[4/5, 4:46 PM] अष्टाँगयोगनिष्ठ विक्रांत: ॐ
पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी द्वारा अद्वेत मत खंडन भाग ३ गतांक से आगे।
सुधी जन निष्पक्ष दृष्टि से पढ़ें।
भाषा लिपि का जो दोष है वो मेरा है पंडित जी का नही। ॐ।
श्री षंकराचार्य जी लिखते हैंः-एवं प्राप्ते ब्रूमः संकल्पादेव तु केवलात् तु केवलात् पित्रादि समुत्थानमिति।कुतः? तच्छु ªतेः ‘संकल्पादेवास्य पितरः समुत्तिश्ठन्ति“।(छा॰ 8।2।1) (4।4।8, पृ॰ 507)अर्थात् मुक्त जीवों के पितर संकल्प से ही उठ बैठते हैं। यदि मुक्ति मे भी जीव ब्रह्म नहीं हो जाता तो भेद स्पश्टतया सिद्ध है और श्री षंकर जी की कोई युक्ति इसका खण्डन नहीं कर सकती। चतुः सूत्री में वृहदारण्यक का जो उदाहरण दिया गया है उससे भी षरीर का मिथ्यात्व नहीं होता:-”तद् यथाऽहिनिल्र्वयनी वल्मीके मृताप्रत्यस्ता षयीतैवमेवेदं षरीरं षेते।“ (बृह॰ 4।4।7, पृश्ठ 23)जैसे बांबी में साँप की केंचुली निर्जीव और तिरस्कृत पड़ी रहती हैवैसे ही मुक्त आत्मा का षरीर पड़ारहता है। इस उद्धरण से षरीर का आत्मा से इतर होना तो सिद्ध है परन्तु मिथ्या होना नहीं।(31) अब प्रष्न करने वाला कहताहै कि उपनिशद् कहती है कि आत्मा श्रोतव्य है, मन्तव्य है और निदिध्यासितव्य है। इससे सिद्ध होता है कि पहले सुनो, फिर मनन औरनिदिध्यासितव्य है। इससे तो ब्रह्म के साथ विधिवाक्य की संगतिमिलती है।इस स्थापना का निशेध तो हो नहीं सकता, ठीक ही है। ब्रह्म के विशय में उपनिशद् कहती है सुनों, फिर विचार और ध्यान करो। परन्तु षंकराचार्य जी इस कथन को निजषैली के अनुसार वर्णन करके कुछ का कुछ कर देते हैं। वे बीच में ‘विधिषेशत्व’ डाल कर पूर्वपक्ष केइस प्रकार वर्णन करते हैंः”विधिषैशत्वं ब्रह्मणो न स्वरूप पर्यवसायित्वमिति।“ (पृश्ठ 23)”इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व तो सिद्ध होता है परन्तु ‘स्वरूपपर्यवसायित्व’ न सिद्ध हो सकेगा अर्थात् ब्रह्म विधि के आश्रित न होगा। स्वरूप से सिद्ध रहेगा। पूर्वपक्षी के मुख में एक ऐसा षब्द डाल देना जिससे उसका पक्ष हास्यजनक प्रतीत हो और फिर बलपूर्वक उसका निशेध करना तिनके का षत्रु बना कर फिर वीरता से उसका बध करने के समान है। कोई पूर्वमीमांसा का पक्षपाती यह न कहेगा कि इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व है स्वरूपपर्यावसायित्व नहीं, सुनने वाला, मनन करने वाला और ध्यान करने वाला तो जीव है। जीव सुनेगा ब्रह्म के विशय में और उसी का मननया ध्यान करेगा। जीव द्वारा ‘मनव्य’ या ‘निदिध्यासितव्य’ होने के कारण ब्रह्म की स्वरूप सिद्धि में क्या बाधा हो सकती है। दुखती हुई आँख सूर्य को देखने का यत्न करे तो इससे सूर्य में तो कोई दोशनहीं आता। विधिषेशत्व का क्या अर्थ है? भामती में लिखा है:विधयो हि धर्मप्रमाणम्, ते च साध्यसाधनेतिकर्तव्यता भेदाधिश्ठाना धर्मोत्पादिनष्च तदधिश्ठाना न ब्रह्मात्मैक्ये सतिप्रभवन्ति, विरोधादित्यर्थः।”धर्म में विधियाँ प्रमाण हैं। क्योंकि उनमें साध्य, साधन, इति कर्तव्यता भेद होते हैं। जब ब्रह्म और जीव एक हैं तो उसमें विधि का क्या प्रभाव? वहाँ तो विरोध है, फिर कहा है:अद्वैते हि विशयविशयिभावो नास्ति।न च कर्तृत्वं, कार्याभावात्। न चकरणत्वम् अतएव।अर्थात् अद्वैत में विशय-विशय तो हैं नहीं न कार्य है। अतः कर्तृव्य है न करणत्व।यदि ऐसा है तो ‘जन्माद्यस्य यतः’ अर्थात् ईष्वर जगत् का कत्र्ता हैइसका क्या अर्थ होगा?वेदान्त कल्पतरू में इसी सम्बन्ध में कहा हैः-त्र्यंषा भावना हि धर्मः। तद्विशयविधयः साध्यादिभेदाघिश्ठानास्तद्विशयाः।