1. नए कानून में निजी कंपनियों के लिए सरकार भूमि का अधिग्रहण करेगी ही नहीं.. उन्हें स्वयं किसानों से बात करके खुद के लिए भूमि की व्यवस्था करनी होगी. सरकार सिर्फ उन्ही मामलों में भूमि अधिग्रहण करेगी जिसमे भूमि का स्वामित्व सरकार के पास रहेगा.. वैसे भी ८०% किसानों से सहमत लेने में कम्पनियाँ दलालों की ही मदद लेतीं. इससे मूल किसान को तो कोई फ़ायदा नहीं होने वाला था, दलालों को ही फ़ायदा होने वाला था… पिछली सरकार ने हर स्तर पर दलालों के हितों का खयाल किसानों के हितों से ज्यादा रखा था…
2. खेतिहर मजदूरों को मुआवजा एक छलावा है. भूमि सम्बंधित दस्तावेजों में उनका नाम शायद ही कोई भूमि मालिक लिखवाता है. सामाजिक प्रभाव की बात सिर्फ दलालों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए कारगर होनी थी. जब भी कोई योजना बनती है तो उसमे उस योजना के सामाजिक प्रभाव का आकलन पहले ही कर लिया जाता है, तभी योजना स्वीकार होती है.
3. अक्सर सरकारी योजनाओं में 5 साल से ज्यादा का समय लग जाता है. इसलिए इस प्रावधान को हटाना ज़रूरी था. हाँ जिस योजना के लिए भूमि ली गयी है, उसके अलावा किसी को लाभ पहुँचाने के लिए भूमि का उपयोग हो रहा हो तो कोर्ट का रास्ता खुला है.
4. भविष्य में औद्योगिक क्षेत्र के विस्तार के लिए ऐसा करना दूरदर्शिता है. अगर सूचित योजना या उपयोग के अतिरिक्त भूमि का उपयोग होता है तो जनहित याचिका या अन्य माध्यम से कोर्ट से उसके विरुद्ध आदेश कभी भी लिया जा सकता है. आशा है किसान हितों के बात करने वाले इतना तो कर ही सकते हैं..
5. कानून में चार गुना मुआवज़े का नहीं चार गुना तक मुआवाज़े का प्रावधान है… पहले भी यही था.. राज्य सरकारों को यह अधिकार है कि कितने गुना तक मुआवज़े को वे तय करते हैं. मेरा मत है कि इसमें स्पष्टता लाने की ज़रुरत है और निश्चित तौर पर कम से कम कितने गुना मुआवजा मिलेगा इसे तय कर देना चाहिए…
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