मद्य, भांग आदि मादक द्रव्यों का पीना, दुष्ट पुरुषों का सङ्ग, पतिवियोग, अकेली जहां तहां व्यर्थ पाखण्डी आदि के दर्शन मिस से फिरती रहना और पराये घर में जाके शयन करना वा वास ये छः स्त्री को दूषित करने वाले दुर्गुण हैं और ये पुरुषों के भी हैं।_
पति और स्त्री का वियोग दो प्रकार का होता है—
कहीं कार्यार्थ देशान्तर में जाना और दूसरा मृत्यु से वियोग होना इन में से प्रथम का उपाय यही है कि दूर देश में यात्रार्थ जावे तो स्त्री को भी साथ रक्खे। इस का प्रयोजन यह है कि बहुत समय तक वियोग न रहना चाहिये।
*क्रमश :*
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