अपि चैतेऽनुश्ठेयं धममुपदिषन्तस्तदुत्पादिनः पुरूशेणतमनुश्ठापयन्तीति साध्यधर्माधिश्ठानास्तत्प्रमाणानीति यावत्। अतो नित्यसिद्धद्वैतब्रह्मावगमे तेशांविरोध इति।अर्थात् विधि का सम्बन्ध धर्म से है ब्रह्म से नहीं। धर्म की भावनामें तीन अंष होते हैं साध्य, साधन, इति कर्तव्यता। नित्यसिद्ध अद्वैज ब्रह्म में साध्य, साधन काप्रष्न ही नहीं उठतरा। ब्रह्म तो सिद्ध है, नित्य सिद्ध है, कभी साध्य की कोटि में नहीं आता। अतः षास्त्र में विधि वाक्यों की गुंजायष नहीं।इस प्रकार बाल की खाल निकाल कर जैमिनि की ‘मीमांसा’ और कर्म का विरोध किया गया है। यह ठीक है कि ब्रह्मज्ञान के पष्चात् जीव को कुछ षेश नहीं रहता। परन्तु अल्प जीव को ब्रह्म-ज्ञानी होने और मुक्ति प्राप्त करनेक तक तो कर्म का आश्रय लेना ही पड़ेगा। अतः धर्मानुश्ठान और ज्ञान में सहयोग तो है परन्तु विरोध नहीं। श्री षंकराचार्य जी ने वेदान्त सूत्रोंसे पूर्व-मीमांसा की अनुपयोगिता दिखाई है यह ठीक नहीं हैं।षंकर स्वामी ने वेदान्त 3, 2, 21 के भाश्य में बिना प्रसंग केही इस प्रष्न को फिर छोड़ा है और बड़ी लम्बी चैड़ी व्याख्या करके बताया हैः-——————————————————वेदान्त 3।3।33 सूत्र तथा उसके भाश्य से स्पश्ट है कि वादरायण जैमिनि के विरूद्ध न थे। उसमें पूर्वमीमां न थे। उसमें पूर्वमीमां 3।3।8 की ओर संकेतहै।——————————————————‘तस्मादवगतिनिश्ठान्येव ब्रह्म वाक्यानि न नियोगनिश्ठानि।’ (पृश्ठ 363)अर्थात् ब्रह्मवाक्य ज्ञान-निश्ठ नहीं।”द्रश्टव्यादिषब्दा अपि परविद्याधिकारपठितास्तत्वाभिमुखी करण प्रधाना न तत्वावबोधविधि प्रधाना भवन्ति।’ (पृश्ठ 362)अर्थात् यहाँ कहा कि आत्मा को देखना चाहिये इत्यादि। वहाँ तत्व के ज्ञान की विधि नहीं बताई गई तत्व की ओर ध्यान दिला दिया गया है।यह दलील भी विचित्र ही है। ‘विधि’से न जाने क्यों चिढ़ है? ”ध्यानदिलाया गया है। ज्ञान प्राप्ति कीविधि नहीं बताई गई।“ यह बात क्या हुई?(32) अब लिखा हैः-तस्मान्न प्रतिपत्तिविधि विशयतया षास्त्र प्रमाणकत्वं ब्रह्मणः संभवतीत्यतः स्वतन्त्रमेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वतीत्सतः स्वतन्त्रेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वयादिति सिद्धम्। एवं च सति ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ इति तद्विशयः पृथक षास्त्ररम्भः उपपद्यते। प्रतिपत्तिविधिपरत्वे हि ‘अथातो धर्मजिज्ञासे त्येवारब्धत्वात्र पृथक् षास्त्रमारभ्येत। आरभ्यमाणं चैवमारभ्येत-‘अथातः परिषिश्ट धर्मजिज्ञासेति’ ‘अथातः क्रत्वर्थपुरूशार्थयोर्जिज्ञसा“ (जै॰ 4।1।1) इतिवत्। (पृश्ठ 23)यह तो ठीक है कि भिन्न-भिन्न विशयों का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु वे विशय एक दूसरे के विरोधी नहीं होते। और न बादरायण का अभिप्राय जैमिनि-विरोध है। ‘ब्रह्म-जिज्ञासा’ लिखने से ‘धर्म-जिज्ञासा’ का विरोध नहीं, वस्तुतः ब्रह्म जिज्ञासा भी क्रत्वर्थ और पुरूशार्थ की जिज्ञासा ही है। क्योंकि जब अल्प जीव में ब्रह्म के जानने की इच्छाहोती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्म के जाननेकी इच्छा होती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक हैं। ब्रह्म-ज्ञान छू मन्तरसे तो हो नहीं जाता। श्री षंकराचार्य जी ने स्वयं ‘अतः’ षब्द की व्याख्या करते हुये ब्रह्मजिज्ञासा के लिये चार साधनों को आवष्यक बताया है (1) नित्यानित्य साधन विवेकः (2) इहामुत्रार्थ भोग विरागः (3) षमदमादि साधन संपत् (4) मुमुक्षत्व। (पृश्ठ 5)हम पूछते है कि ये चारों चीजें ब्रह्म-ज्ञान के लिये आवष्यक हैं या ब्रह्म-जिज्ञासा के लिये। यदि नित्य अनित्य का विवेक हो गया तो षेश क्या रहा? यदि इस लोक और परलोक के भोगों से वैराग्य हो गयातो आगे क्या रह गया? षमदम आदि साधन क्या ब्रह्म जिज्ञासा, उपासना आदि के बिना ही प्राप्त होजायँगे? और क्या इनकी प्राप्ति में धर्मानुश्ठान यज्ञ आदि का कोईउपयोग नहीं? यदि इन साधन चतुश्टयके पष्चात् ही ब्रह्मजिज्ञासा का अधिकार है तो वेदान्त के चार अध्यायों का क्या उपयोग होगा जिनमें क्रमानुसार समन्वय, विरोधपरिहार, साधन और फल की मीमांसा बताई गई है?छान्दोग्य उपनिशद् में जो यह वाक्य है ”तद्यथेह कर्मचितोलोकः क्षीयते एवमेवामुत्रपुण्यचितो लोकः क्षीयते“ (छा॰, 8।16) इत्यादि इस वाक्य को षांकर मत मेंबहुत बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया है और इसके आधार पर कर्मानुश्ठान यज्ञ, इश्टियों, कर्मकाण्ड, उपासना आदि का बलपूर्वक खण्डन किया गया है। परन्तु है यह उपनिशद्-वाक्य का दुरूपयोग। उपनिशद् का यह वाक्य तो केवल इतनाबताया है कि कर्म का फल नित्य या अनन्त नहीं है कभी न कभी क्षीण होगा। क्योंकि कर्म भी तो सान्त है। इसका अनन्त फल कैसे, परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म कीअवहेलना की जाय। हम जीवन में जितने कर्म करते हैं वे सब सान्त हैं और उनके फल भी सान्त है। परन्तु इन सान्त कर्मो को छोड़ भीतो नहीं सकते। उन सब सान्त कर्माें का उपयोग है। अपनी जीवन यात्रा में मैं जो पग उठाता हूँ वह सान्त अवष्य है परन्तु सान्त होते हुए भी वह मुझे अपने निर्दिश्ट स्थान के निकटत्तर पहुँचाता है। यही इसका उपयोग है।बादरायण के सूत्रों का षांकर-भाश्य अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है।षंकर स्वामी की विवरण षक्ति गजब की है। और उनकी मौलिकता भी उनके विरोध में लिखे गये उन सब पर उनकीछाप भीर वे उन्हीं का अनुकरण करतेहैं। परन्तु षांकर-चतुःसूत्री मेंवेदान्ताध्ययन के आरम्भ में ही दोबड़ी हानिकारक मनोवृत्तियां उत्पन्न कर दी जाती है एक तो जगत्की वास्तविकता के विरोध में और दूसरी कर्म के विरोध में। ये दोनों मनोवृत्तियां बादरायण के सूत्रों की स्पिरिट के विरूद्ध हैं। चतुःसूत्री इन्हीं दो बातों से भरी है। यद्यपि वेदान्त के बहुत से सूत्रों की षंकर स्वामी ने इन मनोवृत्तियों क विरूद्ध व्याख्या की हैं क्यांेकि सब स्थानों पर इस विचित्र प्रतिपत्तिको निबाहना कठिन था। और कहीं व्यावहारिक और कहीं प्रातिभासिक व्याख्या करके किसी न किसी प्रकारछुटकारा पाने का यत्न किया है। तथापि जो विशैलास वातावरण उत्पन्नकर दिया गया है उसने समस्त आर्य जीवन पर बुरा प्रभाव डाला है।हम यह मानते हैं कि बौद्धों के वेद-विरोधी-वातावरण को हटा कर आचार्य षंकर जी ने वेदों की स्थापना की। परन्तु उपनिशदों को वेद से हटा कर एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया जिसमें वेदाध्ययनसर्वथा छूट गया। और संसार कार्य क्षेत्र को छोड़ कर लोग एक मनों-निर्मित कल्पित जगत् की तलाषमें संलग्न रहे जिसकी काल्पनिक सत्ता कितनी ही रोचक क्यों न हो, वह वास्तविकता से बहुत दूर है।षांकर भाश्य में कई आपत्तिजनक प्रतिपत्तयां हैं परन्तु उनका वर्णन चतुःसूत्री में नही है अतः उनका वर्णन मिलेगा।Share this:Like
[4/5, 4:46 PM] अष्टाँगयोगनिष्ठ विक्रांत: पूर्व के सारे भाग मेरी timeline पर हैं। fb पर vikrantarya52@Gmail.com
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